श्री राधारानी स्वयं इस भक्त से मिलने आईं – श्री श्यामानन्द प्रभु जी की कहानी

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
श्री राधा श्यामानन्द प्रभु से मिलने आती हैं

श्यामानन्द जी वृंदावन के बहुत बड़े रसिक संत हुए हैं जो रसिक मुरारी जी के गुरुदेव भी थे। वे नित्य सेवाकुंज में, जहाँ प्रिया-प्रियतम नित्य विहार करते हैं, वहाँ सोहनी (झाड़ू) लगाते थे। वह सोहनी लगाते समय बड़े गौर से एक-एक लता के नीचे देखते थे कि कहीं कोई चरण चिन्ह तो नहीं हैं। कभी-कभी उनको प्रिया-लाल के चरण चिन्हों के दर्शन हो जाते तो वो बड़े भाव में मग्न हो जाते। प्रिया-लाल के चरणों में जो चिन्ह हैं वह उन्हें देखकर पहचान कर लेते थे कि यह उनके ही चरण चिन्ह हैं। एक दिन इनको सेवाकुंज में सोहनी सेवा करते हुए देख, श्री राधारानी को इन्हें दर्शन देने की इच्छा हुई। लेकिन जब तक किसी सखी/सहचरी की कृपा ना हो, तब तक श्री राधारानी किसी को दर्शन नहीं दे सकतीं। इसलिए इच्छा होने पर भी श्री राधारानी सीधा दर्शन नहीं देतीं।

श्री राधारानी ने श्यामानन्द जी के लिए छोड़ा अपना नूपुर

श्यामानन्द प्रभु को श्री राधा जी की पायल मिलती है

एक दिन श्री राधारानी ने जानबूझकर अपने श्री चरण का एक नूपुर सेवाकुंज में छोड़ दिया। प्रात:काल श्री श्यामानन्द जी सोहनी लगाते थे। सोहनी लगाते समय उन्होंने देखा कि एक बड़ा ही कीमती अद्भुत नूपुर वहाँ था और उसे देखकर उन्हें बड़ा आनंद मिल रहा था। उन्होंने विचार किया किसी नवविवाहिता वधु का होगा, और सोचा कि अगर वो ढूँढने आएगी तो दे देंगे। ऐसा सोच कर उन्होंने नूपुर को अपनी पगड़ी में बांध लिया और वापस सोहनी लगाने लगे।

श्री राधारानी ने श्री ललिता जी से कहा कि ये मंगला के आभूषण सम्भाल कर रखो। तो ललिता जी ने कहा “प्यारी जू! आपके एक श्री चरण का नूपुर तो इसमें है ही नहीं।” श्री राधारानी ने जानबूझकर उसे गिराया था क्योंकि श्यामानन्द जी पर किसी सखी की कृपा होना बाक़ी था। इसलिए श्री राधारानी ने ललिता जी से कहा “जाओ देखो! सेवा कुंज में किसी लता के नीचे तो नहीं गिर गया।”

श्री ललिता सखी श्यामानन्द जी से मिलने गईं

ललिता सखी श्यामानंद प्रभु से श्री राधा जी के नूपुर मांगने आती हैं

ललिता जू ने खोज प्रारंभ की तो देखा कि श्री श्यामानन्द जी सोहनी लगा रहे हैं और “राधा-राधा” नाम जप रहे हैं। ललिता जी ने विचार किया मैं अपने स्वरूप में जाकर इनसे नूपुर माँगूँगी तो अच्छा नहीं रहेगा।इसलिए वो साधारण वेश में गईं और कहने लगीं कि “बाबा यहाँ सोहनी लगाते हुए कोई नूपुर तो नहीं मिला? यदि मिला हो तो मुझे दे दीजिए।” ललिता जी साधारण वेश में गई थीं, उन्हें देखकर श्यामानन्द जी बोले “वो नूपुर तुम्हारा तो नहीं हो सकता।” ललिता जी बोलीं, “मेरा नहीं। मेरी बहु का है, लाओ मुझे दे दो।”

बाबा बोले “नहीं! मैं ऐसे तुम्हें नूपुर नहीं दे सकता। यदि यह नूपुर तुम्हारी बहु का है तो पहले दूसरा नूपुर दिखाओ। अगर वही हुआ तो अभी दे दूंगा, अगर नहीं दिखाया तो नहीं दूंगा।” बाबा को अंदर ही अंदर आनंद हो रहा था कि इस नूपुर में कुछ तो विशेष है क्योंकि इसकी खोज हो रही है। उन्हें ललिता जू से बात करके अपार आनंद भी मिल रहा था। वो समझ गये कि ये कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। ये कोई दिव्य व्यक्ति है जो अपने वेष को छुपाए हुए हैं।

ललिता जी बोलीं “अरे ना बाबा! तू मुझे ही दे दे।” बाबा मना करने लगे “नहीं नहीं! मैं आपको दे दूँगा और थोड़ी देर बाद जिस बहू या बेटी का गिरा है वो आकर बोले कि मेरा नूपुर था, तो मैं तुम्हें कहाँ खोजूँगा? मैं तभी यह नूपुर तुम्हें दूँगा जब दूसरे चरण का नूपुर देखूँगा।” ललिता जी ने बहुत हठ किया, लेकिन बाबा ने उन्हें नूपुर नहीं दिया।

श्री राधारानी ने श्यामानन्द जी से अपने चरणों में नूपुर बँधवाया

श्यामानंद प्रभु श्री राधा जी के चरणों में नूपुर बांधते हैं

ललिता जू ने जाकर श्री राधा से बात की तो श्री जी ने कहा, “सखी! अब तो मुझे ही जाना होगा क्योंकि बाबा बहुत ज़िद्दी हैं। और देखो, ये रोज़ मेरी कुंज की सोहनी सेवा करते हैं, चलो इन्हें निहाल करते हैं।” श्री जी जब किसी भक्त को दर्शन देने के लिए उतावली हो जाती हैं तो स्वयं दर्शन का विधान बनाती हैं।

सहज सुभाव परयौ नवल किशोरी जू कौ,
मृदुता, दयालुता, कृपालुता की रासि हैं ।

– श्री ध्रुवदास जी, श्रृंगार शत, बयालीस लीला

श्री राधारानी और ललिता जी श्यामानन्द जी के पास आईं। ललिता जी ने बाबा से कहा “इनके चरणों की तरफ देखो, वो ही नूपुर है ना। ऐसा ही नूपुर तुम्हारे पास है ना।”बाबा ने नूपुर देखा और कहा “हाँ! वही है।” यह कहते हुए और श्री जी की करुणा देख, वह उनके चरणों में साष्टांग लोट गए। बाबा ने इशारा किया कि “मैं बांध दूँ?” श्री जी ने हाँ में सिर हिलाया। बाबा ने श्री जी के चरणों में नूपुर बाँधा और श्री जी ने अपना हाथ श्यामानन्द महाप्रभु जी के मस्तक पर रखा। श्री जी श्यामानन्द जी को दुलार करने लगीं कि मेरी कुंज की सोहनी लगाने वाली ये मेरी सखी है। श्री जी बहुत प्रसन्न थीं। बाबा फिर उनके चरणों में लोट गए। इसपर, बाबा ने जो नूपुर बाँधा था, उसी को झनकारते हुए, श्री जी ने बाबा के मस्तक पर उसे रखा तो नूपुर की दिव्य छाप श्यामानन्द महाप्रभु जी के मस्तक पर पड़ गई। अब तो वो प्रेम मग्न होकर भाव में डूब गये।

श्यामानन्द जी के गुरुदेव ने मिटानी चाही श्री जी द्वारा लगाई गई छाप

हृदयानंद जी श्यामानंद प्रभु के माथे से श्री राधा द्वारा लगाई गई छाप हटाने की कोशिश करते हैं

कुछ समय बाद बाबा अपने गुरुदेव श्री हृदयानंद जी के पास आये तो उन्होंने श्यामानन्द जी के मस्तक पर छाप देखकर कहा “ये संप्रदाय के विरुद्ध छाप कैसे लगा ली? जो हमने दी है वो तो लगाई नहीं।” उन्होंने कहा “गुरुदेव! यह मन मुखी छाप नहीं है। यह छाप इष्टदेव ने लगाई है।” हृदयानंद जी ने सोचा यह बहाना बना रहा हैं और उन्हें डाँट कर कहा “इसे शीघ्र धो लो।” श्यामानन्द जी ने आज्ञा मानते हुए बहुत धोया, रगड़-रगड़ के छाप साफ़ की, पर श्री जी की लगाई हुई छाप कैसे छूट सकती थी।

हृदयानंद जी ने समझा कि उन्होंने ठीक से नहीं धोया और बोले “इधर आओ!” और उन्होंने रगड़-रगड़ के इतना घिसा कि श्यामानन्द जी के मस्तक से रक्त निकलने लगा। लेकिन छाप फिर भी नहीं छूटी। तब वो सहम गए और कहा “सत्य कहो! क्या ये श्री जी की लगाई हुई छाप है?” श्यामानन्द जी ने हाँ में उत्तर दिया। हृदयानंद जी कहने लगे “धन्य है तुम्हारा जीवन। मुझे अब विश्वास हो गया कि श्री जी ने तुम्हें स्वीकार कर लिया है।” पर फिर हृदयानंद जी ने कहा “फिर भी हम ये मानेंगे कि तुमने हमारे तिलक की जगह छाप लगाई, इसलिए ये अपराध है। इसलिए हम वैष्णव समाज में इसका दंड निर्धारित करेंगे।” गुरुजनों की बड़ी विचित्र लीला होती है। श्यामानन्द जी के हृदय में आया कि “गुरुदेव! आपकी कृपा से ही तो मुझे श्री जी ने सहचरी भाव दिया है और यह छाप लगाई है। श्री जी ने अपने नूपुर की छाप देकर मुझे अपने परिकर में मिला लिया।”

हृदयानंद जी को वैष्णवों से मिला दंड

सुबाला ने संतों की सभा को सच बताया

श्यामानन्द जी का दंड निर्धारित करने के लिए वैष्णव समाज की सभा बुलाई गई। तभी श्री कृष्ण के सखा सुबल प्रकट हुए और उन्होंने पूरी वैष्णव मंडली के बीच में कहा “मैं साक्षी देता हूँ कि इन्होंने अपने आप से छाप नहीं लगाई। स्वयं श्री राधारानी जी ने प्रकट होकर छाप लगाई है।” सुबल इतना बोलकर पास के ही एक तमाल वृक्ष में समा गये। तत्काल दिव्य वाणी हुई, “हृदयानंद जी अब तो विश्वास कर लें कि तुम्हारा शिष्य वहाँ पहुँच चुका है जहाँ तुम्हारी भी पहुँच नहीं है। वह श्री जी के निज परिकर में मिल चुका है।” अब हृदयानंद जी सहम गए और सारी बात मान गये। लेकिन अब उनका हृदय जलने लगा कि उनसे अपने शिष्य के प्रति गलती हो गई। वैष्णव जनों ने कहा, “देखो हृदयानंद जी! आपने हम सबको श्यामानन्द जी को दंड देने के लिए एकत्रित किया था। लेकिन आज हम आपके ऊपर दंड लगा रहे हैं क्योंकि आपने गलत किया। अपने शिष्य के माथे को इतना रगड़ा कि मस्तक से रक्त प्रवाह होने लगा। और वह कहते रहे कि छाप श्री जी ने ही लगाई है फिर भी आप नहीं माने। आख़िर तमाल वृक्ष से सुबल सखा को प्रकट होकर गवाही देनी पड़ी। और अब दिव्य वाणी भी हुई है। हम आपको क्षमा नहीं करेंगे। इसके प्रायश्चित के लिए आप 12 दिनों तक संतों का भंडारा करवाएँ और अखंड कीर्तन एवं भगवद् चर्चा करवाएँ। यही आपका दंड है।

उस दिन से ही हृदयानंद जी के यहाँ दंड उत्सव मनाए जाने की प्रथा शुरू हुई। श्यामानन्द जी तत्काल समस्त वैष्णव जनों के समक्ष खड़े हुए और उन्होंने हाथ जोड़कर कहा कि “गुरुदेव को जो दंड दिया गया है, उसे मैं स्वीकार करता हूँ। आज से दंड उत्सव मैं करूंगा। यह मेरा अहो भाग्य है और शायद गुरुदेव यही करवाना चाहते थे इसीलिए उन्होंने यह लीला की।” इससे हम यह देख सकते हैं कि शिष्य में अब भी अपने गुरु के प्रति दोष नहीं आया। वहाँ उपस्थित वैष्णव जनों ने कहा “धन्य हो तुम श्यामानन्द जी। धन्य है तुम्हारी गुरु भक्ति।” यह कहकर संतों ने श्यामानन्द जी को स्वीकृति दे दी। श्यामानन्द जी ने बड़े उत्साह से 12 दिनों तक उत्सव मनाया। यद्यपि वह दंड एक बार के लिए था, पर उसे प्रतिवर्ष मनाया जाने लगा।

मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज

श्री हित प्रेमानंद जी महाराज श्यामानन्द जी की कहानी सुनाते हुए

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