कड़ी मेहनत के बाद भी मैं सफल क्यों नहीं हो पाता?

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
कड़ी मेहनत के बावजूद आप सफल क्यों नहीं हो पाते?

हमें सबसे पहले खुद से पूछना होगा कि सफलता क्या है? सांसारिक मामलों में सफलता प्रारब्ध (पिछले कर्म) के अधीन है। नीचे दिये गये एक भक्त चरित्र से आप इसे बेहतर ढंग से समझ पायेंगे।

कर्म और काल का चक्र

विद्यारण्य जी एक महान व्यक्ति थे। उन्होंने धन प्राप्ति और अपने माता-पिता को प्रसन्न करने के लिए गायत्री अनुष्ठान किया। उन्होंने कई अनुष्ठान और यज्ञ किये लेकिन उन्हें कोई धन प्राप्त नहीं हुआ। अंत में उन्होंने संन्यास ले लिया। जब उन्होंने संन्यास लिया, तो देवी गायत्री प्रकट हुईं और कहा कि अब आप धन के पात्र हैं। उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि मैं अब संन्यास ले चुका हूं। मेरे माता-पिता का भी निधन हो चुका है, मुझे उनकी सेवा करने के लिए ही धन की आवश्यकता थी। जब मैं अनुष्ठान कर रहा था तब आप प्रकट नहीं हुई।

देवी ने उत्तर देते हुए कहा कि मैं इसलिए नहीं आई क्योंकि आपने पिछले जन्मों में चौबीस गंभीर पाप किए थे। जब आपने यज्ञ किया तो तेईस पाप नष्ट हो गए और आखिरी वाला पाप आपके संन्यास लेने पर नष्ट हो गया। अब जो मांगना हो मांग लीजिए। उन्होंने कहा कि मैं अब वैरागी हो गया हूं इसलिए मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं है, अब मैं सिर्फ प्रभु को पाना चाहता हूं।

इससे पता चलता है कि पिछले जन्मों के बुरे कर्मों का परिणाम भुगतना ही पड़ता है। अब यह जानने कि बाद, परम शांति प्राप्त करने के लिए हमें क्या करना चाहिए? हमें भगवान का नाम जपते रहना चाहिए। हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि, हे प्रभु, मेरे पिछले कर्मों का प्रभाव मेरे शरीर पर भले पड़े, लेकिन मेरा पोषण (आत्मा का पोषण) केवल आपके द्वारा ही होगा। भगवान चाहें तो आपके पिछले कर्मों को भी ख़त्म कर सकते हैं।

कड़ी मेहनत के बावजूद आप सफल क्यों नहीं हो पाते?

कर्म चक्र हुआ श्री कृष्ण के मित्र सुदामा जी पर हावी

श्री कृष्ण के मित्र सुदामा जी की किस्मत में गरीब होना लिखा था। वह इतने गरीब थे कि उन्हें कई-कई दिनों तक भिक्षा नहीं मिलती थी। एक दिन उनकी पत्नी ने कहा कि हम दोनों चरणामृत पर भी कई दिनों तक जीवित रह सकते हैं लेकिन हमारे बच्चों का क्या होगा, वे भूख से मर जाएंगे। सुदामा जी ने कहा मैं श्री कृष्ण के अलावा किसी को नहीं जानता अब मैं क्या कर सकता हूं? ऐसा तब होता है जब आपके पिछले जन्मों के बुरे कर्म प्रकट होते हैं; कड़ी मेहनत करने के बाद भी हमें कहीं सफलता नहीं मिलती है।

एक दिन रुक्मणि जी ठाकुर जी को भोजन करा रहीं थी, वे अचानक उदास हो गये। वह बोलीं, प्रभु, मैंने आपको ऐसे तभी देखा है, जब आपके भक्त संकट में होते हैं। भगवान ने कहा मेरे मित्र सुदामा ने कई दिनों से भोजन नहीं किया है। रुक्मणी जी ने कहा प्रभु ये आपके मित्र हैं और मैं आपकी दासी हूं (रुक्मणी जी महालक्ष्मी का अवतार हैं), आप मुझे आज्ञा दीजिए, सारी व्यवस्था हो जाएगी।

ठाकुर जी ने उत्तर दिया, मेरे मित्र को इस कठिन परिस्थिति में भी कोई इच्छा नहीं है और उनकी इच्छा के बिना मैं असहाय हूँ। एक बार उनकी इच्छा हो जाये तो सारी व्यवस्था हो जायेगी। रुक्मणि जी ने कहा, आप उनके हृदय में इच्छा उत्पन्न करवा सकते हैं। भगवान ने कहा, मैं चाहने पर भी उनके हृदय में इच्छा नहीं करवा सकता क्योंकि जिस भक्त के हृदय में भगवान का निरंतर स्मरण रहता है, उनके हृदय में भौतिक वस्तुओं की कोई इच्छा नहीं हो सकती।

सुदामा जी की मदद के लिए श्री कृष्ण ने एक संत का वेश धारण किया

रुक्मणी जी ने कहा क्या आप उनकी पत्नी के मन में इच्छा जगा सकते हैं और ठाकुर जी ने उत्तर दिया कि मैं प्रयास करूंगा। अत: भगवान साधु के वेश में उनके घर भिक्षा मांगने गये। सुदामा जी की पत्नी बाहर आईं और हाथ जोड़कर कहा कि मैं आपको भिक्षा देने में असमर्थ हूं। संत ने पूछा क्यों? उन्होंने कहा कि क्योंकि मैं अशुद्ध हूं और सूतक से पीड़ित हूं, मैंने एक पुत्र को जन्म दिया है। संत ने कहा ठीक है, मैं 10-12 दिन बाद आता हूं। उन्होंने कहा, नहीं, मैं जीवन भर के लिए अपवित्र हूं। संत ने पूछा कि यह कैसा पुत्र है? उन्होंने उत्तर दिया कि हमारे यहाँ ग़रीबी पुत्र के रूप में आयी है। एक विद्वान ब्राह्मण की पत्नी होने के नाते उन्होंने सीधा उत्तर नहीं दिया कि मैं दान नहीं दे सकती बल्कि यह कहा कि मैं अशुद्ध हूँ।

तब संत ने उत्तर दिया कि आप गरीब कैसे हो सकते हैं? जिनके मित्र भगवान श्रीकृष्ण हों, वह दरिद्र कैसे हो सकता है? एक बार अपने पति से पूछिए। फिर संत वहाँ से चले गये। जब सुदामा जी घर आये तो उनकी पत्नी बोली आज अतिथि की सेवा न कर पाने से मैं बहुत दुखी हूँ। मैं अपने बच्चों या मेहमानों की देखभाल नहीं कर पा रही हूँ। आपके मित्र भगवान श्री कृष्ण हैं; कृपया उनके पास जाइए। वह किसी न किसी तरह से हमारी मदद करेंगे। सुदामा जी ने उत्तर दिया, मैंने उन्हें सहारा माँगने के लिए मित्र नहीं बनाया है, मैं उनसे मदद माँगने के बजाय मर जाना पसंद करूँगा।

सुदामा जी भगवान श्री कृष्ण से मिलने जाते हैं

तब पत्नी ने कहा, ठीक है मदद मत माँगिये लेकिन कम से कम उनके दर्शन के लिए तो आप जा ही सकते हैं। मैंने सुना है वह बहुत उदार हैं; वह आपको कुछ ना कुछ भेंट ज़रूर देंगे। सुदामा जी ने उत्तर दिया हाँ, मैं दर्शन के लिए जा सकता हूँ, बहुत दिन हो गए उनसे मिले हुए। लेकिन जब आप किसी दोस्त से मिलने जाते हैं तो आपको अपने साथ कुछ न कुछ ले जाना चाहिए, लेकिन मेरे पास कुछ भी नहीं है।’ इसलिए उनकी पत्नी कुछ मांगने के लिए पड़ोसियों के घर गईं। जब आपका समय ख़राब होता है तो कोई आपकी मदद नहीं करता। पड़ोसियों में से एक ने उन्हें चावल का वह हिस्सा दिया जो छानने के बाद बच जाता है (किंका)। जिसे आमतौर पर फेंक दिया जाता है। उन्होंने उसे लाकर सुदामा जी को दे दिया। तब सुदामा जी ने कहा कि मेरे प्रभु अपने भक्तों के प्रेम के भूखे हैं इसलिए आप जो भी लाई हैं मैं ले जाऊँगा, लेकिन खाली हाथ नहीं जाऊंगा। उन्होंने उन चावल की टुकड़ों को एक थैली में बाँध लिया और द्वारका पहुँच गए।

द्वारका के द्वारपालों की नजर उनके कमजोर और दुबले-पतले शरीर पर पड़ी। उनके कपड़े जगह-जगह से फटे हुए थे, ऐसा लग रहा था मानों गरीबी ने साक्षात रूप धारण कर लिया हो। सुदामा जी ने भगवान श्री कृष्ण से मिलने का अनुरोध किया। द्वारपालों ने उन्हें निर्देश दिया कि वह सोच समझकर माँग करें, सावधानी बरतें। उन्हें लगा वह कोई साधारण भिक्षुक हैं। सुदामा जी ने फिर भी उनसे कहा कि वे जाकर भगवान श्री कृष्ण से कहें कि सुदामा नाम का एक ब्राह्मण मिलने आया है। द्वारपालों ने जाकर श्री कृष्ण को बताया कि द्वार पर एक व्यक्ति है जो असभ्य ढंग से आपका नाम ले रहा है।

श्री कृष्ण का अपने भक्तों के प्रति प्रेम

सुदामा जी का नाम सुनकर भगवान श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और द्वार की ओर दौड़ पड़े। द्वारपाल उन्हें इस रूप में देखकर आश्चर्यचकित रह गए, क्योंकि ब्रह्मा जी और शिव जी को भी भगवान से मिलने के लिए द्वार पर इंतजार करना पड़ता था। भगवान सुदामा को रानी रुक्मणी के महल में ले गए और रुक्मणी जी के पलंग पर बैठाया और उनके पैर धोए। फिर उन्होंने सुदामा का हालचाल पूछा और पूछा कि क्या अब उनकी शादी हो गई है। सुदामा ने हाँ में उत्तर दिया और श्री कृष्ण को अपने बच्चों के बारे में बताया। तब परमेश्वर ने उनके पास जाकर कहा, आप मेरे लिये कुछ तो भेंट लाए होंगे; उसे मुझे दे दीजिए। सुदामा जी को शर्मिंदगी महसूस हो रही थी, चारों ओर इतना वैभव था, गंदी पुरानी थैली में लिपटे उन फेंके हुए चावल के टुकड़ों को कैसे वह सब लोकों के मालिक को भेंट में दे सकते थे?

भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि तुम फिर मेरा भाग चुराने की गलती कर रहे हो। सुदामा जी को फिर भी अपनी भेंट देने में शर्म महसूस हो रही थी। भगवान ने वह थैली उनसे छीन ली और उसमें से चावलों को खा लिया। खाने के बाद वह खुश हो गये और बोला कि मैंने आज तक इतना स्वादिष्ट कुछ नहीं खाया। यह देखकर रुक्मणी जी की आंखें भर आईं और उन्होंने तुरंत भगवान को इन्हें आगे खाने से रोक दिया। इसके बाद सुदामा जी का भव्य स्वागत हुआ और उन्हें अच्छे वस्त्र आदि दिये गये। अब उनके अपने घर लौटने का समय आ गया। वह निष्काम भाव से भगवान की ओर देख रहे थे और यह सोच रहे थे कि उनकी पत्नी ने क्या कहा था, लेकिन अभी तक उन्हें कुछ भी भेंट नहीं दी गई थी।

सच्ची सफलता: जब इच्छाएँ पूरी न हों तो कैसा महसूस करें

भगवान ने तो यहां तक कहा कि घर जाते वक्त इन महँगे वस्त्रों को धारण ना करें, चोरों का भय रहता है। तो सुदामा जी ने वो कपड़े भी उतार कर लौटा दिए। वापस लौटते समय उन्होंने सोचा कि अच्छा हुआ भगवान ने मुझे कुछ नहीं दिया। अन्यथा, मेरे जैसा गरीब व्यक्ति भौतिक सुखों में लिप्त हो जाता और भगवान को भूल जाता। यह उनके लिए भगवान के प्यार के अलावा और कुछ नहीं है। वह अभी भी कुछ नकारात्मक नहीं सोच रहे थे। जब वह अपने घर पहुँचे तो उनका नगर द्वारका जैसा लग रहा था। वह भ्रमित हो गये और पूछा कि क्या यह उनका ही घर है? जीवों के भाग्य का लेखा-जोखा रखने वाले भगवान के सहायक सुदामा जी के पास आये। उन्होंने सुदामा जी को बताया कि आपके भाग्य में केवल दुर्भाग्य ही लिखा है, आपके जीवन में धन का योग ही नहीं है। लेकिन, भगवान ने इसे उलट दिया है और इतना कुछ आपजे भाग्य में लिख दिया है कि अब आपकी संपत्ति की तुलना कुबेर से की जाती है।

निष्कर्ष: जीवन में सफल होने का एकमात्र तरीका

भगवान के सहायक जो करमों का लेखा-जोखा रखते थे, उन्होंने भगवान से सुदामा जी के भाग्य बदले जाने का कारण पूछा। भगवान ने उत्तर दिया कि, ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने एक बहुत बड़ा पुण्य किया है। उन्होंने अनंत ब्रह्मांडों के सभी जीवित प्राणियों को संतुष्ट किया है। सहायक उत्सुक हो गये और पूछा, लेकिन उनके पास तो अपनी ख़ुद की भूख मिटाने के लिए भी कुछ नहीं था, फिर उन्होंने इतना बड़ा पुण्य कैसे किया? भगवान ने उत्तर दिया कि ये सभी ब्रह्मांड मेरे अंदर ही विराजमान हैं, और जब मैंने उनके द्वारा लाए गए चावल खाए, तो उन चावलों ने इन ब्रह्मांडों में रहने वाले सभी प्राणियों को संतुष्ट कर दिया। भगवान ने सहायकों को इस पुण्य को सुदामा जी के भाग्य में लिखने का निर्देश दिया।

इससे पता चलता है कि केवल भगवान ही आपके संचित कर्म (प्रारब्ध) को नष्ट कर सकते हैं। भगवान के पास सभी शक्तियाँ हैं; वह स्वतंत्र रूप से कुछ भी कर सकतें हैं और जो चाहें उसे मिटा भी सकते हैं। अतः परमेश्वर की शरण में जाइए, उनके नाम का जप करिए और यह प्रार्थना करिए कि, हे प्रभु, यदि आपको उचित लगे तो मेरी समस्या का समाधान कर दीजिए या फिर मुझे इसका सामना करने का साहस और बुद्धि दे दीजिए। अगर आप ऐसा करेंगे तो सब ठीक हो जाएगा।

प्रश्न- बहुत कोशिश करने पर भी मुझे नौकरी नहीं मिल रही है; मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है?

मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण महाराज जी

श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज कर्म चक्र पर मार्गदर्शन करते हुए

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