कई वकीलों ने हमसे इसी तरह के प्रश्न पूछे हैं। यह जानते हुए भी कि किसी व्यक्ति ने अपराध किया है, हमें धन प्राप्त करने के लिए उन्हें बचाने का निर्देश दिया जाता है। हम जानबूझकर दोषी अपराधियों का बचाव करते हैं। क्या हम अपना कर्तव्य निभाने में गलत हैं?
यदि आप उन्हें बचाने का प्रयास करते हैं तो यह आपका अपराध है। यदि आपके किसी करीबी को नुकसान पहुँचाया जाता है तो आप यह सुनिश्चित करेंगे कि उन्हें सज़ा मिले, है न? जब आप कुछ गलत कर रहे होते हैं तो आपका विवेक आपको भीतर से चेतावनी देता है। असत्य स्रोतों से कमाया गया धन आपके जीवन और परिवार में अशांति पैदा करता है। आप असंतुष्ट रहेंगे और अशांति से आपका हृदय जलेगा। जब न्याय नहीं मिलेगा तो निर्दोष की आत्मा आपको कोसेगी। आपका पतन निश्चित हो जायेगा।
भगवान के दरबार में कोई रिश्वत नहीं चलती; केवल न्याय होता है क्योंकि वह खुद साक्षी है। उन्हें किसी वकील की जरूरत नहीं है; वह स्वयं आपके हृदय में बैठे हुए न्यायाधीश है, आपकी प्रत्येक वृत्ति को देख रहे है। आपके पास जो भी थोड़ा सा साधन है, उसमें सरल जीवन जिएं, आप शांतिपूर्ण रहेंगे। पैसा आपको खरीदने में सक्षम नहीं होना चाहिए। जब ईश्वर आपके साथ होंगे, तो आपका ह्रदय शांति, खुशी और आनंद से भर जाएगा । यदि आप निर्दोषों को फँसाते हैं और अधर्मी लोगों को छुड़वा देते हैं तो आपकी शिक्षा और प्रशिक्षण का क्या उपयोग रह गया ? यह तो केवल अधर्म का ही व्यापार रह गया फिर? फिर आपको शांति कैसे मिलेगी?
वकीलों के दयालु होने और जानबूझकर अपराधियों की रक्षा करने में अंतर
अगर कोई पहली बार गलती करता है, दिल से स्वीकार करता है और उसका कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है, तो उसे मौका दिया जा सकता है। वह एक अच्छा इंसान बन सकता है। ऐसे में अगर ईश्वर आपको भीतर से प्रेरणा दें या आपको लगे कि उसके आंसू सच्चे हैं तो मौका दिया जा सकता है। हालाँकि, ऐसी परिस्थितियाँ दुर्लभ हैं। हमें क्षमा करके अपराध को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। किसी अपराधी को क्षमा करना अपराध को बढ़ावा देता है। उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए। लेकिन अगर भगवान आपको प्रेरित करें कि उनकी ओर से गलती हुई है और वह सुधार करना चाहते हैं, तो आप उनकी मदद करने का सोच सकते है।
हालाँकि, आपको उस मामले से बचना चाहिए यदि आप जानते हैं कि वह व्यक्ति अपराध में कुशल है। सिर्फ पैसा कमाने के लिए ऐसा नहीं करना चाहिए। आप देश के सेवक हैं। आपकी गवाही और शब्दों से किसी निर्दोष व्यक्ति को आजीवन दंड दिया जा सकता है, और एक दोषी व्यक्ति को मुक्त किया जा सकता है। यह गलती न करें। पैसा प्रगति नहीं है; अपना कर्तव्य अच्छे से निभाना ही प्रगति है। सत्यता ही प्रगति है। इससे आपका हृदय खुश और शांत रहेगा। यदि आप निर्दोष लोगों को बचाएंगे, तो उनका आशीर्वाद आपको समृद्ध बनाएगा। और यदि किसी निर्दोष व्यक्ति को सज़ा मिलती है, तो उनका क्रोध आपको हानि पहुँचाएगा।
भगवान सबके हृदय में विद्यमान हैं। यदि हम पाप कर्म करते हैं तो भगवान हमें भीतर से रोकने की कोशिश करते हैं। अपराधी को दंड दिलाने और निर्दोष को मुक्त करवाने से आपको दिव्य खुशी मिलेगी। सुखी और समृद्ध बनने के लिए हमें अधर्म और झूठ का त्याग करना होगा। हो सकता है कि आप बहुत अधिक धन संचय न कर पाएं, लेकिन आप खुश रहेंगे। अधर्मी लोगों को आपसे भय लगना चाहिए। आपको एक सच्चे वकील होने और धोखाधड़ी के मामले न उठाने के लिए पहचाना जाना चाहिए।
यदि किसी वकील को धमकी दी जाए या भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल किया जाए तो क्या करें?
