मैंने पहले आपको बताया है कि किस तरह लाड़ली जू की कृपा ने मुझे मेरे सद्गुरदेव के चरण कमलों तक पहुँचाया। सद्गुरदेव भगवान द्वारा मेरी निज मंत्र दीक्षा स्वीकृत होने से पहले मुझे बहुत रोना पड़ा। उस समय सद्गुरदेव भगवान न तो किसी से मिलते थे और न ही किसी से बात करते थे। लगभग एक-दो साल महाराज जी की सेवा करने के बाद मुझे विश्वास हो गया कि अब मेरा पूरा जीवन उनका है। मैं उन्हें देखते ही उनके प्रति समर्पित हो गया था। लेकिन निज मंत्र दीक्षा के बारे में उनसे कुछ भी कहने की मेरी हिम्मत नहीं हुई।
दीक्षा के लिए बार-बार अनुरोध
एक दिन मैंने हिम्मत कर सद्गुरदेव से कहा कि आपके द्वारा मुझे शरणागति मंत्र मिले हुए बहुत समय हो गया है और अब मुझे निज मंत्र और विरक्त वेश की तीव्र इच्छा है। महाराज जी ने तुरंत कहा, कौनसा मंत्र? यह सब छोड़ो। उन्होंने इस विषय पर बिल्कुल भी बात नहीं की। उन्होंने मेरे अनुरोध को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर दिया! फिर एक दिन मैंने हिम्मत करके कहा, महाराज जी, जब तक आप निज मंत्र दीक्षा के लिए सहमति नहीं देते तब तक यह जीवन व्यर्थ लगता है। उन्होंने कहा, तुम्हें ऐसा क्यों लगता है? तुम सेवा भी कर रहे हो और नाम भी जप रहे हो। तुम्हें जीवन व्यर्थ क्यों लगता है? मैंने कहा, गुरुदेव, कृपया इसे अनदेखा ना करें। मुझ पर दया करें। उन्होंने कहा, इस विषय में मंदिर से लिखवाकर लाओ। कागज पर लिखित अनुमति होनी चाहिए, तभी मैं मंत्र दीक्षा दूंगा। यह असंभव कार्य था! बड़ी हिम्मत करके मैं राधावल्लभ जी मंदिर आया और मैंने राधावल्लभ जी से प्रार्थना करते हुए कहा, प्रभु, मैं आपको जानता ही नहीं था, आप मुझे यहाँ खींच लाए हैं। आपने मुझे अपने प्रेम में पूरी तरह बाँध लिया है। आप ही इस कार्य को पूरा करने में समर्थ हैं। यह मेरे गुरुदेव का आदेश है।
राधावल्लभलाल जी की कृपा
मंदिर के नीचे एक मिठाई की दुकान थी। मैंने वहाँ से कलम और कागज माँगा और उन्हें अपने कपड़े के थैले में रख लिया। आज मुझे लिखित अनुमति लेकर गुरुदेव के पास जाना था। मैंने मंदिर में जाकर भगवान से प्रार्थना की और उनसे कहा, “मुझे निज मंत्र की दीक्षा चाहिए।” मैंने राधावल्लभ जी से कहा कि अब मैं निज मंत्र के बिना जीवित नहीं रह सकता। अब आप ही इसका समाधान करें। इससे मुझे भीतर से अद्भुत अलौकिक शक्ति मिली। मैंने कलम और कागज निकाला और उस पर लिखना शुरू कर दिया।
हे दयालु, करुणामयी, हमारी प्यारी प्रिया जू, आप ही मेरा जीवन, धन और मेरे लिए सब कुछ हैं। आपने कृपा करके मुझे इस उपासना में लाया है, मैं इसके योग्य नहीं था। मैं अपने आपको समर्पित कर चुका हूँ, कृपया मुझ पर अपनी कृपा बरसाइये। आपकी कृपा से मैं पूज्य महाराज जी से ‘निज मंत्र’ दीक्षा और विरक्त वेश लेना चाहता हूँ।
(श्री हित प्रेमानंद जी महाराज का श्रीजी को पहला पत्र)
इस पत्र को लिखने के बाद, मैंने उसे मंदिर में भगवान के चरणों में अर्पित कर दिया। मैंने सोचा कि अब भगवान ही इसका समाधान करेंगे। मैंने मन को शांत किया और वापस चला गया, यह विश्वास करते हुए कि मेरी प्रार्थना का उत्तर अवश्य मिलेगा।
भक्तों की सेवा से प्राप्त होती है कृपा
अगले दिन गुरुदेव भगवान ने कहा, ‘संतों की सेवा किए बिना मैं तुम्हें निज मंत्र नहीं दे सकता’। मैंने उत्साहित होकर उनसे पूछा, ‘इसके लिए मुझे क्या करना चाहिए?’। उन्होंने कहा, ‘वृंदावन की सभी दुकानों में भिक्षा माँगो। फिर मुझे बताओ कि कितनी चीज़ें मिली हैं, फिर उसी के अनुसार उतने संतों को बुलाओ और उनकी सेवा करो, उनकी पूजा करो। तब मैं तुम्हें मंत्र दूँगा। अगर तुम्हारी भावना सच्ची है, तो भगवान हर परिस्थिति में तुम्हारी मदद करेंगे।’
मैं जिस भी दुकान पर गया, मुझे बहुत सारी चीज़ें मिलीं। किसी ने फलों की टोकरी दी, किसी ने 500 रुपये दिए, किसी ने 50 और 100 रुपये दिए। यह 20 साल पहले की बात है; उस समय इतने पैसे बहुत हुआ करते थे। मैं आश्चर्यचकित था। गुरुदेव भगवान ने कहा, अब 50 संतों को आमंत्रित करो, उन्हें दक्षिणा दो और उन्हें भोजन कराओ। महाराज जी ने स्वयं 50 संतों के लिए भोजन बनाया और बड़े उत्साह से सभी को परोसा। तब मैंने बड़ी विनम्रता से कहा, महाराज जी, अब संत सेवा भी हो गई है; कृपया मुझे मंत्र दीक्षा दीजिए।
दीक्षा का दिन आया
संत सेवा के बाद महाराज जी ने कहा वृंदावन की दंडवती परिक्रमा करो। फिर उन्होंने कहा गिरिराज जी की दंडवती परिक्रमा करो, फिर बरसाना की। यह कोई छोटी बात नहीं थी। कुछ दिनों के बाद मैंने फिर महाराज जी से पूछा कि अब आगे क्या करना होगा? उन्होंने हँसते हुए कहा, ‘मैं इस बारे में सोचूँगा,’ वे हँसे और चले गए। जब महाराज जी ने फिर से मना किया तो मैं हरिवंश महाप्रभु जी के मंदिर में गया और खूब रोया। मैंने कहा ‘हे प्रभु, मुझ पर दया करें।’ जब वे मना करते रहे तो मेरी चिंता बढ़ती गई। जीवन निरर्थक लगने लगा। श्रीजी की कृपा से वह दिन आ गया जब पूज्य महाराज जी ने निज मंत्र दीक्षा देने का निर्णय लिया और हाँ कर दी।
सद्गुरुदेव भगवान ने मुझे यमुना में स्नान करने को कहा और भरे हुए कलश के साथ राधावल्लभ जी के परिसर की परिक्रमा करने को कहा। मुझे निज मंत्र देकर उन्होंने कहा कि तीन दिन तक रात में जो कुछ भी होता है, उसकी जानकारी मुझे देते रहना। उन तीन दिनों में हमारे कई आचार्य मेरे स्वप्न में आए।
गुरु का महत्व
निज मंत्र मिलते ही मेरा अस्तित्व समाप्त हो गया। अगले कुछ दिनों तक मैं सहचरी भाव में डूबा रहा। ऐसा लगा कि ‘ता सो कृपा रस मादक डोलत‘ (जिस पर प्रभु की कृपा हो जाती है, वह प्रेम में मतवाला घूमता है) मेरे जीवन में सच हो गया हो। यह सब तभी संभव है, जब गुरु देख लें कि आप उनके हैं। हमें मन, वचन और कर्म से अपना जीवन गुरु को समर्पित कर देना चाहिए, तभी यह स्थिति प्राप्त हो सकती है। यह स्थिति साधना से प्राप्त नहीं हो सकती। गुरु को साधारण मनुष्य ना समझें। भगवान सभी में विद्यमान हैं, लेकिन वही भगवान हमें तारने के लिए गुरु के रूप में आते हैं; जब तक वह कृपा नहीं करते, हमें भगवद् प्रेम नहीं मिल सकता। जो व्यक्ति अपने गुरु की अवहेलना करता है, चाहे वह कितनी भी अच्छी साधना क्यों न कर ले, सब व्यर्थ हो जाता है।