बंधु मोहंती जी की कहानी: जगन्नाथ जी स्वयं इस भक्त के लिए लाए प्रसाद

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
बंधु मोहंती और भगवान जगन्नाथ जी की कथा

उड़ीसा के एक गाँव में बंधु मोहंती नाम के व्यक्ति रहते थे। वे बहुत ही गरीब थे और केवल भिक्षा माँग कर अपना व परिवार का पोषण करते थे। ये नित्य सत्संग के लिए जाया करते थे और इस से इनके मन में संकल्प बना कि जीवन का एकमात्र उद्देश्य है भगवद् प्राप्ति करना। इसलिए ये भिक्षा को भी ज़्यादा महत्व नहीं देते थे। बस पेट भरने के लिए दो-चार घरों से भिक्षा का प्रयास करते, यदि ना मिले तो उपवास कर लेते और एकांत में खूब नाम कीर्तन करते।

उन्होंने अपनी पत्नी को भी जीवन का परम लाभ समझाते हुए अपने साथ नाम कीर्तन करने को कहा। अब दोनों पति पत्नी साथ में भजन करने लगे। बंधु के हृदय में विकलता आने लगी कि अब मुझे भगवान ज़रूर मिलेंगे। अब उन्हें किसी परिवार, मित्र, संबंधी आदि से मिलना अच्छा नहीं लग रहा था।

जाके प्रिय न राम-बदैही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥

जिसे श्री राम-जानकी जी प्यारे नहीं, उसे करोड़ों शत्रुओं के समान छोड़ देना चाहिए, चाहे वह अपना अत्यंत ही प्यारा क्यों न हो।

तुलसीदास जी कृत विनय-पत्रिका

उनकी हालत बहुत ही दयनीय थी। उनके पास बिलकुल भी धन नहीं था और भिक्षा से भी अन्न कभी-कभी ही मिलता था। उनके पास पहनने को फटे, पुराने और गाँठ बंधे हुए कपड़े ही थे।

बंधु मोहंती जी का जगन्नाथ पुरी जाने का संकल्प

बंधु मोहंती और उनका परिवार जगन्नाथ पुरी के लिए निकला

जब कई दिनों तक भोजन नहीं मिला तो उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि यदि तुम साथ दो तो हम मेरे एक मित्र के पास जा सकते हैं। मेरा मित्र बहुत धनी और कृपालु है। मुझसे बहुत प्यार करता है। पाँच दिन का पैदल सफर है लेकिन उस के बाद हमें कभी भूखा नहीं रहना पड़ेगा।

उनकी पत्नी पतिव्रता थीं और बंधु मोहंती की बात समझते हुए साथ चलने को मान गईं। कई दिन से भूखे होने के कारण पाँच दिन के लिए चलना असंभव सा था। बंधु मोहंती अपने दो बच्चों और पत्नी के साथ उस गाँव से निकल पड़े। रास्ते में जब भी बच्चे या पत्नी भूख के कारण चल नहीं पाते तो बंधु कोमल-कोमल पत्ते चुनकर लाते और उन को खिलाते। उन्हें कई बार केवल पानी पी कर ही संतोष करना पड़ता और वह सब आगे बढ़ते रहे।

अंदर से प्रभु मिलन की चाह इतनी तीव्र थी कि बंधु मोहंती को भूख की परवाह नहीं थी। लेकिन अपने बच्चों और पत्नी को भूख से तड़पते देख वो अंदर ही अंदर भगवान से रोते हुए प्रार्थना करने लगते कि “हे प्रभु! मैं तो भूख सह सकता हूँ पर मेरे बच्चे कैसे इतना कष्ट झेल पाएँगे। ऐसा न हो कि हम आप तक पहुँच ही ना पाएँ। इसलिए मुझे इतना सामर्थ्य देना कि मैं शीघ्र आप तक पहुँच जाऊँ।”

