हम सभी सत्य से घिरे हुए हैं, लेकिन जब तक हम उसे महसूस नहीं करते और उसका अनुभव नहीं करते, तब तक हमारा विश्वास नहीं बढ़ सकता। यह एक फूल की खुशबू की तरह है, जो उसके भीतर हमेशा होती है, लेकिन जब तक हवा उसे ना फैला दे, तब तक दूसरा कोई उसे महसूस नहीं कर सकता। आज परम पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज युवा पीढ़ी के लिए आदर्श बन गए हैं। आज के युवाओं को वास्तविक ज्ञान और जीवन के उद्देश्य के बारे में पता चल रहा है और वह पूज्य महाराज जी के वचनों के माध्यम से भक्ति और अध्यात्म की ओर आकर्षित हो रहे हैं। पूज्य महाराज जी वृंदावन की पावन भूमि में निवास करते हैं, श्री श्यामा-श्याम की उपासना करते हैं और महाप्रभु श्री हित हरिवंश चंद्र जू द्वारा स्थापित उपासना मार्ग (सहचरी भाव) के प्रतीक हैं।
प्रारंभिक जीवन
पूज्य महाराज जी का जन्म उत्तर प्रदेश के कानपुर के सरसौल ब्लॉक के अखरी गाँव में एक पवित्र और धर्मपरायण ब्राह्मण (पाण्डेय) परिवार में हुआ था। उनका असली नाम अनिरुद्ध कुमार पाण्डेय था। उनका पालन-पोषण पवित्र, धर्मनिष्ठ और शांतिपूर्ण तरीक़े से हुआ। उनके दादा जी एक संन्यासी थे। उनकी माता श्रीमती रमा देवी जी एक गृहिणी थीं, जिनकी धार्मिक आस्था बहुत प्रबल थी। उनके पिता श्री शम्भू पाण्डेय जी बहुत धार्मिक थे और अंततः उन्होंने सन्यास आश्रम स्वीकार किया। उनके घर में अक्सर संतों और महापुरुषों को आमंत्रित किया जाता था। उनके माता-पिता संतों का बहुत आदर करते थे, उन्हें भोजन कराते थे और उनका सत्संग ध्यानपूर्वक सुनते थे। पूज्य महाराज जी ने छोटी उम्र से ही संतों की सेवा की।
पूज्य महाराज जी ने बहुत छोटी उम्र में ही चालीसा पढ़ना शुरू कर दिया था। वे बचपन से ही भगवान के नाम और संतों की संगति के प्रति बहुत समर्पित थे। वे ‘श्री राम जय राम जय जय राम, श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव’ को बड़े प्रेम से गाते थे। सत्संग और परिवार के धार्मिक वातावरण ने पूज्य महाराज जी की अव्यक्त आध्यात्मिक चिंगारी को और तीव्र कर दिया। उन्होंने पाँचवीं कक्षा में ही गीता प्रेस की पुस्तक ‘श्री सुख सागर’ पढ़ना शुरू कर दिया था। शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान और पिछले जन्मों के संस्कारों के प्रभाव से उन्हें छोटी उम्र में ही जीवन के अर्थ के बारे में प्रश्न आने लगे।
सबकी मृत्यु होगी; यहाँ तक कि मेरे माता-पिता का भी किसी दिन मेरा साथ छोड़ देंगे, उसके बाद कौन मुझसे प्रेम करेगा? और मेरा रक्षक होगा? मैं क्या करूँ? कौन मुझे कभी नहीं छोड़ेगा, और मैं किसकी शरण में जाऊँ? जब भी संत उनके घर आते, तो वे अपने प्रश्नों को उनके समक्ष रखते, उनके ज्ञान पूर्ण उत्तरों को ध्यान से सुनते और उन पर मनन करते। अंततः उनकी स्कूल जाने और भौतिक चीजों को सीखने में रुचि कम होने लगी क्योंकि उन्हें समझ आ गया था कि भौतिक शिक्षा उन्हें शाश्वत सुख नहीं दे सकती।
आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत
जब वे नौवीं कक्षा में पहुँचे, तो उन्होंने आध्यात्मिक जीवन जीने और ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग खोजने का निर्णय लिया। लक्ष्य तक पहुँचने के लिए, वे अपने परिवार से अलग होने के लिए तैयार थे। तेरह वर्ष की आयु में, पूज्य महाराज जी मानव जीवन का अर्थ समझने, जीवन-मरण के चक्र को समाप्त करने तथा परमानंद की परम अवस्था को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा से प्रेरित होकर प्रातः तीन बजे अपना घर छोड़ दिया।
नैष्ठिक ब्रह्मचर्य में दीक्षित होने के पश्चात पूज्य महाराज जी का नाम आनंदस्वरूप ब्रह्मचारी रखा गया। महावाक्य स्वीकार करने पर उनका नाम स्वामी आनंदाश्रम जी महाराज रखा गया और बाद में उन्होंने संन्यास स्वीकार कर लिया। पूज्य महाराज जी ने भौतिक चीज़ों से पूर्णतया दूर रहकर कठोर नियमों का पालन किया। इस अवधि में जीवित रहने के लिए उन्होंने केवल आकाशवृत्ति को स्वीकार किया; अर्थात उन्होंने केवल उन चीजों को स्वीकार किया जो उन्हें बिना अपने प्रयास के प्राप्त हुईं।
उन्होंने अपना अधिकांश जीवन गंगा के तट पर एक आध्यात्मिक साधक के रूप में बिताया। गंगा जी शीघ्र ही उनके लिए दूसरी माँ बन गईं। वो मौसम, भूख या कपड़ों की परवाह किए बिना वाराणसी के घाटों पर ही रहे। उन्होंने तीन बार गंगा स्नान करने की अपनी दिनचर्या का पालन करना कठोर सर्दियों के दौरान भी नहीं नहीं छोड़ा। वे हर पल ब्रह्माकार वृत्ति में डूबे रहते और कई दिनों तक उपवास करते। कुछ वर्षों बाद, उन्होंने काशी में, गंगा के तट पर भगवान शिव का आशीर्वाद और दर्शन प्राप्त किया।
पूज्य महाराज जी भगवान शिव के आशीर्वाद से आध्यात्मिक पथ पर चलते हुए एक उच्च लक्ष्य की ओर बढ़े। एक दिन श्री श्यामा-श्याम के आशीर्वाद से बनारस (काशी) में एक विशाल वट वृक्ष के नीचे ध्यान करते समय वे वृंदावन की सुंदरता की ओर आकर्षित हुए। अचानक उनके मन में विचार आया: कैसा होगा वृंदावन? एक संत ने उन्हें अगले दिन रासलीला देखने के लिए कहा। पूज्य महाराज जी ने कई बार मना किया, फिर भी वह संत ज़िद पर अड़े रहे। अंत में, पूज्य महाराज जी ने स्वीकार किया कि यह भगवान की ही इच्छा थी और वे रासलीला देखने जाने के लिए सहमत हुए। यहीं से उनकी वृंदावन यात्रा शुरू हुई।