अगर इन अपराधियों के परिवार वाले आपके सामने रोते हैं तो ये सिर्फ ड्रामा है। अपने बच्चे का पालन-पोषण अच्छे से नहीं किया और अब जब वह बड़ा हो गया है और अपराध कर रहा है तो उसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं। सुधार के लिए सजा जरूरी है। आपको अपराधियों पर दया करने की ज़रूरत नहीं है; आपको उस निर्दोष पर दया करनी चाहिए जिसके साथ गलत आचरण किया गया था। आपको अपना हृदय निर्दोषों के प्रति दयालु और दोषियों के प्रति कठोर रखना चाहिए। फिर चाहे वह रोए, तुम्हें पैसे दे, या तुम्हें धमकाए। यदि हम धर्म का पालन करते हैं तो परमेश्वर हमारा ख़याल रखते हैं । जब तक आप सत्य पर चल रहें हैं, तब तक आपको किसी से डरने की ज़रूरत नहीं है। आपको बिल्कुल निर्भय हो जाना चाहिए। श्री रामचरितमानस में गोस्वामी श्री तुलसीदास जी कहते हैं, जिसके रक्षक स्वयं भगवान राम हों, उसके साथ भला कौन बुरा कर सकता है?
सीम कि चाप सकइ कोउ तासू ।
श्री रामचरितमानस
बड़ रखवार रमापति जासू ।।
हर तलवार आपके लिये माला बन जायेगी। दुर्वासा ऋषि अकारण ही नाराज हो गये थे, अंबरीश जी का कोई अपराध नहीं था। जब उन्होंने क्रोध करने की कोशिश की तो तुरंत सुदर्शन चक्र प्रकट हो गये। आपको सुदर्शन चक्र शायद दिखाई न दे, हालाँकि, सर्वशक्तिमान भगवान तुरंत किसी न किसी रूप में आपके अंदर या बाहर खड़े हो जाएँगे। इसलिए निडर हो जाइए। किसी की धमकी से मत डरिए।
समय अत्यंत बलवान होता है और सभी को नष्ट कर देता है। सिद्धांतों का पालन करने वाले लोगों को डरना नहीं चाहिए। भीष्म जी, द्रोणाचार्य जी, कृपाचार्य जी, अश्वत्थामा और दुर्योधन जैसे शक्तिशाली लोग छल करने के कारण ही नष्ट हो गये। पांडवों को अस्थायी रूप से कष्ट सहना पड़ा लेकिन बाद में वे विश्व के राजा बन गए। जो सत्य का अनुसरण करता है वह कुछ समय के लिए दुःखी हो सकता है लेकिन अंत में वह विजय और गौरव प्राप्त करता है।
क्या गलत तरीके से एकत्रित किए गए धन से सुख मिल सकता है?
जीवन में जितना चाहे पाप करें, जितना चाहे अधर्म करें, परिणाम क्या होगा? आप कितने दिन तक जीवित रहेंगे? यदि आप अपने कर्तव्य से विमुख हो गये तो आपको क्या मिलेगा? सारा बैंक बैलेंस यहीं धरती पर रह जाएगा। परिजन आपके शव को 10-12 घंटे भी नहीं रखेंगे, वे उसी पैसे से तुम्हारा दाह-संस्कार करेंगे। अगर आप सच्चे है तो जिस दिन अपने मालिक के सामने जाएँगे, सीना तानकर जाएँगे। आप इस लोक और परलोक में सुखी रहेंगे। हम सभी को एक दिन मरना है।
भगवान अपने भक्तों को निर्भय बनाते हैं: अकबर और मधुकर शाह की कहानी
बादशाह अकबर आगरा आए और उन्होंने देखा कि उनके दरबार में अन्य राज्यों के अधिकारी और राजा अपने गले में तिलक और कंठी माला पहनते थे। उन्होंने घोषणा कर दी कि यदि कोई तिलक लगाकर आएगा तो उसका सिर कलम कर दिया जाएगा। मधुकर शाह ओरछा के राजा थे। उन्होंने सोचा कि मैंने अनंत ब्रह्माण्डों के स्वामी भगवान का तिलक लगाया है, जबकि अकबर तो एक देश का एक तुच्छ राजा है। क्या मुझे अकबर के डर से अनंत ब्रह्मांडों के राजा के प्रति दासता का चिह्न मिटा देना चाहिए? वैसे भी मुझे एक दिन मरना ही है।