बंधु मोहंती के धैर्य की परीक्षा

बंधु मोहंती अपने परिवार के साथ जगन्नाथ पुरी पहुँचे

बंधु मोहंती का परिवार लड़खड़ाते हुए किसी तरह पाँच दिन में जगन्नाथ पुरी पहुँचा। श्री जगन्नाथ मंदिर मंदिर के दूर से दर्शन करते ही बंधु मोहंती साष्टांग लेटकर भूमि पर लोटने लगे और अपनी पत्नी से कहने लगे “मेरे कृपालु प्रभु के दर्शन हो गये। यही मेरे यार हैं। मैं कह रहा था ना मेरे मित्र के बारे में, ये वहीं हैं। मेरे प्रियतम, मेरे दीनबंधु स्वामी है। इनके सामर्थ्य से हम यहाँ तक पहुँच पाए हैं। अब चाहे प्राण भी छूट जाएँ, कोई परवाह नहीं।”

उनकी पत्नी के हृदय में उतना अनुराग तो नहीं था पर उन्हें इस बात का सुख था कि अब यहाँ भर पेट भोजन मिलेगा और भक्तों का संग भी मिलेगा। आनंद में चलते हुए बंधु और उनका परिवार सिंह द्वार के सामने पहुँचे। पत्नी और बच्चे भूख से व्याकुल थे, पर वह फटे कपड़ों की हालत में एक कोने में खड़े रहे। कोई उन्हें पूछ नहीं रहा था। सिंह द्वार पे बहुत भीड़ थी और कुछ देर बाद मंदिर के कपाट बंद हो गये।

बंधु ने पत्नी से कहा कि मेरे मित्र से बहुत लोग मिलने आये हैं ना, इसलिए धैर्य रखो। अभी हम पीछे की तरफ़ चलते हैं। वह सब मंदिर के दक्षिण की ओर, जहाँ जगन्नाथ जी के प्रसाद का धोवन (प्रसाद वाले पत्रों को धोने के बाद निकला जल) निकलता है, बैठ गए। बंधु ने सब से कहा कि इस पानी में प्रभु के पात्र धोये जाते हैं, हम अभी इसे ही पीते हैं और कीर्तन करते हैं। हम लोग बहुत भाग्यशाली हैं कि हमें प्रभु का प्रसादी जल पीने को मिल रहा है। कल सुबह जब मंदिर खुलेगा तो मेरे मित्र से हमें कुछ ना कुछ प्रसाद ज़रूर मिलेगा। यह कहकर पूरे परिवार ने एक-एक कर वो प्रसादी जल पीकर ही अपना पेट भरा।

पत्नी सोच रही थी कि इनके मित्र का तो पता नहीं, पर मैं धन्य हूँ जो ऐसा अनुरागी और धैर्यवान पति मुझे मिला। वो बंधु से कहती हैं कि आप जैसे राज़ी हैं, हम सभी वैसे ही आपके साथ रहेंगे। हमें कोई कष्ट नहीं है। बंधु पूरा समय वही जल निकाल-निकाल कर सब को पिलाते रहे और बोले तुम लोग सो जाओ, सुबह मंदिर के पट खुलेंगे तब हमें प्रसाद मिलेगा।

बंधु प्रभु की प्रसन्नता के लिए वहीं बैठकर नाम कीर्तन करने लगे और मन ही मन भगवान को धन्यवाद करने लगे। भाव में प्रभु से कहने लगे कि “हे नाथ! आपने मुझे अपने धाम बुला लिया। मेरे मन में कोई कामना नहीं है, पर आप बस कुछ ऐसी कृपा करो कि मेरी पत्नी को विश्वास हो जाए कि आप मेरे मित्र हो। मुझे जितना चाहे कष्ट दो, पर मेरी पत्नी मेरे कहने पर इतना कष्ट सहते हुए यहाँ तक आई और मेरी ही आज्ञा से भजन कर रही है, कहीं इसका विश्वास टूट ना जाए”

जगन्नाथ जी बंधु मोहंती के लिए लाए प्रसाद

जगन्नाथ पुरी मंदिर का भंडार ग्रह

जगन्नाथ जी के मंदिर में भंडार ग्रह होता है, जहाँ कई-कई दिनों का प्रसाद रहता है। उस भंडार ग्रह पर रात में ताला लगा दिया जाता है। भगवान वहाँ से एक थाल में सुंदर भोजन सजाकर मंदिर के बाहर लाए। और फिर वो एक ब्राह्मण के वेश में खड़े होकर आवाज़ देने लगे “बंधु मोहंती नाम का कोई भक्त आया है क्या? देखो भगवान ने तुम्हारे लिए प्रसाद भेजा है।” रात्रि में बंधु और उसका परिवार वहीं सो रहे थे। अपना नाम सुनकर बंधु उठा और अपनी पत्नी से कहने लगा कि कोई मुझे पुकार रहा है क्या?

जगन्नाथ जी बंधु मोहंती के लिए भोजन लाते हैं

बंधु उठे और घबराते हुए उसके पास गए। वहाँ जाकर देखा तो एक ब्राह्मण हाथ में एक विशाल रत्न जड़ित थाल में बहुत सारा प्रसाद लिए खड़ा था। ब्राह्मण ने मुस्कुराते हुए कहा “प्रभु ने अंदर से तुम्हारे लिए भोग की थाल भेजी है, इसे ले लो और प्रसाद खाकर थाल अपने पास ही रख लेना। मैं कल सुबह उसे वापस ले लूँगा।”

बंधु का हृदय विकल होने लगा और काँपते हाथों से उन्होंने थाल अपने हाथ में लिया। वो अपनी पत्नी से कहने लगे कि “देखा! मैं कह रहा था ना मेरे मित्र मुझे बहुत प्यार करते हैं। सब भीड़ चली गई तो अब उनको फ़ुरसत मिलते ही मेरे लिए प्रसाद भेजा ना।” यह कहते-कहते वो एकदम आनंदित होने लगे। आज कई दिन बाद पूरे परिवार ने उस प्रसाद से भर पेट भोजन किया। प्रसाद खाकर बंधु ने विचार किया कि इस थाल को अभी कहीं पहुँचा नहीं सकता। तो उन्होंने अपने फटे कपड़ों में ही उसे लपेटकर अपने सिरहाने रख लिया।

बंधु मोहंती पर लगा थाल की चोरी का आरोप

जगन्नाथ मदिर का भंडार अस्त व्यस्त

अगले दिन सुबह जब भंडार ग्रह खोला गया तो सबने देखा कि सब सामग्री अस्त व्यस्त थी। भोग का थाल गायब था और प्रसाद भी बिखरा हुआ था। इतना बहुमूल्य थाल ग़ायब होने पर सब हैरान थे। कुछ लोग थाल ढूँढने बाहर निकले। बाहर नाले के समीप उन्होंने देखा कि रत्नों वाला थाल एक फटे कपड़े में बंधा चमक रहा था। हल्ला मचने लगा और सब सेवक बंधु मोहंती को मारने पीटने लगे। सब कहने लगे कि यही चोर है। बंधु की पत्नी रोने लगीं और बोली कि कैसे मित्र हैं तुम्हारे? रात में प्रसाद खिलाते हैं और सुबह पिटवाते हैं। तुम तो कहते थे बहुत कृपालु हैं। उधर बंधु को जैसे ही थप्पड़ पड़ता, वो “जय जगन्नाथ, जय जगन्नाथ” कहते हुए नाम जप करते जाते।

प्रभु अपने भक्त की स्थिति और धैर्य की ऐसे ही परीक्षा लेते हैं। कभी ऐसा संयोग बने तो हमें भी सह लेना चाहिए और उसे भगवान की इच्छा मानकर आनंदित होना चाहिए। बंधु मोहंती आनंद में मग्न होते हुए नाम जप करते रहे। कोतवाल ने उनसे पूछा कि तुम्हें थाल कैसे मिली? बंधु ने बताया कि मुझे तो पता भी नहीं कि थाल कहाँ होती है और प्रसाद कहाँ होता है। रात में एक ब्राह्मण ने मुझे पुकार कर इस थाल में प्रसाद दिया। पुजारी ब्राह्मणों की पहचान कराए जाने पर बंधु ने बताया कि इनमें से कोई नहीं था।

