राजा ययाति की कहानी – काम वासना भोग भोगने से शांत नहीं होती

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
राजा ययाति की कहानी - काम वासना भोग भोगने से शांत नहीं होती
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असुरों के राजा वृषपर्वा की पुत्री का नाम शर्मिष्ठा था, और असुरों के गुरु शुक्राचार्य जी की पुत्री का नाम देवयानी था। शर्मिष्ठा और देवयानी के बीच मित्रता थी। एक दिन शर्मिष्ठा बाकी राजकुमारियों के साथ वन विहार के लिए जा रही थीं। जाते समय, उन्होंने गुरु पुत्री देवयानी को भी अपने साथ ले लिया। हजारों सखियां उपवन में टहल रही थीं। वहां सुंदर पुष्पों से लदे हुए अनेक वृक्ष, कमल से खिले सरोवर, और भौंरों की गूंज सुनाई दे रही थी। यह बड़ा ही मनोरम दृश्य था। सभी राजकुमारियां सरोवर में खेल रही थीं और स्नान कर रही थीं। वे सभी निर्वस्त्र थीं। उसी समय भगवान शंकर और पार्वती जी वहां से निकल रहे थे। उन्हें देखकर सभी कन्याएं सकुचा गईं, दौड़ पड़ीं, और अपने-अपने वस्त्र पहनने लगीं।

शीघ्रता के कारण देवयानी के हाथ में शर्मिष्ठा का वस्त्र आ गया, और उन्होंने वही पहन लिया। यह देखकर राजकुमारी शर्मिष्ठा ने क्रोधित होकर कहा, “तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? हमारे पुरोहित की कन्या होकर तुमने राजकुमारी का वस्त्र कैसे धारण कर लिया?” इस बात को लेकर दोनों के बीच विवाद हो गया।

शर्मिष्ठा और देवयानी के बीच विवाद

शर्मिष्ठा और देवयानी के बीच विवाद

देवयानी ने उत्तर दिया, “तू ज्यादा बढ़कर मत बोल। क्या तू मेरे पिता शुक्राचार्य जी को जानती है? वे तुम्हारे पिता के गुरु हैं और तपोबल से पूरी सृष्टि का संचालन कर सकते हैं। वे परम पुरुष परमात्मा के समान हैं और निरंतर परमात्मा की स्थिति में रहते हैं। बड़े-बड़े लोकपाल जिनकी वंदना करते हैं, हम उन तपस्वी की पुत्री हैं। तेरे पिता हमारे शिष्य हैं, और तू हमारे शिष्य की पुत्री है।”

शर्मिष्ठा के कहने पर अन्य राजकुमारियों ने देवयानी को कुएं में फेंक दिया

देवयानी की इन बातों को सुनकर शर्मिष्ठा क्रोध से तिलमिला उठी और तीखे वचन बोलने लगी। शर्मिष्ठा ने अपनी राजकुमारियों को आदेश दिया, “इस गुरु पुत्री को उठाकर कुएं में फेंक दो।” राजकुमारियों ने शर्मिष्ठा का आदेश मानते हुए देवयानी को कुएं में फेंक दिया और सब वहां से चली गईं।

महाराज ययाति और देवयानी का प्रथम मिलन

महाराज ययाति और देवयानी का प्रथम मिलन

महाराज ययाति एक चक्रवर्ती सम्राट थे। वे राजा नहुष के छह पुत्रों में से एक थे। एक दिन, वे जंगल में शिकार करने गए। प्यास लगने पर वे एक कुएं के पास पहुंचे। उनके सेवकों ने बताया कि कुएं में कोई है। महाराज ययाति ने एक वस्त्र नीचे फेंककर और हाथ देकर उस व्यक्ति को बाहर निकाला। बाहर आने पर उन्होंने देखा कि वह और कोई नहीं, बल्कि निर्वस्त्र देवयानी थीं। देवयानी बेहद संकोच में थीं।

ययाति ने कहा, “देवी, मैंने केवल आपको बचाने के भाव से यह किया है।” इस पर देवयानी ने उत्तर दिया, “आज तक मेरा हाथ किसी ने नहीं पकड़ा। आप यह सुनकर चौंक जाएंगे कि मैं कौन हूं। मैं भगवान शुक्राचार्य की पुत्री, देवयानी हूं।” यह सुनकर महाराज ययाति के होश उड़ गए। उन्होंने सोचा कि इतने बड़े ब्रह्म ऋषि की पुत्री को निर्वस्त्र अवस्था में स्पर्श करने के कारण उन्हें श्राप मिल जाएगा। ययाति ने कहा, “देवी, मैंने केवल आपको बचाने के उद्देश्य से स्पर्श किया।”

देवयानी ने उत्तर दिया, “डरो मत। मुझे पहले ही एक श्राप मिला है कि कोई ब्रह्म ऋषि मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार नहीं करेगा। केवल एक क्षत्रिय राजकुमार ही मुझे अपनाएगा। यह मुझे भली-भांति ज्ञात है। इसलिए, मैं तुम्हें पति रूप में वरण करती हूं।” ययाति को यह शास्त्र प्रतिकूल संबंध स्वीकार नहीं था, लेकिन जब उन्होंने देखा कि स्वयं देवयानी यह कह रही हैं और उन्हें ऐसा श्राप मिला है, तो उनके मन ने देवयानी को स्वीकार कर लिया। साथ ही, देव सुंदरी देवयानी का सौंदर्य देखकर भी उनका हृदय पिघल गया। ययाति ने कहा, “यदि भगवान शुक्राचार्य जी इस संबंध के लिए सहमत हों, तो मुझे भी यह स्वीकार है।” ययाति देवयानी को वहीं छोड़कर चले गए और मन में निश्चय किया कि जब भगवान शुक्राचार्य स्वयं देवयानी को लेकर आएंगे, तभी वे उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करेंगे।

शुक्राचार्य का क्रोध

शुक्राचार्य का क्रोध

देवयानी रोती हुई भगवान शुक्राचार्य जी के पास पहुंची और उन्हें सारी घटना सुनाई—कैसे शर्मिष्ठा ने राजकुमारियों से कहकर उसे कुएं में फेंकवा दिया था। देवयानी की बात सुनकर शुक्राचार्य जी क्रोधित हो गए और बोले, “इस लड़की ने मुझे साधारण पुरोहित समझ लिया है। क्या वह नहीं जानती कि मैं अपनी इच्छा से नया संसार भी रच सकता हूं?” शुक्राचार्य जी ने देवयानी को साथ लिया और कहा, “चलो, ऐसे राजा के राज्य में अब नहीं रहना।”

देवयानी का विवाह और शर्मिष्ठा का दासी बनना

ययाति और देवयानी का विवाह

जब वृषपर्वा को यह बात पता चली कि अगर भगवान शुक्राचार्य जी नाराज हो गए, तो उनके राज्य का विनाश निश्चित है, वह तुरंत उनके चरणों में गिर पड़ा और क्षमा मांगने लगा। शुक्राचार्य जी ने कहा, “मैं अपनी पुत्री का अपमान सहन नहीं कर सकता। यदि तुम चाहते हो कि मैं यहां रुकूं, तो वही करो जिसमें मेरी पुत्री संतुष्ट हो।” वृषपर्वा ने विनम्रता से कहा, “महाराज, आपकी आज्ञा का पालन होगा। कृपया बताएं, आपकी पुत्री क्या चाहती है?”

देवयानी ने कहा, “मैं जिसे पति रूप में वरण करूं, उसकी दासी बनकर शर्मिष्ठा आजीवन मेरी सेवा करे।” यह सुनकर वृषपर्वा ने शर्मिष्ठा से कहा, “पुत्री, यदि तुम यह शर्त नहीं मानोगी, तो पूरा राज्य संकट में पड़ जाएगा।” अपने परिवार और राज्य को संकट से बचाने के लिए शर्मिष्ठा ने देवयानी की बात मान ली और दासी बनने के लिए तैयार हो गई।

इसके बाद, शुक्राचार्य जी ने बड़े उत्साह के साथ देवयानी का विवाह राजा ययाति के साथ कर दिया और शर्मिष्ठा को दासी के रूप में राजा के महल में भेजा गया। विवाह के समय देवयानी ने राजा ययाति से स्पष्ट रूप से कहा, “एक बात ध्यान रखना, यह दासी (शर्मिष्ठा) कभी तुम्हारे करीब नहीं आनी चाहिए।” शर्मिष्ठा, जो एक राजकुमारी थी और अत्यंत सुंदर भी, को लेकर देवयानी के मन में हमेशा आशंका बनी रहती थी। राजा ययाति भी देवयानी से भयभीत रहते थे, क्योंकि वह शुक्राचार्य जी की पुत्री थीं।

शर्मिष्ठा और ययाति के तीन पुत्र

शर्मिष्ठा और राजा ययाति के तीन पुत्र हुए

समय बीतता गया। एक दिन, जब देवयानी पुत्रवती हो चुकी थीं, शर्मिष्ठा ने राजा ययाति को अकेले में पकड़ लिया। अपनी चतुराई और प्रवीणता से, शर्मिष्ठा ने राजा ययाति को अपने वश में कर लिया। यह सब इतनी गुप्त रूप से हुआ कि देवयानी को इसका पता ही नहीं चला। कुछ समय बाद, देवयानी को दो पुत्र हुए, जबकि शर्मिष्ठा से राजा ययाति के तीन पुत्र हुए।

एक दिन देवयानी वन में घूम रही थीं। उन्होंने देखा कि वहां तीन राजकुमार राजचिन्हों से युक्त खेल रहे थे। यह देखकर देवयानी को आश्चर्य हुआ। उन्होंने सोचा, “चक्रवर्ती सम्राट महाराज ययाति के तो केवल दो पुत्र हैं। यह राजकुमार जैसे प्रतीक धारण किए हुए बालक कौन हैं?” देवयानी उनके पास गईं और पूछा, “तुम्हारे पिता कौन हैं?” बालकों ने उत्तर दिया, “हमारे पिता महाराज चक्रवर्ती सम्राट ययाति हैं।” देवयानी ने फिर पूछा, “तुम किसके पुत्र हो?” बालकों ने कहा, “हम शर्मिष्ठा माता के पुत्र हैं।”

यह सुनते ही देवयानी का क्रोध चरम पर पहुँच गया। वह गुस्से से भरकर घर छोड़कर सीधे अपने पिता शुक्राचार्य जी के पास चली गईं। महाराज ययाति उनके पीछे-पीछे गए और माफी मांगने की कोशिश करते रहे, पर देवयानी ने उनकी कोई बात नहीं सुनी।

देवयानी का क्रोध और ययाति का बुढ़ापा

शुक्राचार्य अपनी शक्तियों का उपयोग ययाति को बूढ़ा करने के लिए करते हैं

जब देवयानी शुक्राचार्य जी के पास पहुँचीं, तो उन्होंने पूछा, “क्या हुआ बेटी?” देवयानी ने क्रोध में कहा, “इस स्त्री-लंपट ने मेरी आज्ञा का पालन नहीं किया। इसने दासी (शर्मिष्ठा) के गर्भ से तीन पुत्र उत्पन्न किए। पिता जी, इसे दंड दीजिए!” शुक्राचार्य जी ने देवयानी से पूछा, “इन्हें क्या दंड दिया जाए?” देवयानी ने क्रोध में कहा, “इनके शरीर में बुढ़ापा आ जाए और यह स्त्री-सहवास योग्य न रहें।”

ययाति की वृद्धावस्था

देवयानी की बात सुनकर शुक्राचार्य जी ने अपने तपोबल से महाराज ययाति को तुरंत बूढ़ा कर दिया। ययाति का शरीर वृद्ध हो गया, और उनकी सारी शक्ति क्षीण हो गई। ययाति ने व्यथित होकर देवयानी से कहा, “अब तो तुम खुश हो? लेकिन तुमने यह नहीं सोचा कि तुमने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।” इसके बाद ययाति ने देवयानी से प्रार्थना करते हुए कहा, “मैं आज तक विषय-भोग करते-करते भी तृप्त नहीं हुआ। बिना तृप्ति के वैराग्य नहीं होता। कृपा करके मेरा बुढ़ापा वापस ले लो, ताकि मैं जीवन का आनंद लेकर संतोष प्राप्त कर सकूं।”

ययाति की बात सुनकर देवयानी का गुस्सा कुछ शांत हो गया। उन्होंने अपने पिता शुक्राचार्य जी से प्रार्थना की, “पिताजी, ऐसा कोई उपाय बताइए जिससे इनका बुढ़ापा समाप्त हो जाए और ये फिर से जवान हो सकें।” शुक्राचार्य जी ने कहा, “अगर इनका कोई पुत्र इन्हें अपनी जवानी देने के लिए तैयार हो जाए, तो यह वापस युवा होकर गृहस्थ धर्म का पालन कर सकते हैं।”

ययाति के पुत्र पुरु का बलिदान

ययाति के पुत्र पुरु का बलिदान

ययाति ने अपने पुत्रों से उन्हें अपनी जवानी देने की प्रार्थना की, परंतु उनके चार पुत्रों ने उन्हें मना कर दिया। अंत में, उनके सबसे छोटे पुत्र पुरु इस त्याग के लिए तैयार हो गए। उन्होंने अपने पिता को अपनी जवानी दान कर दी और स्वयं बुढ़ापा और इंद्रिय-शक्ति हीनता को स्वीकार कर लिया। महाराज ययाति, पुरु के इस त्याग से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, “तुम्हारा यह बलिदान अमूल्य है। मैं इसका ऋणी रहूंगा।” इसके बाद ययाति ने पुरु के यौवन का उपयोग करते हुए एक हज़ार वर्षों तक भोग-विलास किया।

भोगों में सुख नहीं है!

ययाति को एहसास हुआ कि भोगों में कोई सुख नहीं है!

इतने लंबे समय तक भोग विलास में लीन रहने के बावजूद, उनकी तृष्णा शांत नहीं हुई। भोगों के प्रति उनकी लालसा बनी रही। अंततः महाराज ययाति ने इन सब से ऊबकर उन्हें त्यागने का निर्णय लिया। उन्होंने विचार किया, “मैं कितना पतित हो गया हूं कि अपने ही पुत्र की जवानी का उपभोग कर रहा हूं, फिर भी संतोष नहीं मिल रहा! अब बस, और नहीं!”

उन्होंने देवयानी से कहा, “क्या इस पृथ्वी पर मेरे जैसा कोई और विषयों का दास होगा? मैं पूरी तरह इंद्रियों का गुलाम बन चुका हूं। परमार्थ की भावना मुझसे कोसों दूर हो गई है, केवल विषय सेवन ही शेष रह गया है। यहाँ तक कि मैंने अपने पुत्र की जवानी तक भोग ली, फिर भी कभी तृप्ति का अनुभव नहीं हुआ। अब और नहीं!”

विषयों का सेवन करते-करते मैंने अपने पुत्र की एक हज़ार वर्ष की आयु भोग ली, फिर भी वही तृष्णा, वही भोग लालसा बनी रही। इस वासना और भोगों की प्यास का कोई अंत नहीं। आज मैं परमात्मा को साक्षी मानकर दृढ़ निश्चय करता हूं कि अब इन भोगों को कभी स्वीकार नहीं करूंगा।

ययाति का त्याग और समर्पण

ययाति का त्याग और समर्पण

ययाति ने अपने पुत्र पुरु को उसकी जवानी लौटाते हुए स्वयं बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। उन्होंने निश्चिंत होकर भगवान के चिंतन में स्वयं को समर्पित कर दिया। अपने पुत्र पुरु को सिंहासन सौंपकर, उन्होंने राजपाट त्याग दिया और वनवास का मार्ग अपनाया। वन में रहते हुए, ययाति ने घोर तपस्या की। कठोर साधना करते हुए, उन्होंने समस्त सांसारिक शक्तियों और इच्छाओं का त्याग किया। अंततः आत्म साक्षात्कार के द्वारा, अपने शरीर को तपस्या से भस्म कर, वे परमात्मा वासुदेव की परम गति को प्राप्त हुए।

इस कहानी से हमारे लिए सीख

इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि स्त्री-पुरुष के बीच का मोह और आसक्ति हमें आत्मबोध से दूर रखते हैं। यह जीवन कोई आसान खेल नहीं है—माया और मोह का त्याग करना बहुत कठिन है। हम अपने स्वजन और संबंधियों के साथ जो आकर्षण महसूस करते हैं, वह माया का जाल है, और इससे मुक्त होना बहुत मुश्किल होता है। केवल वही व्यक्ति, जिस पर श्री कृष्ण की कृपा होती है, यह अनुभव करता है कि भोगों में सुख नहीं है, संसार के संबंध मिथ्या हैं, और जब वह अपने चित्त को निरंतर परमात्मा में लगाता है, तब भगवान वासुदेव की कृपा से उसे मुक्ति प्राप्त होती है।

अबलौं नसानी, अब न नसैहौं।
राम-कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं॥
श्री रामचरितमानस
यहाँ श्री तुलसीदास जी कह रहे हैं कि अब तक तो मेरी आयु व्यर्थ ही नष्ट हो गई, परंतु अब इसे नष्ट नहीं होने दूँगा। जब तक मैं इंद्रियों के वश में था, तब तक उन्होंने मुझे मनमाना नाच नचाकर मेरी बड़ी हँसी उड़ाई, परंतु अब स्वतंत्र होने पर यानी मन-इंद्रियों को जीत लेने पर उनसे अपनी हँसी नहीं कराऊँगा। अब तो अपने मन को श्रीराम जी के चरणों में लगा दूँगा।

जो इंद्रियों को छूट दे देता है, वह चाहे कितना भी बड़ा विद्वान या बलवान हो, वह अवश्य नष्ट हो जाता है। यही बात जिसके जीवन में आ गई, उसका काम बन गया।

मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज

पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज राजा ययाति के प्रसंग का वर्णन करते हुए

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