उन्होंने शरीर के ऊपरी भाग का कपड़ा उतार दिया और पूरे शरीर पर द्वादश तिलक लगाए और अकबर के दरबार में गए। राजा की आज्ञा का पालन करते हुए किसी अन्य ने उस दिन तिलक नहीं लगाया था। अकबर ने पूछा, “मधुकर शाह, क्या तुमने मेरा आदेश नहीं सुना? उन्होंने जवाब दिया, “हां, मैंने सुना। आप एक देश के राजा हैं, यह अनंत ब्रह्मांडों के राजा भगवान के प्रति मेरी दासता का चिन्ह है”। मधुकर शाह ने तलवार निकाल ली और कहा, ”देखता हूँ कौन मेरा गला काटता है, जब तक मेरी भुजाओं में ताकत है, मैं किसी को अपना तिलक नहीं मिटाने दूंगा।” ईश्वर को समर्पित होने के कारण उनमें सिंह जैसी निडरता आ गई।
अकबर के हाव भाव तुरंत बदल गये! अकबर ने कहा, “शाबाश, मधुकर शाह, मैं यही देखना चाहता था कि वास्तव में कौन तिलक के प्रति वफादार है। आप जो भी कहेंगे, मैं आपको पुरस्कार दूंगा”। उन्होंने कहा कि भारत के ब्रज क्षेत्र में किसी को भी तिलक या कंठी पहनने से न रोका जाए, वहां कोई शिकार न हो और किसी भी भक्त को परेशान न किया जाए।
निर्भय होकर जियें, सत्य पर चलते रहें और अपने कर्तव्य का पालन करें। ईश्वर हर समय और हर जगह आपका ख्याल रखेंगे।
न्यायाधीशों के लिए मार्गदर्शन
लालची या भयभीत न हों। आपके सामने जो भी गवाह या सबूत पेश किये जायेंगे, आप उसी के आधार पर न्याय देंगे। भीतर से ईश्वर को साक्षी मानकर प्रार्थना करें, “हे ईश्वर, मैं क्या निर्णय कर सकता हूँ? कृपया मेरी बुद्धि में विराजमान होकर निर्णय करें।” और जब आपकी सेवा पूरी हो जाए, तो अपना काम प्रभु को समर्पित कर दें। आप जो भी कार्य करें, उसे भगवान के चरणों में समर्पित करें, यह बड़ी पूजा बन जाएगी।
जब कर्ता होने का भाव आता है तो गलती होने की संभावना रहती है। हो सकता है कि आरोपी निर्दोष हो; शायद गवाह ग़लत हो।अगर हम सिर्फ सबूतों के आधार पर कार्रवाई करेंगे तो उसे गलत सजा मिल सकती है। यदि आप कोई गलत निर्णय लेंगे तो कर्म आपको भी दंड देगा । गलत कार्य को प्रोत्साहित करने वाले, गलत कार्य करने वाले और अनुमति देने वाले को समान दंड मिलता है।
यदि आप अपना कर्म भगवान के प्रति समर्पण करते हैं, तो यह उनकी जिम्मेदारी है कि वह आपकी बुद्धि में बैठें और निर्णय लें क्योंकि वह हर किसी के हृदय में मौजूद हैं। आप हमारे राष्ट्र की बहुत विशेष सेवा करते हैं क्योंकि अधर्मियों को दण्ड देना और धर्मात्माओं की रक्षा करना भी ईश्वर की सेवाओं में से ही एक है।
परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
भगवद् गीता 4.8
धर्मसंस्थानार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
अपना कर्तव्य निभाते समय भगवान को याद करने का एक आसान तरीका: जब आप सेवा के लिए जाएं, तो कहें, “हे भगवान, मैं सेवा शुरू कर रहा हूं”, और सेवा की समाप्ति पे कहें, “हे भगवान, मैंने आज जो भी सेवा की है , मैं उसे आपको समर्पित करता हूं”। भगवद् गीता में भगवान कहते हैं, तुम जो कुछ भी करो, उसे मुझे समर्पित कर दो। आप कर्म के फलों से मुक्त हो जाएंगे, परम आनंद प्राप्त करेंगे, और आपको कभी पश्चाताप नहीं होगा।
यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
भगवद् गीता 9.27
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण महाराज जी