कोई मानने को तैयार ही नहीं था और सब कहते रहे कि यह झूठ बोल रहा है। अधिकारी कहने लगे कि यदि ये अंदर घुसा होता तो बाहर प्रधान द्वार का भी ताला टूटा होता। ये थाल और प्रसाद लेने अंदर कैसे जा सकता है। उधर भीड़ बंधु को नीच दृष्टि से देखने लगी। सब कहने लगे कि “देखो ये ग़रीब कैसे जगन्नाथ जी के मंदिर में भी चोरी करने से नहीं रुका”। बंधु मन में हँसने लगे और प्रभु की लीला देखकर प्रसन्न होते रहे। वह अपनी पत्नी की दशा देखकर प्रार्थना करने लगे कि प्रभु मुझे तो आपकी हर चाल पता है, लेकिन आपकी कृपा पर मेरी पत्नी को अविश्वास मत होने देना।

बंधु मोहंती जी के परिवार पर जगन्नाथ जी की कृपा

भगवान जगन्नाथ पुरी के राजा के सपने में बंधु मोहंती को बचाने आते हैं

पुरी के राजा प्रताप रुद्र गहन निद्रा में थे। प्रभु उनके सपने में आये और कहने लगे “तुम यहाँ चैन से सो रहे हो। बाहर मेरे भक्त को चोर कहकर दुख दिया जा रहा है। तेरे कर्मचारी मेरे भक्त की पूजा ना करके उसे गालियाँ दे रहे हैं। उसके साथ मारपीट कर रहे हैं। मैंने रात में स्वयं उसे अपने भोग के थाल में प्रसाद दिया था। वो मेरा प्रेमी और परम भक्त है। जल्दी जाओ और उससे क्षमा माँगो। तुम्हारे राज्य में यदि ऐसे भक्त का अपमान हुआ तो मैं तुम्हें दंड दूँगा।” प्रभु की भी विचित्र लीला है। एक तरफ़ भक्त को पिटवा रहे हैं और दूसरी ओर राजा से उसकी पूजा करने को कह रहे हैं। प्रताप रुद्र जी को आज्ञा करते हुए प्रभु कहने लगे “मेरा आदेश है कि आज से मेरे मंदिर के संपूर्ण हिसाब -किताब का अधिकारी वही होगा। उसके दस्तखत से ही पूरे मंदिर की व्यवस्था चलेगी।” यह कहकर भगवान अंतर्ध्यान हो गये।

राजा तत्काल मंदिर की ओर भागे। वहाँ पहुँचते ही उन्होंने बंधु मोहंती को साष्टांग प्रणाम किया और हृदय से लगाकर उनसे क्षमा माँगने लगे। सब के सामने उन्होंने घोषणा कर दी कि जगन्नाथ जी का सीधा आदेश है “आज से मंदिर का पूर्ण अधिकारी यही होगा। इसी के दस्तखत से मंदिर की सब व्यवस्था चलेगी।” बंधु वहीं अपने फटे पुराने कपड़ों में हाथ जोड़कर दैन्य भाव से खड़े रहे। राजा ने उनसे कहा कि प्रभु ने जो आदेश दिया है, कृपया आप उसे स्वीकार करें।

आज भी जगन्नाथ पुरी में बंधु मोहंती जी के वंशज मंदिर की सेवा करते आ रहे हैं। सारा हिसाब किताब उन्हीं बंधु मोहंती जी के वंशज सँभालते हैं।

इस कथा से हमें पता चलता है कि प्रभु को प्रसन्न करने के लिए यह ज़रूरी नहीं कि आप धनी हो या आप उत्तम कुल के हों। प्रभु के लिए प्यार और अपनापन हो तो वो रीझ जाते हैं।

जगन्नाथ जी के प्रेमी यह भी पढ़ें: सदन कसाई जी की कहानी, भगवान जगन्नाथ जी ने स्वयं दिया इनकी भक्ति का प्रमाण

मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज

Related Posts

error: Copyrighted Content, Do Not Copy !!
-
00:00
00:00
Update Required Flash plugin
-
00:00
00:00