संयमी साधक वह होता है जो आगे बताई गई बातों को अपने जीवन में उतारे। संयम पहले वाणी का, फिर दृष्टि का, फिर आहार का, फिर श्रवण का, फिर नेत्र का, और फिर मन का होता है। अब इन सभी पर विस्तार से चर्चा करेंगे। प्रत्येक विषय को ध्यानपूर्वक सुनें।
वाणी का संयम
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वाणी को हमेशा नियंत्रित और संयमित रखना चाहिए ताकि कोई अनुचित शब्द न निकल जाए। वाणी का संयम यही है कि बोलने से पहले सोचें, कम बोलें, सत्य बोलें, मधुर बोलें, और हितकारी वचन ही मुख से निकालें। कैसी भी परिस्थिति क्यों न आ जाए, कठोर वचन न बोलें। कम बोलना, हितकर बोलना, मृदु बोलना, सत्य बोलना और मौन रहना—यही वाणी का संयम है। यदि बोलना ही है, तो केवल उतना ही बोलें जो आवश्यक हो और जिससे दूसरों को सुख प्राप्त हो।
दृष्टि और नेत्रों का संयम
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दृष्टि को बहुत सावधानी से रखना चाहिए। आंखों को इस तरह खोलें कि कहीं कोई अनुचित दृश्य न पड़ जाए। किसी स्त्री के शरीर पर अनावश्यक दृष्टि न डालें। यदि मार्ग में कोई पशु-पक्षी मैथुन कर रहे हों, तो उनकी ओर न देखें। चलते समय नेत्र झुकाकर चलें ताकि आसपास सब स्पष्ट दिखे लेकिन कोई अनुचित दृश्य दृष्टि में न आए। यदि गलती से कोई अनुचित दृश्य दिख भी जाए, तो दोबारा न देखें।
शास्त्रों में इसका निषेध किया गया है, फिर जो लोग मोबाइल या अन्य माध्यमों से गंदे दृश्य देखते हैं, उनकी स्थिति कितनी दयनीय होगी, यह समझा जा सकता है। नेत्र जितने चंचल होंगे, दृष्टि की शक्ति उतनी ही क्षीण होती जाएगी। मार्ग में चलते समय अनावश्यक रूप से इधर-उधर न देखें, केवल सामने ध्यानपूर्वक देखें ताकि किसी जीव पर पैर न पड़े।
दृष्टि का संयम यही है कि संतों के दर्शन करें, भगवान के श्रीविग्रह के दर्शन करें, भक्तों और संतों के चरित्र पढ़ें, लेकिन अश्लील मैगज़ीन, चित्र, या किसी महापुरुष की निंदा करने वाली पुस्तकें न पढ़ें। संतों के वचन पढ़ें और अश्लील सामग्री से अपनी दृष्टि को बचाएं।
आहार का संयम
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आहार उतना ही ग्रहण करें जितने से भूख मिट जाए। भूख तो समाप्त हो जाएगी, लेकिन स्वाद के मोह में अधिक भोजन करना भजन के लिए बाधक है। स्वाद की इच्छा बढ़ने से मन चंचल हो जाता है, इसलिए अधिक स्वादिष्ट भोजन न करें। रूखा-सूखा भोजन ग्रहण करें, शुद्ध जल पियें, और पराए स्वादिष्ट भोजन की लालसा न करें। भोजन का स्वाद केवल गले तक सीमित होता है, गले के नीचे जाते ही सब व्यर्थ हो जाता है। इसलिए स्वाद की इच्छा त्याग कर भोजन को केवल प्रसाद रूप में ग्रहण करें।
भोजन उतना ही करें जितना शरीर की आवश्यकता हो। यदि चार रोटियां ग्रहण करने की क्षमता है, तो दो रोटी खाएं और शाम को दो रोटी लें। शरीर को पोषण देना आवश्यक है, लेकिन अति भोजन से प्राण स्थूल और निर्बल होते हैं, जबकि संयमित भोजन से प्राण बलवान होते हैं। सात्त्विक, हल्का, और कम खर्चीला भोजन करें। भोजन ऐसा हो जो शीघ्र पच जाए और शरीर के लिए हितकारी हो।
मीठा अत्यधिक न खाएं। 24 घंटे में केवल एक टुकड़ा मीठा (50 ग्राम से अधिक नहीं) पर्याप्त है। शरीर को आवश्यक शक्कर अन्य खाद्य पदार्थों से मिल जाती है, इसलिए अतिरिक्त शक्कर की आवश्यकता नहीं होती। अधिक मीठा खाने से रजोगुण बढ़ता है, जबकि सीमित मीठा सतोगुण को बढ़ाता है।
यदि सावधानी नहीं बरती गई, तो मधुमेह (शुगर) जैसी बीमारियां जीवन को नष्ट कर देती हैं। मधुमेह लीवर और गुर्दे (किडनी) को प्रभावित करता है और पूरे शरीर को खोखला बना देता है। इसलिए मीठे का सेवन सीमित करें। सात्त्विक भोजन करें और भजन में मन लगाएं, तभी आध्यात्मिक उन्नति संभव है।
भोजन और जीवनशैली का संयम
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आजकल लोग रात में जागते हैं और दिन में सोते हैं, जो अनुचित है। सबसे उत्तम जीवनशैली यह है कि ब्रह्म मुहूर्त (सुबह 4 बजे) उठें, नाम जप करें, व्यायाम करें, और दिन में कार्यशील रहें। रात में 10 बजे से 3 बजे तक सोना सबसे उत्तम है। जो लोग रात में जागकर नशा, व्यभिचार और अन्य अनैतिक कार्यों में समय नष्ट करते हैं, वे अपना जीवन बर्बाद कर रहे हैं। मनुष्य जीवन अत्यंत मूल्यवान है और इसे नाम जप में लगाकर लोक-परलोक को संवारना चाहिए।
भोजन केवल शरीर की रक्षा के लिए किया जाता है, स्वाद के लिए नहीं। गरम-गरम भोजन खाने से, चाहे वह सात्त्विक ही क्यों न हो, वह तमोगुणी हो जाता है। अधिक गर्म और अधिक तला-भुना भोजन साधक के लिए उचित नहीं। भोजन को प्रसाद रूप में ग्रहण करें, बिना लोभ और स्वाद की इच्छा के। अत्यधिक तैलीय, मसालेदार और उत्तेजक भोजन से बचें। लाल मिर्च, अधिक खटाई, अधिक मिठाई, और बासी भोजन त्याग दें।
संयम का अभ्यास करें—कभी-कभी बिना भोजन के भी भजन करें ताकि मन भोजन के विचारों से मुक्त हो सके। भोजन के समय विशेष सावधानी रखें, क्योंकि उस समय के विचार पूरे 24 घंटे तक मन पर प्रभाव डालते हैं। भोजन करते समय क्रोध, काम वासना, या अन्य बुरे विचार न रखें। भोजन के समय केवल भगवान का स्मरण करें और नाम जप करें।
भोजन संयमित करें—ना बहुत अधिक खाएं और ना बहुत धीरे-धीरे। भोजन में 15 से 20 मिनट का समय पर्याप्त है। एक-एक कौर धीरे-धीरे खाने की आदत डालें, इससे कम भोजन में भी शरीर संतुष्ट रहेगा और ऊर्जा बनी रहेगी।
नींद और संतुलित आहार
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नींद और भोजन दोनों को अत्यधिक कम भी किया जा सकता है और अत्यधिक बढ़ाया भी जा सकता है। यदि प्रतिदिन हम आधे घंटे अधिक नाम जप बढ़ाते जाएं, तो 24 घंटे भजन में लगा सकते हैं। और यदि प्रतिदिन 5 से 10 मिनट अधिक सोते जाएं, तो 24 घंटे सोने की आदत पड़ सकती है।
साधकों के लिए भोजन का नियम है कि वे दिन में दो या तीन बार भोजन करें। दिनभर बार-बार खाने की आदत साधक के लिए उचित नहीं। भोजन हमेशा पवित्र विचारों और नाम जप के साथ करें, तभी वह शरीर और मन के लिए लाभकारी होगा।
केवल प्रसाद ही ग्रहण करें
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भगवान को भोग लगाए बिना कभी भोजन ग्रहण न करें। केवल वही प्रसाद पाएं, जो भगवान को अर्पित किया गया हो। पूज्य पंडित गया प्रसाद जी महाराज कहते हैं— “भगवान को भोग लगाए बिना भोजन कभी मत पाना। यदि भोग लगाया गया हो, तो उसे ठाकुर जी का प्रसाद मानो। यदि ऐसी स्थिति हो कि ठाकुर सेवा संभव न हो, तो कम से कम आँखें बंद करके भगवान को स्मरण करो, भोजन अर्पित करो और फिर उसे प्रसाद रूप में ग्रहण करो।”
ना निंदा करें, ना निंदा सुनें!
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संतों की निंदा न सुनो, ईश्वर के भक्तों की निंदा न सुनो, और यदि कहीं यह हो रहा हो, तो कानों में उँगली डालकर वहाँ से हट जाओ।
अपनी प्रशंसा ना करें और ना सुनें
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यदि कोई तुम्हारी प्रशंसा करे, तो उसे विनम्रता से टाल दो। अन्यथा, यह अहंकार को जन्म देगा और तुम्हारी भक्ति बाधित होगी।
शुद्ध आहार, शुद्ध वाणी, शुद्ध दृष्टि, और शुद्ध श्रवण से ही आध्यात्मिक उन्नति संभव है।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज