कृष्णदास जी, श्रीनाथ जी की समस्त सेवा विधान के अधिकारी पद पर थे। तब श्रीनाथ जी, गिरिराज गोवर्धन जी में विराजमान थे। श्रीनाथ जी वहीं प्रकट हुए थे। कृष्णदास जी ठाकुर जी के लिए विविध प्रकार की सेवा सामग्री खरीदने के लिए अपने सेवकों के साथ आगरा जाते थे। एक दिन जब वह आगरा गए तो सैकड़ों लोग घेरा कर के खड़े थे और किसी को देख रहे थे। उन्होंने देखा कि एक वैश्या गायन और नृत्य कर के लोगों को रिझाकर उनसे पैसे ले रही थी। कृष्णदास जी वृद्ध थे और वो भगवान के नित्य सखा थे। वे बहुत उच्च कोटि के महापुरुष थे। उन्होंने वैश्या के हाव-भाव को परखा और ठाकुर जी की सेवा के पैसों में से दस-दस रुपये निकाल कर कई बार वैश्या को दिए। वैश्या ने सोचा कि यह संत तो बड़े रिझवार हैं। कृष्णदास जी ने कहा कि मैं तुम्हें एक हज़ार मुद्राएँ दूँगा, तुम मेरी पूरी मंडली के साथ चलो।
कृष्णदास जी ने वैश्या से कहा तुम जितनी संपत्ति कहोगी उतनी देंगे, सिर्फ तुम हमारे साथ चलो। तुम्हें केवल मेरे बादशाह के सामने नाचना है। वैश्या ने कहा, “मेरा तो जीवन कृतार्थ हो गया।” पूरे बृज क्षेत्र में यह बात फैल गई कि कृष्णदास जी आगरा से एक वैश्या लाये हैं। चर्चा होने लगी कि माया से उनकी बुद्धि बुढ़ापे के कारण बदल रही है। लेकिन संतों के उद्देश्य को कोई विरला ही समझ पाता है। कृष्णदास जी ने उस वैश्या के लिए अपनी कुटिया के बगल में एक झोपड़ी बनवाई। वैश्या को बृज के समस्त महान कुंडों का स्नान करवाया गया। फिर उसे प्रेम रस रीति के सुन्दर पद गाना और वाद्य बजाना सिखाया गया।
एक दिन उन्होंने वैश्या से कहा, चलो! आज अपने बादशाह के सामने ले जाते हैं। अगर मेरे साहब रीझ गए, तो तुम्हारी जन्म-जन्म की बिगड़ी बन जाएगी। मेरे बादशाह को मूर्ति मत समझना, वे साक्षात विराजमान हैं। वैश्या के यह बताने पर कि उसे केवल पैसे से मतलब है, उन्होंने कहा मनचाहे पैसे मिलेंगे, बस तुम हमारे साहब को रिझा दो। श्रीनाथ जी के पास जा कर कृष्णदास जी ने कहा, प्रभु, जब-जब मैं आगरा गया हूँ तो आपके पसंद की चीज़ लाया हूँ। आज एक पसंद की वस्तु आपको भेंट कर रहा हूँ, स्वीकार कीजिए।
श्रीनाथ जी को नमन करके वैश्या ने नृत्य शुरू किया और पूरा पद गाया। पद गाकर जैसे ही प्रणाम करके उसने सिर उठाया तो देखा – वंशी लिए विशाल नेत्रों वाले ठाकुर जी उसके सामने खड़े थे! श्रीनाथ जी की एक मुस्कान पर वैश्या के प्राण निकल गए और वो परम पद को प्राप्त हुई।
एक और वैश्या के उद्धार की कहानी
दूसरी कहानी एक वैश्या की है जिसने जीवन भर अपना शरीर बेचकर ढेर सारा वैभव एकत्रित किया था। उसका गाँव के बाहर एक महल था जिस में बहुत सुन्दर पुष्पों की वाटिका थी। एक बार एक संत अपनी मंडली के साथ उसके गाँव पहुँचे। उन्होंने गाँव के लोगों से पूछा कि कोई पवित्र स्थान हो तो बताओ, जहाँ हम रात्रि में आरती-पूजा करके भोग लगाएँ और अपने ठाकुर जी को विश्राम कराएँ। कुछ उद्दंड लोगों ने कहा, वो जो बगीचा देख रहे हो, वो परम पवित्र है। वैश्या अपने मित्रों के साथ उस बगीचे में हास-विलास करती थे। संतों का चित्त सरल और संशय रहित होता है। उन्होंने विश्वास कर लिया और वहाँ चले गए।
संतों ने बगीचे में जल छिड़का, सफ़ाई की, और ठाकुर जी को विराजमान किया। भोग लगने के थोड़ी देर बाद जब संध्या आरती हुई, तो शंख और घंटा बजाये गए। वैश्या ने शंख-घंटा सुनकर दृष्टि डाली तो देखा कि एक से एक परमहंस महात्मा बगीचे में पधारे हुए थे। उसने सोचा, “मुझ अभागिनी के तो भाग्य खुल गए। ये भगवद् प्रेमी महात्मा कहाँ से आ गए? अभी तक तो मैं कौवे जैसे लोगों का संग कर रही थी, मेरे बगीचे में ये हंस कैसे आ गए? भगवान के प्रसन्न हुए बिना तो ऐसे महापुरुषों का दर्शन नहीं हो सकता। आज तो मेरे ऊपर भगवान की कृपा हुई है।”
वैश्या ने स्वर्ण-चाँदी की कुछ मुद्राएँ, फल-मेवा आदि एक थाली में रखा और संतों के पास जाकर कहा, महाराज स्वीकार कीजिए। संतों ने पूछा, तुम कौन हो? वैश्या ने कहा, यह इस दासी का ही बगीचा है। संतों ने उससे पूछा तुम क्या करती हो? तो उसने बताया कि मैं वैश्या वृत्ति से जीवन निर्वाह करती हूँ। संतों ने कहा कोई बात नहीं; सब भगवान की ही संतानें हैं। पर शास्त्र मर्यादा के अनुसार हम लोग तुम्हारी यह भोग सामग्री नहीं पा सकते। वैश्या ने पूछा तो क्या मेरे उद्धार के लिए कोई रास्ता नहीं है? संतों ने कहा कि रास्ता ज़रूर है। तुम अपनी सब संपत्ति, आभूषण आदि बेचकर एक रत्नों का मुकुट बनाओ और उसे रंगनाथ जी के माथे पर धारण करवाओ। तुम्हारे सारे पाप नष्ट हो जाएँगे , और तुम्हें भगवद् प्राप्ति हो जाएगी। और आज से वैश्या वृत्ति कभी मत करना।
वैश्या ने कहा, मैं वचन देती हूँ अब कभी इस शरीर को अपवित्र नहीं करुँगी। लेकिन प्रभु मैं एक प्रसिद्ध वैश्या हूँ। क्या मुझे मंदिर में जाने दिया जाएगा? तो उन्होंने कहा जब हम आदेश करेंगे तो तुम्हें मंदिर में जाने दिया जाएगा। तुम मुकुट अपने हाथ से समर्पित करना और प्रभु स्वयं स्वीकार करेंगे।
जब द्रवै दीन दयालु राघव, साधु-संगति पाइये
विनय पत्रिका, गोस्वामी तुलसीदास जी
हर कोई आश्चर्यचकित था और समझ नहीं पा रहा था कि गलत आचरण करने वाली अपने हाथों से कैसे भगवान के मस्तक पर मुकुट धारण करवाएगी? वैश्या ने अपने सब आभूषण और वैभव बेच कर मुकुट तैयार किया। वैश्या मुकुट पहनाने के लिए आगे बढ़ी किन्तु बीच में रुक गई और संतों से कहा, मेरे पाप मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे हैं। मैं रजस्वला (मासिक धर्म से पीड़ित) हो गई।
रजस्वला स्त्री को भगवान के श्री विग्रह को स्पर्श करना निषेध है, क्योंकि उस समय वो अपवित्र स्थिति में होती है। संतों ने उन्हें फिर भी जाने की आज्ञा दी। सबने उनको रोका और कहा, आप आचार्य हैं ,आप ऐसा कैसे बोल रहे हैं? उन्होंने जवाब दिया, अगर रंगनाथ जी स्वीकार कर रहे हैं तो तुम्हें रोकने की ज़रूरत नहीं है। और रंगनाथ जी स्वीकार कर रहे हैं इसका प्रमाण होगा कि रंगनाथ जी सिर झुका देंगे। जैसे ही वैश्या मुकुट पहनाने गई, रंगनाथ जी के श्री विग्रह का सिर झुक गया। उसको परम पद की प्राप्ति हुई।
निष्कर्ष
कर्तुम अकर्तुम अन्यथाकर्तुम! आचार्य, गुरुदेव और इष्टदेव सर्व समर्थ होते हैं। आपकी एक-एक सेवा भगवद् प्राप्ति में समर्थ है, यदि आप विश्वास कर लें। जो वैश्या संसार के भोगों में लिप्त थी, उसने बस एक महात्मा की बात मान ली तो उसे भगवद् प्राप्ति हो गई।
बड़े भाग मानुष तनु पावा
श्री रामचरितमानस
सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा
बड़े भाग्य से यह मनुष्य शरीर मिला है। सब ग्रंथों में यही कहा गया है कि यह शरीर देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।
यह मनुष्य देह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। देवताओं के पास ऐसे वैभव हैं जिसे देख के हम मूर्छित हो जाएँगे। आप इसी जन्म में दिव्य भगवदानंद प्राप्त कर सकते हैं; जो देवता नहीं प्राप्त कर सकते। यह दुर्भाग्य है कि हम अभी तक भोगों में ही फँसे हुए हैं ! इनसे हम आज तक तृप्त नहीं हुए, हमें आज तक भोगों से घृणा नहीं हुई।
अब शास्त्र, धाम, नाम और प्रभु की कृपा की महिमा पर विश्वास कर लें कि हमें अपनी साधना से नहीं बल्कि कृपा से प्रभु की प्राप्ति होगी। लोहा स्वयं कभी सोना नहीं बन सकता। ये तो पारस मणि का चमत्कार है। उसी तरह हम भी कभी प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकते; ये तो गुरु, आचार्य और इष्ट देव की कृपा है जो हमें प्रभु से मिलने का पात्र बना देती है।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज