अगर पत्नी मना करे कि प्रभु का नाम जपने या मंदिर जाने की आवश्यकता नहीं है, तो आप यह समझें कि भगवान का स्मरण केवल बाहरी नहीं, बल्कि आंतरिक भी होता है। यदि कोई अंदर ही अंदर भजन करता है, तो वह भी उतना ही सार्थक है। लेकिन यदि पत्नी माता-पिता की सेवा करने से रोके, तो उसकी बात नहीं माननी चाहिए। माता-पिता की सेवा से विमुख होना दुष्टता की सीमा पार करना होगा।
यदि हम मंदिर जाते हैं और कोई नाराज होता है, तो हम इस पर विचार कर सकते हैं, लेकिन माता-पिता की सेवा छोड़ना स्वीकार्य नहीं है। माता-पिता का आप पर पहला अधिकार है, क्योंकि उन्होंने हमें जन्म दिया और योग्य बनाया। उनकी सेवा को त्यागना उचित नहीं है। चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, माता-पिता की सेवा नहीं छोड़नी चाहिए।
अगर कभी माता-पिता को आर्थिक सहायता देने की आवश्यकता हो और हमें धन प्राप्त होता हो, तो हमें उनका ध्यान रखना चाहिए। जैसे यदि हमें 1000 रुपये मिलते हैं, तो कम से कम 200 रुपये माता-पिता को अवश्य देने चाहिए। वृद्धावस्था में उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना हमारा कर्तव्य है।
पति-पत्नी का संतुलन और माता-पिता की सेवा

आपको अपनी पत्नी को भी सुख देना चाहिए, उसका सम्मान करना चाहिए, उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए, क्योंकि वह आपकी अर्धांगिनी है। लेकिन माता-पिता सर्वप्रथम होते हैं। आज यदि युवा पति-पत्नी अपने वृद्ध माता-पिता की सेवा नहीं करेंगे, तो वे किसके पास जाएंगे? और कल जब हम स्वयं वृद्ध होंगे, तब हमारे बच्चे भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार कर सकते हैं।
एक पुरानी कथा है—एक औरत अपनी सास को पुराने मिट्टी के बर्तन में खाना परोसती थी। एक दिन उसने बर्तन ज़मीन पर ज़ोर से रख दिया, तो उसका बच्चा बोला—“माँ, धीरे रखो, टूट जाएगा!” माँ ने पूछा—“टूट जाएगा तो क्या होगा?” लड़के ने उत्तर दिया—“मुझे भविष्य में इसी बर्तन में आपको खाना देना है! जैसे आप आज दादी के लिए रख रही हो” तुम्हारे आचरण ही तुम्हारे बच्चों के संस्कार बनेंगे, और तुम्हें वैसा ही भोगना पड़ेगा।
सास-ससुर और बहू का रिश्ता

बहू कोई नौकरानी नहीं, बल्कि गृहलक्ष्मी होती है। सास-ससुर को चाहिए कि वे बहू को अपनी बेटी के समान मानें। जिस प्रकार वे अपनी बेटी के साथ अच्छा व्यवहार करना चाहेंगे, उसी प्रकार बहू के साथ भी करें। यदि सास-ससुर अपनी बहू को अपमानित करेंगे या कठोर व्यवहार करेंगे, तो उनका भी जीवन दुखमय हो सकता है।
जहाँ स्त्रियों का सम्मान नहीं होता, वहाँ सुख-समृद्धि नहीं टिकती। पत्नी को चाहिए कि वह अपने पति को अपने माता-पिता की सेवा करने से न रोके। यदि पत्नी स्वयं सेवा करने में रुचि नहीं रखती, तो कम से कम अपने पति को सेवा करने दे और उसका विरोध न करे। यदि आज कोई स्त्री अपने वृद्ध सास-ससुर की सेवा नहीं करेगी, तो भविष्य में उसके साथ भी वैसा ही व्यवहार हो सकता है।
पति का धैर्य और भूमिका

पति को धैर्यवान होना चाहिए, क्योंकि उसे माता-पिता और पत्नी दोनों की भावनाओं का सम्मान करना होता है। उचित बातों में पत्नी का साथ देना चाहिए, लेकिन अनुचित बातों में नहीं। माता-पिता की उचित-अनुचित दोनों बातें सहन करनी चाहिए, क्योंकि वे हमारे जन्मदाता और मार्गदर्शक हैं।

यदि माता-पिता हमें डाँटते हैं या गाली भी देते हैं, तो भी हमें उनकी सेवा करनी चाहिए। क्योंकि जब तक हम भगवद्-भाव से सेवा नहीं करेंगे, तब तक सच्ची सेवा नहीं बन पाएगी। यदि वो हमारे सेवा-भाव की किसी रिश्तेदार के सामने निंदा करते हैं, तब भी हमें शांत और स्थिर रहना चाहिए।
माता-पिता क्यों लगने लगते हैं बोझा?

आजकल के बच्चे और बच्चियां बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड की प्रवृत्ति से प्रभावित हो रहे हैं। वे व्यभिचारी प्रवृत्ति से युक्त होते जा रहे हैं और बड़े-बूढ़ों के आगे झुकना, उनकी सेवा करना उन्हें पसंद नहीं आता। उन्हें यह अच्छा लगता है कि वे होटल से भोजन लाए, खाएं और अपनी मनमानी करें। ऐसे में वे न तो बुजुर्गों की सेवा करना चाहते हैं और न ही सत्संग आदि में रुचि लेते हैं।
आजकल की नई पीढ़ी इस बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड और रिलेशनशिप की प्रवृत्ति में फंसकर अपनी बुद्धि भ्रष्ट कर रही है। गलत आचरण से बुद्धि भ्रष्ट होती है, और जिसकी बुद्धि भ्रष्ट होती है, वह बड़े-बूढ़ों की आराधना नहीं करता। उसे माता-पिता बोझ लगने लगते हैं, और वह यही सोचने लगता है कि वे जल्द ही संसार से चले जाएं।
माता-पिता और पत्नी, किसी का भी त्याग ना करें!

माता-पिता का त्याग मत करना और साथ ही, पत्नी को भी दुख मत देना। विवेकपूर्वक ऐसा मार्ग अपनाओ जिससे पत्नी भी संतुष्ट रहे और माता-पिता की सेवा भी होती रहे। पत्नी अर्धांगिनी होती है, उसका त्याग करना उचित नहीं है, धर्म भी इसकी अनुमति नहीं देता। परंतु, पत्नी के प्रभाव में आकर माता-पिता का त्याग करना, उन्हें कटु वचन बोलना, या उनके साथ दुर्व्यवहार करना, तुम्हें पतन की ओर ले जाएगा।
ऐसी व्यवस्था बनाओ जिससे पत्नी भी संतुष्ट रहे और माता-पिता की सेवा भी होती रहे। यदि पत्नी इस बात को नहीं समझ रही और तुम्हें त्यागने का निर्णय ले रही है, तो माता-पिता का त्याग मत करना। यदि वह स्वयं तुम्हें छोड़ रही है, तो छोड़ने दो, लेकिन तुम अपने माता-पिता को मत छोड़ो।
अपने कर्तव्य का पालन करें

माता-पिता ने तुम्हें इस योग्य बनाया है कि तुम आज अपने कर्तव्यों का पालन करने योग्य हो। लेकिन तुम्हें अपनी पत्नी को भी प्रेम और विवेक से समझाना होगा। यदि पत्नी यह नहीं समझती कि माता-पिता ने तुम्हें जन्म दिया है और उनका भी अधिकार है, तो यह अनुचित है। पूरी कमाई केवल पत्नी को देना अधर्म है। माता-पिता की सेवा करना पुत्र का कर्तव्य है। भले ही अन्य भाई-बहन उनकी सेवा कर रहे हों, फिर भी तुम्हें कुछ न कुछ उनके चरणों में अर्पित करना चाहिए।
पत्नी को प्रेम और ज्ञान से समझाओ। उससे कहो—“आज तुम हमारे माता-पिता के साथ रहो, उनकी सेवा करो। कल जब हमारी संतान होगी, तो वह भी हमारी ऐसी ही सेवा करेगी।” यदि आज तुम माता-पिता की सेवा नहीं करोगे, तो भविष्य में तुम्हारी संतान भी तुम्हारी सेवा नहीं करेगी।
आजकल की आधुनिक शिक्षा ने नई पीढ़ी की बुद्धि भ्रष्ट कर दी है। वे नशा करने लगे हैं, माता-पिता से मारपीट करने लगे हैं, उनकी सेवा नहीं करते। बहुत से बुजुर्गों को उनके घर से निकाल दिया गया है, उनके पास रहने का कोई स्थान नहीं है, और उनकी सेवा करने वाला कोई नहीं है। वे चलने तक में असमर्थ हैं। ऐसे माता-पिता की सेवा भगवान की सेवा के समान होती है। बूढ़ों का आशीर्वाद स्वयं भगवान का आशीर्वाद होता है। क्योंकि वे अब असमर्थ हैं, इसीलिए उनकी सेवा करो, उन्हें प्रेम दो, और अपने कर्तव्यों का पालन करो।
प्रेम, धैर्य और नाम-जप की शक्ति

पत्नी के साथ प्रेम से व्यवहार करें, लेकिन यदि वह अनुचित व्यवहार करती है, तो बिना क्रोध किए अपना रुख बदल लें। हमारा व्यवहार ही उसे सोचने और सुधरने के लिए प्रेरित करेगा। अंततः, भगवान का नाम जप और प्रार्थना ही एक परिवार को सुखी रख सकते हैं। हमें सदा यह प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे परिवार की बुद्धि और आचरण सही मार्ग पर रहें, जिससे सभी को शांति और आनंद प्राप्त हो।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज