गुरु की सेवा में अपने जीवन को समर्पित करना अत्यंत कठिन है। रसिक मुरारी जी ने अपने गुरुदेव से पूछा, “हरि कैसे प्रसन्न होते हैं?” उनके गुरुदेव, श्री श्यामानन्द जी ने उत्तर दिया, “साधु सेवा से!” यदि साधु सेवा नियम, दैन्यता, और भाव से की जाए, तो भगवान स्वयं संतों की जिह्वा से प्रसाद पाते हैं। यदि संतों का चरणामृत उतारा जाए, उनकी आरती की जाए और उन्हें प्रसाद पवाया जाए तो भगवान बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं। इसको गुरु आज्ञा मानकर, रसिक मुरारी जी ने संत सेवा का बड़ा विस्तार किया। अब वो रोज़ संतों को निमंत्रण देकर प्रसाद पवाते और उनकी सेवा करते। लेकिन संत सेवा का व्रत बहुत कठिन है क्योंकि संत अलग-अलग स्वभाव के होते हैं।
रसिक मुरारी जी का संत चरणामृत के प्रति भाव
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संतों की सेवा मुश्किल है, स्वयं भगवान भी कभी-कभी आपकी परीक्षा लेने आ सकते हैं। वो आपके सामने ऐसा रूप लेकर आ सकते हैं कि आप उनकी अवहेलना कर दें और आपका उनके प्रति भाव ख़राब हो जाए। रसिक मुरारी जी की संतों के चरणामृत के प्रति विशेष भावना थी। वो चरणामृत को एक मटके में रखते, उसे आसन पर विराजमान करते और रोज़ उसकी परिक्रमा और साष्टांग दंडवत कर, चरणामृत का पान करते। यही उनकी असली संपत्ति थी।
हर संत सेवा से पहले हर संत का चरणामृत उतारा जाता और उसे सबसे पहले रसिक मुरारी जी के पास ले जाया जाता। एक बार रसिक मुरारी जी के वहाँ संत सेवा का उत्सव चल रहा था, और संत सेवा का प्रसाद बाँटने से पहले सब संतों का चरणामृत उतारकर सीधे रसिक मुरारी जी के पास लाया गया। लेकिन उस दिन रसिक मुरारी जी ने कहा, “आज संत चरणामृत में मुझे वह आनंद व स्वाद नहीं मिला।” उन्होंने कहा ज़रूर किसी न किसी संत के प्रति अपराध बना है इसलिए आज वो स्वाद नहीं आ रहा। जब चरणामृत उतारने वालों से पूछा गया तो पता चला कि एक संत, जिन्हें कुष्ठ रोग था, उनके चरणामृत को नहीं उतारा गया था। रसिक मुरारी जी ने कहा इसी अपराध ने सभी संतों के चरणामृत के प्रभाव को क्षीण कर दिया है। वो स्वयं गए और उन्होंने उन संत की खोज की और उनका चरणामृत उतारा और उसका पान किया। चरणामृत का पान करने के बाद अश्रु प्रवाह करते हुए उन्होंने कहा, “आहा! अब स्वाद आया है।”
अगर आप भी संत सेवा करना चाहते हैं तो जान लीजिए कि यह बहुत कठिन है। हो सकता है आप किसी संत का चरणामृत उतार रहे हों और वो आपको लात मार दें। फिर भी आपको हाथ जोड़कर दैन्यता पूर्वक खड़े रहना है, उसका उत्तर नहीं देना। भगवान स्वयं संतों के रूप में आपकी परीक्षा लेने आएँगे।
संत सेवा में रसिक मुरारी जी की विनम्रता
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एक बार रसिक मुरारी जी संत सेवा के महत्व पर चर्चा कर रहे थे। इतने में बाहर संत सेवा में हल्ला मचने लगा। एक संत दो पत्तल माँग रहे थे जिस बात पर विवाद हुआ। जब रसिक मुरारी जी बाहर देखने गए तो उन संत ने, पत्तल में परोसा हुआ प्रसाद रसिक मुरारी जी के मुँह पर फेंक दिया। लेकिन रसिक मुरारी जी ने तनिक भी क्रोध नहीं किया और कहा, “हे प्रभु, आपकी हम पर अपार कृपा है कि आपने आज पहले ही अपना उच्छिष्ट (संतों का छोड़ा हुआ भोजन जो ग्रहण करने से आध्यात्मिक उन्नति होती है) हमें दे दिया।” वो संत रसिक मुरारी जी को कटु वचन भी कहने लगे, फिर भी उन्होंने उन्हें कुछ नहीं कहा और अपने सभी जनों को रोका और उन संत से कहा, आप बहुत करुणामय हैं। उन्होंने उनके लिए दो पत्तल लगाए और अपने परोसने वालों से कहा तुम्हारे अंदर सेवा का भाव नहीं, तुम्हें इस सेवा से निष्कासित किया जाता है, संतों के साथ कोई ऐसा व्यवहार करता है क्या?
संत सेवा में जिसकी प्रबल निष्ठा होती है वो कभी उनमें दोष दर्शन नहीं करता। और संतों में दोष दर्शन न हो ऐसा मुश्किल है क्योंकि उनके व्यवहार दुनिया से विलग होते हैं।
रसिक मुरारी जी की संत सेवा की निष्ठा की परीक्षा
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एक दिन रसिक मुरारी जी ने सुना कि सामने वाले बगीचे में संत मंडली आई हुई है। तो वो उनके दर्शन के लिए गए। संतों का दर्शन बहुत सावधानी से करना चाहिए और यह ध्यान रखना चाहिए कि उनके प्रति कोई दोष दर्शन ना हो जाए। ऐसा करने से उनके दर्शनमात्र से पाप का नाश हो जाता है। जब वो दर्शन करने गए, तो उनमें से एक संत हुक्का पी रहे थे। संत ने उन्हें देखते ही अपने हुक्के को छुपा लिया। रसिक मुरारी जी ने सोचा कहीं इन संत को संकोच ना हो जाए। ऐसा सोचकर वो अपना पेट पकड़कर वहीं बैठ गये। संत ने पूछा, क्या हुआ। रसिक मुरारी जी ने कहा मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है। अगर मुझे हुक्का पीने को मिल जाये तो ये ठीक हो जाएगा। उन संत ने तुरंत अपना हुक्का निकाला, और रसिक मुरारी जी ने उसे मुँह से लगाकर पीने का नाटक किया। इस प्रकार, उन्होंने उस संत का संकोच दूर किया।
निष्कर्ष
रसिक मुरारी जी भगवद् लीला में डूबे हुए संत सेवी थे। उन्होंने संत सेवा के प्रति लोगों की श्रद्धा बढ़ाने के साथ-साथ यह भी सिखाया कि संतों में दोष दर्शन या उनकी निंदा नहीं करनी चाहिए। साधु सेवा करते समय हमें सावधानी रखनी चाहिए, ताकि उसके कारण हमारा साधन बिगड़ न जाए।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज