यदि आपको वृंदावन आने को मिला है, वृंदावन वास मिला है, या वृंदावन की आराधना करने का सौभाग्य मिला है, तो इन बातों का ध्यान रखें।
ब्रजवासियों के प्रति दोष-दर्शन न करें

अगर आप वृंदावन आएं और आपको लगे कि किसी ने मंदिर घुमाने के लिए या आपको कोई सामान बेचकर आपसे अधिक पैसे ले लिए हैं, तो यह जान लें कि वे रोज़ बड़ी श्रद्धा से पचासों संतों को मधुकरी (रोटी) अर्पित करते हैं। उनके यहाँ ऐसे संत रोटी लेने आते हैं, जिनके पास आप स्वयं नहीं पहुँच सकते। अगर किसी ने आपसे सौ-पचास रुपये अधिक भी ले लिए, तो इसमें दोष देखने की आवश्यकता नहीं है।
पंडित रामकृष्ण बाबा जी को जब कोई कुछ समर्पित करना चाहता, तो उनके निकट जन कहते थे कि बाबा सीधे स्वीकार नहीं करेंगे। अगर कुछ देना है तो ब्रजवासियों को दे दीजिए, जब वे मधुकरी मांगेंगे, तो उन्हें वहीं से प्राप्त हो जाएगा। उनकी बाहरी गतिविधियों को न देखकर उनके भीतर की उदारता को देखें। वे कितने संत-सेवी हैं, बड़े-बड़े परमहंस उनके घर में भोजन पाते हैं। उनकी कमाई इतनी ही है कि वे अपने परिवार और संतों की सेवा कर सकें। वह मंदिर के बाहर खड़े हो जाते हैं और पूछते हैं, “सेवाकुंज चलेंगे? निधिवन चलेंगे?” सोचिए, भगवान के दर्शन करा कर अगर उन्होंने आपसे 100-200 रुपये ले लिए, तो यह बेईमानी नहीं है। असली बेईमानी तो लाखों का धोखा करने में है। क्या आप उन्हें बेईमान कहेंगे? हज़ारों लोगों को दर्शन कराने से जो कुछ 200-500 रुपये उन्हें मिलते हैं, उससे कितने संतों का भरण-पोषण होता है, इसका आपको अंदाज़ा नहीं है। इन ब्रजवासियों के घरों में हज़ारों संत अपने उदर का पोषण करके वृंदावन वास कर रहे हैं। अगर वे आपसे 100-200 रुपये लेते हैं, तो वह पैसे तुरंत संतों की सेवा में लग जाते हैं।
ब्रजवासियों के साथ कैसे व्यवहार करें?

ब्रज भूमि के पानी का स्वभाव ऐसा है कि यहाँ की भाषा में आपको कठोरता महसूस हो सकती है। लेकिन वेद की स्तुति से श्री हरि जितने प्रसन्न नहीं होते, उससे कहीं अधिक वे ब्रजवासियों की इस कठोर-सी लगने वाली भाषा से प्रसन्न हो जाते हैं। ब्रजवासी लोग भगवान के पार्षद हैं। यदि कभी वे आपको गालियाँ दें तो उसे आशीर्वाद समझना; कभी नाराज़ होकर उन्हें पलटकर जवाब मत देना। आपकी गाली गाली होगी, पर ब्रजवासी की गाली गाली नहीं होती। हरिराम व्यास जी ने कहा है कि ब्रजवासी रसिकों की गाली, बाहरी लोगों की स्तुति से भी अधिक मंगलदायक है। यह आपके पापों का नाश करेगी और भगवद् प्राप्ति में सहायक होगी।
यदि आप वृंदावन वास कर रहे हैं और यहाँ का कोई ब्रजवासी आपको पीड़ा दे, तो उसे मन से दोष न देना। उस पीड़ा को सह लेना, क्योंकि इससे प्रिया-प्रियतम प्रसन्न होंगे। क्यों? क्योंकि ये प्रिया-प्रियतम के धाम के वासी हैं। अगर आप किसी बालक के झुककर पैर छूएं, और वह आपके माथे पर हाथ रखकर कहे, “जाओ बाबा, लाडली जी तुझ पर प्रसन्न रहें,” तो समझिए कि यह किसी ब्रह्म ऋषि के आशीर्वाद से भी बड़ा है। जहाँ दस-पाँच बालक-बालिका खेल रहे होंगे, हमारे श्री राधा कृष्ण भी वहाँ अवश्य खेल रहे होंगे। जैसे गुलाब कांटों में खिलता है, वैसे ही इनका आशीर्वाद उनकी भाषा में है, बस उनकी भाषा थोड़ी कड़वी हो सकती है। ये परमहंसों के भी परमहंस हैं। ब्रजवासियों की कृपा और उनकी मधुकरी, साक्षात श्रीकृष्ण की प्राप्ति का सिद्ध उपाय है।
इन तीन बातों का पालन करने से होगा मंगल

पूज्य श्री चंद्रशेखर बाबा जी ने 25 वर्ष पहले तीन बातें कही थीं। पहली बात – ब्रजवासी पर कभी दोष-दर्शन न करना। इसके लिए इतना ही घुलो-मिलो, जितने से तुम्हारी श्रद्धा बनी रहे। यदि अधिक घुलोगे-मिलोगे, तो दोष-दर्शन होने की संभावना है। उनके इतने नज़दीक न हो जाओ कि आप हँसी-मजाक में बराबरी पर उतर आएं और उनमें दोष-दर्शन हो जाए।
दूसरी बात – ब्रज रज (माटी) से अनन्य प्रेम रखना। तीसरी बात – लताओं का सम्मान करना। जो व्यक्ति ब्रजवासी, ब्रज रज, और ब्रज की लताओं का सम्मान नहीं करता, उसका मंगल नहीं हो सकता। भजन करके रेगिस्तान में भगवद् प्राप्ति हो सकती है, पर वृंदावन में नहीं, यदि ब्रजवासियों का अपमान किया, ब्रज रज का सेवन नहीं किया, और यहाँ की लताओं और वृक्षों को काटा।
वृंदावन लेगा आपकी परीक्षा
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यहाँ सिद्धों को भी लाठी मारी गई है। एक बार पंडित रामकृष्ण बाबा के यहाँ कोई भगत आए और भंडारा हुआ, तो सभी को भरपूर भोजन कराया गया। शाम के समय, भांग छानकर आठ-दस ब्रजवासी आए और बोले, “हलवा लाओ, रबड़ी लाओ।” बाबा ने कहा कि वह तो सुबह ही समाप्त हो गया। वे बोले, “जब खिलाने का नंबर आया, तो कह रहे हो सब बंट गया।” फिर उन्होंने बाबा को एक लाठी मारी, जिससे बाबा की खोपड़ी से रक्त बहने लगा। उन्होंने बाबा की कुटिया में अंदर जाकर देखा कि वास्तव में कुछ नहीं बचा था। वे बोले, “अरे बाबा, तू सही बोल रहा था।” फिर उन ब्रजवासियों ने अपने कपड़े फाड़े और बाबा की पट्टी बांधी। बाबा ने कुछ नहीं कहा।
तो क्या इन ब्रजवासियों को अपराध लगेगा? ये तो श्रीकृष्ण के पार्षद हैं, जो यह देखने आते हैं कि भक्ति की मटकी कितनी पक्की है। हरिराम व्यास जी ने लिखा है कि ये हरि के पार्षद हैं, जो ठोक-बजाकर परखते हैं और अगर मटकी मजबूत निकले तो उसमें प्रभु का प्रेम रस भर देते हैं। ब्रजवासियों द्वारा दी हुई पीड़ा को सह जाओगे, तो नंद नंदन और वृषभानु नंदिनी आप पर अवश्य कृपा करेंगे।
वृंदावन में किसी भी जीव को पीड़ा न पहुँचाएँ

वृंदावन में किसी भी जीव को पीड़ा न पहुँचाई जाए—चाहे वह छिपकली हो, बिच्छू हो, या साँप। यहाँ हर जीव परमहंस है। यहाँ का कीड़ा-मकौड़ा भी कोई भजन करके आया हुआ महापुरुष है। किसी को यहाँ पीड़ा न दें। अपनी शक्ति के अनुसार इनकी सेवा कर दें। अगर आप एक मुट्ठी दाना ही डाल देते हैं तो यहाँ के कबूतर भी सनकादिक जैसे महात्मा हैं। यहाँ के पशु-पक्षी भगवद् स्वरूप हैं।
श्रीकृष्ण यहाँ के बंदरों को भी साथ ले जाते थे। उन्होंने इशारा किया, और पूरी बंदरों की टोली गोपियों के घर में घुसकर अंदर से माखन निकाल-निकालकर खाने लगी। ये बड़े चतुर हैं, श्रीकृष्ण के सखा हैं। एक धक्का देकर ये आपका चश्मा उतार सकते हैं, और जब तक आप उन्हें फ्रूटी (आम के जूस का पैकेट) न दें, वे उसे वापस नहीं करेंगे। वे किसी का अहित नहीं करते। जो लोग यहाँ अभिमान से आते हैं, ये बंदर उनका पर्स निकाल लेते हैं और ऊपर जाकर एक-एक रुपया फाड़ कर फेंकते हैं, मानो कह रहे हों कि ये बेकार का पैसा है।
यहाँ के बंदर भगवद् स्वरूप हैं। इन्हें उद्दंड न समझें—श्रीकृष्ण इनके साथ खेलते थे, ये बड़े काम के हैं। रामावतार में भी इन्होंने पूरी निष्ठा से श्री राम जी का साथ दिया था। लंका में जहाँ किसी का पहुँचना कठिन था, ये बिना सीढ़ी के पहुँच जाते थे। राक्षस सामने खड़ा हो, तो पीछे से उसे गिराकर उस पर कूद जाते और मार देते थे। वहाँ तीर-बाणों से ज्यादा इनका बल चला। इस पर ठाकुरजी ने वचन दिया कि कृष्णावतार में उन्हें माखन खिलाएंगे। वृंदावन के सभी जीव—पशु-पक्षी—सच्चे अर्थों में श्रीकृष्ण के पार्षद हैं। किसी को कष्ट न पहुँचाएँ। श्रीपाद प्रबोधानंद सरस्वती जी भी कहते हैं कि मुझे वृंदावन की नाली का कीड़ा बना दो। यहाँ के कीड़े भी श्रीपाद जैसे महापुरुष हैं, कोई साधारण नहीं।
लाभ-हानि और सुख-दुख में सम रहना

वृंदावन में वास करने वाले, या जो यहाँ आए हुए लोग हैं, उन्हें वृंदावन की उपासना में अपना चित्त लगाए रखना चाहिए। यदि लाभ हो तो ‘जय श्री राधे’ कहें, और यदि हानि भी हो जाए तो भी ‘जय श्री राधे’ कहें। ऐसा करने से बड़ा मंगल होगा। जैसे-जैसे हम भगवद् मार्ग में आगे बढ़ते हैं, वैसे-वैसे हमारे अशुभ समाप्त होते जाते हैं। जो कच्चे अशुभ होते हैं, वे तो आसानी से नष्ट हो जाते हैं, और जो पक्के प्रारब्ध बनकर आए होते हैं, वे थोड़ी कठिनाई या कष्ट देकर समाप्त होते हैं। हो सकता है कि आप बड़ी श्रद्धा से वृंदावन आए हों, और यहाँ आने पर आपके हाथ या पैर में चोट लग जाए, आप गिर जाएँ, या कोई अन्य हानि हो जाए। यह इस बात का संकेत है कि आपका बड़ा भारी अशुभ नष्ट हो रहा है। इसलिए लाभ हो या हानि, दोनों ही स्थिति में ‘जय श्री राधे’ कहें। मन में यह नहीं सोचना चाहिए कि धाम में आए थे और नुकसान हो गया—यह सोचने का दृष्टिकोण ठीक नहीं है। असल में, कोई बहुत बड़ा संकट इस प्रकार के छोटे कष्ट में ही समाप्त हो गया।
यदि आप वृंदावन में किसी कामना से आए हैं और वह पूरी होती है तो ‘जय श्री राधे’ कहें; अगर वह कामना पूरी नहीं होती, तो भी मानें कि भगवान ने कोई महामंगल विधान रचा है। दोष-दर्शन न करें।mयहाँ अगर कोई सम्मान दे, तो अच्छा है। लेकिन यदि अपमान भी करे, तो सहन कर लें। जो व्यक्ति मान-अपमान, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान समझकर श्री धाम वृंदावन में वास करता है, वह इतना महान बन जाता है कि बड़े-बड़े देवता भी उसे प्रणाम करते हैं।
यदि कोई हमें हजार बार गाली दे, तब भी हम वृंदावन नहीं छोड़ेंगे और सहन कर लेंगे। आप पूछ सकते हैं, “हम क्यों इतनी गालियाँ सहें?” यदि हम नहीं सहेंगे, तो हमें हजारों जन्म लेकर कष्ट भुगतने होंगे। हमारे बुरे कर्मों का इतना स्टॉक जमा है कि यदि कोई गाली देकर उसे कम कर दे, तो यह हमारे लिए वरदान जैसा है। इस सकारात्मक दृष्टिकोण से हमें बहुत आनंद मिलेगा। हमारे विचार सकारात्मक होने चाहिए, नकारात्मक नहीं। हम भगवान के धाम में भजन करते हैं, और यदि फिर भी हमें कष्ट मिलते हैं, तो यह मानना चाहिए कि हमारे पर्वत जैसे पाप नष्ट हो रहे हैं।
वृंदावन मत छोड़ना
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यदि वास या भोजन की अव्यवस्था हो, और लोग अनेक प्रकार से कष्ट दें, तो भी वृंदावन न छोड़ें, भगवद् मार्ग न छोड़ें। इसका परिणाम अवश्य ही सकारात्मक होगा। जब आप भजन मार्ग पर चलेंगे, तो काम-क्रोध जैसी प्रवृत्तियाँ और प्रबल हो सकती हैं, क्योंकि वे आपको पराजित करने का प्रयास करती हैं। इस दौरान मन विचलित हो सकता है, और सहने की शक्ति क्षीण लग सकती है। ऐसी स्थिति में, वृंदावन में रहकर, सभी कष्टों, गालियों, और अव्यवस्थाओं को सहते हुए जो व्यक्ति वास करता है, वह दिव्य वृंदावन को प्राप्त होता है।
किसी भी साधक या संप्रदाय को छोटा ना समझें और उनकी निंदा ना करें
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भगवद् मार्ग में चलने वाले उपासक को कभी तर्क-वितर्क या झगड़ा नहीं करना चाहिए। कोई भगवान के साकार रूप का उपासक है, कोई निराकार रूप का; कोई सखा भाव का है, तो कोई सखी भाव का; कोई गोपी भाव से उपासना करता है। सभी अलग-अलग भावों के उपासक हैं।
भगवद् मार्ग के उपासकों को चाहिए कि वे किसी से तर्क न करें, झगड़ा न करें, और विवाद न करें। श्री हरि तक पहुँचने के अनेक मार्ग हैं, और जिसने जिस मार्ग को अपनाया है, भगवान उसे उसी मार्ग पर आगे बढ़ा देते हैं। यदि हम अपने मार्ग में दृढ़ता से चलते रहें, तो हमें एक ही परमात्मा मिलता है। परमात्मा तो एक ही है; मार्ग हजारों हैं। इसलिए, जो जिस मार्ग का पथिक है, उसे अपना मार्ग नहीं छोड़ना चाहिए और दूसरे के मार्ग की निंदा भी नहीं करनी चाहिए। उत्तम भागवत वही है जो अपनी भावना का पोषण अपने गुरुदेव द्वारा दी गई उपासना से करता है और किसी की निंदा या अपमान नहीं करता। जो झगड़ा करते हैं कि परमात्मा ऐसा नहीं बल्कि ऐसा है, वे अंधे के समान हैं।
एक बार कई अंधे खड़े थे। उन्होंने पूछा कि “हाथी कैसा होता है?” किसी ने हाथी का कान पकड़ा और कहा, “हाथी सूप जैसा है।” किसी ने पूँछ पकड़ी और कहा, “हाथी रस्सी जैसा है।” किसी ने पैर पकड़ा और कहा, “हाथी खंभे जैसा है।” सब अपनी-अपनी तरह से वर्णन कर रहे थे। तभी एक आँखों वाला व्यक्ति आया और उसने कहा, “लड़ो मत। तुम में से कोई भी झूठा नहीं है। जो तुम देख रहे हो वह हाथी के अंगों का वर्णन है, संपूर्ण हाथी का नहीं। तुमने केवल हाथी का एक हिस्सा देखा है, संपूर्ण हाथी नहीं।”
इसी प्रकार, कोई निर्गुण की उपासना करता है, कोई सगुण की, और वे सब अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य हैं। जो संपूर्ण रूप से हरि को देखता है, वह तर्क-वितर्क नहीं करता और न ही लड़ाई-झगड़ा करता है। वह कभी यह नहीं कहता कि मेरी उपासना बड़ी है और तुम्हारी छोटी। हमें इस तरह से सोचना चाहिए: संपूर्ण उपासना मेरे प्रभु की ही है, लेकिन मेरे गुरुदेव ने जो उपासना मुझे दी है, वही मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ है, और मैं उसी में पूरी तत्परता से लगा रहूँगा।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज