सदन नाम के एक संत थे। उनका जन्म कसाई कुल में हुआ था। उन्होंने अपने कुल के व्यापार को अपनाया। वह कसाई वाड़े से मांस लाकर बेचते थे और खूब भजन करते थे। वह ऐसे ज्ञानी महात्मा थे कि बड़े-बड़े संत उनसे सत्संग सुनने जाते थे। एक बार वो भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन के लिए चले। पहले प्रायः पैदल ही यात्रा होती थी। वह एक गाँव में भिक्षा माँग कर खाने के लिए गए। संतों में एक भागवतिक आकर्षण होता है। उनका रूप भले ही बिगड़ा हुआ दिखाई दे लेकिन उनको देखते रहने और उनसे बात करने का मन करता है। जिस घर में वो भिक्षा मांगने गए थे, उस घर की महिला उन्हें देखकर आकर्षित हो गई। उसने कहा मेरी इच्छा है कि आप आज हमारे घर आकर भोजन खा लीजिए। उन्होंने उस महिला का भाव देखते हुए कहा ठीक है। उनसे करुणावश यह गलती हो गई।
साधु के लिए भिक्षा और शयन के नियम
शास्त्र आज्ञा करता है कि संतों को पाँच घरों के दरवाज़े के बाहर से माँग कर लेना चाहिए। संतों को घर के अंदर जाने की आज्ञा नहीं है। दरवाज़े से ज़ोर से तीन बार तक आवाज़ देकर फिर आगे बढ़ जायें। संतों को उदर पोषण करके भजन करने के लिए केवल रोटी मांगने का अधिकार है।
लेकिन सदन जी ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया और उस महिला के घर के अंदर चले गए। महिला ने पूछा आप कहाँ जा रहे हैं? यह जानने पर कि वह जगन्नाथ जी के दर्शन करने जा रहे हैं उसने कहा रात्रि होने में थोड़ा ही समय रह गया है। आप कहीं न कहीं तो रुकेंगे ही। आज हमारे घर में ही रुक जाइये। सदन जी के दयालु हृदय की वजह से ये दूसरी गलती हो गई।
एक विरक्त (सन्यासी) संत को कभी गृहस्थों के आसन में शयन नहीं करना चाहिए क्योंकि उनके आसन में गृहस्थी के परमाणु होते हैं। अगर कभी शयन करने का भाव बने तो घर के बाहर छप्पर में या खुले आँगन में या फिर गाँव के किसी मंदिर में सोना चाहिए। यदि अति आवश्यक होता है तो साधु कमंडल में गंगाजल रखते हैं, जल डालकर स्थान पवित्र कर लिया और स्वयं का आसन बिछा के कुछ क्षण के लिए बैठ गए। लेकिन किसी गृहस्थ के यहाँ एक साधु को शयन नहीं करना चाहिए।
धर्म पर चलने वाले कभी भी अधर्म को स्वीकार नहीं करते
उस महिला के अंदर काम भाव आ गया। वो रात्रि में उठ कर सदन जी के पास गई और उसने अपनी भावना प्रकट की। सदन जी ने उससे कहा तुम्हारा पति है, तुम ऐसी निकृष्ट बात क्यों सोचती हो? उसने सोचा इनके कहने का मतलब यह है कि अभी तुम्हारा पति ज़िंदा है; और उसने जाकर अपने पति को मार दिया। कामांध व्यक्ति कुछ भी कर सकता है! उसने इसके बाद जाकर सदन जी को इसके बारे में बताया। वो बोले, अरे यह तो महान अपराध है; तू निकृष्ट स्त्री है, तेरी भावना ऐसी कैसे हो गयी। उन्होंने उसे बहुत डाँटा। जैसे ही वे बाहर निकलने लगे तो उस महिला ने उन्हें रोका और धमकी दी कि अगर मैंने शोर मचा दिया तो तुम यहाँ से ज़िंदा नहीं जा पाओगे। सदन जी ने कहा कि मुझे मृत्यु स्वीकार है लेकिन गलत आचरण स्वीकार नहीं है।
उस महिला ने हल्ला मचा दिया, कहा देखो रात में इनको साधु समझ कर हमने हमारे यहाँ रहने दिया लेकिन रात में इन्होंने मुझे छेड़ने की कोशिश की। जब मेरे पति ने विरोध किया तो इन्होंने मेरे पति की हत्या कर दी और मुझे छेड़ने के लिए तैयार हो गए। वो तो मैंने हल्ला मचा दिया और आप लोग आ गए, नहीं तो जाने ये मेरे साथ क्या करते। गांव के लोगों ने उनकी पिटाई की और उन्हें बाँध दिया और अगली सुबह उन्हें राजा के पास ले गए।
गंभीर से गंभीर स्थिति में भी भक्त डगमगाता नहीं
सदन जी मुस्कुरा रहे थे, सोच रहे थे जगन्नाथ जी आपने बड़ी ही सुंदर लीला की है। भक्तों के सामने संसार थोड़ी होता है, केवल भगवान होते हैं। भक्त केवल भगवान को देखता है, जैसे सब उनकी लीला ही हो। राजा ने सदन जी से कहा कि हम आपकी ही स्वीकृति से दंड देंगे, आप बताइए कि क्या आपने अपराध किया है? अब संतों की भाषा केवल संत ही समझ सकते हैं। उन्होंने कहा बिना अपराध के दंड कैसे हो सकता है? कोई न कोई अपराध तो होगा ही। इसलिए भगवान ने मुझे पवित्र करने के लिए दंड दिया है। सदन जी जान रहे हैं कि कोई न कोई पाप, किसी पिछले जन्म का बाक़ी तो है ही, जिसकी वजह से प्रभु उन्हें फँसा कर पिटवा रहे हैं। राजा इस भाव को समझ नहीं पाए। तो उन्होंने सज़ा दे दी कि इनके दोनों हाथ काट दिए जाए और उसके बाद इन्हें छोड़ दिया जाए। वह साधु थे इसलिए राजा ने उन्हें प्राण दंड नहीं दिया।
सदन जी के दोनों हाथ वापस प्रकट हो गए
सदन जी सज़ा मिलने के पश्चात सीधे जगन्नाथ जी के सामने गए। उन्होंने कहा आप तो सब जानते हैं। मेरी आपको प्रणाम करने की इच्छा थी पर अब मेरे हाथ ही नहीं है। जैसे ही उन्होंने दोनों हाथ जोड़ने के लिए प्रयास किया तो उनके दो नए हाथ निकल आए।
उनको जो मार पड़ी थी उसके चिह्न गायब हो गए और उनका शरीर एकदम हष्ट-पुष्ट, स्वस्थ और तेजस्वी हो गया। सदन जी ने दोनों हाथ जोड़े और जगन्नाथ जी के सामने साष्टांग लेट गए। भगवान प्रकट हुए और कहा तुम्हें मुझ पर ग़ुस्सा नहीं आया कि बिना किसी गलती के मैंने तुम्हारे ऊपर आरोप लगवाया और दंड भी दिलवाया? सदन जी ने ठाकुर जी से कहा प्रभु आपकी हर चेष्टा में मुझे आपका प्यार ही दिखाई देता है।
निष्कर्ष
कभी कभी धर्म से चलने वाले की दुर्गति होते हुए दिखाई दे सकती है, किंतु उनकी दुर्गति कभी नहीं हो सकती। अपने कर्मों को छोटा ना समझें; चाहे वो किसानी हो या व्यापार हो। आपकी छोटी सी दुकान है तो भी अच्छा है। नाम जप करें और सत्य से जो भी कमाई हो, उससे सादा जीवन जियें। आपका परिवार आगे चलकर बहुत उन्नति को प्राप्त होगा। अगर आप बेईमानी करके अधर्म आचरण करेंगे तो एक दिन आपको उसी परिवार के लिए रोना पड़ेगा जिनके लिए आप पापाचरण करते हैं।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज