ऐसा संभव नहीं है कि किसी के जीवन में सौ प्रतीशत असफलता ही असफलता हो। जिस प्रकार रात एवं दिन होते हैं, उसी प्रकार आपके जीवन मे असफलता एवं सफलता दोनों का चक्र चलता है। यह हो सकता है कि आपकी माँगें आधिक हों और उन माँगों को पूरा करने के लिए उतना पुण्य आपके पास नहीं है, और इसीलिए आपका आत्मविश्वास टूट रहा है। जैसे अगर आपके पास सौ रुपये हों और आप हीरों के हार की कामना करें और न मिलने पर भगवान और स्वयं को कोसें तो क्या ये सही है? वैसे ही वर्तमान की सफलता व असफलता पूर्व कर्मों के प्रभाव से मिलती है। इसे समझने के लिए विवेक एवं ज्ञान की जरूरत है!
जीवन की सच्ची सफलता क्या है?
आप बोल सकते हैं, सुन सकते हैं! भगवान ने आपको कितना कुछ दिया है, यही सच्ची सफलता है! भगवान कर्म के अनुसार सभी की आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे हैं। और जो जीवन जीने के लिए अत्यंत आवश्यक है जैसे हवा, जल, आकाश, धरती, वह सब भी निःशुल्क दे रहे हैं। कभी थोड़ी देर के लिए सोच के देखें कि जो देख, सुन या बोल नहीं सकते, उनका जीवन कैसा होता होगा? आप कभी भगवान को धन्यवाद दीजिए कि आपको कितना सुंदर जीवन दिया है! आप नाम जप बढ़ाइए, तपस्या बढ़ाइए, और सत्कर्म बढ़ाइए, उसके अनुसार आपको लाभ मिलेगा।
कर्मों का खेल – यहाँ कुछ भी मुफ़्त नहीं है!
इस संसार मे कुछ भी मुफ़्त नहीं है। अगर कोई राष्ट्रपति बनी हैं तो उन्होंने तपस्या की है। अगर कोई अरबों रुपयों मे खेल रहा है तो उसने दान-पुण्य और तपस्या की है। और अगर अब वो व्यक्ति पाप कर रहा है तो आगे उसका भी परिणाम आएगा और सब नष्ट होगा। लेकिन पूर्व में उसने जो पुण्य किया है, उसी के प्रताप से उसे वर्तमान मे धन मिल रहा है। यहाँ एक पैसा भी मुफ़्त नहीं है; हमारे कर्म के अनुसार ही हमें कुछ भी मिलता है और कर्म के अनुसार ही हमारे हाथ से कुछ जाता है। अब देखना यह है कि आप वर्तमान मे क्या खेती कर रहे हैं, जिसका परिणाम आपको भविष्य में मिलेगा?
अपना वर्तमान सुधारिए!
वर्तमान की खेती अच्छी करें! उत्साह से सम्पन्न रहें और असफलता को रौंदते जायें! आप शायद एक बार, दो बार या तीन बार असफल होंगे पर चौथी बार में आपको ज्ञान हो जाएगा कि आप क्यों असफल हो रहे हैं और आप आगे निकल जाएँगे। किसी के भी भाग्य में हमेशा असफल होना नहीं लिखा हो सकता! हम मनुष्य हैं, पशु नहीं, कि हम सिर्फ प्रारब्ध (पूर्व कर्म) के अधीन हों। हम नवीन कर्म करके नवीन प्रारब्ध की रचना करने आए हैं। हमें निराश नहीं होना है। हमें नाम जप करना है, हमें अपना चरित्र पवित्र रखना है, और दूसरों के अधिकार की रक्षा करते हुए सांसारिक उन्नति के लिए प्रयासरत रहना है। ऐसा करने से आपको अवश्य सफलता मिलेगी।
कर्म और काल का चक्र
विद्यारण्य नाम के एक बहुत बड़े सन्यासी थे। उनका जन्म एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ। गरीब होने के कारण उनके पास अपने माता-पिता के पोषण के लिए कोई व्यवस्था नहीं थी। वह ब्राह्मणत्व में स्थित थे और उन्होंने संतों का संग किया था। धन की व्यवस्था के लिए उन्होंने गायत्री का अनुष्ठान किया। चौबीस लाख बार गायत्री मंत्र का जप करने से एक पुरश्चरण होता है। उन्होंने ऐसे तेईस पुरश्चरण किए परंतु उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ। इस समय में उनके माता पिता का भी निधन हो गया। उनकी आयु भी अधिक हो गई और उन्होंने सन्यास ले लिया! जेसे ही उन्होंने सन्यास लिया, माता गायत्री उनके सामने प्रकट होकर बोलीं, तुम्हें जो भी माँगना हो माँग लो, मैं तुम्हें कुछ भी देने के लिए तत्पर हूँ। उन्होंने कहा, अब तो मैं सन्यासी हूँ, अब मुझे कुछ नहीं चाहिए। उन्होंने पूछा आप पहले क्यों नहीं आईं? तब माता गायत्री ने कहा, तुम्हारे पूर्व के चौबीस महापाप थे। तुम्हारे तेईस पाप पुरश्चरण से और अंतिम पाप सन्यास लेने से नष्ट हुआ। और इसके बाद मैं तुरंत आ गई।
इस कहानी से हमें यह पता चलता है कि जब तक हमारे पूर्व के पाप बाक़ी हैं, वो हमारी उन्नति मे बाधा डालते रहेंगे। हमें प्रयास करते रहना चाहिए और साथ ही साथ भगवान के नाम का जप भी करना चाहिए। प्रभु का जो भी नाम आपको प्रिय हो, उसका जप करें। भगवान के नाम में पापों का नाश करने की सामर्थ्य है। असफलता मिलने पर निराश ना हों, हम प्रभु के अंश हैं, पशु नहीं!
सफलता प्राप्ति के दो साधन!
जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए दो साधन होने चाहिए, एक आंतरिक नाम जाप और एक बाह्य प्रयास! इससे हम सफल हो जाएंगे। गीता में भगवान ने अर्जुन जी से यही कहा है, “मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो”। यह स्मरण पाप का नाश करेगा और बाह्य प्रयास आपकी उन्नति का मार्ग खोलेगा।
चरित्र को पावन रखें, धर्म-पूर्वक चलें और नाम-जप करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करें। अगर आप यह सब करते हैं तो जीवन में उत्साह-हीनता कभी आ ही नहीं सकती। और अगर पूर्व का पाप हमें गिराने आया तो हम उसे अपने भजन के बल से मिटाएंगे। पापों का नाश भजन के बल से ही होता है, बाहरी व्यवहार से नहीं।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज