द्वारिका में शाम का समय था। भगवान श्री कृष्ण के पुत्र खेल रहे थे। खेल-खेल में उन्हें प्यास लगी और वे पानी की खोज में एक कुएं के पास पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि एक गिरगिट कुएं में पड़ा हुआ है। उन्होंने उसे निकालने की कोशिश की। उन्होंने सूत और चमड़े की रस्सियों का उपयोग किया, लेकिन वह गिरगिट बाहर नहीं आ सका। जब वे असफल हो गए, तो यह बात भगवान द्वारिकाधीश तक पहुंचाई गई।
भगवान श्री कृष्ण स्वयं वहां पहुंचे। उन्होंने बिना किसी कठिनाई के बाएं हाथ से उस गिरगिट को खींचकर बाहर निकाल दिया। जैसे ही गिरगिट भगवान के स्पर्श में आया, एक आश्चर्यजनक घटना घटी। गिरगिट से एक तेजस्वी महापुरुष प्रकट हुए। भगवान, जो कि त्रिकालदर्शी हैं और सब कुछ जानते हैं, ने फिर भी उनसे पूछा, “हे देव पुरुष, आप कौन हैं और आपको यह स्थिति कैसे प्राप्त हुई? आप गिरगिट क्यों बने? कृपया अपना परिचय दीजिए।”
राजा नृग की कहानी
उस महापुरुष ने उत्तर दिया, “प्रभु, मैं राजा नृग हूं। मैं एक चक्रवर्ती सम्राट था और प्रसिद्ध दानी था। आपने मेरे नाम के बारे में अवश्य सुना होगा। मैं आपको अपनी कहानी सुनाता हूं।” राजा नृग ने बताया, “प्रभु, मैंने अपनी युवावस्था से ही अनेक दान किए। मैंने असंख्य गायों का दान किया, और वे सभी गायें दुधारु, सुंदर और सुसज्जित थीं। मैंने न्यायपूर्वक अर्जित धन से इन गायों को प्राप्त किया और उनके सींगों में सोना तथा खुरों में चांदी लगवाई। मैंने इन्हें वस्त्र, हार और आभूषणों से सजाया और उन्हें सद्गुणी, तपस्वी, विद्वान ब्राह्मणों को दान किया।
मैंने पृथ्वी, सोना, घोड़े, हाथी, कन्याएं और अन्य बहुमूल्य वस्तुएं भी दान कीं। मैंने यज्ञ किए, कुएं, बावलियां और धर्मशालाएं बनवाईं। लेकिन, एक छोटी-सी चूक ने मेरी पूरी दानशीलता पर पानी फेर दिया।
राजा नृग की एक छोटी चूक का बड़ा परिणाम
एक दिन, एक गाय भूलवश मेरी गौशाला में आ गई। वह गाय उस तपस्वी ब्राह्मण की थी, जो दान नहीं लेता था। लेकिन मेरी गौशाला के कर्मचारियों ने उसे मेरी गाय समझ लिया और उसे किसी और को दान में दे दिया। जब वह गाय दान में दी गई, तो जिस ब्राह्मण को वह गाय मिली, वह आनंदित होकर उसे ले जा रहा था। उसी समय, उस तपस्वी ब्राह्मण ने अपनी गाय को पहचान लिया और दावा किया कि वह गाय उसकी है।
दोनों ब्राह्मण मेरे पास आए और न्याय की अपेक्षा की। मैंने दोनों को प्रसन्न करने की कोशिश की। मैंने कहा, “मैं आपको एक लाख गायें और दे सकता हूं।” लेकिन दोनों में से कोई भी राजी नहीं हुआ। दान में दी गई गाय को पाने वाला ब्राह्मण उसे छोड़ने को तैयार नहीं था, और तपस्वी ब्राह्मण अपनी गाय को किसी भी शर्त पर छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। अंततः मैं धर्मसंकट में पड़ गया। मैंने दोनों से क्षमा मांगी और उनसे यह विवाद समाप्त करने की विनती की, लेकिन कोई हल नहीं निकला।
राजा नृग बने गिरगिट
जब मेरी मृत्यु हुई, तो इस छोटी-सी चूक के कारण मुझे यमलोक ले जाया गया। वहां धर्मराज ने मुझसे पूछा कि क्या मैं पहले अपने पाप का फल भोगना चाहता हूं या पुण्य का। मैंने पाप का फल पहले भोगने का निर्णय लिया, और इसके परिणामस्वरूप मुझे गिरगिट के रूप में जन्म लेना पड़ा।
द्वारिका के इस कुएं में मैं लंबे समय से पड़ा हुआ था और कष्ट भोग रहा था। लेकिन आज आपके दर्शन से मुझे इस गिरगिट के शरीर से मुक्ति मिली। प्रभु, मैं आपका सेवक हूं और आपकी कृपा से ही यह संभव हुआ।” राजा नृग ने भगवान श्री कृष्ण की स्तुति और परिक्रमा की और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। भगवान ने राजा नृग को आशीर्वाद दिया, और वे दिव्य विमान पर बैठकर देवलोक को प्रस्थान कर गए।
इस कहानी से हमारे लिए सीख:
जैसा कि ध्रुवदास जी महाराज ने श्री बयालीस लीला जी में कहा है:
हेम कौ सुमेर दान, रतन अनेक दान, गज दान, अन्नदान, भूमि दान करहीं ।
मोतिन के तुला दान, मकर प्रयाग-न्हान, ग्रहन में काशी दान, चित्त शुद्ध धरहीं ॥
सेज दान, कन्या दान, कुरूक्षेत्र गऊ दान, इतने में पापन कौं नेकहूँ न हरहीं ।
कृष्ण केसरी कौ नाम, एक बार लीन्हें ‘ध्रुव’, पापी तिहुँ लोकन के छिन माहिं तरहीं ॥
– श्री ध्रुवदास, बयालीस लीला, जीव दशा
अर्थात, यदि कोई इस विश्वास के साथ सुमेरु पर्वत के समान स्वर्ण का दान करे, रत्न, अन्नदान और भूमिदान करे कि इससे पुण्य मिलेगा और पापों से मुक्ति होगी, या फिर अनेक तुलादान करे, प्रयाग जैसे तीर्थों में स्नान करे, और काशी में ग्रहण के अवसर पर चित्त-शुद्धि के लिए अनेकों दान करे, शय्यादान, कन्यादान, और कुरुक्षेत्र में शुभ पर्व पर गोदान करे, तो इन सभी पुण्य कर्मों के बावजूद वह अपने समस्त पापों से मुक्त नहीं हो सकता। केवल एक बार श्रीकृष्ण के नाम का स्मरण करने से ही, त्रैलोक्य के समस्त पापी भी एक क्षण में संसार के आवागमन से मुक्त होकर परमगति को प्राप्त कर सकते हैं।
महाराज नृग को इतने दान करने के बावजूद केवल एक अपराध के कारण गिरगिट के रूप में जन्म लेना पड़ा। लेकिन यदि कोई नाम जप करने वाला साधक है, तो हजारों अपराध होने पर भी उसकी ऐसी दुर्गति नहीं होगी। यदि उसे पुनर्जन्म लेना भी पड़ा, तो वह एक अच्छे परिवार में जन्म लेगा और बहुत शीघ्र भगवद् प्राप्ति कर लेगा। भगवान का नाम अत्यंत शक्तिशाली है, इसलिए अधिक से अधिक नाम जपने का प्रयास करें।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज