भक्त रामदास जी गोदावरी के किनारे कनकावती नाम की एक नगरी में रहते थे। वह अत्यंत दैन्य और गरीब थे। उनके पास ठीक से पहनने के लिए वस्त्र भी नहीं थे। वह रोज का रोज कमाकर अपने परिवार का भरण पोषण करते थे और आए हुए अतिथि का सत्कार करते थे। उनको सत्संग से बड़ा प्यार था। वह केवल भगवत् आश्रित थे, उनके पास और कोई संपत्ति नहीं थी। वह दूसरों के फटे पुराने जूते ठीक करने का काम करते थे। वो सत्संग में सबसे पीछे जाकर बैठते, जो बात समझ में आई, आई, नहीं तो बस सुनते रहते और जब भगवान के नाम का कीर्तन होता तो नाचने लगते। एकांत में वो कभी-कभी हृदय से पुकार उठते, “हे हरि, मैं जैसो तैसो तेरो”। इसके अलावा उन्हें और कुछ नहीं आता था। वो एकदम भोले-भाले भक्त थे। यह पंक्ति, “हे हरि, मैं जैसो तैसो तेरो”, उनको इतनी अच्छी लगी कि वो निरंतर इस पंक्ति को गुनगुनाते रहते। इससे उन्होंने प्रभु से संबंध बना लिया, उनका मन पवित्र हो गया। कभी-कभी वो आंसू बहाते और इस पंक्ति को गुनगुनाते।
रामदास जी को मिले शालिग्राम
एक दिन, एक चोरों की मंडली, किसी धनी के यहाँ चोरी करके आई। उन्हें वहाँ शालिग्राम भगवान एक स्वर्ण के सिंहासन पर विराजमान मिले। सिंहासन तो उन्होंने बेच दिया, और सोचा कि ये काला पत्थर हमारे किस काम आएगा? उन्होंने देखा कि रामदास जी एक पत्थर पर अपने औजारों की धार तेज़ कर रहे थे। वो चोर उनके पास आए और कहा कि अगर तुम हमें नए जूते दे दो, तो हम तुम्हें ये चिकना पत्थर दे देंगे, ये तुम्हारे औज़ार घिसने के काम आएगा। रामदास जी ने चोरों से शालिग्राम जी को ले लिया।
उन्होंने जब चिकने पत्थर में अपने औजार घिसे तो उनकी बढ़िया तेज़ धार हो गई। उन्होंने सोचा कि चलो जूतों के बदले में अच्छा पत्थर मिल गया। अब वो उस पत्थर से औज़ार घिसते रहते और कभी-कभी आंसू बहाते और कहते, “हे हरि, मैं जैसो तैसो तेरो”। उनके आंसू शालिग्राम पे गिरते। अब जब जोर से घिसना होता तो वो दोनों चरणों के बीच में शालिग्राम जी को फँसा लेते और फिर घिसते। शालिग्राम जी को अपने पैरों के बीचे में पकड़कर उनको बड़ा आनंद मिलता। भगवान बड़े लीलाबिहारी हैं, उन्हें इससे कोई फ़रक नहीं पड़ता कि आप उनके साथ क्या कर रहे हैं।
रामदास जी ने शालिग्राम एक पंडित को दे दिये
एक दिन कोई पंडित जी अपनी पादुका ठीक कराने आए। जब उनकी दृष्टि रामदास जी के काले पत्थर पर गई तो उन्होंने देखा कि वह शुभ चिन्हों से युक्त था, और उस पर चक्र का चिन्ह बना हुआ था, वह समझ गए कि यह तो साक्षात शालिग्राम जी हैं। ब्राह्मण ने कहा तुम्हारी बुद्धि मारी गई है, यह तुम क्या कर रहे हो? रामदास जी ने कहा अपने पत्थर से अपने औजार की धार बढ़ा रहा हूँ। ब्राह्मण समझ गए कि ये मूढ़ आदमी हैं, इससे क्या ही बात करें। उन्होंने कहा तुम्हें जितने रुपए चाहिए, मैं तुम्हें दूंगा, यह पत्थर मुझे दे दो। उसने सोचा कि अब इसे क्या समझाएँ कि ये स्वयं भगवान हैं, इसके क्या समझ में आएगा जब इसकी ऐसी हालत है कि ये शालिग्राम भगवान को अपने पैरों में रखता है।
रामदास जी ने कहा कि ये पत्थर मेरे तो बहुत काम में आया है, लेकिन आपकी इच्छा है तो ले जाइए। मैंने इसके ना तो पैसे दिये थे, ना ही आपसे कोई पैसे लूँगा, आप ले जाइए इसे। ब्राह्मण यह सुनकर आनंदित हुए और शालिग्राम भगवान लेकर अपने घर को चले।
पंडित जी की सेवा से असंतुष्ट हुए ठाकुर जी
पंडित जी घर आए, उन्होंने जल और दूध से शालिग्राम जी का अभिषेक किया, उनको सुंदर सिंहासन में विराजमान किया, मंत्रों से उनका पूजन किया। उन्होंने सोचा कि भगवान मेरी इस चेष्टा से प्रसन्न होंगे क्योंकि वहाँ वो पैरों में पड़े हुए थे और यहाँ मैं उनको सुख पहुँचा रहा हूँ। पंडित जी की इस प्रकार की सेवा और पूजा से ठाकुर जी असंतुष्ट हो गए।
पंडित जी पूरी पूजा विधि जानते थे लेकिन उनके हृदय में प्रभु के प्रति अपनापन नहीं था। रामदास जी को कोई ज्ञान नहीं था पर उनके हृदय में था कि मैं प्रभु का हूँ, प्रभु मेरे हैं। वो कभी-कभी आंसू बहाते, तो वो आंसू जो शालिग्राम भगवान के ऊपर गिरते, उनसे बड़ा पंडित जी का पंचामृत नहीं था। और जब वो आह भर के पुकारते , “हे हरि, मैं जैसो तैसो तेरो”, ठाकुर जी को उसके सामने वेद मंत्र अच्छे नहीं लगे।
ठाकुर जी आए पंडित जी के सपने में
ठाकुर जी ने स्वप्न में एक वैष्णव का रूप धारण किया और उन ब्राह्मण से कहा कि तुम मुझे रामदास जी के पास पहुँचा दो। यह तुम्हारा अभिषेक और सिंहासन में विराजमान करना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा। मुझे उसकी सुखी रोटी और आह भरी पुकार ने खरीद लिया है। मुझे वही पहुंचाओ। अब जब स्वयं भगवान ने स्वप्न में ऐसा आदेश कर दिया तो उसके तो होश ही उड़ गए।
ब्राह्मण ने सोचा कि मैं जिसे अनपढ़ और गवार समझता था, प्रभु उसे इतना प्यार करते हैं। अब पंडित जी ने हाथ में सुंदर वस्त्र पर शालिग्राम भगवान को लिया और भगवान से कहा कि आपको पता है कि आपके ऊपर वह औजार घिसता है। चंदन तिलक लगाने की बात जाने दो, सिंहासन में विराजमान करने की भी बात जाने दो, आप पर पैर रख के औजार घिसता है, और आपको वो पसंद है? प्रभु ने कहा जब वो आंसू बहाते हुए मेरा नाम बोलता है ना, मुझे इतना सुख मिलता है जो तुम्हारे वेद मंत्रों से भी नहीं मिलता। और जब वो मेरे ऊपर पैर रखता है तो मुझे ऐसा लगता है कि वो आत्मसमर्पण कर रहा है।
ब्राह्मण यह सुनकर बहुत दैन्य हुए कि यह मेरा दुर्भाग्य है कि आज तक मुझे वह प्राप्त नहीं हुआ जो रामदास जी को प्राप्त है, क्योंकि स्वयं ठाकुर जी वहाँ जाना चाहते हैं। यह विचार करके उन्होंने शालिग्राम जी को रामदास जी के घर लेकर जाने का निश्चय किया। और वह मन में बहुत जल रहे थे कि मैं ब्राह्मण हूँ लेकिन आडंबरी हूँ, मेरे अंदर वह बात नहीं है जो उस दैन्य भक्त रामदास के हृदय में है। वह यह सब सोच कर बार-बार शालिग्राम को हृदय से लगा के विकल होकर रोने लगते। यह है किसी भी तरह से एक भक्त का संग होने का असर। यह रामदास जी के दर्शन का प्रभाव था, अब वो दैन्य होकर जा रहे हैं कि क्या मेरे अंदर भी भक्ति आएगी? मेरी पूजा आपको पसंद नहीं तो प्रभु मुझे ऐसा भाव दे दो, जिससे मैं रामदास जी जैसी भक्ति कर सकूँ। भगवत् प्रेमी महात्मा का संग होते ही जाति का अभिमान, कुल का अभिमान, विद्या का अभिमान, सब नष्ट होने लगता है।
पंडित जी शालिग्राम जी को वापस रामदास जी के पास ले गए
ब्राह्मण जी शालिग्राम भगवान को एक कपड़े में रखकर रामदास जी के घर आए और देखा कि रामदास जी के आंखों से आंसू चल रहे थे, उने तो होश उड़ गए। बार-बार मुख से निकाल रहा था, “हे हरि, मैं जैसो तैसो तेरो”। उनके कपड़े फटे और पुराने हैं, शरीर बहुत दुबला पतला और कमजोर है क्योंकि खानपान की उचित सामग्री उनके पास है नहीं। उनको बस एकांत में बैठकर बार-बार प्रभु को पुकारना अच्छा लगने लगा। उसको यह भी पता नहीं कि यही भक्ति है।
ब्राह्मण ने जब यह सब देखा तो बोले, धन्य हैं आप, आपके माता-पिता धन्य हैं। रामदास, आप तो बड़े महात्मा निकले, मैं तो आपकी ऊंची स्थिति को समझ ही नहीं पाया। आपके अधीन स्वयं भगवान हैं। अब धीरे-धीरे रामदास जी के नेत्र खुले, वो अपने भाव से बाहर निकले। पंडित जी ने उन्हें बताया कि यह जिन पर तुम पत्थर समझ कर अपना औजार घिसते थे, यह साक्षात शालिग्राम भगवान है, ये सारे विश्व के स्वामी हैं, घट-घट में विराजमान है। यह सबके आश्रय हैं, इनकी शरणागति में जाने से जीव बंधनमुक्त हो जाता है। यह तुम्हारी सरलता और प्रेम से रीझ गए हैं। जब मैं इनको ले गया, मैंने पंचामृत से इनका अभिषेक किया, वैदिक स्तोत्रों द्वारा इनकी स्तुति की, इनकी सेवा की, इनको भोग लगाया। यह सब इनको पसंद नहीं आया। इनको तुम पसंद आए। मेरे स्वप्न में एक वैष्णव रूप धारण करके ये आए और मुझे ऐसा आदेश किया कि मुझे रामदास जी के पास वापस भेज दो।
रामदास जी को हुई प्रभु को देखने की लालसा
यह सुनकर रामदास जी रो पड़े कि मैं तो महान पापी हूँ। मैं तो समझ ही नहीं पाया कि ये भगवान हैं और इनके साथ ऐसा व्यवहार करता रहा। मैं तो बहुत बड़ा अपराधी हूँ। मैं कितना निर्दयी, कितना नींच हूँ। देखो मैंने क्या किया। वो रोने लगे। ब्राह्मण ने उन्हें बताया कि तुम्हारे अंदर जो भाव आया है ना, यह बहुत कृपा से आता है। ब्राह्मण के वचन सुनकर रामदास जी के हृदय में थोड़ी सी शीतलता आई। उन्होंने ब्राह्मण के चरणों में नमन किया और ब्राह्मण वहाँ से चले गए।
जैसे ही ब्राह्मण वहाँ से गए, रामदास जी ने शालिग्राम की मूर्ति लेकर उसको हृदय से लगाया और खूब रोने लगे। वो कहने लगे कि प्रभु मैं जान नहीं पाया कि आप ही हो। वह शालिग्राम जी को घर में ले गए, फटा पुराना जो भी कपड़ा मिला उसे बिछाया, और आसन पर शालिग्राम रखे और जो रूखा सूखा उनके घर में होता, ठाकुर जी को भोग लगाते, और गदगद कंठ से प्रभु को पुकारते।
कई दिन ऐसी सेवा के बाद उनके हृदय में यह बात आई कि मैं तो जानता नहीं कि आप शालिग्राम भगवान हो, पंडित जी ऐसा बोलकर गए हैं। यदि आप भगवान हैं, तो मुझे दर्शन दीजिए। आप अगर मुझे प्यार करते हैं, तो अब छुपा-छुपी का खेल बंद करें और मुझे दिखाइए कि कैसे होते हैं भगवान! मुझे तो पता नहीं।अगर मुझे आपके दर्शन नहीं मिलेंगे, तो मैं प्राण त्याग दूंगा, मैं अब आपके बिना जी नहीं सकता!
भक्त का भाव भगवान को मिलने पर मजबूर कर देता है
रामदास जी की प्रेम भरी पुकार सुनकर सर्वेश्वर प्रभु स्थिर ना रह सके। वो एक वैष्णव का रूप बनाकर रामदास जी के घर पहुंचे। रामदास जी के तो आंसू चल रहे थे, वो प्रभु के प्रेम में झूम रहे थे। भगवान वहां खड़े हैं, प्रेम दशा का निरीक्षण करके, मुस्कुराते हुए उससे बोले, “अरे भैया, ये तू नाच कूद क्यों मचा रहा है? कुछ मिल गया है क्या तेरे को? रामदास जी को आवाज सुनाई दी तो उन्होंने आँख खोल के देखा कि कोई वैष्णव है, उन्होंने उन्हें साष्टांग दंडवत प्रणाम किया। उन्होंने वैष्णव से कहा कि जब से ये शालिग्राम मिले हैं, तब से मेरे हृदय में कुछ हो रहा है, बेचैनी हो रही, मुझसे जीया नहीं जा रहा। वैष्णव ने उनसे पूछा कि क्या आप इन शालिग्राम को भगवान समझकर पूजते हैं? रामदास जी ने कहा, हाँ, मेरे अंदर एक आकांक्षा हुई है कि मैं भगवान को साक्षात देखूँ। पर मुझे अब तक उनके दर्शन नहीं हुए। मुझे कोई पूजा विधि नहीं आती, कोई मंत्र आदि नहीं आता, जैसा मन में आता है वैसे मैं इनकी सेवा करता हूँ। क्या दीन-दयालु प्रभु, मुझ पर रीझ जाएँगे? ऐसा कह कर रामदास जी चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगे।
रामदास जी को मिले भगवान
वैष्णव ने कहा कि यह बात तो ठीक नहीं है। भगवान बड़े-बड़े योगियों, मुनियों की तपस्या से भी उनको दर्शन नहीं देते तो तुम जैसे मनुष्य को भगवान कैसे दर्शन देंगे? मेरी बात मानो, यह दर्शन की बात छोड़ो और अपना काम धंधा करो, थोड़ी देर रोज़ भजन साधन कर लिया करो। वैष्णव की यह बात सुनकर मानो रामदास जी का हृदय फट गया। उनकी आंखें खुली की खुली रह गईं। उन्होंने कहा वैष्णव देवता आपका कहना सत्य है, मैं भगवत् साक्षात्कार का बिलकुल अधिकारी नहीं हूँ, पर मैं क्या करूं, अब मुझसे जीया नहीं जाता। मेरे स्वामी बड़े करुणा सिंधु हैं, चाहे जो कुछ हो मुझे दर्शन मिलेंगे। रामदास जी नाचने लगे और फिर भी विकल होकर पुकारने लगे और प्रभु खड़े हुए यह सब देख रहे थे।
भगवान वैष्णव स्वरूप से बोले, बेटा रामदास तेरा जीवन धन्य है। मैं देखना चाहता था कि तू मेरे प्यार में कितना विकल है, देख मुझे। यह सुनकर उन्होंने आँखें खोली और देखा वह वैष्णव नहीं थे, वो भगवान श्याम सुंदर थे। उसने देखा कि वह स्वयं मदनमोहन त्रिभंगी लाल थे। उन्होंने अपने होठों पर बंसी धारण की हुई थी और आनंद मुद्रा में विराजमान थे और रामदास जी की तरफ़ देख रहे थे। प्रभु का सुंदर रूप देखकर वो आनंद समुद्र में डूब गए कि अभी तक मुझ से भगवान ही बात कर रहे थे।
निष्कर्ष
भगवान वैष्णव जनों से रोज मिलते हैं, आप भी पहचानना। किसी ना किसी रूप में आकर वो ठिठोलियाँ करते हैं, किसी ना किसी रूप में आकर वह अपने भक्तों से रोज मिलते हैं। रोज परीक्षा करें, पकड़ें उनको, कि कहीं इस रूप में मेरे प्रभु तो नहीं आ गए, मैं कहीं चूक ना जाऊँ। एक दिन वो पकड़े जाएँगे, वह करुणा का समुद्र हैं, वह रुक नहीं सकते, वह आपके पास ही हैं, वो रोज आपको दुलार करते हैं। जिस दिन ऐसी विकलाता आ जाएगी, उस दिन वो पर्दा हटा देंगे और आपको भी वैसा ही सुख मिलेगा जैसा रामदास जी को मिला। देवर्षि नारद जी कहते हैं कि भगवत् प्राप्ति के लिए ज़रूरी नहीं कि आप उच्च कुल में जन्मे हों, वेदों के पारंगत विद्वान हों, तपस्वी हों या बड़े दानी हों। प्रभु केवल आपका भक्ति भाव देखकर आपसे मिलते हैं। हृदय में प्रभु के प्रति अपनापन हो और तड़पन हो, तो निश्चित प्रभु मिल जाएंगे।
मार्गदर्शक – पूज्य श्री हित प्रेमानंद जी महाराज