श्री त्रिपुरदास जी का जन्म ब्रजमंडल के शेरगढ़ में हुआ था। उनके पिता राजमंत्री थे। बचपन से ही त्रिपुरदास जी में भक्ति के संस्कार थे। एक बार वे अपने पिता के साथ आगरा से किसी कार्य के लिए गिरिराज गोवर्धन जी आए। यहां उन्होंने ठाकुर श्रीनाथजी के दर्शन किए और उनके सुंदर रूप को देखकर बहुत आकर्षित हो गए। उन्होंने यह ठान लिया कि वे अब वापस नहीं जाएंगे, बल्कि रोज़ इन्हीं के दर्शन करेंगे और इनहीं के पास रहेंगे।
उनके पिता ने वहां अपने किसी परिचित से कहा कि यह बालक हठ कर रहा है, तो वे उसे कुछ दिनों के लिए अपने पास ही रख लें। वे अपने पुत्र को वहीं छोड़कर वापस लौटने के लिए निकल पड़े। रास्ते में कुछ शत्रु दल के सैनिकों ने उन्हें घेर लिया और उन्हें मार डाला।
भक्तों के जीवन में विपत्तियाँ प्रायः प्रारंभ से ही आती हैं। जब त्रिपुरदास जी ने सुना कि उनके पिता को शत्रु दल ने मार डाला है, तो उन्होंने श्रीनाथजी की ओर देखा और कहा, “अब आप ही मेरे पिता, मित्र और मेरा सब कुछ हो।” उनके हृदय में गहरा आनंद हुआ कि उनका नाममात्र का पिता अंतर्ध्यान हो गया, लेकिन उनका अपने वास्तविक पिता (जो अनंत जन्मों से उनका साथ देने वाला है) से संबंध बन गया। अब उनका केवल श्रीनाथजी पर ही विश्वास था, और वे निश्चिंत हो गए। वे रोज़ प्रभु के सामने भाव-विभोर होकर रोते रहते थे।
त्रिपुरदास जी को मिला महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का सान्निध्य
एक दिन जब वल्लभाचार्य महाप्रभु, जिन्होंने श्रीनाथजी को प्रकट किया था, ठाकुर जी की सेवा में आए, तो उन्होंने देखा कि यह बालक ठाकुर जी को देखकर रोता रहता है। वल्लभाचार्य जी ने अपने अनुयायियों से पूछा और उन्हें बताया गया कि वह एक राजमंत्री का पुत्र है, जिसके पिता यात्रा के दौरान मारे गए और वह श्रीनाथजी में बहुत आसक्त है। त्रिपुरदास जी ने श्री वल्लभाचार्य जी को साष्टांग दंडवत किया और कहा, “प्रभु, मैं एक अनाथ बालक हूँ और मेरे नाथ केवल श्रीनाथजी ही हैं। मुझे स्वीकार कर लीजिए।”
वल्लभाचार्य जी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने त्रिपुरदास जी को दीक्षा दे दी। वे कुछ दिन तक त्रिपुरदास जी को अपने पास रखते हुए उन्हें सेवा, ध्यान, और भक्तिमय जीवन जीने की शिक्षा देते रहे। फिर उन्होंने उन्हें वापस जाने का आदेश दिया, साथ ही आशीर्वाद दिया कि वे श्रीनाथजी की सेवा और चिंतन करते हुए जीवन व्यतीत करें। गुरु आज्ञा का पालन करते हुए वे वापस अपने पिता की नगरी में चले गए।
त्रिपुरदास जी का संत सेवा का व्रत
श्री त्रिपुरदास जी जब कुछ बड़े हुए, तो राजा ने उनके पिता का पद उन्हें सौंप दिया, और वे राजमंत्री बन गए। श्री त्रिपुरदास जी जानते थे कि धन की वास्तविक सार्थकता यही है कि उसका उपयोग संतों की सेवा में किया जाए। गाय, संत, ब्रह्मऋषि, भगवान के विग्रह की पूजा, और किसी असहाय व्यक्ति की मदद करना, जो बीमार या असमर्थ हो, इनमें जो धन खर्च होता है, वह आपके भाग्य के बैंक खाते में जमा हो जाता है। यह आपको ब्याज सहित वापस मिलेगा, और हमारे प्रभु के बैंक में ब्याज बहुत अधिक है—एक रुपए पर लाखों गुना ब्याज। जो आप देखते हैं कि कोई बड़ा पद प्राप्त करता है या कोई राजा बन जाता है, वह सब पूर्व जन्म में किए गए अच्छे कार्यों का फल है। लेकिन आजकल इस बैंक में विश्वास रखने वाले लोग बहुत कम हैं।
त्रिपुरदास जी ने यह निश्चय किया कि राजमंत्री पद से जो भी धन प्राप्त होगा, उसे वे केवल संतों की सेवा और भगवद् सेवा में ही उपयोग करेंगे। उन्होंने यह नियम लिया कि हर वर्ष सर्दियों में श्रीनाथजी के लिए रत्नों और हीरों से सुसज्जित एक पोशाक बनवाकर भेजेंगे। त्रिपुरदास जी के घर रोज़ संतों की सेवा होती—रोज़ संत आते और प्रसाद प्राप्त करते। श्रीनाथजी भी बहुत खुश होकर वह पोशाक धारण करते। श्री विठ्ठलनाथ जी (श्री वल्लभाचार्य जी के पुत्र) यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि जब वे ठाकुर जी को कोई अन्य वस्त्र पहनाते तो प्रभु उसे स्वीकार कर लेते, लेकिन जब त्रिपुरदास जी द्वारा दी गई पोशाक पहनाई जाती, तो ठाकुर जी विशेष प्रसन्न हो जाते। यह दर्शाता है कि भक्त द्वारा प्रेम से दी गई वस्तु को भगवान अत्यधिक भाव से स्वीकार करते हैं।
सब दिन होत ना एक समाना
श्री त्रिपुरदास जी से द्वेष करने वालों ने राजा से शिकायत की कि वे राजमंत्री होने का फायदा उठाकर राजधन का दुरुपयोग करते हैं। उनका आरोप था कि त्रिपुरदास जी राजधन से साधु-संतों को खिलाते-पिलाते हैं और राजखजाने से धन चुराते हैं। राजा की बुद्धि प्रभावित हुई और उसने आदेश दिया कि त्रिपुरदास जी की सारी संपत्ति जप्त कर ली जाए। परिणामस्वरूप, उनके घर में भोजन के लिए बर्तन तक नहीं रहे। उनके पास खाने के लिए एक दाना भी नहीं बचा। अब वे अत्यधिक गरीबी और कष्ट में अपना जीवन यापन करने लगे।
कठिनाई में भी त्रिपुरदास जी का सेवा का संकल्प
अब सर्दी की ऋतु आई, और श्री त्रिपुरदास जी ने हर साल की तरह श्रीनाथजी के लिए पोशाक भेजने का प्रण लिया था। वे यह जानते थे कि जब तक उनका जीवन है, वे ठाकुर जी की सेवा में कोई कमी नहीं छोड़ेंगे। लेकिन अब उनके पास कुछ भी नहीं था। उन्हें यह देखकर गहरी पीड़ा हुई कि वे कोई भी कष्ट सह सकते थे, लेकिन ठाकुर जी की सेवा के बिना उनका जीवन निरर्थक सा लगने लगा। वे बहुत दुखी हो गए और ठाकुर जी से विनय करने लगे, “हे प्रभु! मैं सभी कष्ट सह सकता हूँ, लेकिन आपकी सेवा के बिना मैं नहीं जी सकता।”
इतने में उनकी नजर ऊपर रखी एक दवात पर पड़ी। वह दवात पीतल की थी, और त्रिपुरदास जी को यह ख्याल आया कि शायद यह कुछ सिक्कों में बिक जाए। उन्होंने वह दवात उठाई और बाजार में बेचने के लिए गए, सोचते हुए कि अगर वह बिक गई, तो उन्हें थोड़ी सी रकम मिल जाएगी और वे श्रीनाथजी के लिए पोशाक भेजने का अपना नियम पूरा कर सकेंगे। त्रिपुरदास जी को उस दवात के बदले एक रुपया मिला, जिसे लेकर वह एक कपड़े की दुकान में गए। वहाँ उन्होंने एक साधारण कपड़ा खरीदा।
उस सफेद कपड़े को उन्होंने खुद लाल रंग से रंगा, लेकिन रंगते वक्त उनके आँसू थमे नहीं। वे प्रभु से कहने लगे, “हे नाथ, यह तो इतना साधारण और मोटा कपड़ा है, जो आपके सेवकों के भी लायक़ नहीं है। मैं इसे कैसे आपके चरणों में अर्पित करूँ?” उन्होंने वह कपड़ा रंगकर अपने पास रख लिया। उनका साहस नहीं हुआ कि वह वह कपड़ा श्रीनाथजी को अर्पित करने जाएँ।
त्रिपुरदास जी की दीनता में भी भक्ति की ऊँचाई
एक दिन, त्रिपुरदास जी ने श्रीनाथजी के एक सेवक को देखा। उन्होंने सेवक को प्रणाम किया और उसे अपने घर ले आए। उनके घर में खाने-पीने का कोई उचित प्रबंध नहीं था, फिर भी त्रिपुरदास जी ने बहुत संकोच के साथ वह लाल रंग का कपड़ा निकाला और हाथ जोड़कर कहा, “मेरी यह प्रतिज्ञा थी कि मैं हर वर्ष श्रीनाथजी को पोशाक भेजूँगा, लेकिन विधि का विधान ऐसा है कि वह मुमकिन नहीं हो सका।” उन्होंने वह कपड़ा सेवक को सौंपते हुए कहा, “कृपया इसे भंडारी को दे दीजिए, लेकिन गोसाईं जी (विठ्ठलनाथ जी) को इस कपड़े या मेरी वर्तमान स्थिति के बारे में कुछ न बताना। भंडारी जैसा उचित समझे, वैसा इसका उपयोग करें।”
सेवक ने वह वस्त्र ले जाकर भंडारी को दिया और त्रिपुरदास जी की दीन-हीन स्थिति के बारे में बताकर कहा कि इस सेवा का अपमान न किया जाए। भंडारी ने उस कपड़े का सम्मानपूर्वक उपयोग करते हुए उसे ठाकुर जी की अन्य पोशाकों को लपेटने के लिए अलमारी में रख लिया।
श्रीनाथजी को लगी ठंड
सर्दी का समय था, एक दिन श्रीनाथजी श्रृंगार के बाद अचानक काँपने लगे। जब श्री विट्ठलनाथ जी (गुसाईंजी) चरण सेवा में गए, तो ठाकुर जी ने उनसे कहा, “मुझे बहुत ज़ोर की ठंड लग रही है।” विट्ठलनाथ जी ने तुरंत ठाकुर जी को महँगे गर्म वस्त्र पहनाए, लेकिन ठाकुर जी फिर भी बोले, “बहुत ठंड लग रही है, बहुत ठंड लग रही है।” इस पर श्री विट्ठलनाथ जी ने तुरन्त अंगीठी जलाकर ठाकुर जी के पास रखी, लेकिन ठाकुर जी फिर भी काँपते हुए बोले, “मुझे बहुत ठंडी लग रही है।” गुसाईंजी समझ गए कि यह साधारण ठंड नहीं है। यह तो किसी भक्त के हृदय की पीड़ा का संकेत था। गुसाईंजी बहुत संकुचित होकर बोले, “प्रभु, अब क्या उपाय करूँ? मैंने आपको गर्म पोशाक पहना दी और अंगीठी भी आपके पास रख दी, फिर भी आप कह रहे हैं कि आपको ठंड लग रही है।”
त्रिपुरदास जी पर श्रीनाथजी की कृपा
विट्ठलनाथ जी को विचार आया कि कहीं किसी भक्त के भेजे हुए वस्त्र का अपमान तो नहीं हो रहा है। उन्होंने सेवकों को बुलाकर कहा, “तत्काल बही-खाता लाओ और देखो कि इस वर्ष किस-किस की पोशाक आई है और किसकी नहीं आई है।” सेवकों ने बही खाते में से सभी नाम सुनाए, लेकिन श्री त्रिपुरदास जी का नाम उसमें नहीं था।
विट्ठलनाथ जी ने पूछा, “आपने त्रिपुरदास जी का नाम क्यों नहीं सुनाया? वे तो हर वर्ष ठाकुर जी के लिए पोशाक भेजते थे। क्या इस वर्ष उन्होंने कुछ नहीं भेजा?” सेवकों ने बताया, “राजा द्वारा उनका सारा धन नष्ट कर दिया गया और उनका सब कुछ छीन लिया गया है।” विट्ठलनाथ जी ने फिर पूछा, “क्या इस वर्ष उन्होंने कुछ भेजा?” सेवकों ने उत्तर दिया, “उन्होंने केवल एक लाल रंग का साधारण वस्त्र भेजा है, जो ठाकुर जी की पोशाक लायक नहीं था। इसलिए हमने उसे पोशाकों को लपेटने के लिए इस्तेमाल किया और अलमारी में रख दिया।”
विट्ठलनाथ जी ने तुरंत समझ लिया कि ठाकुर जी को ठंड लगने की वजह यही थी। उन्होंने तुरंत दर्जी को बुलवाया और उस साधारण कपड़े से ठाकुर जी के लिए एक सुंदर पोशाक बनवाई। जैसे ही ठाकुर जी ने वह पोशाक धारण की, वे मुस्कराए और बोले, “हाँ, अब मेरी सर्दी दूर हो गई।”
निष्कर्ष
हमारे ठाकुर जी बड़े रिझवार हैं, वे केवल प्रेम और भाव से रीझ जाते हैं। इसी भाव को दृढ़ करने के लिए हम महापुरुषों के पावन चरित्र पढ़ते हैं। कैसी भी परिस्थिति हो, आपका नियम न टूटे, आपका भजन न छूटे। प्रभु के प्रति जो नियम बनाओ, उसका पालन करो। इससे हम निश्चित रूप से प्रभु को पा लेंगे। सुख में कभी प्रभु को भूल मत जाना और दुख में घबराकर भक्ति को छोड़ मत देना। आगे आपको बहुत सुख मिलेगा। यह भक्ति दुख-सुख देने वाली नहीं, बल्कि सुख-दुख में समान स्थिति प्रदान करने वाली है।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज