श्री राम जी के साले, मामा प्रयागदास जी की कहानी: जिनकी बहन थीं सीता जी

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
प्रयागदास जी भगवान राम और सीता जी के साथ


जनकपुर में एक ब्राह्मण दंपति के यहाँ प्रयागदत्त जी का जन्म हुआ। जन्म के समय ही उनके पिता का देहांत हो गया। उनकी माँ ने अकेले ही उनकी परवरिश की। बालक अभी घुटनों के बल ही चल रहा था कि घर में आज लग गई।लोग सोचने लगे कि बालक बड़ा ही अभागा है। अब तो सबने उनकी मदद करना बंद कर दिया और उनके पास ठीक से पेट भरने की व्यवस्था भी नहीं रह गई। एक दिन वो बालक अपने मित्रों के साथ खेल रहा था तो उसने देखा कि एक बहन अपने भाई को राखी बांधने के लिए बुला रही थी, उस दिन राखी का त्यौहार था।

प्रयागदत्त अपनी माँ के साथ

प्रयागदत्त जी भाग कर घर आए और अपनी माँ से कहा कि माँ क्या हमारी दीदी नहीं है? माँ का हृदय भर आया, उन्होंने कहा कि तुम्हारी दीदी (सीता जी) हैं, लेकिन तुम्हारे जीजा (राम जी) बहुत बड़े राजा हैं, तो तुम्हारी दीदी उनकी सेवा में व्यस्त रहती हैं। उन्होंने उन दोनों के नाम पूछें, माँ ने बताया की दीदी का नाम सीता और जीजा का नाम चक्रवर्ती सम्राट श्री राम, और वो अवधपुरी में रहते हैं। उन्होंने अवधपुरी जाने की ज़िद की।

प्रयागदत्त जी गये अयोध्या

प्रयागदत्त हुए अयोध्या के लिए रवाना

कुछ भक्त जान अयोध्या जा रहे थे, तो माँ ने प्रयागदत्त जी को भी उनके साथ कुछ दिन के लिए अयोध्या भेजने का सोचा। उन्होंने कहा कि दीदी के यहाँ कुछ भेंट लेकर जाते हैं, और कुछ घरों से चावल माँग कर उन्होंने चावल के लड्डू बनाये। प्रयागदत्त जी दीदी और जीजा जी से मिलने के लिए बहुत आतुर थे। जब वो अयोध्या पहुँचे, तो राजधानी देख कर प्रसन्न हुए। वो सबको अपनी दीदी और जीजा का नाम बताते और उनका पता पूँछते, सब उनको बालक समझ कर उन पर हँस देते। कुछ लोगों ने उन्हें कनक भवन (अयोध्या का एक प्रसिद्ध मंदिर) भेज दिया। वहाँ जाके उन्होंने पुजारी को अपनी दीदी और जीजा का नाम बताकर पूछा, वो कहाँ हैं? पुजारी ने मूर्ति की तरफ़ इशारा किया, उन्होंने कहा मुझे मूर्ति नहीं, मुझे मेरी असली दीदी चाहिए, पुजारी ने सोचा ये बालक है और हठ कर रहा है और हँस दिये।

प्रयागदत्त को मिलने आये श्री राम और सीता जी

वो बाहर बैठे रहे, संतों को अपनी दीदी और जीजा के बारे में पूँछते रहे। उन्हें तो ऐसी दीदी चाहिए थी जो कि उन्हें हृदय से लगाये, राखी बांधे और मिठाई खिलाए। वो बहुत परेशान हुए और रोने लगे। वो विकल होकर रो रहे थे और रिश्ते के हक़ से अपने जीजा को कोसने भी लगे कि इतना ढूँढा, पता नहीं हमारा बहनोई कहाँ छुपा बैठा है। उन्होंने सोचा की माँ कह रही थीं कि वो राजा हैं लेकिन यहाँ तो किसी को उनका नाम भी नहीं पता।

भगवान राम और सीता जी हाथी पर सवार होकर आते हैं

वो इतने परेशान थे कि उनको लगा कि उनके प्राण निकल जाएँगे, तभी उन्हें आवाज़ सुनाई दी कि “ राजाधिराज, भगवान श्री राम पधार रहे हैं ”। उन्होंने देखा तो एक बड़े सफ़ेद हाथी के ऊपर एक सिंहासन पर उनके जीजा और दीदी विराजमान थे। वे दोनो नीचे उतरे, सीता जी ने दौड़कर उन्हें गले लगा लिया। वो ग़ुस्सा होने लगे की तुम कहाँ थी, मैं कबसे तुम्हें ढूँढ रहा हूँ। सीता जी ने कहा कि सबको हमारा पता नहीं मिलता, कुछ विशेष लोग ही हमें जान पाते हैं। सीता जी ने उन्हें रखी बांधी और पूछा की माँ ने हमारे लिए कुछ भेजा है क्या? उन्होंने वो चावल के लड्डू उन्हें दिये। सीता जी ने पहले श्री राम को खिलाया, फिर ख़ुद पाया और बचा हुआ प्रयागदत्त जी को खिला दिया। प्रभु का प्रसाद पाते ही उनका सारा अज्ञान नष्ट हो गया और रोम रोम आनंद से भर गया। सीता जी ने कहा अब आप परेशान ना हों, आप जब भी बुलाएँगे हम आ जाएँगे। उन्होंने सोचा हमारी दीदी तो सबसे अलग और अच्छी हैं, उनके बात ठीक भी थी।

सीता जी ने कहा अब हमें और आपके जीजा जी को और भी काम हैं, आप अब घर जाइए, माँ को प्रसाद दीजिए और कहिए कि हम दीदी से मिल के आ गये हैं, वो खुश होंगी। उसके बाद आप वापस अयोध्या आ जाना, एक बार बस वापस चले जाइए। इतना कहकर वे दोनों हाथी पे बैठकर वापस चले गये। उनको जाता देख प्रयागदत्त जी मूर्छित हो कर गिर पड़े। इसके बाद एक महात्मा ने आकर उन्हें उठाया। जब उन्होंने ये पूरी घटना सुनी और प्रयागदत्त की प्रेममयी स्थिति देखी तो उनका नाम मामाजी रख दिया क्योंकि अयोध्या के लोग सीता जी को माँ और राम जी को पिता मानते हैं। तो क्योंकि प्रयागदत्त जी सीता जी के भाई थे तो पूरा अयोध्या उन्हें मामाजी बोलने लगा।

फिर से दीदी और जीजा से मिलने की इच्छा

 इसके बाद प्रयागदत्त जी ने जनकपुरी की तरफ़ प्रस्थान किया। जब उनकी माँ ने उनके रोम रोम से तेज निकलते देखा तो समझ गयीं कि सीता जी ने उन पर कृपा की है। उन्होंने माँ को पूरा वृतांत सुनाया तो उनकी माँ भी सीता जी की करुणा के बारे में सोच के रोने लगीं। इसके एक वर्ष बाद प्रयागदत्त जी के माँ का निधन हो गया और वे अकेले रह गये। इसके बाद प्रयागदत्त जी अयोध्या चले गये अपनी दीदी से फिर से मिलने।

प्रयाग दत्त ने फिर से भगवान राम और सीता जी की खोज शुरू कर दी

अयोध्या पहुँचते ही वह फिर अपनी दीदी को ढूँढने लगे। बार बार उनको ढूँढते रहते, उनके हृदय में दीदी जीजा के लिए विरह था। हमेशा प्रभु को याद करते रहने के लिए और संसार के माया जाल से दूर रहने के लिए इन्होंने वैराग्य की दीक्षा ले ली। दीक्षा के बाद इनका नाम प्रयागदास जी हो गया। तब भी लोग इन्हें मामाजी ही कहते थे। इनका प्रसिद्ध नाम मामा प्रयागदास जी ही हुआ।

श्री राम और सीता जी का वनवास

एक दिन प्रयागदास जी विचरण कर रहे थे और एक वीरान बीहड़ को देख कर उन्हें विचार आया कि हमारे जीजा और दीदी को तो अवध के दशरथ महाराज ने वनवास दे दिया। हमारी जीजी तो सुकोमल हैं, वो नंगे पैरों जंगल में कैसे चल रही होंगी? अब जो भी आता वो मन ही मन सोचने लगते कि अगर ये हमें कुछ भेंट दे दे तो हम अपने दीदी जीजा के लिए कुछ व्यवस्था कर सकेंगे। उन्हें भेंट मिलने भी लगी और वो उसे इकट्ठा करने लग गये। इन पैसों से उन्होंने तीन जोड़ी पादुका और तीन पलंग, गद्दे और तकिए बनवाये, श्री राम, लक्ष्मण और सीता जी के लिए।

प्रयागदास जी भगवान राम, सीता और लक्ष्मण जी के लिए पलंग और पादुकाएँ बनाते हैं

इन सबको एक के ऊपर एक करके अपने सर पर रखा और चित्रकूट की तरफ़ चल दिये अपने जीजा और दीदी से मिलने। ये है संतों की मस्ती। अब वो मस्ती में जा रहे थे ये सोच के कि वहाँ जाकर श्री राम जी को डाँट लगायेंगे कि वनवास आपको मिला है, हमारी दीदी को क्यों परेशान कर रहे हैं? उन्होंने इस पैदल यात्रा के दौरान ना तो कुछ खाया, ना ही कुछ पीया। प्रभु ऐसे ही तो संबंध के लिए तरसते हैं कि कोई उनके लिए इतना तड़पे। वो चित्रकूट पहुँचे और रास्ते के पत्थर और कंकड़ देख के उनका हृदय जलने लगा क्योंकि उन्हीं रास्तों पर सीता जी को चलना पड़ रहा होगा। वो बार बार श्री राम को निर्दयी होने के लिए कोसते रहते। उन्होंने तीनों पलंग बिछाये और गद्दे तकिये रख कर अपने जीजा दीदी का इंतज़ार करने लगे। जब काफ़ी समय तक इंतज़ार करने के बाद वे नहीं आये तो उन्हें लगा शायद वो तीनों उनके वहाँ होने से सकुचा रहे हैं। तो वो एक पेड़ के पीछे जाके छुप गये।

प्रयागदास से फिर से मिलने आये श्री राम और सीता जी

प्रभु तो बस भक्त के भाव को देखते हैं। श्री राम, लक्ष्मण और सीता जी सन्यासी रूप में उनके सामने आ गये। वो दौड़कर राम जी की तरफ़ गये और उन्हें डाँटने लगे कि इतनी कठोर भूमि पर हमारी इतनी सुकोमल दीदी को चलवा रहे हैं, राम जी सीता जी को देख रहे थे और सीता जी राम जी को देख रहीं थीं। आप जाते वनवास, आप हमारी दीदी को वनवास में क्यों ले आये, क्या कमी थी अयोध्या में? चलो अच्छा बैठो, तीनों अपने अपने पलंग पर बैठे। जैसा-जैसा प्रयागदास जी कह रहे थे, वैसा-वैसा प्रभु कर रहे थे। उन्होंने पादुका ली और सीता जी को पहना रहे थे तो सीता जी ने कहा कि पहले जीजा को पहनाया जाता है। तो उन्होंने पहले श्री राम को पादुका पहनाई। क्या सौभाग्य है ये एक भक्त का। ये कोई मनगढ़ंत कहानी नहीं है, ये केवल दो सौ वर्ष पहले की सच्ची घटना है।

वनवास के दौरान वन में प्रयागदास जी की मुलाकात भगवान राम सीता और लक्ष्मण जी से होती है

मामाजी ने तीनों को पादुका पहनाई और पलंग पर बिठाया, और आँखों में आँसु भर कर तीनों की शोभा देख रहे थे। मन ही मन वो सोच रहे थे कि अब हमारी यही सेवा रहेगी कि ये तीनों जहां भी जाएँगे हम इनके साथ सर पर पलंग लेकर चलेंगे और इनकी सेवा करेंगे। प्रभु श्री राम ने कहा हमें वनवास मिला है इसलिए हम रोज़ तुम्हारे पलंग पे नहीं सो सकते, आज तो हम तुम्हारी इच्छा पूर्ति के लिए बैठ गये। अब तुम इन पलंगों पे सोना। हम ये पादुका भी रोज़ नहीं पहन सकते। सीता जी ने कहा कि तुम चिंता मत करो, हम तुम्हारे जीजा के साथ बहुत सुखी हैं।

प्रयागदास जी को मिली वापस जाने की आज्ञा

प्रयागदास जी ने कहा कि आप हमारी तो कोई बात नहीं मान रहे। लक्ष्मण जी ने कहा चाहिए तो अकेले हम आपके साथ चल सकते हैं। प्रयागदास जी खुश हो गये कि आप ही चलो, हम आपकी ही सेवा कर लेंगे। लक्ष्मण जी ने कहा हम चल तो लेंगे लेकिन अगर श्री राम चलें तो। प्रयागदास जी ने कहा हमारे साथ मज़ाक़ ना करें। श्री राम ने कहा आप ये पलंग लेके अयोध्या जाओ, इस पर सोओ, मस्ती में रहो, हम वनवास ख़त्म होते ही आपके पास वापस आ जाएँगे। दीदी ने भी जाने का इशारा कर दिया। तो उन्होंने सारे पलंग वापस एक के ऊपर एक लेकर अपने सर पर रखी और वापस चल दिये।

वो तो भाव में डूबे हुए थे तो उन्हें विश्राम करने की भी सुध ना रही। वो जाते-जाते सोच रहे थे कि कैसा विचित्र बहनोई है हमारा, कम से कम हमारी दीदी को तो वापस हमारे साथ भेज सकता था। कोई भी हमारी बात नहीं मानता, इतने घोर जंगल में हमारी दीदी को लेते चले जा रहे हैं। ना जाने कैसे हमारी दीदी इतनी कठिनाई में रहेंगी। बड़े नियमी बनते हैं, कहते हैं कि पलंग पर नहीं बैठेंगे।

प्रयागदास जी मंदाकिनी नदी में स्नान करते हुए

उन्होंने मंदाकिनी नदी में स्नान किया और वापस अपने पलंग आदि को उठाया। अब वो पलंग, पलंग थोड़ी ना रहा, उस पर प्रभु बैठ चुके थे, अब वो पलंग फूल से भी हल्का हो गया था। थोड़ा चले तो अयोध्या आ गई, उन्होंने सोचा कि अभी तो चित्रकूट में स्नान किया था, उन्हें लगा की उन्हें समय का भान नहीं रहा। जीजा जीजी की कृपा से उन्हें चलना ही नहीं पड़ा, वो सीधा चित्रकूट से अयोध्या पहुँच गये।

भगवान से संबंध बना लीजिए, वो आसानी से आपको मिल जाएँगे!

अब वो जिस भी संत से मिलते सबको राम जी की शिकायत करते, और सब संत उनके वचन सुन कर आनंदित होते क्योंकि सबको पता था की वे भगवद् प्राप्त महापुरुष थे। अब वो तीनों पलंग को एक के ऊपर एक रखकर और तीनों गद्दे रख कर राजा महाराजा की तरह ठाठ से रहते। कभी कभी कोई साधु महात्मा कहते कि प्रयागदास जी आपने विरक्त भेष तो ले लिया लेकिन आप भजन तो करते ही नहीं, तो प्रयागदास जी बोलते,

नीम के नीचे खाट बिछी है, खाट के नीचे करवा, 
प्रयागदास अल्मस्ता सोये, ये राम लला का सरवा

पता है हम किसके साले हैं, श्री राम के! हमे भजन थोड़ी ना करना पड़ेगा। वास्तव में जिसका प्रभु से संबंध दृढ़ हो जाये उससे भजन करने की ज़रूरत पड़ेगी क्या? वो इसी ठसक से अयोध्या में जिये और शरीर पूरा होने पर भगवान के नित्य साकेत धाम को गये और सदा सदा के लिए अपने जीजा जीजी की सेवा में रत हो गये।

मार्गदर्शक – पूज्य श्री हित प्रेमानंद जी महाराज

श्री हित प्रेमानंद जी महाराज मामा प्रयागदास जी का चरित्र सुनाते हुए

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