1. क्या बिना भाव के नाम जप करने से भी लाभ होता है? मन नहीं लगता, भाव नहीं बनता, तो क्या फिर भी नाम जप करने से काम बन जाएगा?
जिस प्रकार अग्नि में दाह करने की शक्ति स्वाभाविक होती है—चाहे आप उसे भाव से छुएँ, भूलवश छुएँ या कुभाव से—वह आपको जला ही देगी, क्योंकि उसमें दाहिका शक्ति अंतर्निहित है। उसी प्रकार, नाम में भी स्वाभाविक रूप से वह शक्ति है जो समस्त पापों, प्रपंचों और जगत के मोह को भस्म कर सकती है। चाहे आप नाम को श्रद्धा से लें, अश्रद्धा से लें, भाव से लें या बिना भाव के, मन लगे या न लगे—यदि आप जप करते हैं, तो नाम अपनी शक्ति से कार्य करेगा।
इसलिए जैसे अग्नि अपने स्वभाव से जलाती है, वैसे ही नाम भी अपने स्वभाव से पवित्र करता है, पापों को भस्म करता है और अंततः सच्चिदानंद भगवान से मिला देता है। इसलिए यह मत सोचो कि भाव नहीं बन रहा तो जप व्यर्थ है। तुम्हारा भाव बने या न बने, तुम केवल जप करते रहो। मन लगे या न लगे, नाम लेना बंद मत करो।

2. क्या भगवान का नाम जपने से पापों का सर्वनाश हो जाता है?
पूर्व के पापों के प्रायश्चित के लिए भगवान का नाम ही सबसे बड़ा, सबसे सरल और शीघ्र फल देने वाला उपाय है। इससे बड़ा कोई प्रायश्चित नहीं है। इससे बड़ा कोई तीर्थ नहीं है। पापों के विनाश के लिए भगवान का नाम ही सर्वोत्तम उपाय है। चाहे कोई चोर हो, शराबी हो, मित्र-द्रोही हो, गौ-हंता हो, ब्राह्मण हत्या करने वाला हो या गुरु-पत्नी गामी हो—यदि वह निश्चय कर ले कि अब मैं कोई पाप नहीं करूंगा और श्रद्धा से भगवान का नाम जपने लगे, तो वह निष्पाप होकर महात्मा बन सकता है। जो मनुष्य महापापों में लिप्त हो, वह भी यदि भगवान का नाम जपना शुरू कर दे, तो भगवान के नाम की शक्ति से वह भी पवित्र होकर महात्मा बन सकता है।
3. नाम जप केवल पापों का ही नाश करता है या इससे कोई और लाभ भी प्राप्त होता है?
भगवान का नाम केवल पापों का नाश करके शांत नहीं हो जाता। भगवान का नाम पापों का नाश करके ही नहीं रुकता, बल्कि हृदय में दिव्य, विशुद्ध ब्रह्मबोध की ज्योति प्रज्वलित करता है। यह न केवल तत्व का बोध कराता है, बल्कि भगवान में सच्चा प्रेम भी उत्पन्न कर देता है। भगवान सर्वत्र विराजमान हैं—इस सत्य का अनुभव भी भगवान का नाम कराता है। यह नाम, पापों का नाश करके, हृदय को पवित्र ज्ञान से भर देता है और उस ज्ञान के साथ-साथ पवित्र प्रेम प्रकट कर देता है। नाम स्वयं नामी को खींचकर उसके हृदय में प्रकाशित कर देता है। भगवान का नाम जपने से अनंत दिव्य गुण प्रकट होते हैं। दैवी संपदाएँ, जो नाम से जागृत होती हैं—उनका वर्णन कहाँ तक किया जाए?

4. निरंतर दिन-रात नाम जप हो सके, ऐसा कोई उपाय बताइए।
इसके लिए आपको एक दृढ़ नियम लेना होगा। आपको प्रयत्नपूर्वक यह ठानना होगा कि नाम किसी भी स्थिति में छूटने न पाए।
➤ पहला चरण: एकांत साधना
हर दिन कम से कम दो घंटे एकांत में बैठकर केवल नाम जप का अभ्यास करें। इन दो घंटों में:
- कोई और कार्य न करें
- केवल एक ही नाम या मंत्र का लगातार उच्चारण हो
- चाहे यह समय एक साथ दो घंटे हो, या दो बार में एक-एक घंटे, या चार बार में आधा-आधा घंटा—लेकिन कुल मिलाकर दो घंटे एकांत और पूरी एकाग्रता के सा
इन दो घंटों में आप मन की चंचलता, उसकी बदमाशी, और उसकी पकड़ को पहचानें। देखें कि यह कितना चंचल है, कितना बलवान है और कैसे आपको नाम से हटाता है। इस अभ्यास से ही आपको मन पर नियंत्रण की शक्ति प्राप्त होगी।
➤ अभ्यास का फल:
यदि आप प्रतिदिन दो घंटे ऐसे एकाग्र होकर नाम जप करेंगे, तो शेष 22 घंटे नाम को स्मरण में रखने की सामर्थ्य स्वतः आ जाएगी। यह दो घंटे का अभ्यास ही पूरे दिन की चेतना को नाममय बना देगा।
➤ दूसरा चरण: नाम में ‘महत्त्व-बुद्धि’
हमें अपने भीतर यह बुद्धि दृढ़ करनी होगी कि—
- धन लाभ से बढ़कर नाम जप है
- भोजन, जीवन, सांस—इन सबसे अधिक मूल्यवान नाम जप है
- यदि नाम छूट गया, तो जीवन की सबसे बड़ी हानि हो गई
जब नाम के प्रति ऐसी महत्त्व-बुद्धि विकसित होगी, तभी निरंतर भजन संभव होगा।
➤ तीसरा चरण: निरंतर अभ्यास
- बार-बार नाम भूल न जाए, इसका सजग ध्यान रखें
- चलते समय, बैठते समय, खाते-पीते, उठते-बैठते—हर अवस्था में मन में नाम चलता रहे
- एक-एक कदम भी आराम से चलें और नाम के साथ चलें

5. नाम जप इतना कठिन क्यों लगता है?
नाम जप कठिन इसलिए लगता है क्योंकि हमारे पूर्व संचित पाप और दूषित वृत्तियाँ मन को शुद्ध भजन में लगने नहीं देतीं।
जब तक मन मलिन रहता है, तब तक उसमें भगवान के नाम की मिठास अनुभव नहीं होती।
जो नाम जप में अरुचि होती है, जो भीतर से विरोध-सा होता है, वह हमारे ही पापों का लक्षण है।
हम प्रपंच के कार्यों में घंटों व्यतीत कर सकते हैं, लेकिन नाम जप में मन नहीं टिकता—यह हमारे भीतर संचित पापों की पहचान है।
इसीलिए भगवान के महाधन, अमृतमय नाम में हमें स्वाभाविक रुचि नहीं हो पाती।
➤ समाधान क्या है?
जैसे कोई कड़वी दवा रोग नाश के लिए खाई जाती है, वैसे ही आरंभ में जबरदस्ती नाम जप करो।
रुचि न भी हो, मन न भी लगे, फिर भी नाम मत छोड़ो।
इसमें यह भी मत सोचो कि मानसिक जप ही श्रेष्ठ है, इसलिए चुपचाप ही जप करना चाहिए।
मन यदि सहयोग नहीं दे रहा, ध्यान नहीं लग पा रहा, तो वाचिक जप करो—जोर से बोलकर करो।
उदाहरण:
यदि कुछ नहीं सूझ रहा, तो बस “राधा राधा राधा राधा राधा…” बोलते जाओ।
इसमें मन क्या करेगा? कहाँ जाएगा?
वह भागकर फिर तुम्हारे पास लौट आएगा।
जब तुम दवा की तरह जबरन नाम जप करोगे, तो भीतर के पाप जलेंगे।
और जैसे ही मन की मलिनता नष्ट होगी, तुम्हें नाम में एक नशा, एक स्वाद, एक अनुपम आसक्ति प्राप्त होगी—जिसके बाद तुम नाम को छोड़ ही नहीं पाओगे।

6. निरंतर नाम जप करने में क्या-क्या सहायक हो सकता है?
1. नाम-प्रेमी संतों का संग
निरंतर नाम जप तभी संभव है जब हमें ऐसे संतों का संग प्राप्त हो जो स्वयं नाम रस में लीन हों।
जो भगवान के भजन में रमे हैं, ऐसे भजनानंदी, नाम-रसिक संतों का संग हमें नाम में आसक्ति प्रदान करता है।
बिना ऐसे संतों के संग के, नाम में स्थिरता और निरंतरता आना कठिन है।
2. जप का अटल नियम
यदि गुरु ने 11 माला का नियम दिया है, तो वह किसी भी परिस्थिति में टूटना नहीं चाहिए।
उसके अतिरिक्त जितना अधिक हो सके जप करो, लेकिन जो नियम मिला है, उसे पूर्ण निष्ठा से निभाना ही पड़ेगा।
नियम के पालन से ही भजन में गहराई आती है।
3. भोग के प्रति वैराग्य बुद्धि
जब भी कोई भोग (इंद्रियों का सुख) सामने आए, तो यह विवेक रखो कि नाम से बढ़कर कोई भोग नहीं है।
- भोग भोगते समय भी नाम न छूटे, यह सजगता रखनी चाहिए।
- भोजन, हास्य, खेल—हर क्रिया में नाम चलता रहे।
- भोजन करते समय भी ध्यान रहे: एक-एक कौर के साथ नाम भी चलता रहे।
- जीवन में जो भोग आवश्यक हैं, उन्हें भी सावधानी से ऐसे भोगो कि नाम न छूटे।
जिनके भीतर नाम की महिमा स्थिर नहीं होती, वे भोग आने पर नाम छोड़ देते हैं। परंतु सच्चे साधक वही हैं जो हर स्थिति में नाम को अखंड बनाए रखते हैं।
4. संतों के पावन चरित्रों का श्रवण-पाठन
संतों के चरित्र पढ़ने से नाम में प्रीति होती है। भगवद् भक्त संतों के पावन चरित्रों का श्रवण करने से हमें ऐसी प्रेरणा मिलती है जिससे हम निरंतर नाम जप करने लगते हैं।

7. नाम जप करते हुए भी जीवन में पाप करने की प्रवृत्ति, दुख और अशांति क्यों बनी रहती है?
पहली बात तो यह है कि वे लाख बार नाम जपने का जो दावा करते हैं, वह मात्र नाटक है—सत्य नहीं। यदि वास्तव में लाख बार नाम जप किया जाए, चाहे भाव से हो या कुभाव से, उसका प्रभाव अवश्य पड़ेगा। लेकिन वे केवल दिखावा करते हैं कि मैं लाख नाम जपता हूं। वास्तव में जप करते नहीं हैं। यदि माला चल रही है और साथ ही बातचीत भी हो रही है, तो जप कौन कर रहा है? दो लोग साथ चल रहे हैं, हंसते हुए बातें कर रहे हैं, और माला भी चल रही है—तो माला किसकी चल रही है? जप कौन कर रहा है? यह “लाख नाम जप” की जो बातें हैं, वह केवल ड्रामा है। हनुमान प्रसाद पोद्दार जी कहते हैं—मैं ऐसी बातों को नहीं मानता। जिनकी दुर्दशा है, वे लाख नाम जप नहीं करते; वे केवल नाटक करते हैं। वे स्वयं को और दूसरों को धोखा दे रहे हैं कि मैं लाख नाम जप रहा हूं।
दूसरा कारण यह है कि उन्हें नाम में रुचि नहीं है, प्रीति नहीं है, और न ही नाम के प्रति महत्वबुद्धि है। पहले तो वे लाख नाम जपते ही नहीं, और जो जपते भी हैं, उनमें न प्रेम है, न एकाग्रता, न श्रद्धा। वे नाम को बहुत सस्ता और हल्का समझते हैं। उन्हें नाम के वास्तविक महत्व का ज्ञान ही नहीं है।
तीसरा कारण यह है कि वे शास्त्रविरुद्ध आचरण करते हैं।
चौथा कारण यह है कि मामूली सिरदर्द हो या कोई घटना घटे, तो तुरंत नाम जप का प्रयोग करने लगते हैं — जैसे, “मैंने जो नाम जपा है, उससे मेरा सिरदर्द ठीक हो जाए,” या “मेरे नाम जप से यह कार्य बन जाए।” वे चंद रुपए, छोटे-छोटे भोग, आरोग्यता, मान-सम्मान, संतान सुख या समस्याएं दूर करने के लिए भगवान के नाम का उपयोग करते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि जो थोड़ा-बहुत नाम जपते हैं, वह इसी में व्यर्थ हो जाता है और वे फिर पाप करते रहते हैं। फलस्वरूप उन्हें दुख भोगना पड़ता है। लाभ नहीं मिलता, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि ये लाख नाम जपने के बाद भी दुर्दशा में हैं — जबकि वस्तुतः ऐसा नहीं है।

8. अगर नाम इतना महिमामय है, तो सब लोग नाम जप क्यों नहीं करते?
नाम परायण होना तुमने सहज समझ लिया है क्या? बड़े भाग्य से ही किसी को नाम में रुचि होती है। यह बाहर से देखने में सहज लगता है, पर जप करना सहज नहीं है। जप करके देखो, भीतर ही महाभारत शुरू हो जाएगा — मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार सब विचलित करने लगेंगे। यदि मन जप में लग जाए, तो समझो बहुत बड़ी सिद्धि मिल गई। जो नाम को केवल शब्द या पाप नाश का साधन मानते हैं, वे नाम की वास्तविकता को नहीं समझते। भोगों में प्रीति, पाप-कर्मों में रुचि और नाम का महत्व न जानने जैसे अनेक कारणों से लोग नाम जप नहीं कर पाते।
9. पापी लोग नाम जप कैसे शुरू करते हैं?
जब पापी लोग भारी विपत्ति में पड़ते हैं — रोग, अपमान, तिरस्कार, हर ओर से निराशा — तब उन्हें कोई आसरा नहीं दिखता। उसी समय भगवान कृपा करके उन्हें संत-संग का अवसर देते हैं। संतों का संग मिलते ही उनके जीवन में भजन की शुरुआत होती है। जब संसार से पूरी आशा टूट जाती है, तब भगवान के नाम की ओर रुझान होता है। भगवान जब कृपा करते हैं, तभी यह मार्ग मिलता है। बिना भगवान की कृपा के संत-संग भी दुर्लभ है। और जब मिल जाता है, तो बिना प्रयास के संसार का बंधन टूटने लगता है। इस प्रकार पापी लोग भी विपत्ति में भगवान के नाम के परायण हो जाते हैं।

10. नाम जप के बल से पाप करने वालों की क्या दशा होती है?
भगवान का नाम लेने वालों को पाप करने की कोई छूट नहीं है। जो व्यक्ति नाम की महिमा को जानते हुए जानबूझकर यह सोचकर पाप करता है कि “नाम जप रहा हूं, पाप नष्ट हो जाएगा”, वह निश्चित रूप से नरक का भागी होता है। यह नाम-अपराध है — नाम के बल पर पाप करना। ऐसा व्यक्ति नरक में जाएगा, और वहाँ तक कि नरक के निवासी भी उसे तिरस्कार की दृष्टि से देखेंगे।
त्रुटि और पाप में अंतर है। यदि कोई साधक परमार्थ में प्रयासरत रहते हुए कभी कभार माया के कारण फिसल जाता है, तो भगवान उसकी अंतर भावना देखते हैं। लेकिन जो सोच-समझकर, हर्ष के साथ, नाम के बल पर पाप करता है, उसका पाप वज्र लेप बन जाता है — यानी ऐसा पाप नाम जप से नहीं मिटता। ऐसे पापों का नाश तभी होता है जब वह व्यक्ति नरक में जाकर अपने कर्मों का दंड भोगता है। अतः नाम जप के बल पर पाप करना घोर अपराध है।

11. कभी-कभी ऐसा लगता है कि नाम-महिमा केवल रोचकता के लिए कही गई है, सच में वैसी है नहीं!
नहीं, नहीं — यह पूर्णतया यथार्थ तत्व है। बड़े-बड़े ऋषि, संत, महात्मा और भक्तों ने नाम की महिमा का प्रत्यक्ष अनुभव किया है और उसी अनुभव से प्रेरित होकर वे नाम की महिमा गाते रहे हैं। वे नाम-रस में मग्न होकर कभी हँसते, कभी रोते, कभी नाचते, कभी गाते रहे। यह कोई कल्पना नहीं, सिद्ध सत्य है।
जब मैंने महाराज दामोदर दास पूज्य श्री सेवक जी का पावन चरित्र पढ़ा, तो उसमें पाया कि जब महाप्रभु हरिवंश चंद्र जी के अंतर्धान की बात सुनकर वे विरह से व्याकुल हुए, तब उन्होंने केवल नाम का आश्रय लिया — “श्री हरिवंश, श्री हरिवंश, श्री हरिवंश…”। और नाम के बल से ही उन्हें गढ़ा में महाप्रभु हरिवंश जी का साक्षात् दर्शन हुआ। उन्होंने निज मंत्र की दीक्षा दी, संपूर्ण नित्य विहार रस प्रदान किया। सेवक जी वृंदावन तब आए जब वे वाणी की रचना कर चुके थे।
नाम के प्रभाव से वाणी प्रकट हुई। नाम के प्रभाव से आचार्य प्रकट हुए। नाम के बल से निज मंत्र मिला। नाम के प्रभाव से ही नित्य बिहारी राधा वल्लभ लाल की नित्य लीलाओं का दर्शन हुआ। केवल नाम — निज मंत्र तो बाद में मिला। सेवक वाणी जी जो प्रकट हुई, वह श्री चतुरासी जी की टीका-स्वरूप ही है। इससे मेरा विश्वास और भी दृढ़ हो गया।
यदि राधा नाम हृदय में चल रहा है, तो सब कुछ संभव है। इसलिए, नाम की महिमा केवल रोचकता के लिए कही गई बात नहीं है। जो राम नहीं बोल सकते थे, वे “मरा मरा” कहते-कहते रामायण की रचना कर बैठे — जो आज भारत का गौरवपूर्ण इतिहास है। जो व्यक्ति यौवन से लेकर वृद्धावस्था तक केवल व्यभिचार, हिंसा और मांसभक्षण में रत रहा, उसने अंतिम समय में अपने पुत्र को “नारायण” कहकर बुलाया — और उसी से परम पद को प्राप्त हुआ। यह केवल कहानी नहीं — ब्रह्मर्षियों और महापुरुषों का अनुभव है।
हम अपने जीवन में भी नाम का प्रभाव देख सकते हैं – जितना नाम जप करता है, वह उतना ही अच्छा साधक है। जो नाम-जप में रत हैं, वही वास्तव में अध्यात्म में प्रवेश कर चुके हैं — वही महिमावान हैं। इसलिए, यह कोई रोचक वाक्य नहीं, परम सत्य है।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज