आराध्य देव का आश्रय जब गुरु द्वारा मिलता है तो प्रभु से एक संबंध बन जाता है। अगर हमसे भजन नहीं भी हो रहा है तो भी हमारी भगवद् प्राप्ति निश्चित है अगर प्रभु से हमारा संबंध दृढ़ है। और संबंध अगर दृढ़ है तो हर स्वाँस में भजन होता है। भगवान संबंध का निर्वाह ज़रूर करते हैं। विट्ठलनाथ जी (गुसाईंजी) ठाकुर जी के प्रति वात्सल्य भाव रखते थे। वह ठाकुर जी को अपना पुत्र मानते थे। वह वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य जी के द्वितीय पुत्र थे।
ठाकुर जी की दूध पीने में आनाकानी
एक बार विट्ठलनाथ जी श्रीनाथ जी को दूध पिला रहे थे। ठाकुर जी ने एक घूँट दूध पीया और कटोरा हटा दिया। उन्होंने पूछा क्या हुआ, तो ठाकुर जी ने कहा आपने बहुत मिश्री डाल दी और दूध बहुत मीठा हो गया है, मुझसे ये पिया नहीं जा रहा। विट्ठलनाथ जी ने एक पिता के समान कहा, कोई बात नहीं, आज इसे ऐसे ही पी लो। ठाकुर जी ने मुँह बनाते हुए दूध पी लिया। अगली बार विट्ठलनाथ जी ने दूध में कम मिश्री मिलाई। ठाकुर जी ने एक घूँट पीया और कटोरा नीचे रख दिया। विट्ठलनाथ जी द्वारा पूछने पर ठाकुर जी ने कहा कि आज तो दूध फीका है। विट्ठलनाथ जी ने कहा फिर भी ऐसे ही पी लो। उन्होंने ठाकुर जी को बहुत दुलार किया और ठाकुर जी ने दूध पी लिया। अगली बार विट्ठलनाथ जी ने दूध और मिश्री अलग-अलग ठाकुर जी को दी और बोला आप ख़ुद ही जितनी मिश्री चाहिए उतनी मिला लीजिए। ठाकुर जी ने कहा आपने ऐसा क्यों किया? विट्ठलनाथ जी ने कहा मेरे द्वारा मिलाई हुई मिश्री आपको पसंद नहीं आती, आज ख़ुद ही मिला लो। ठाकुर जी ने कहा मैं तो आपका बालक हूँ, और बालक को मिलाना थोड़ी आता है, और दौड़कर विट्ठलनाथ जी की छाती से लिपट गए। ठाकुर जी ने पूछा आप मुझसे नाराज़ हो गए क्या? आप ही मुझे मिश्री घोल कर दूध पिलाओ, मैं तो आपका बालक हूँ ना। विट्ठलनाथ जी के आँसू निकलने लगे।
ठाकुर जी को पसंद नहीं आई शैया
एक दिन विट्ठलनाथ जी ने ठाकुर जी को सुलाने के लिए उनकी शैया और बिछौना तैयार किया। ठाकुर जी ने कहा ये शैया ठीक नहीं है। विट्ठलनाथ जी दूसरी शैया ले आये। फिर ठाकुर जी ने कहा ये बिछौना ठीक नहीं है। विट्ठलनाथ जी दूसरा बिछौना ले आये। ठाकुर जी ने कहा ये रंग मुझे पसंद नहीं है। विट्ठलनाथ जी दूसरे रंग का बिछौना ले आये। ठाकुर जी बार-बार अलग-अलग बहाने बनाकर सोने से मना करने लगे। गुसाईंजी पसीना-पसीना हो गये। उन्होंने कहा आपको कौनसी शैया और बिछौना पसन्द आएगा। ठाकुर जी ने कहा मैं आपकी गोद में सोऊँगा। गुसाईंजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया और फिर ठाकुर जी उनकी गोद में सोये।
श्रीनाथ जी बंदर से डर गए!
एक बार गिरिराज गोवर्धन जी से एक बंदर आया और उसने आकर ठाकुर जी को डरा दिया। श्रीनाथ जी रोने लगे। गुसाईंजी उस समय सेवा में थे। ठाकुर जी भागकर उनकी गोद में आ गए और बोला मुझे बंदर से डर लग रहा है। गुसाईंजी ने मन में सोचा, आपने बड़े-बड़े भयंकर राक्षसों को मारा है, राम अवतार में आपके साथ वानरों की सेना थी, और आप बंदर से डर गए? मेरे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। जब गुसाईंजी शयन करने गये तो ठाकुर जी ने सपने में उनसे कहा, देखो गुसाईंजी, एक ही भाव रखो। एक म्यान में दो तलवार नहीं होती। अगर आपने मुझे पुत्र माना है तो पुत्र मानो। अगर मुझे भगवान मानोगे तो मैं ऐसा ऐश्वर्य दिखाना शुरू कर दूँगा कि आप पार नहीं पा सकते। मैं तो आपका छोटा सा बालक हूँ, तो बंदर से डर रहा हूँ। गुसाईंजी जगे और उन्होंने ठाकुर जी को गले लगा लिया।
श्री राधा ने पहनी चूड़ियाँ
एक बार गुसाईंजी के यहाँ एक चूड़ियाँ पहनाने वाली आई। गुसाईंजी ने कहा मेरी सारी बहुओं को चूड़ियाँ पहना दो, और पैसे मुझसे ले लेना। गुसाईंजी के सात पुत्र और उनकी सात पुत्र-वधुएँ थीं। उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरी सात बहुओं को चूड़ी पहनाओ, उन्होंने कहा कि मेरी सारी बहुओं को चूड़ी पहना दो। उनकी सातों बहुओं ने चूड़ी पहनी और उसके बाद श्री राधा ने अपने हाथ आगे कर दिये। जैसे ही उस चूड़ी पहनाने वाली ने श्रीजी के हाथ देखे तो वो आनंद में मग्न होकर रोने लगी। वो सोचने लगी कि इतने सुंदर हाथों में पहनाने के लिए तो चूड़ियाँ ही नहीं हैं मेरे पास। श्रीजी ने इशारा किया कि चूड़ियाँ पहनाओ, और उसने जो-जो श्री राधा द्वारा इशारा हुआ उसके अनुसार ही उन्हें चूड़ियाँ पहनाईं। जब वह गुसाईंजी के पास पैसे लेने गई तो उन्होंने सात बहुओं के हिसाब से पैसे दिये। उसने कहा सात नहीं आठ बहुओं के पैसे दीजिए। उसने कहा मैंने आपकी आठ बहुओं को चूड़ियाँ पहनाई हैं और वो श्रीजी की सुंदरता का वर्णन करते-करते रोने लगी। गुसाईंजी को कुछ समझ नहीं आया लेकिन उन्होंने झंझट से बचने के लिए पैसे दे दिये। जब गुसाईंजी रात में सो रहे थे तो श्री राधा ने उनसे कहा आप उस चूड़ी वाली से क्यों झगड़ रहे थे? क्या आप ठाकुर जी को अपना पुत्र नहीं मानते? क्या में आपकी बहू नहीं हुई? अगर आप उससे कहते कि मेरी सात बहुओं को चूड़ी पहना दो तो मैं नहीं जाती। लेकिन आपने कहा मेरी सारी बहुओं को चूड़ी पहना दो, तो मैंने भी चूड़ियाँ पहन लीं। गुसाईंजी तत्काल नींद से उठे और बैठे-बैठे रात भर रोते रहे कि हमारी लाड़ली जू कितना भाव स्वीकार करने वाली हैं।
यहाँ साधकों के लिए एक बात का ध्यान रखने की ज़रूरत है। यदि आप गुरु प्रदत्त भाव के अनुसार और गुरु प्रदत्त संबंध के अनुसार सेवा करेंगे तो वो सेवा बहुत जल्दी सिद्ध हो जाती है और आपके आराध्य देव आपसे बात करने लगेंगे। भक्त की हर बात को आराध्य देव हर क्षण सुन रहे हैं। गुसाईंजी की बात सुनकर श्रीजी चूड़ी पहनने गईं। हमारा प्रभु के लिये भाव और संबंध दृढ़ होना चाहिए। जैसा गुरुदेव प्रदत्त भाव हम रखेंगे वैसा ही अनुभव हमारे आराध्य देव हमें करवायेंगे।
सेवा में त्रुटि से असंतुष्ट हुए विट्ठलनाथ जी
एक बार विट्ठलनाथ जी ठाकुर जी को भोग लगा रहे थे तो उन्हें भोग में एक तिनका दिखा। उन्हें बहुत दुख हुआ कि ठाकुर जी की सेवा में असावधानी बरती जा रही थी। उन्होंने अपने लाड़ले ठाकुर की सेवा में हो रही असावधानी के कारण उन सब लोगों का त्याग करके सन्यास लेने का निर्णय लिया। सब लोग बहुत दुखी हो गये और उनसे माफ़ी माँग उन्हें रुकने को कहने लगे। वो ठाकुर जी से आज्ञा लेने गये तो ठाकुर जी बहुत उदास हुए और उन्होंने कहा कि एक गेरुआ वस्त्र मुझे भी मँगवा दो, मैं भी सन्यास लेकर तुम्हारे साथ चलूँगा। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊँगा। गुसाईंजी ने ठाकुर जी को गले से लगा लिया। ठाकुर जी ने कहा अगर गले से लगा रहे हो तो मेरी बात भी मान लो, यहीं रुक जाओ। ठाकुर जी ने कहा सेवा में हो रही त्रुटि से मुझे दुख नहीं हो रहा तो आपको क्यों हो रहा है। गुसाईंजी ने कहा आप मेरे पुत्र हो, मेरे लाला के भोग में तिनका कैसे आ सकता है। यह बात हमें भी ध्यान में रखनी चाहिए कि हम सिर्फ़ विग्रह की सेवा नहीं कर रहे, आपके यहाँ साक्षात भगवान विराजमान हैं। हमें भी इसी भाव से सारी सेवाएँ बिना त्रुटि के करनी चाहिएँ।
गुरुजनों का विरोध करने से दुर्गति पक्की
विट्ठलनाथ जी वल्लभाचार्य जी के द्वितीय पुत्र थे। वल्लभाचार्य जी के गोलोक गमन के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री गोपीनाथ जी आचार्य गद्दी पर बैठे। कुछ समय बाद गोपीनाथ जी का भी गोलोक गमन हो गया। गोपीनाथ जी के पुत्र श्री पुरुषोत्तम जी अभी बाल्य अवस्था में ही थे तो विट्ठलनाथ जी को ही सारा कार्यभार सम्भालने को मिला। श्रीनाथजी का सारा ऐश्वर्य और सेवा, विट्ठलनाथ जी को सम्भालने को मिला। कृष्णदास जी, जो कि वल्लभाचार्य जी के ही शिष्य थे, उन्होंने गोपीनाथ जी की पत्नी और पुत्र को समझा-बुझा कर विट्ठलनाथ जी को सभी सेवाओं से निकलवा दिया और मंदिर में उनका प्रवेश भी निषेध करवा दिया। उन्होंने स्वयं गद्दी पर पूरा अधिकार कर लिया। यह उनसे बहुत बड़ा अपराध बन गया।
गुसाईंजी को सब अधिकार छूट जाने का तो कष्ट नहीं हुआ लेकिन सेवा छूट जाने का उन्हें बहुत कष्ट हुआ। श्रीनाथ जी की सेवा और दुलार छूट जाने से उन्हें बहुत क्लेश हुआ। अगर किसी भक्त को आप दुख देंगे, तो भगवान इसे बर्दाश्त नहीं करते। गुसाईंजी परसौली में जाकर रहने लगे। अब वे वहाँ तक आते जहाँ दूर से श्रीनाथ जी की ध्वजा दिखाई देती और वहाँ से मंदिर की तरफ़ देखकर रोने लगते। एक रामदास जी नाम के सेवक ठाकुर जी की सेवा में थे। वो गुसाईंजी की परिस्तिथि से परिचित थे। यद्यपि श्री कृष्णदास जी ने उन्हें भी विट्ठलनाथ जी से मिलने से मना कर दिया पर फिर भी वे रोज़ कुछ समय निकालते और विट्ठलनाथ जी को श्रीनाथजी का पान बीड़ा प्रसाद देते। गुसाईंजी रोज़ अपने हाथों से ठाकुर जी के लिए फूलों का हार बनाते और ठाकुर जी को पहनने के लिए रामदास जी को देते। वे रोज़ एक दैन्यता का श्लोक भी लिखते और रामदास जी से उसे ठाकुर जी को सुनाने को कहते।
बादशाह अकबर को विट्ठलनाथ जी के बारे में पता चला तो उसने श्री कृष्णदास जी को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया। यह सुनकर विट्ठलनाथ जी ने अन्न और जल त्याग दिया। जब बादशाह अकबर को यह पता चला कि विट्ठलनाथ जी ने अन्न और जल त्याग दिया है तो उसने श्री कृष्णदास जी को सादर छोड़ दिया। जव कृष्णदास जी को यह पता चला तो वह गुसाईंजी के चरणों में आये और उन्होंने उनसे माफ़ी माँगी।
गुसाईंजी गंभीर हो गये। अगर भक्त जन आप पर ग़ुस्सा हो जायें तो आप बच गये, लेकिन अगर वो गंभीर हो जायें तो आपको कोई नहीं बचा सकता। गुसाईंजी अपने लाला की सेवा और दर्शन से दूर होने की वजह से गंभीर थे। विट्ठलनाथ जी को पुनः सब सेवा अधिकार और गद्दी प्राप्त हो गई। कृष्णदास जी की अंतिम लीला एक कुवें में गिरने से हुई और उन्हें गुसाईंजी के प्रति किये गये अपराध की वजह से प्रेत बनना पड़ा। जब कृष्णदास जी प्रेत बन गए थे तो उनका कल्याण भी विट्ठलनाथ जी ने ही किया था।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज