हम ऑफिस में निरंतर आठ-दस घंटे कार्य करते हैं, तो उस दौरान भगवान का स्मरण कैसे करें? यदि हम उस समय नाम जप नहीं कर पा रहे हैं, तो उन आठ-दस घंटों के कार्य को ही प्रभु को समर्पित कर दें। वह भी भजन ही माना जाएगा। मान लीजिए हम ऑफिस में बैठे हैं — जब समय है, तो नाम जप कर सकते हैं। लेकिन जब कार्य करना है, तो एक साथ दो कार्य (जप और ऑफिस का काम) संभव नहीं हो पाएंगे। यदि थोड़ा भी चिंतन विचलित हुआ, और हमें कुछ लिखना, पढ़ना, बोलना या अन्य कार्य करना पड़ा, तो उसमें पूरा मन लगाना होगा। यदि एकाग्रता नहीं रही तो कार्य भी ठीक से नहीं होगा। ऐसे में हम उस कार्य को भी भगवान को समर्पित कर सकते हैं — क्योंकि सृष्टि भगवान की है, और इसमें जो भी कार्य, जो भी पद हैं, वे भगवान के लिए ही हैं। स्वयं भगवान ने गीता में कहा है:
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते।।
श्रीमद् भगवद्गीता 12.6
अर्थात् — मेरी उपासना करते हुए, मुझे ध्यान में रखते हुए, जितने भी कर्म हैं, वे सब मुझे समर्पित कर दो। वह भी भजन बन जाएगा।
कर्तव्य का पालन करना भी भजन है

जब समय मिले तो हम “राधे-राधे” जप सकते हैं। और जब समय न मिले, तो जो कुछ भी हम एकाग्रता से लिख रहे हैं, बोल रहे हैं, या कर रहे हैं — वह सब प्रभु को समर्पित कर दें। घंटे-घंटे का समर्पण करें — जैसे पूरे नौ घंटे प्रभु को समर्पित कर दिए। यदि हम चतुर हों तो एक-एक घंटे को भी समर्पित कर सकते हैं — जैसे साठ मिनट हुए, तो कहें: “हे करुणामय प्रभु, इस साठ मिनट में जो भी क्रिया हुई, जो भी स्मरण हुआ, वह सब आपको समर्पित है।” इस प्रकार बहुत शीघ्र आपके जीवन में अध्यात्म प्रकाशित हो जाएगा। यही भगवद्-समर्पण है। यही भजन है। हम जो भी कार्य कर रहे हैं, उसे भगवान को समर्पित करते चलें। यदि समय मिले तो बीच-बीच में नाम जप भी कर लें। और यदि समय न मिले, तो पूरी एकाग्रता से कार्य करते हुए, उसी को प्रभु को अर्पण करें।
अपने कार्य को प्रभु को समर्पित करें

सबसे प्रेमपूर्ण व्यवहार कीजिए, सारे कर्म कीजिए, लेकिन हर कर्म को प्रभु को समर्पित कीजिए। फिर देखिए, इससे बहुत जल्दी स्मृति जागृत होगी, हृदय पवित्र होगा, और आपके भीतर यह क्लेश नहीं रहेगा कि “मैं नौ घंटे बिना भजन किए कैसे कार्य करूं?” अपने कार्य और कर्तव्य का पालन तो आपको करना ही है।
मान लीजिए आप एक विद्यार्थी हैं। अगर आप मनोयोग नहीं देंगे तो विद्या का अध्ययन कैसे कर पाएँगे? आपको कोई परीक्षा देनी है — अगर मन नहीं लगेगा तो आप उसे कैसे पास करेंगे? जब कोई कार्य सम्यक रूप से करना हो, तो उसमें इंद्रियाँ और मन दोनों लगाना पड़ता है। अब अगर मन कार्य में लग गया, तो फिर हम नाम-जप कैसे कर पाएँगे? लेकिन यदि हमें यह स्मरण है कि “मैं यह कर्म भगवान के लिए कर रहा हूँ,” तो ध्यान किसका रहेगा? भगवान का।
भक्ति का असली अर्थ

भजन का स्वरूप केवल माला पर नाम जपना नहीं है। माला पर जप करना भजन का एक अंग है, संपूर्ण भजन नहीं। भेष, उद्देश्य और क्रिया — ये तीनों जब एक हो जाएँ, तो भजन बन जाता है। जैसे आप गृहस्थ वेश में हैं, गृहस्थ कार्य कर रहे हैं, लेकिन उद्देश्य भगवान को समर्पित है — तो आपका प्रत्येक कदम, प्रत्येक क्षण भजन कहलाएगा। बस, इस बात पर विश्वास कर लीजिए। हम जो कर रहे हैं, भगवान के लिए कर रहे हैं। भगवान की दी हुई शक्ति से, भगवान के लिए कर्म कर रहे हैं। और इस भाव के साथ कर्म करेंगे, तो स्मृति में रहेगा कि — “मुझे यह कर्म भगवान को समर्पित करना है।” इसी से भगवत्प्राप्ति हो जाएगी।
अगर हम केवल नाम का ध्यान कर रहे हैं और कर्म नहीं, तो क्रियाएँ कैसे होंगी? यह ऊँची स्थिति के महापुरुषों के लिए संभव है।
लेकिन एक नवीन साधक के लिए यह सहज नहीं। अब यदि नाम-जप चल रहा है, तो चित्त उधर लगा है — फिर कार्य कैसे पूरे होंगे? अगर कार्य सम्यक रूप से नहीं होंगे, तो ऑफिस से निकाल दिए जाएँगे। ऑफिस से निकाले गए तो अपने कर्तव्य कैसे पूरे करेंगे? परिवार, समाज — सबकी सेवा बाधित हो गई। तो यह भी तो एक भूल ही हुई न? इसलिए हमें जो भी कार्य करना है, उसे यथासंभव अच्छे से करें। नाम-जप चल रहा हो या नहीं — उस कार्य को भगवान को समर्पित करें और पूरी एकाग्रता से करें।
भक्त अपने हर कार्य को प्रवीणता से करता है

एक भक्त जो कार्य करता है, उसे उत्कृष्ट रूप से करता है — क्योंकि उसका उद्देश्य उन्हें ईश्वर को अर्पण करना होता है। जैसे अपने लिए भोजन बनाते समय सावधानी कम हो सकती है, लेकिन अगर वह भोजन ठाकुर जी के लिए है — तो स्वतः ही पवित्रता और सावधानी आ जाती है। क्यों? क्योंकि मन में यह दृढ़ होता है — “यह भगवान के लिए है।” और जब यह भाव हो जाता है, तब उस कर्म में न प्रलोभन रहता है, न भय। मुझे भय या प्रलोभन मेरे कर्तव्य से विचलित नहीं कर सकते, क्योंकि मैं भगवान का हूँ और मुझे अपना हर कार्य भगवान को समर्पित करना है। बस, यही भावना हो — इसमें कोई समस्या नहीं है। आप अपने साधन में नौ के नौ घंटे भगवान को समर्पित कर सकते हैं।
हमेशा बाहरी क्रिया नहीं चलती रहती। कई बार हमारा मन और शरीर विश्राम की स्थिति में होते हैं। कोई आया तो बातचीत कर ली, कुछ लिखा-पढ़ा, या जो भी कार्य किया, अगर मुँह बंद है और शरीर से कोई विशेष क्रिया नहीं हो रही, तो उस समय ‘राधा राधा’ जपने में क्या परेशानी है? जब मन पूरी तरह से किसी कार्य में लगा हो, तब वह कार्य भी भगवान को समर्पित कर देना चाहिए। इस प्रकार वह भी भजन बन जाता है। इसमें कोई चिंता की बात नहीं।
महाराज अम्बरीष का उदाहरण

महाराज अम्बरीष चक्रवर्ती सम्राट थे, लेकिन उन्हें महान भक्तों में गिना जाता है। क्या वे राज्य के कामकाज नहीं देखते थे? क्या वे शासन व्यवस्था नहीं सँभालते थे? करते थे, लेकिन उनका मन हर समय यही कहता था — “मैं यह सब भगवान के लिए कर रहा हूँ।” यही भाव प्रमुख था। भजन का यही स्वरूप है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है:
“काम ही नारी पियारी जिमी, लोभी जिम प्रिय दाम।
तिम रघुनाथ निरंतर प्रिय, लागहु मोहि राम॥”
जिस प्रकार कामी को स्त्री और लोभी को धन प्रिय होता है, वैसे ही मुझे श्रीराम निरंतर प्रिय लगें। ऐसी स्थिति में भगवान का स्मरण करने के लिए अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता। जहाँ कामना होती है, वहाँ स्मृति बनी रहती है। जैसे एक लोभी व्यक्ति का धन में निरंतर चिंतन लगा रहता है, वैसे ही भीतर की यह भगवद्-स्मृति ही असली भजन है।
किसी भी कर्तव्य को निभाना — चाहे वह कितना भी कठिन क्यों न हो — यही धर्म है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को यही सिखा रहे हैं। सामने भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य जैसे महान गुरु हैं, फिर भी कह रहे हैं — इनका वध करो क्योंकि ये अधर्म के पक्ष में खड़े हैं।
सार बात
जो सेवा तुम्हें मिली है, जो कर्तव्य तुम्हारे हिस्से में आया है — वही भजन है। उसे भजन मानकर करो। और जब मन खाली हो, तब ‘राधा राधा’ का जप करो।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज