यदि भगवद् प्राप्ति करनी है तो निंदा, अपमान और अवज्ञा को सम्मान और स्तुति मान कर सह जाओ। “करत जे अनसहन निन्दक तिनहुँ पै अनुग्रह करयौ – सेवक वाणी”। भगवान की तरफ़ जाने वाला मार्ग संसार और व्यवहार से उल्टा है। यदि आपसे कोई प्यार का व्यवहार करता है तो आपकी भौं चढ़ जानी चाहिए। आपको उदासीन रहना होगा। क्योंकि जो आपको अपना बनाना चाह रहा है, उससे संसार में फँस जाओगे। कोई ऐसा नहीं होना चाहिए जिसका हम एकांत में चिंतन करें, एकांत में केवल प्रभु का चिंतन होना चाहिए।
एक बार मैंने सद्गुरदेव भगवान से कहा, महाराज जी, सेवक वाणी में लिखा है, “हँसि बोलै बहु मान दै”। मतलब श्री हरिवंश नाम का परिचय प्राप्त होने पर उपासक अपने को सबसे छोटा मानने लगेगा और सबका पूर्ण सम्मान करते हुये उनके साथ हँस-हँस कर बातचीत करेगा। मैंने उनसे पूछा, फिर आप हमेशा मेरी तरफ़ ग़ुस्से से क्यों देखते रहते हैं, कभी तो प्यार से बात करें। उन्होंने कहा, “ये तो दूसरे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए उसके लिए लिखा है, अपने लिए थोड़ी लिखा है”। यह बहुत ही गूढ़ बात थी। बाद में जब चिंतन हुआ तो समझ आया, गुरुजी कहना चाहते थे, “तुम दूसरे हो क्या, तुम तो अपने हो”। महापुरुषों के भाव को समझना बहुत मुश्किल है। इतना प्यार, उन्होंने मुझे अपना कह दिया। गुरुजनों के द्वारा अपने जनों की तरफ़ रूक्ष व्यवहार किया जाता है क्योंकि वो निरपेक्ष होते हैं, इसी से शिष्य का काम बनता है।
संत कभी किसी से अपेक्षा नहीं करता !
भक्त केवल भगवान से संबंध रखता है, संसार के किसी दानी से नहीं। वो यह नहीं सोचते कि अगर कोई भक्त रूठ गया तो हमारा काम कैसे चलेगा। महाराज जी लाड़ली कुंज में रहते थे और वहाँ दरवाज़े पर ताला कभी नहीं लगता था। आज भी वहाँ लकड़ी और चूल्हे से ही श्रीजी का भोग बनता है, पहले भी वैसा ही था। एक दिन शाम में महाराज जी दर्शन करने गए। जब महाराज जी वापस आये तो कोई भक्त महाराज जी की कुटिया में गैस, चूल्हा, सिलिंडर और कुकर रख कर चला गया। मैं जब लौट कर आया तो महाराज जी ने पूछा, ये सब क्या है? मैं जब अंदर गया तो देखा पूरी रसोई एकदम नये यंत्रों से भरी हुई थी। मैंने महाराज जी से कहा इसमें मेरी कोई चाल नहीं, मेरा तो कोई ऐसा भक्त भी पहचान का नहीं है जो ये सब ला सके। महाराज जी ने कहा, उठाओ ये सब और सब कुछ परिक्रमा मार्ग में रख आओ, जिसे लेना होगा ले जाएगा। उन्होंने लकड़ी जलाकर उसी पुराने चूल्हे में श्रीजी का भोग बनाया और पुराने रज के पात्र में डालकर श्रीजी को अर्पित किया।
आज तक उन्हें किसी की अपेक्षा नहीं। आप उनके पास रोज़ जाइए, कोई परेशानी नहीं, ना जाओ तो भी वो कभी पूछेंगे भी नहीं। महाराज जी निरपेक्षता की मूर्ति हैं। एक बार कोई धनी-मानी पुरुष आया और उसने महाराज जी से मिलने के लिये कहा। उस समय महाराज जी एकांत सेवन कर रहे थे तो हमने कहा कि अभी महाराज जी से मिलना नहीं हो पाएगा। इसपर उन्होंने अपना कार्ड देते हुए कहा कि महाराज जी से कहिए किसी भी चीज़ की ज़रूरत हो तो हमें याद कर लें। जब महाराज जी को इसके बारे में पता चला तो उन्होंने उन्हें वापस कभी भी वहाँ आने से मना कर दिया। उन्होंने कहा, हमारी व्यवस्था श्रीजी से चलती है, किसी धनी पुरुष के फ़ोन नंबर से नहीं। हम श्रीजी को याद रखते हैं, किसी संसारी पुरुष को नहीं।
निष्परिग्रह – किसी से कुछ ना लेना, ना किसी चीज़ का संग्रह करना
एक बार की बात है, महाराज जी सुनरख (वृंदावन में एक स्थान) गये और ख़ाली कमंडल लेकर वापस आये। हमारे यहाँ श्रीजी को रात में दूध का भोग लगता है। पूछने पर उन्होंने बताया, “दूध वाले को काफ़ी दिनों से कुछ दिया नहीं तो आज हिम्मत ही नहीं हुई जाने की, तो मैं वापस आ गया”। यह सुनकर मेरे हृदय में बहुत कष्ट हुआ कि मेरे गुरदेव भगवान की श्रीजी के भोग की व्यवस्था नहीं हो पाई। उस समय, महीने में शायद 250 रुपये का दूध आता था। थोड़ी ही देर में, एक व्यक्ति आए और उन्होंने कहा, महाराज जी से मिलना है। मैंने पूछा, इस समय? क्या बात है? उन्होंने कहा, ये 250 रुपये उन्हें देने थे। फिर सुनरख से दूध आया और श्रीजी को भोग लगा। आप बस प्रभु के आश्रित हो जाइए, प्रभु स्वयं उस संबंध का निर्वाह करेंगे। महाराज जी कभी किसी से किसी चीज़ की अपेक्षा नहीं करते थे और भारी अव्यवस्था में रहते थे। उस समय महाराज जी की कुटिया में बिजली भी नहीं थी। उनकी कुटिया के सामने मदन टेर थी, जहाँ कीड़े, मकोड़े और बिच्छू आदि प्रकृति में खुले में विचरण करते थे। इससे उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। महाराज जी निरपेक्षता की साक्षात मूर्ति हैं। उनके दर्शन मिलना बहुत दुर्लभ होता था। यह तो हम पर आज श्रीजी की कृपा है जो आज सबको उनका दर्शन, संभाषण और चरण रज इतनी आसानी से मिल रही है।