जनाबाई जी का जन्म गोदावरी तट पर गंगाखेड नामक एक ग्राम (महाराष्ट्र) में हुआ था। बचपन में ही इनकी माँ का निधन हो गया था। उनके पिता उन्हें भगवान विट्ठल के दर्शन के लिए पंढरपुर लाए और वहीं उनकी भी मृत्यु हो गई। जनाबाई जी के हृदय में भगवत् प्रेरणा से यह बात आई कि कोई भक्त अगर उन पर कृपा कर दे तो उन्हें भगवान का साक्षात्कार हो जाएगा। इसलिए जनाबाई जी ने आठ वर्ष की आयु में नामदेव जी महाराज के यहाँ सेवा करना स्वीकार कर लिया।
नामदेव जी निरंतर भजन परायण थे, और निरंतर भगवान के नाम में डूबे रहते थे। नामदेव जी जैसे महात्मा के यहाँ सेवा मिल जाना मतलब स्वयं प्रभु की सेवा से भी बड़ी सेवा मिल जाना था। जनाबाई जी के हृदय में एक ही बात थी कि वे नामदेव जी को प्रसन्न कर लें। जनाबाई अब नामदेव जी के पूरे परिवार की तन्मयता पूर्वक सेवा करने लगीं। वह उनके घर के सभी कार्य जैसे कपड़े धोना, आटा पीसना, भोग तैयार करना, बर्तन माँजना, झाड़ू-पोछा करना इत्यादि, सब स्वयं करने लगीं।
जनाबाई जी की भावमय स्तिथि: साधु सेवा का प्रभाव
जनाबाई को सेवा में बड़ा आनंद आने लगा। नामदेव जी की सेवा और संग के प्रभाव से उनका निरंतर नाम जप चलने लगा। जो नामदेव जी जप और कीर्तन करते थे, वही जनाबाई जी भी कीर्तन और नाम स्मरण करने लगीं। नाम स्मरण करते-करते कभी जब वह पोछा लगा रहीं होतीं तो एकदम से उनके हाथ रुक जाते और अश्रु चलने लगते और प्रभु के लिए विकलता प्रकट होने लगी। श्री जनाबाई जी की भावदशाएँ आने लगी और उनके हृदय में भगवान विट्ठल के प्रति प्रबल आसक्ति होने लगी। जब कभी सेवा के बाद कुछ समय मिलता तो वो मंदिर में जातीं और ठाकुर जी को देखती रहतीं। ठाकुर जी को देखते-देखते उनको एकदम से विकलता होती और वो रोने लगतीं। जब आनंद बढ़ता तो वो नाचने लगतीं। जनाबाई जी की यह दशा केवल श्री नामदेव जी की सेवा से होने लगी।
जनाबाई जी सभी कार्य करते हुए सावधानी रखतीं कि सेवा में कोई त्रुटि न हो और नाम विस्मरण ना हो। ऐसे जनाबाई श्री नामदेव जी की सेवा में मगन रहने लगीं। वह सावधान रहतीं कि वे अपनी स्तिथि में इतना ना डूब जाएँ कि उनकी सेवा छूट जाए। क्योंकि सेवा भक्त की प्रसन्नता के लिए है और भक्त की प्रसन्नता से ही विट्ठल भगवान रीझ जाएंगे। उनके हृदय की इस धारणा और भगवान के नाम का ऐसा प्रभाव हुआ कि अब उनके आँसू नहीं रुकते थे। सभी कार्य करते हुए उनका अश्रु प्रवाह होता रहता था। जिस स्थिति की बड़े-बड़े साधु और उपासक आकांक्षा करते रहते हैं, वह जनाबाई को केवल भक्त संग की कृपा से प्राप्त हो रही थी।
एकादशी कीर्तन में मगन रहतीं जनाबाई
एकादशी के दिन नामदेव जी के यहाँ रात्रि में भक्त मंडली एकत्रित होकर कीर्तन करती थी। कोई मृदंग बजाता, कोई करताल बजाता, कोई नृत्य करते हुए नाम कीर्तन करता। कोई प्रभु की आनंदमय लीलाओं का गायन करता तो कोई एकांत में बैठा हुआ उन लीलाओं और कीर्तन को सुनकर अश्रु प्रवाह करता। नामदेव जी के यहाँ पूरी एकादशी की रात्रि को ऐसा कीर्तन होता और जनाबाई सब संतों की सेवा करके एकांत कोने में खड़ी रहतीं। वो नामदेव जी और बड़े-बड़े भक्तों की भावदशाएं देखतीं थीं तो उनके हृदय में विकलता और बढ़ जाती थी। संकीर्तन के आनंद सागर में वे पूरी रात डूबी रहतीं थीं। उनको यह पता ही नहीं चलता था कि रात्रि कब व्यतीत हो गई। यही है महाप्रेम का स्वरूप। प्रातः काल होते ही भक्त मंडली चली जाती और जनाबाई भगवत् प्रेम की मादकता में बावरी हुई ठाकुर जी की प्रसन्नता के लिए श्री नामदेव जी की सेवा में मगन रहने लगतीं।
एक रहस्यमय वृद्धा ने की जनाबाई की सेवा में मदद
एक दिन एकादशी की रात्रि में जनाबाई भाव में ऐसी डूबी हुईं थी कि सुबह हो गई और उनकी सेवा बाक़ी रह गई। घबराते हुए उन्होंने सोचा कि पहले वस्त्र धो लें। जब वह चंद्रभागा नदी के पास पहुँची तो उनके मन में बहुत सी चिंताएँ एक साथ आने लगी। वह सोच रहीं थीं कि अभी तो बर्तन धोने हैं और ठाकुर जी की सेवा के लिए पानी भी भरने जाना है। आज तो बहुत देर हो गई, कैसे मैं सब सेवाएँ पूरी कर पाऊँगी। वह यह सोच ही रहीं थी कि एक वृद्ध माता उनके पास आई और कहा कि जनाबाई तू चिंता क्यों कर रही है? तू जाकर बाक़ी के काम कर ले। मैं तेरे सारे कपड़े धो देती हूँ। जनाबाई ने कहा कि आप मेरा काम क्यों करेंगी? वृद्धा ने कहा, मैं सच्ची सफाई और धुलाई करना जानती हूँ। जो कपड़े मैं एक बार धोती हूँ वह दोबारा गंदे नहीं होते। जनाबाई समझ नहीं पाईं। बुढ़िया ने प्रेम से कहा कि तू चिंता मत कर। तू मेरे जैसे कपड़े साफ नहीं कर सकती। जनाबाई ने कहा कि अब मुझे तत्काल नामदेव जी के घर जाना होगा क्योंकि मैंने बर्तन नहीं धोए। वो यह कहकर और कपड़े वहीं नदी के किनारे छोड़कर चली गईं।
जनाबाई बर्तन धोकर और जल भरकर वापस आईं तो उन्होंने देखा कि उन माता ने सब कपड़े धोकर सुखा दिए थे। जनाबाई ने देखा कि सारे कपड़े एकदम साफ़ हो गए थे। जनाबाई ने हाथ जोड़कर कहा कि आप जैसा उदार तो मुझे जीवन में कोई नहीं मिला। जनाबाई ने बोला कि मैं आपका बहुत आभार मानती हूँ। मैया ने कहा कि आभार की क्या बात है, मैं तो तुम्हारी ही हूँ। अपनों से आभार थोड़ी प्रकट करते हैं। ऐसा कहकर, मुस्कुराते हुए, वह वृद्ध माई वहाँ से चली। जाते-जाते उन्होंने कहा अगर कभी भी ज़रूरत हो तो मुझे याद कर लेना। तुम जब याद करोगी तो मैं तुम्हारी सेवा के लिए उपस्थित हो जाऊंगी।
जनाबाई जी भाव में डूब गईं क्योंकि उस वृद्धा की मुस्कुराहट ने उनके हृदय में आनंद का वर्धन किया। जब चेतना आई तो उन्होंने सोचा कि मैंने तो पूछा ही नहीं कि वो कहाँ रहती हैं और उनका नाम क्या है। उन्होंने आसपास देखा तो वृद्धा दिखाई नहीं दी। अब तो उनके हृदय में विकलता हुई कि शरीर तो इतना वृद्ध था उनका फिर कैसे वो हवा की तरह भाग गईं। वह कौन हो सकती है?
भगवान विट्ठल ही थे वृद्धा मैया
जनाबाई सब कपड़े लेकर घर पहुंची। उनका हृदय बड़ा व्याकुल था कि आखिरकार वह वृद्धा कौन थी? और वो अपनी मुस्कुराहट से कैसा जादू कर गई कि मेरा चित्त बार-बार उसी का चिंतन कर रहा है। जनाबाई गदगद कंठ से नामदेव जी के समीप गईं और उनको पूरी घटना सुनाई। नामदेव जी ने तत्काल जनाबाई जी से कहा, अरे वह और कोई नहीं था, वह तो विट्ठल ही थे। नामदेव जी को आश्चर्य हुआ कि विट्ठल जी जनाबाई से कितना प्यार करते हैं कि उन्होंने स्वयं आकर उनके सब कपड़े धो दिए। कैसा महिमामय स्वरूप है भक्ति का। श्री नामदेव जी ने कहा कि जनाबाई तेरे तो अहो भाग्य हैं कि तेरे ऊपर ठाकुर की कृपा हुई, तू समझ नहीं पाई। अब तो जनाबाई के हृदय में और प्रणय कोप बढ़ गया, कि प्रभु आए भी तो ऐसे छलिया रूप लेकर आए। जनाबाई रोने लगी कि इतने छलिया हो कि आप आए भी और मुझे परिचय भी नहीं मिल पाया। और दूसरी बात कि आपने मेरे लिए इतना कष्ट सहा, मेरे लिए इतने सारे कपड़े धोए।
जनाबाई के लिये भगवान विट्ठल ने उठाया कूड़ा और चलाई चक्की
प्रभु सदैव अपने भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं। परम स्वतंत्र ईश्वर को अगर कोई बाँध सकता है तो वह है केवल उनके भक्त। एक बार जनाबाई जी प्रेम में मगन होकर झाड़ू लगा रहीं थीं और उन्होंने कूड़े का ढेर लगाया। जब वह कूड़ा भरने के लिए आईं तो उन्होंने देखा कि टोकरी लिए हुए प्रभु ख़ुद कूड़ा भर रहे थे। अब वो बुढ़िया के रूप में नहीं आते थे, अब वह साक्षात विट्ठल के रूप में आते थे।
चक्की में आटा पीसते हुए जनाबाई कभी-कभी पद गाते हुए भाव में डूब जातीं और इस वजह से चक्की रुक जाती। सेवा में कहीं देर ना हो जाये इसलिए ठाकुर जी ख़ुद आकर चक्की पीसने लगते। प्रभु जनाबाई का अभंग सुनते रहते और जनाबाई जी प्रेम में मगन रहतीं। जनाबाई जी घर में जब झाड़ू लगतीं, तो कचरा स्वयं विट्ठल भगवान उठाते । वह टोकरी को सर पर रखकर जनाबाई जी के पीछे पीछे डोलते।
भक्ति की कैसी अद्भुत महिमा है, भक्त की भक्ति से प्रभु अधीन हो जाते हैं। बार-बार विट्ठल जी यही कहते कि जनाबाई मैं तुम्हारा ऋणी हूँ, मैं कैसे कैसे यह ऋण उतर सकता हूँ, मुझे बता दो। तुम मेरे भक्त नामदेव जी की सेवा करती हो। जनाबाई अगर ओखली में धान कूटतीं तो प्रभु सामने खड़े होकर मुस्कुराते रहते। यह सब भक्त, नामदेव जी की कृपा से हुआ। वे कहतीं कि जब मैं नामदेव जी की दासी बनी, जब उनकी सेवा की, तो मैंने पाया कि दूसरा कोई है ही नहीं, एकमात्र मेरे विट्ठल ही चराचर जगत में व्याप्त हैं। वो सदैव मेरे सहयोग में हैं, मेरी सेवा में मेरे समीप हैं। यह सब मैं नामदेव जी की दासता से जान पाई। प्रभु मेरे पीछे-पीछे डोल रहे हैं, यह सिर्फ़ नामदेव जी की दासता के कारण ही हुआ।
जनाबाई को दी गई सूली की सजा
एक दिन भगवान विट्ठल का बहुत महँगा आभूषण चोरी हो गया। जनाबाई जी सेवा करने के लिए मंदिर जातीं थीं। सबको संदेह हो गया कि जनाबाई जी ने ही वो आभूषण चोरी किया होगा। यह बात फैल गई। जनाबाई को लोग कलंकित करने लगे कि ये बहुत भक्त बनती है लेकिन देखो इसने ठाकुर जी का आभूषण चुरा लिया। जनाबाई जी को सभा में बुलाया गया और पूछा गया कि तुमने वो हार चुराया है क्या। जनाबाई ने कहा कि मेरे प्राण धन श्री विट्ठल भगवान हैं, मैं उनका हार क्यों चुराऊँगी, वह ख़ुद मेरे हैं, मुझे हार चुराने की क्या जरूरत है। भक्त की भावनाओं को तो कोई भक्त ही समझ सकता है। जनाबाई जी ने शपथ खाकर कहा कि मैंने ये रत्न का आभूषण नहीं चुराया है। किसी ने जनाबाई की बात पर विश्वास नहीं किया। राजा ने जनाबाई को सूली की सजा दे दी। सूली पर चढ़ाने के लिए जनाबाई को हाथ बाँधकर चंद्रभागा नदी के तट पर ले जाया गया । जनाबाई जी के हृदय में आया कि बहुत बढ़िया, जैसी विट्ठल जी की इच्छा। वह बस विट्ठल-विट्ठल जपने लगीं। जैसे-जैसे वो विट्ठल बोलतीं वैसे-वैसे सूली (नुकीला लोहे का डंडा) पिघलती जाती। ऐसा होते होते पूरी सूली पिघल गई। सब आश्चर्यचकित हो गए। राज सैनिकों ने जनाबाई को प्रणाम किया और उनसे क्षमा मांगी।
यह लीला दो प्रभाव दिखाने के लिए हुई। पहली, जनाबाई जी को कोई भय नहीं था क्योंकि वह सोच रहीं थीं कि सूली की सजा मेरे प्रीतम का विधान है और मेरे प्रीतम के मिलन के लिए अब ये शरीर छूटने वाला है तो कोई भय नहीं। और दूसरी बात ये कि एक भक्त कितनी महिमा से युक्त होता है। इससे प्रभु दिखाते हैं कि उनके भक्त को प्रकृति का कोई भी प्रहार विचलित नहीं कर सकता, नष्ट नहीं कर सकता।
गोबर के कंडे बोलने लगे विट्ठल-विट्ठल
एक बार कबीरदास जी महाराज श्री नामदेव जी के दर्शन करने जा रहे थे। उन्होंने देखा कि कुछ शोरगुल हो रहा है तो किसी से पूछा कि क्या हो रहा है। उन्हें बताया गया कि जनाबाई जी किसी स्त्री से लड़ रही हैं। कबीरदास ने पूछा कि जनाबाई कौन हैं, तो उन्हें बताया गया कि वह नामदेव जी की सेवा में रहती हैं। वे नजदीक गए तो पता लगा कि लड़ाई गोबर के कंडों पर हो रही है। उनके मन में विचार आया कि एक भक्त कंडों के लिए कैसे लड़ सकता है? वह ऐसे ही आनंद मगन होकर उनका झगड़ा सुनने लगे।
वह दूसरी स्त्री कह रही थी कंडा मेरा है, जनाबाई ने कहा नहीं मेरा कंडा है। उस स्त्री ने जनाबाई से पूछा कि तेरे कंडे की पहचान क्या है? जनाबाई जी ने बोला कि कान में लगा के सुनो, मेरा कंडा बोल रहा है विट्ठल-विट्ठल। यह आश्चर्य की बात है, जड़ वस्तु से नाम गूँजने लगा। जब सामने वाली स्त्री ने भी सहमति दी कि कंडे से विट्ठल-विट्ठल सुनाई दे रहा है तो कबीर दास जी को भी लगा कि देखा जाए कि यह बात कितनी सच है। कबीर दास जी ने भी कंडे को कान पर लगाया तो विट्ठल-विट्ठल सुनाई दिया। उन्होंने जनाबाई जी के चरणों में प्रणाम किया। कबीरदास जी ने सोचा कि कितने महान हैं नामदेव जी कि उनकी सेवा में रहने वाली दासी के भी ऐसे महान परमाणु हैं कि जिस चीज़ को उन्होंने छू लिया वो विट्ठल-विट्ठल बोलने लगी।
जनाबाई जी की नामदेव जी से ऐसी तनमयता हो गई थी कि जब नामदेव जी ने समाधि ली तो ठीक उसी दिन कीर्तन करते हुए जनाबाई भी विट्ठल भगवान में विलीन हो गईं।
निष्कर्ष
जो भक्तों के चरणों का आश्रय लेता है, उसके सारे विकार नष्ट करके प्रभु उसे भगवत् अनुराग में रंग देते हैं। इस प्रसंग से हमें सीखने को मिलता है कि किसी भक्त की सेवकाई से प्रभु कितने प्रसन्न होते हैं और भक्तों के प्रति श्रद्धा रखने से भगवत्प्राप्ति कितनी सरल हो जाती है।
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मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज