चोखामेला जी महाराष्ट्र के एक गृहस्थ संत थे। वो बड़ी मेहनत से गृह निर्माण कार्य से जो धन मिलता था उससे गुज़ारा करते थे। तो उनके पास कुछ ही रुपए होते थे। एक दिन वो अपने घर के ठाकुर जी की सेवा के लिए सब्जी लेने जा रहे थे। उन्होंने देखा बाज़ार में बहुत बड़े-बड़े केले रखे हुए थे। देखते ही उनके मन में आया कि यह केले विट्ठल भगवान को बहुत अच्छे लगेंगे। उन्होंने सब्जी नहीं ली, उन्हीं पैसों से केले ले लिए। उनको मंदिर में अंदर प्रवेश का अधिकार नहीं था; तो वे दरवाजे पर खड़े हुए, आवाज लगाई कि विट्ठल भगवान को केले का भोग लगा दीजिए।
भगवान के कुछ सेवकों ने उन्हें धक्का मार कर बाहर कर दिया। उन्होंने कहा, तुम क्या समझते हो, दो चार बार प्रभु का नाम ले लिया तो इतने बड़े भक्त हो जाओगे कि तुम्हारे हाथ का छुआ हुआ भोग भगवान पा लेंगे?
भक्त का पवित्र हृदय
चोखामेला जी को इस बात से बुरा नहीं लगा कि उनके साथ दुर्व्यवहार हुआ। वह एकांत में जाकर प्रभु से बात करने लगे कि मेरा अपमान हुआ इस बात का मुझे कोई दुख नहीं, लेकिन आपने ऐसा क्यों किया? मेरे हृदय में आपने ही प्रेरणा की और फल देखकर के मेरे मन में आया कि आप खाना चाहते हैं; तो मैं आपके लिए केले ले गया। मुझे ऐसी जगह पैदा ही क्यों किया जहाँ की सेवा आपको पसंद नहीं? आप तो सब कुछ कर सकते थे ना! उसके बाद फिर आपने केले खाने की चाह प्रकट क्यों की? यदि आप ऐसा ही चाहते हैं तो फिर मैं इस शरीर को रख कर क्या करूँगा? क्योंकि ये शरीर आपकी सेवा के योग्य नहीं है। आज से मेरा अन्न-जल बंद और अब मैं इस शरीर को त्याग दूंगा। उन्होंने अपनी कुटिया का दरवाजा बंद कर लिया और निश्चय कर लिया कि इस शरीर में ना जल डालेंगे और ना ही अन्न डालेंगे।
ठाकुरजी स्वयं चल कर आए चोखामेला जी के घर
जैसे ही मंदिर में ठाकुरजी को शयन कराया गया, ठाकुरजी वहाँ से बाहर निकले। ठाकुर जी ने चोखामेला जी की कुटिया के बाहर जाकर उनका दरवाज़ा खटखटाया। उन्होंने बड़ी ही अमृतमयी वाणी से चोखामेला को आवाज़ लगायी। चोखामेला जी एकदम आकर्षित हुए। उन्होंने पूछा कौन है? ठाकुर जी ने कहा ,चोखामेला जी, बहुत भूख लगी है। जैसे ही दरवाज़ा खोला तो सामने नवकिशोर अवस्था के ठाकुरजी खड़े थे। आनंद समुद्र प्रभु को सामने देख कर चोखामेला जी आह भर कर रो पड़े। प्रभु ने कहा रोने-धोने का समय नहीं है, मुझे बहुत भूख लगी है। चोखामेला जी के पास जैसा भी था उन्होंने वैसा आसन बिछाया और कहा विराजिये। ठाकुरजी ने कहा नहीं-नहीं, आसन पर नहीं, तुम्हारे गोद में बैठ कर खाऊँगा। ठाकुर जी ने कहा वो जो केला लाए थे ना, वो ले आओ। चोखामेला जी बोले, हाँ प्रभु, मुझे अपमानित कर के भगा दिया गया तो वो रखा हुआ है। ठाकुरजी अब चोखामेला जी के गोद में बैठ कर केला खा रहे हैं। प्रभु बोले, आज जो स्वाद मिल रहा है, वो मुझे मंदिर में लगाए हुए भोग में भी नहीं मिलता। रुक्मिणी जी को भी पता चले कि मेरे प्रेमी जनों द्वारा दी गई वस्तु में कितना स्वाद है, इसलिए आप मुझे दो केले रुक्मिणी जी के लिए दे दीजिए। ठाकुरजी ने बाकी सब केले खा लिये और चोखामेला जी से कहा, आप आनंदित रहो। मैं उन्हीं का होता हूँ जो मेरे लिए हैं। मैं किसी जाति, कुल, साधना, अवस्था, तपस्या का नहीं होता। इसका तो केवल कुछ सुकृत फल होता है। लेकिन जो केवल मेरे लिए है, मैं उनका होता हूँ।
ठाकुरजी ने नाराज़ होकर मंदिर का द्वार नहीं खोला
ठाकुर जी वापस अपने मंदिर में आए, रुक्मिणी जी को अपने भक्त द्वारा दिया हुआ केला खिलाया और आँगन में छिलके फेंक दिए। उन्होंने मंदिर का दरवाजा अंदर से बंद कर दिया। सुबह दर्शन के लिए हज़ारों भक्तों की भीड़ लगी। ठाकुर जी की सेवा करने वाले सेवक बाहर से ताला लगा कर जाते थे, उन्होंने जब ताला खोला तो दरवाज़ा नहीं खुला। सब बहुत परेशान हो गए और रोने लगे। पुजारियों ने प्रभु से प्रार्थना की कि प्रभु कोई अपराध हो गया क्या? ठाकुर जी ने कहा, यह दरवाज़ा तभी खुलेगा जब आप सब चोखामेला जी को लेकर आयेंगे और वह दरवाज़ा खोलने के लिए कहेंगे । निजी सेवकों ने कहा, प्रभु, हम अभी जाते हैं। ठाकुरजी ने कहा, ऐसे नहीं, पालकी लेकर जाओ। चोखा मेला जी को पालकी में बिठाकर लाओ। वो दैन्य हैं, तो शायद वो पालकी में ना बैठें। आप उनके चरण पकड़ना, प्रार्थना करना, लेकिन उनको पालकी में ही बिठा कर लाना।
पालकी में बैठकर आए चोखामेला जी
ठाकुर जी अपने सेवकों के जीवन आधार थे। वो पालकी लेकर चोखामेला जी को लेने के लिए भागे। सब लोग आश्चर्यचकित हो रहे हैं कि कल मंदिर के दरवाज़े से जिसको धक्का दिया गया था, आज उसे ही भगवान के सेवक पालकी में लेने जा रहे हैं। जैसे ही सेवकों ने पालकी में बैठकर मंदिर चलने की बात की तो चोखामेला जी तो साष्टांग लेट गए। उन्होंने कहा मैं इस योग्य नहीं हूँ। सेवकों ने उनके चरण पकड़ लिए कि अब आप और मत छुपाइए, हम जान गए हैं कि आप किस कोटि के महान भक्त हैं। उन्होंने ज़बरदस्ती चोखामेला जी को पालकी में बिठाया, और इनकी जय जयकार करते हुए उन्हें मंदिर में लाए।
मंदिर में जाते ही, चोखामेला जी ने आंसू बहाते हुए प्रभु से प्रार्थना की। उन्होंने कहा, प्रभु, बस करो! अब तो दरवाज़ा खोल दो। इसके बाद तत्काल मंदिर के दरवाज़े खुल गए।
निष्कर्ष
चोखामेला जी की एक छोटी सी सेवा ने चमत्कार प्रकट कर दिया। यदि हम आठों पहर प्रभु की भक्ति करेंगे तो कैसा जीवन होगा? आप स्वयं विचार करके देखें।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज