परम तपस्वी सौभरि ऋषि एक बार यमुना के जल में तपस्या कर रहे थे। माया बड़े-बड़े महात्माओं को भी आकर्षित कर लेती है। उन्होंने देखा कि दो मछलियाँ मैथुन (संभोग) कर रही थीं। यह दृश्य देखकर उनके हृदय में विचार आया कि मैथुन में सुख अवश्य है, तभी यह छोटा सा जीव भी इतना आनंदित हो रहा है। यह सोचकर उन्होंने निश्चय कर लिया कि उन्हें भी यह सुख प्राप्त करना चाहिए।
महान तपस्वी सौभरि जी के मन में विवाह की इच्छा उत्पन्न हुई। वे सीधे राजा मान्धाता के पास गए। राजा के महल में पचास राजकुमारियाँ थीं। सौभरि ऋषि ने राजा से कहा, “मुझे एक राजकुमारी भिक्षा में दीजिए, जिससे मैं विवाह कर सकूं।” यह स्थिति राजा के लिए एक बड़ी समस्या बन गई, क्योंकि सौभरि ऋषि के शरीर से मछलियों जैसी जल की गंध आ रही थी और उनका शरीर इतना दुर्बल था कि उनकी हड्डियाँ दिखाई दे रही थीं। ऐसे में कौन सी राजकुमारी उन्हें पसंद करेगी? इन कारणों से राजा ने कूटनीतिक उत्तर दिया, “ब्रह्मण, जो कन्या आपको पसंद कर ले, आप उसे स्वीकार कर सकते हैं।”
सौभरि ऋषि ने किया पचास राजकुमारियों से विवाह
सौभरि ऋषि ने राजा मान्धाता का भाव समझ लिया। उन्होंने सोचा, “तुम मुझे बूढ़ा और कुरूप समझकर ऐसा कह रहे हो। क्योंकि मेरे शरीर पर झुर्रियाँ पड़ गई हैं, बाल सफेद हो गए हैं, और मेरा रूप बिगड़ चुका है, तो तुम यह मान रहे हो कि मुझे कोई स्वीकार नहीं करेगा। पर मैं अब ऐसा रूप धारण करूंगा कि तुम्हारी सभी पचास राजकुमारियाँ मुझसे विवाह करने के लिए आपस में झगड़ेंगी।”
सौभरि ऋषि ने राजा से कहा, “अपनी राजकुमारियों को आदेश दीजिए कि सौभरि ऋषि महल में पधार रहे हैं। जो भी मुझे अपना पति बनाना चाहें, वे मुझे वरण कर सकती हैं।” तपस्वी महापुरुषों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं होता। सौभरि जी ने अपने संकल्प से अत्यंत सुंदर रूप धारण कर लिया। देखिए, जब कामना जागृत हुई, तो भजन और तप का प्रयोग कहाँ होने लगा! सौभरि जी के सुंदर रूप को देखकर पचासों राजकुमारियाँ उनसे विवाह करने के लिए दौड़ पड़ीं और अंततः सभी ने उन्हें अपना पति बना लिया।
सौभरि ऋषि ने की नई सृष्टि की रचना
वे पचासों कन्याएँ इतने सामर्थ्यशाली महात्मा को अपने पति के रूप में पाकर अत्यंत सुखी हो गईं। लेकिन जल्द ही वे एक-दूसरे से कलह करने लगीं और कहने लगीं, “यह तुम्हारे योग्य नहीं, बल्कि मेरे योग्य हैं।” इस स्थिति को देखकर सौभरि जी ने कहा, “झगड़ो मत। मैं तुम सबके योग्य हूँ।” अपनी तपस्या के प्रभाव से उन्होंने नई सृष्टि की रचना की। यमुना किनारे उन्होंने कई महल, उपवन और नगरों का निर्माण कर दिया। सुगंधित पुष्पों के बगीचे, कमलों से भरे सरोवर, और सुंदर-सुंदर स्थानों के साथ महलों में बहुमूल्य शैयाएँ, आसन, वस्त्र, आभूषण, दास-दासियाँ—यह सब उन्होंने अपनी तपस्या से प्रकट कर दिया। अब सौभरि जी के पास एक राजा के समान वैभव था।
जब सौभरि जी पचास राजकुमारियों से विवाह करके अपने नए जीवन की ओर बढ़े, तो राजा मान्धाता के मन में यह चिंता थी कि इतने बड़े परिवार के लिए यह ऋषि भोजन और अन्य आवश्यकताओं की व्यवस्था कैसे करेंगे। इस पर सौभरि जी ने राजा से कहा, “कल यमुना किनारे आकर देख लेना।” अगले दिन, जब सात द्वीपों वाले इस विश्व के राजा मान्धाता यमुना किनारे पहुँचे, तो सौभरि जी का अद्भुत वैभव देखकर आश्चर्यचकित रह गए। उनके पास ऐसी भोग-सामग्री थी, जो स्वयं राजा मान्धाता के पास भी नहीं था। यह सब सौभरि जी की तपस्या के बल से संभव हुआ था।
सौभरि ऋषि को मिला विषयों में असंतोष
सौभरि जी गृहस्थ जीवन के सुखों में रम गए और अपनी इंद्रियों से विषयों का भरपूर सेवन करने लगे। लेकिन विषयों का सेवन करने से कामना की तृप्ति कभी नहीं होती; जैसे घी की कुछ बूंदें आग की लपटों को और भी भड़काती हैं। इसी प्रकार, उनका भोगों का असंतोष बढ़ने लगा। पचास राजकुमारियों और इतना वैभव-संपन्न जीवन जीने के बाद भी वे तृप्त नहीं हो सके।
सौभरि ऋषि चले भोग से वैराग्य की ओर
सौभरि जी एक दिन यमुना तट पर बैठे और गहरे चिंतन में डूब गए। उन्होंने सोचा, “मछली के एक क्षण के कुसंग ने मेरी यह स्थिति बना दी कि मैंने अपनी सारी तपस्या खो दी। वह भी केवल भोगों के लिए! अरे, मैं तो बड़ा तपस्वी और संयमी था। यह मुझसे ऐसी चूक कैसे हो गई? यह मेरा पतन देखो! मैंने दीर्घकाल से अपने ब्रह्म तेज को अक्षय रखा था, परंतु जल के भीतर विहार करती हुई एक मछली के संसर्ग ने मेरा ब्रह्म तेज नष्ट कर दिया।
सङ्गं त्यजेत् मिथुन-व्रतिनां मुमुक्षुः
सर्वात्मना न विसृजेद बहिर-इंद्रियाणि
एकश चरण रहसि चित्तं अनंत इशे
नगुजिता तद-वृतिषु साधुषु चेत प्रसंगः
श्रीमद् भागवतम् 9.6.51
भव-बन्धन से मुक्ति चाहने वाले व्यक्ति को यौन-जीवन में रुचि रखने वाले व्यक्तियों की संगति छोड़ देनी चाहिए तथा अपनी इन्द्रियों को बाह्य कार्यों में (देखने, सुनने, बोलने, चलने आदि में) व्यस्त नहीं रखना चाहिए। उसे सदैव एकांत स्थान में रहना चाहिए, तथा अपने मन को भगवान के चरण-कमलों में पूरी तरह से स्थिर करना चाहिए, तथा यदि वह किसी प्रकार की संगति करना चाहता है, तो उसे ऐसे व्यक्तियों की संगति करनी चाहिए जो उसी प्रकार से उसमें रुचि रखते हों।
गंदी फ़िल्में देखने से विनाश पक्का
हमें मैथुन धर्म से युक्त किसी भी प्राणी पर दृष्टि नहीं डालनी चाहिए, चाहे वह कोई पशु-पक्षी ही क्यों न हो। यदि किसी जीव को मैथुन करते हुए अचानक देख लें, तो तुरंत अपनी दृष्टि हटा लें और नाम जप शुरू करें। दोबारा उधर देखने की भूल न करें। यदि दोबारा देखा, तो वह दृश्य मन में संकल्प बना देगा और धीरे-धीरे वह क्रिया में परिवर्तित हो सकता है।
असंग रहें, निरंतर भगवद् चिंतन में लीन रहें, और अपनी इंद्रियों को अंतर्मुख बनाए रखें। किसी को मैथुन (सहवास) करते हुए देखकर आकर्षित न हों, अन्यथा सौभरि जी की दुर्दशा को स्मरण करें। वे स्वयं यह कह रहे हैं कि, “मेरी दशा देख लो।” दुनिया के विघ्नों और आकर्षणों से बचने के लिए सौभरि जी जल को स्तंभित करके भजन कर रहे थे, फिर भी विघ्न उत्पन्न हो गया। इसलिए, भगवद् नाम का निरंतर जप करें और इंद्रियों को स्वतंत्रता न दें। कोई ऐसा बाहरी दृश्य—चाहे मोबाइल में हो या कहीं और—न देखें, जो आपको भगवद् विमुख कर दे। सौभरि जी कहते हैं, “मैं पहले एकांत में तपस्या में लीन था। लेकिन मछली का मैथुन देखने के बाद मेरी तपस्या भंग हो गई और मैंने पचास विवाह किए।”
अब सोचो, यदि एक तपस्वी महात्मा मछली की काम क्रीड़ा देखकर पतित हो सकता है, तो मोबाइल पर गलत दृश्य देखने वाले कैसे संभल सकते हैं? यदि आप सर्च करके गंदे और अश्लील दृश्य देखेंगे, तो क्या आप भजन कर पाएंगे? नहीं। इसलिए, इंद्रियों को वश में रखें और भगवद् चिंतन में लीन रहें।
कलियुग में मोबाइल का दुष्प्रभाव
यह मोबाइल कलयुग की एक बहुत बड़ी कुचाल है। यदि इसका सही उपयोग कर पाओ, तो केवल महापुरुषों के वचन सुनो या अत्यंत आवश्यक कार्य पूरे करो। अन्यथा, इसे स्विच ऑफ करके रख दो। बार-बार मोबाइल देखने से चित्त में ऐसा आकर्षण बैठ जाएगा कि एकांत में गंदी बातें देखने की आदत लग जाएगी। यदि मोबाइल का सही प्रयोग न हुआ, तो यह आपको भ्रष्ट और नष्ट करने के लिए पर्याप्त है।
सौभरि ऋषि ने फिर से शुरू की साधना
सौभरि जी कहते हैं, “मैं पहले एकांत में अकेला तपस्या में लीन था। लेकिन मछली की मैथुन क्रीड़ा देखने के बाद मेरी तपस्या भंग हो गई। मैंने पचास विवाह किए, फिर संतानों के कारण मेरा परिवार पाँच हज़ार से अधिक लोगों का हो गया। सोचो, कहाँ मैं अकेला भगवत चिंतन में लीन था, और कहाँ पाँच हज़ार लोगों की चिंता में फँस गया। विषयों में सत् बुद्धि मान लेने के कारण माया ने मेरी बुद्धि का हरण कर लिया।”
सौभरि जी को जब यह ज्ञान हुआ, तो उन्होंने तत्काल सन्यास लिया और वन को चले गए। अपने पति को ही सर्वस्व मानने वाली उन पत्नियों ने एकांत वन में भगवद् चिंतन करते हुए शरीर त्याग दिया। सौभरि जी ने घोर तपस्या करके अपने शरीर को सुखा दिया और अंततः परमात्मा में लीन हो गए। उनकी पचासों पत्नियां सौभरि जी के चरण चिंतन और भगवत आराधना के बल पर उत्तम गति को प्राप्त हुईं।
सौभरि ऋषि के जीवन से सीख
सौभरि जी के पावन चरित्र से हमें यह शिक्षा लेनी चाहिए कि किसी भी जीव को मैथुन करते हुए कदापि नहीं देखना चाहिए। यदि एक बार दृष्टि चली जाए, तो दोबारा उधर न देखें। ऐसा दृश्य मन में स्फुरणा पैदा करता है, जो संकल्प का रूप ले लेती है और अंततः क्रिया बन जाती है। इसलिए, स्फुरणा को शुरुआत में ही कुचल देना चाहिए। इसके लिए, नाम का जप करें ताकि स्फुरणा समाप्त हो जाए और मन में कोई संकल्प पनपने न पाए। यही हमारे लिए उत्तम मार्ग है।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज