दो भई थे। बड़े भाई कोल्ह जी थे, परम वैराग्यवान, वे तामसिक पदार्थों तो छूते भी नहीं थे, खाने पीने की तो बात जाने दो। वे हर समय भगवान का नाम जपते थे और भगवान के ध्यान में रहते थे। और इनके छोटे भाई थे अल्ह जी, वो सब कुछ खाते पीते थे, राजसी भोग भोगते थे और राजकुमार के साथ उठते-बैठते थे। वो भगवान का गुणगान करने में रुचि नहीं रखते थे, उनकी रूचि तो राजाओं के रूप-गुण का गान करने और उनके भोग-विलास भोगने में थी। पर ख़ास बात यह थी कि वो अपने बड़े भाई का बहुत आदर करते थे, उनके सामने हमेशा नम्र रहते थे। ईश्वर और अपने बड़े भाई में उनकी दृष्टि में कोई अंतर नहीं था। वह अपने बड़े भाई के सामने जितनी देर रहते, बहुत दैन्य होकर रहते।
अल्ह जी और कोल्ह जी पहुँचे द्वारकापुरी
बड़े भाई कोल्ह जी उनके छोटे भाई को देख कर अंदर से दुखी होते थे कि सामने तो बहुत दैन्य बनता है और पीछे यह सब मनमानी आचरण करता है। क्या करे ? उन्होंने सोचा कि अल्ह जी को एक बार भगवान के सामने लेकर चलते हैं, शायद उनके बुद्धि बदल जाए। कोल्ह जी अपने छोटे भाई से बोले कि द्वारकापुरी चलो, द्वारिकाधीश जी के दर्शन करो, और उनको साष्टांग प्रणाम करो, तुम्हारा मंगल होगा। श्री कृष्ण को एक बार साष्टांग प्रणाम करने वाले का जो सौभाग्य उदय होता है, वो बड़े-बड़े यज्ञ करने वाले का भी नहीं होता। जो एक बार श्री कृष्ण जो प्रणाम करता है, उसे दस अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। लेकिन फर्क यह है कि दस अश्वमेध यज्ञ करने वाले का फिर से जन्म हो सकता है, लेकिन श्री कृष्ण को प्रणाम करने वाले का पुनः जन्म नहीं होता। अल्ह जी तो कोल्ह जी को ईश्वर की तरह मानते थे, उनके साथ चल दिए। वह दोनों द्वारकापुरी पहुंचे।
जब स्वयं द्वारकाधीश बोल पड़े “वाह वाह!”
कोल्ह जी ने भगवान को प्रसन्न करने लिए एक पद सुनाया। आप भी जब अपने ठाकुर के दर्शन करने जाए तो उन्हें उनकी महिमा से भरा हुआ कोई पद ज़रूर सुनाएँ। जब कोल्ह जी पद सुना रहे थे, अल्ह जी चुप-चाप हाथ जोड़े खड़े रहे। भगवान को उनके भक्तों के चरणों में भाव रखने वाले बहुत प्रिय होते हैं, और ऐसे लोग दैन्य होते हैं। ये दो विशेष लक्षण अल्ह जी में थे। अल्ह जी यद्यपि कुमार्ग गामी आचरण कर रहे थे पर वह अपने भक्त भाई को भगवान के समान मानते थे और अपने को बहुत नीच (दैन्य) मानते थे। कोल्ह जी ने पद सुनाने के बाद अल्ह जी से कहा कि भाई तू भी तो बहुत बढ़िया गायक है, राजाओं की सभा में गाता है, कुछ सुना द्वारकाधीश जी को। अल्ह जी सकुचाते हुए बोले कि मैं कैसे सुनाऊँ, मेरे अंदर तो भक्ति ही नहीं है, वो बात ही नहीं है जिससे प्रभु प्रसन्न होते हैं। कोल्ह जी ने बोला कि जब मैं कह रहा हूँ तो सुनाओ ना। बड़े भाई की आज्ञा मानते हुए अल्ह जी ने बड़े ही सुन्दर स्वर में प्रभु की ब्रज लीला सम्बन्धी एक पद सुनाया। पद सुनकर स्वयं द्वारकाधीश बोल पड़े “वाह वाह !”। पूरा मंदिर आश्चर्यचकित हो गया कि प्रभु के श्रीविग्रह से साक्षात् द्वारकाधीश बोल पड़े।
कोल्ह जी को आया भगवान पर क्रोध
पहला आश्चर्य तो यह था कि आज तक कभी कोल्ह जी के सामने कोई भागवतिक चमत्कार कभी प्रकट नहीं हुआ था।इससे पहले, अल्ह जी कभी प्रभु के दर्शन करने नहीं आए थे, पर आज वो पहली बार दर्शन करने आए और भगवान ने उन्हें वाह-वाह कह दिया। कोल्ह जी को यह बात चुभ गई कि मैं इतने दिनों से रोज़ दर्शन करने आता रहा लेकिन प्रभु ने कभी वाह-वाह नहीं कहा। भगवान ने अपने अंगसेवी से कहा कि जाओ, अल्ह जी को माला पहनाओ। जब अंगसेवी अल्ह जी को माला पहनाने लगे तो वो बोले कि भगवान ने ये मुझे नहीं दी होगी, मैं तो नीच आदमी हूँ, गंदे आचरण करता हूँ। यह मेरे भाई को दी होगी, यह जन्म से भगवत् भक्ति में लगे हैं, इन्ही के चरणों के हम आश्रित है, इनको दीजिए। अंगसेवी बोले नहीं-नहीं भगवान ने नाम लेकर कहा है कि अल्ह जी को दो। यह कहकर उन्होंने अल्ह जी को माला पहना दी। अब तो कोल्ह जी की दृष्टि बदल गई और वो भगवान की तरफ ग़ुस्से से देखने लगे। उन्होंने सोचा कि बचपन से मैं भगवान का भजन कर रहा हूँ, आज तक उन्होंने मुझे शाबाशी नहीं दी, और यह छोटा भाई जो पहली बार दर्शन करने आया था उसे वाह-वाह और माला प्रसादी दे दी। कोल्ह जी को लगा कि भगवान ने उनका बहुत बड़ा अपमान कर दिया।
कोल्ह जी को हुए दिव्य द्वारकापुरी के दर्शन
कोल्ह जी ने सोचा जिनकी मैं भक्ति करता था उन्होंने ही मेरा अपमान कर दिया। कोल्ह जी ने आत्महत्या करना उचित समझा। उन्हें इतनी जलन होने लगी कि वे समुद्र में कूद गए। वो समुद्र में डूबते चले गए, जब नीचे पहुँचे तो उन्हें दिव्य भूमि दिखी और जल का प्रभाव ख़त्म हो गया। वह द्वारकापुरी पहुँच गए। ऐसा भक्त डूबना भी चाहे तो भगवान डूबने देंगे क्या? भगवान के पार्षदों ने उनसे कहा कि भगवान ने उन्हें बुलाया है। कोल्ह जी से भगवान ने कहा आओ आओ। पार्षदों से कहा सबसे पहले इन्हें हमारा उच्छिष्ट खिलाओ और दो पत्तल ले आओ। कोल्ह जी ने सोचा कोई और भागवत आए होंगे बाहर। जब दूसरा पत्तल भी परोस गया, तब उन्होंने प्रभु से पूछा कि प्रभु इसमें कौन खाएगा? भगवान ने कहा, यह अल्ह जी के लिए है। उनकी जलन बढ़ गई। भगवान में कहा कि ये तुम्हारे छोटे भाई अल्ह जी के लिए है और वो तुमको भी तो बहुत प्यारा है। उनका चेहरा एकदम बदल गया, वह फिर प्रभु को ग़ुस्से से देख रहे थे। प्रभु ने कहा नाराज़ मत हो, तुम जानते नहीं हो। तुम अभी के भक्त हो। में तुम्हें बताता हूँ कि वो कौन है और मुझसे कितना प्यार करता है।
भगवान ने सुनाई अल्ह जी के पूर्व जन्म की कथा
आज जिससे तुम जलन कर रहे हो, एक वासना की वजह से पूर्व जन्म में उसका मार्ग रुक गया। उसके भजन के आगे तुम्हारा भजन बहुत कम है। तुम अपने भाई की बात जान जाओगे तो कभी उससे ईर्ष्या नहीं करोगे। तुम उसकी बराबरी कर ही नहीं सकते। जानते हो वो मेरा बड़ा प्रिय भक्त है। वो पूर्व जन्म में एक राजपुत्र था। वह बचपन से ही राजकुमार होते हुए भी सब भोगों का त्याग करके वैरागी हो गया था। वह राजपद का अधिकारी था पर वो राज भोगों का त्याग करके एकांत वन में निरंतर कष्ट सहते हुए मेरा भजन करने लगा। वह मन और बुद्धि लगाकर सतत मेरा भजन कर रहा था। बहुत समय व्यतीत होने के बाद उस जंगल में एक राजा अपने पूरे परिकर के साथ मनोरंजन के लिए आया। उन्होंने उसका राज वैभव, बहुत सी सुन्दर युवतियां और भोग-विलासिता की सामग्री देखी। अल्ह जी के मन में विषय सुख भोगने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा कि अगर मैं बाबाजी न बनता तो ऐसा ही मुझे भी सुख मिलता। अब वो वासना इतनी प्रबल हो गई कि उनका भजन रुक गया। उनके मन में आया कि कैसे उन्हें भोग प्राप्त हों। संसारी सुख भोगने की प्रबल लालसा को लेकर अपना शरीर छोड़ा।
इस जन्म में मैंने इनको बड़ा ही स्वस्थ और तेजस्वी शरीर दिया। राजकुमार से इनकी मित्रता भी कराई। मैंने इनका जन्म ऐसे महा भागवत के घर में दिया, जिससे वो आकर तुम्हारे भाई बने। वो पिछले जन्म में पूर्णता में ही था, केवल यह वासना आ गई। इसलिए इस जनम में मैंने उसे वासना का दृश्य दिखा दिया, अब वो फिर पूर्ण हो गया है।
कोल्ह जी के अज्ञान का हुआ नाश
देखो तुम इस जन्म में भक्ति कर रहे हो, पर तुम्हारी भक्ति यह कैसा रंग लाई है कि तुम अपने ही भाई से जलन कर रहे हो। तुम प्राण त्यागने के लिए समुद्र में कूद गए। और वो तुम्हें अभी भी बहुत प्यार करता है। जिस दिन तुम समुद्र में कूदे, उसी समय वह भी समुद्र में कूदना चाहता था लेकिन लोगों ने उसे पकड़ लिया। आज भी उसने अन्न-जल नहीं खाया है और तुम्हारे लिए प्राण त्यागने के लिए तैयार है। और तुम कितनी ईर्ष्या से युक्त हो, ख़ुद सोचो तुम किस कोटि के भक्त हो। यह प्रसाद लो और जाओ, तुम्हारे वियोग में तुम्हारे छोटे भाई ने अन्न-जल त्याग दिया है। अगर तुम नहीं पहुंचे तो तुम्हारे वियोग में वो प्राण त्याग देगा। शीघ्र जाओ। अब उनका सारा अज्ञान नष्ट हो गया और उनको अपने भाई पर अपार प्रेम आया। अल्ह जी ने सुना कि कोल्ह जी को द्वारकाधीश जी के दर्शन हुए है तो उन्होंने भूमि पर लेटकर उनको प्रणाम करके उनका स्वागत किया। दोनों भाई आँखों में आंसू भर कर मिले, भगवत् प्रसाद पाया और आजीवन वनवासी होकर भगवत् प्राप्त हुए।
निष्कर्ष
अल्ह जी को वासना से इतना विघ्न पड़ा कि एक और जन्म लेना पड़ा। पर उनका नाश नहीं हुआ, पतन नहीं हुआ। फिर वही वैरागी बने और उनके भजन की पूर्ति हुई। आप जो भजन करते हैं, एक-एक मिनट प्रभु देख रहे हैं। ऐसा ना सोचें कि कोई देख नहीं रहा है तो मनमानी कर लेते हैं। श्री भगवान कहते हैं कि मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता, मेरा भजन अविनाशी है। अगर आप प्रमाद करेंगे तो थोड़ी रूकावट आ सकती है लेकिन आपको भगवत् प्राप्ति तो पक्का होनी ही है।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज