राजा भर्तृहरि की कहानी: पत्नी की बेवफ़ाई से राजा बने सन्यासी

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
राजा भर्तृहरि संन्यासी बने

चक्रवर्ती सम्राट महाराज भर्तृहरि जी जब युवावस्था को प्राप्त हुए तो उनके हृदय में भोग आकर्षण हुआ। जितना हम सोच सकते हैं उससे अधिक सम्पति महाराज भर्तृहरि जी के पास थी। उज्जैन के महान बलशाली एवं बुद्धिमान राजा विक्रमादित्य इनके ही छोटे भाई थे। भर्तृहरि जी के हृदय में स्त्री के प्रति आकर्षण पैदा हुआ, सर्व सामर्थ्यशाली तो थे ही, उन्होंने आदेश किया कि विश्व की सबसे सुंदर राजकुमारी को उनके पास पत्नी के रूप में वरण करने के लिए लाया जाए।

भर्तृहरि और पिंगला का विवाह

एक पिंगला नाम की बहुत सुंदरी युवती को भर्तृहरि जी ने अपनी पत्नी के रूप में वरण किया । उन्होंने विचार किया कि आखिरकार भोगों में क्या सुख है, इसका पता लगाना पड़ेगा, और उसके लिए मुझे एकांत चाहिए। उन्होंने विक्रमादित्य जी से कहा कि जब तक हम पूरी तरह भोगों का अनुभव नहीं कर लेते, तब तक आप राज्य शासन को संभालिए। महल में किसी भी तरह की राजदरबार की कोई भी बात लेकर कोई ना आए। मुझे स्वतंत्र छोड़ दिया जाये। भला क्या कभी आग में धीरे-धीरे घी डालने से आग शांत होती है क्या? ऐसे ही भोगों को भोगने से कामाग्नि और बढ़ जाती है, शांत नहीं होती। एक दिन पिंगला अपने महल के पीछे की खिड़की से झांक रहीं थी। महल के पीछे राज्य की अश्वशाला थी। वहां घोड़ों की रक्षा और सेवा करवाने वाला अश्वपाल अपने सेवकों के साथ घोड़ों की देख रेख में लगा था। वह बहुत ही हष्ट पुष्ट और जवान था, उसे देख के रानी पिंगला उससे आसक्त हो गयीं।

पिंगला हुई अश्वपाल से आसक्त

रानी उस अश्वपाल से एकांत में मिलने लगीं। गुप्तचरों के द्वारा जब ये बात विक्रमादित्य जी को पता चली तो वह अंदर से बहुत पीड़ित हुए। वह सोच रहे थे कि क्या करना चाहिए, अगर वो कुछ कहते तो उन पर आरोप लगाये जा सकते थे, लेकिन अगर कुछ नहीं कहते तो राजा के प्रति विश्वासघात होता, राजा उनके बड़े भाई भी थे। विक्रमादित्य जी ने राजा भर्तृहरि जी से एकांत में मिलने को प्रार्थना की। यह सुनकर पिंगला समझ गईं कि विक्रमादित्य जी उनके ग़लत आचरणों के बारे में सब जान चुके हैं। उनके आने से पहले ही पिंगला ने महाराज भर्तृहरि जी से कहा कि मुझे पता है वो यहाँ क्यों आ रहे हैं। महाराज को आश्चर्य हुआ। विक्रमादित्य जी ने कहा कि मेरी बात पर विश्वास किया जाए महाराज, महारानी पिंगला का चरित्र ठीक नहीं है। यह अश्वपाल से नाजायज़ संबंध रखती हैं, ऐसा मुझे गुप्तचरों से पता चला है। महाराज आवेश में महल में गए, रानी ने कहा कि मैं आपको बताती हूँ कि आपके भाई ने आपसे क्या कहा होगा। वो आपको यही बता रहे होंगे कि मेरा अश्वपाल से गलत संबंध है। यह आपको कैसे पता महारानी? महाराज ने पूछा। महारानी ने कहा कि आपके भाई चरित्रहीन हैं। राजा ने इसका प्रमाण माँगा। महारानी ने धन देकर एक परिवार को राजी किया की वह राजसभा में कहें कि विक्रमादित्य जी उनकी बहू पर गलत दृष्टि रखते हैं। उस परिवार ने राजदरबार में महारानी के डर से ऐसा ही बोला। महाराज भर्तृहरि जी की पिंगला में आसक्ति थी और अब ये प्रमाण भी मिल गया था। उन्होंने पिंगला की सलाह से, बिना कुछ विचारे, विक्रमादित्य जी को राज्य से निष्कासित करने का आदेश दे दिया।

भर्तृहरि जी को हुई अमर फल की प्राप्ति

भर्तृहरि को एक ऋषि से अमर फल मिलता है

जो धर्म युक्त होता है भगवान उनकी रक्षा ज़रूर करते हैं। विक्रमादित्य जी की भी रक्षा भगवान द्वारा होनी ही थी। एक ब्राह्मण धन लाभ के लिए तपस्या कर रहा था, देवराज इंद्र उसके सामने प्रकट हुए। उन्होंने उसे अमृत फल (जिसको खाने के बाद वह अमर हो जाता) दिया और अंतर्ध्यान हो गए। ब्राह्मण ने सोचा वैसे ही दरिद्र हूं, भूख से मर रहा हूँ, अमर होकर क्या करूंगा? मुझे तो धन चाहिए था। उसे विचार आया कि यह फल मैं महाराज भर्तृहरि जी को दे देता हूँ। अगर धर्मात्मा राजा बहुत काल तक जीवित रहेंगे तो प्रजा सुखी रहेगी। महाराज भर्तृहरि ने उसका अमृत फल स्वीकार किया और आदेश किया कि उस ब्राह्मण को जितना धन चाहिए उसे उतना धन दे दिया जाए।

कितने भी भोगों का सेवन करें, आप संतुष्ट नहीं होंगे!

एकांत में महाराज ने विचार किया की मेरा संपूर्ण मन तो पिंगला में आसक्त है, मैं अमर होकर क्या करूँगा? अगर पिंगला अमर हो जाए तो जब तक मैं जीवित रहूंगा वह भी मेरे साथ रहेंगी। उन्होंने वह फल पिंगला को दे दिया और पिंगला ने पवित्र होकर फल खाने का वादा करके फल स्वीकार कर लिया। पिंगला ने सोचा कि यदि अश्वपाल अमर फल खा लेगा तो उनका मिलन होता रहेगा। एकांत में पिंगला ने अश्वपाल को अमर फल दे दिया।

भर्तृहरि ने पिंगला को अमर फल दिया

अश्वपाल की आसक्ति थी महाराज के दरबार में नृत्य करने वाली एक वैश्या से। उसने वैश्या को फल दे दिया ताकि वह आजीवन उससे मिलता रह सके। वैश्या ने विचार किया मैं जिस दरबार में नृत्य करती हूँ अगर उसके महाराज अमर रहें तो अच्छा होगा। उसने राजा से मिलने की याचन की और महाराज से मिलकर उन्हें अमर फल दे दिया। अमर फल देखते ही महाराज के होश उड़ गए। उन्होंने वैश्या से कहा कि तुम्हें किसी भी तरह का दंड नहीं दिया जाएगा पर सत्य बताओ कि यह अमर फल तुम्हें कहाँ से मिला।

उसने कहा कि मेरा एक मित्र है जो राज परिवार के घोड़ा की सेवा करता है, उसी ने मुझे ये अमर फल दिया है। महाराज ने अश्वपाल को बुलाया और कहा वैसे तो मैं तुम्हारे सैकड़ों टुकड़े करवा सकता हूँ लेकिन अगर तुम मुझे सत्य बता दोगे कि तुम्हें यह अमर फल कहाँ से मिला तो मैं तुम्हें क्षमा कर दूँगा। भयभीत होकर उसने बताया कि महारानी पिंगला ने ही उसे वह अमर फल दिया था। महाराज आश्चर्यचकित हुए। उन्होंने सोचा कि मुझ चक्रवर्ती सम्राट से पिंगला संतुष्ट नहीं है और अश्वपाल से आसक्त है, अश्वपाल महारानी से संतुष्ट नहीं है और वैश्या से आसक्त है, धिक्कार है इस काम और आसक्ति को। उन्होंने घोषणा करवा दी कि अगले ही दिन वह राज्य छोड़ कर चले जाएँगे। गुप्तचरों को भेजकर उन्होंने विक्रमादित्य जी को वापस बुलवा लिया।

राजा भर्तृहरि बने वैरागी

महाराज ने संपूर्ण प्रजा के सामने राजसभा में कहा कि मेरे राज्य के ब्राह्मणों की तपस्या का फल आज सब अपनी आँखों से देखें। मैं अपनी तलवार से महारानी पिंगला का गाला काटूँगा पर वह मारेंगी नहीं क्योंकि इन्होंने अमर फल खाया है। ज्यों ही वो प्रहार करने वाले थे महारानी चीख पड़ीं, रुकिए महाराज! महारानी ने कहा कि मैंने अमृत फल नहीं खाया और उसे अश्वपाल को दे दिया था क्योंकि मैं उससे आसक्त हूँ। महाराज ने कुछ नहीं बोला और अपना राजमुकुट सिंहासन पर रखकर कहा कि विक्रमादित्य तुम इस राज्य का पालन करना, मैं ऐसे निकृष्ट संसार में अब नहीं रह सकता। धिक्कार है संसार और काम भोग को कि मुझ चक्रवर्ती सम्राट से यह पिंगला तृप्त नहीं हो पाई, अश्वपाल महारानी से सुखी नहीं हो पाया और वैश्या में आसक्त हो गया। धिक्कार है इस झूठे संसार के प्यार को। इसके बाद उन्होंने राज्य का त्याग करके घोर वैराग्यमय जीवन व्यतीत किया और भगवान शंकर का साक्षात्कार करके ये वरदान माँगा की कभी उन्हें सम्मान से भिक्षा भी ना मिले क्योंकि यह सम्मान ही संसार के राग को पुष्ट करता है।

सारे सुख नाशवान हैं

निष्कर्ष

निरंतर भगवान का भजन तभी हो सकता है जब हमें भोगों में अरुचि हो जाए। हम भोगों को सत्य मान रहे हैं। यही हमें बार-बार दुख, क्लेश और अशांति प्रदान करता है। केवल इसी मनुष्य जन्म में हमें भगवत् प्राप्ति हो सकती है। पूरे त्रिभुवन को जो आनंद अनुभव हो रहा है वो आनंद सिंधु (भगवान) की एक बूँद से भी कम से हो रहा है। विचार कीजिए कि यदि वह आनंद सिंधु आपको मिल जाए तो आपको कैसा सुख महसूस होगा। जब तक वह नहीं मिल जाता, तब तक जैसे औंस को चाटनें से प्यास नहीं बुझती, वैसे ही भोगों को भोगने से आपकी सुख की लालसा नहीं मिटेगी। निश्चय कर लीजिए कि संसार में सुख नहीं है।

मार्गदर्शक – पूज्य श्री हित प्रेमानंद जी महाराज

श्री हित प्रेमानंद जी महाराज राजा भर्तृहरि जी की कहानी की व्याख्या करते हुए

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