नाम और मंत्र निरंतर चलते रहें, इसके लिए साधक को अपने भोजन में सुधार करना होगा। भोजन से रस बनता है, और वही रस शरीर और प्राणों को पोषण देकर मन का निर्माण करता है। जैसा अन्न, वैसा मन। जो लोग अशुद्ध और निषिद्ध भोजन करते रहते हैं, उनका मन मलिन हो जाता है और उनसे भजन नहीं हो पाता। जब हम अपवित्र भोजन करते हैं, तो चित्त में मल और विक्षेप उत्पन्न हो जाता है। तब चित्त गंदी बातें, पुरानी बातें, और शत्रुता की बातें पकड़ता है — मंत्र या नाम को नहीं पकड़ता। लेकिन यदि भोजन पवित्र हो, तो चित्त विक्षेप छोड़कर नाम और मंत्र को पकड़ता है और उसी का चिंतन करता है। अन्न का सबसे बड़ा प्रभाव भजन पर ही पड़ता है।
भंडारा या दान का अन्न खाने से बचें

यदि आप गृहस्थ हैं, तो केवल धर्मपूर्वक कमाए गए धन से ही अपना उदर पोषण करें। यह उचित नहीं कि रास्ते में कोई भंडारा चल रहा हो, और आप सोचें कि हम भी ग्रहण कर लें। गृहस्थ का धर्म है कि वह दूसरों के दान पर न जिए। यदि आप किसी भंडारे में भोजन कर भी रहे हैं, तो उसका मूल्य आँकिए — यदि सौ रुपए का भोजन मिला है, तो एक सौ एक रुपए वहाँ भेंट करके श्रद्धा पूर्वक प्रणाम कर लीजिए।गृहस्थ के लिए यह उचित नहीं कि वह मुफ्त में भोजन लेकर प्रसन्न हो। मुफ्त में मिला भोजन आपके पुण्य को नष्ट कर देगा और नाम जप में विक्षेप बढ़ा देगा। किसी से भी मुफ्त में भोजन या पानी न लें। यदि लेना ही है, तो उसका यथोचित मूल्य भेंट करें और उसे केवल पवित्र स्थान से ही प्राप्त करें।
धर्म पूर्वक तरीक़े से कमाए गए धन से ही अन्न लें
गृहस्थ का धन न्याय पूर्वक तरीके से कमाया जाना चाहिए — तभी उसकी भक्ति टिकेगी, तभी उसका भजन सफल होगा। जो धन अन्याय, बेईमानी, चोरी या छल-कपट से कमाया गया है, उससे प्राप्त अन्न मूल से ही अशुद्ध होता है, और उससे भजन नहीं हो सकता। चाहे वह कितनी भी कोशिश करे, उसका चित्त स्थिर नहीं होगा, और भजन में सफलता नहीं मिलेगी। यदि किसी व्यक्ति का भोजन अपवित्र और गंदी कमाई से प्राप्त है, तो वह भजन की बात सोचे ही नहीं। क्योंकि भोजन ही चित्त का निर्माण करता है, और चित्त ही मंत्र या नाम को पकड़ता है। जो अन्यायपूर्वक धन एकत्र करता है, वह भजन कर ही नहीं सकता — चाहे उसके हाथ में माला हो, लेकिन मन संसार में डूबा रहेगा।
संयमित भोजन और दिनचर्या
यदि भजन करना है, तो भोजन आधा पेट करें। जब भजन में मन लगने लगेगा, तो भोजन में स्वाभाविक रूप से रुचि कम हो जाएगी।
और यदि आहार को दबा-दबा कर, आवश्यकता से अधिक करते रहेंगे, तो भजन कैसे होगा? भोजन की एक संतुलित दिनचर्या जीवनभर के लिए निश्चित होनी चाहिए।
जो अन्न शाम को बनाया गया हो, उसे अगले दिन सुबह नहीं ग्रहण करना चाहिए। रात्रि में बना हुआ भोजन बासी कहलाता है, और साधक के लिए यह अशुद्ध माना गया है। इसी प्रकार, ऐसा भोजन जिसमें बाल गिर गया हो, या जिसमें मक्खी गिर गई हो, या जो किसी भी प्रकार से अपवित्र हो गया हो — उसका त्याग कर देना चाहिए।
भोजन के इन तीन दोषों से बचें
भोजन में तीन प्रकार के दोष माने गए हैं — जाति दोष, आश्रय दोष और निमित्त दोष।
1. भोजन में जाति दोष

इसमें वे वस्तुएँ हैं जो अपने स्वभाव से ही निषिद्ध मानी जाती हैं, जैसे — प्याज़, लहसुन, शलगम, गाजर आदि। ये सभी तमोगुणी प्रकृति की वस्तुएँ हैं, और इन्हें ग्रहण करने से भजन में विक्षेप अवश्य आता है। तमोगुण इनके माध्यम से जागृत होता है, और यही तमोगुण भजन में बाधा उत्पन्न करता है। यद्यपि इनकी उत्पत्ति की प्रक्रिया भूमि से होती है, जैसे आलू की — और वह भूमि भी पवित्र ही होती है — फिर भी इनका स्वभाव भजन के लिए उपयुक्त नहीं है। ये वस्तुएँ हमारी बुद्धि और चित्त को मलिन करती हैं, जिससे भजन में मन नहीं लगता।
इसी कारण संतों ने इनका त्याग करने की सलाह दी है। यह नहीं कहा गया कि प्याज़-लहसुन खाना कोई पाप है, परंतु यह अवश्य कहा गया है कि इनके सेवन से भजन सिद्ध नहीं होगा। भजन शुद्ध और गहराई वाला तभी बनेगा, जब आहार सात्विक और निर्मल होगा। ये तमोगुणी वस्तुएँ भले ही मांस-मदिरा जैसी अत्यंत न मानी जाएँ, परंतु ये भी मन को अपवित्र करने में सहायक होती हैं। इसलिए संतों ने इनका त्याग भजन की उन्नति के लिए आवश्यक बताया है।
2. भोजन में आश्रय दोष

भोजन का दूसरा दोष है — आश्रय दोष। इसका अर्थ है: भोजन स्वयं भले ही पवित्र हो, परंतु जिस स्थान, पात्र या व्यक्ति के माध्यम से वह बना या रखा गया है, वह अपवित्र है, तो वह भोजन भी दोषपूर्ण हो जाता है। उदाहरण के लिए मान लीजिए किसी रसोई में बड़ी श्रद्धा से पूरी, खीर जैसी सात्विक वस्तुएँ बनाई गईं। लेकिन उसी रसोई में पूर्व में मांस पकाया गया हो, वही चूल्हा, वही पात्र, और वही रसोइया हो — तो यह आश्रय दोष कहलाएगा। ऐसे भोजन को ग्रहण करने से आपकी बुद्धि मलिन हो जाएगी, और भजन में मन नहीं लगेगा।
जैसे मांसाहार करने से व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट होकर उसे अधोगति की ओर ले जाती है, वैसे ही उस रसोई में बना सात्विक भोजन भी, आश्रय दोष के कारण, मन को अपवित्र कर देता है। एक और उदाहरण: यदि शराब की बोतल में गंगाजल भर दिया जाए, तो वह जल आचमन योग्य नहीं रहेगा, क्योंकि पात्र अपवित्र है — यह आश्रय दोष है। उसी प्रकार: यदि शराब रखने वाले फ्रिज में सब्जी या दूध रखा जाए, तो वह भी अपवित्र हो जाएगा — भले ही वह दूध शुद्ध गाय का ही क्यों न हो। मूल कारण यह है कि वह अपवित्र वस्तु के संपर्क में आया है।
इसलिए, हमें बिना परिचय के किसी का भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि भोजन भले दिखे सात्विक, लेकिन आश्रय दोष के कारण अंतर्मन को दूषित कर दे। इसी वजह से बाजार से लाया गया भोजन भजन के लिए अनुकूल नहीं होता।
3. भोजन में निमित्त दोष

इसका तात्पर्य है कि किसके हाथों से भोजन बना है, किसका स्पर्श और दृष्टि उस पर पड़ी है — यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारे लिए अस्पृश्य कौन है? जो वैष्णव नहीं है, जो भजन से विमुख है, जिसका आहार-विहार अपवित्र है — उसका स्पर्श किया हुआ भोजन साधक को नहीं ग्रहण करना चाहिए। यदि कोई चांडाल भी है, लेकिन कंठी-तिलक धारण किए हुए है, हरिनाम जप रहा है, और भजन में रत है, तो हम उसके साथ बैठकर भोजन कर सकते हैं। परंतु यदि कोई पंडित है, परंतु भगवत-विमुख है, उसका आचरण भ्रष्ट है, तो उसकी संगति और उसका भोजन — दोनों से बचना चाहिए।
साधक को यहाँ तक ध्यान रखना चाहिए कि ऐसे भगवत-विमुख व्यक्तियों की दृष्टि भी भोजन पर न पड़े। जैसे ठाकुर जी को भोग लगाते समय हम भोजन को ढक कर लाते हैं, वैसे ही ध्यान रखें कि आपके भोजन पर अपवित्र दृष्टियाँ न पड़ें। यदि किसी कारणवश भोजन लेकर जाना हो, तो उसे ढँक कर ले जाएँ, ताकि अपवित्र दृष्टि का भी दोष न लगे।
इस प्रकार, साधक को इन तीनों दोषों से रहित भोजन ही ग्रहण करना चाहिए — जाति दोष, आश्रय दोष, और निमित्त दोष। बाजार की बनी वस्तुएँ — यदि आप सच में भजन करना चाहते हैं — तो त्याग दें। एक नियम लें: यह भोजन कहाँ बना है? किसने बनाया है? उस व्यक्ति के विचार, आचरण, और पवित्रता कैसी है? यह जाने बिना भोजन ना करें। क्योंकि जैसा अन्न हम पाते हैं, वैसे ही हमारे विचार बनते हैं। और विचार जैसे होंगे, वैसा ही हमारा चित्त, मन, और भजन बनेगा।
भोजन करते समय आपके विचार अत्यंत महत्वपूर्ण हैं!

भोजन करते समय आपका चिंतन कहाँ है — यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। भोजन करते समय न तो भोजन में मन लगना चाहिए, न किसी व्यक्ति, वस्तु या स्थान के चिंतन में। यदि आप किसी व्यक्ति का स्मरण करते हुए भोजन कर रहे हैं, तो उस व्यक्ति के स्वभाव और गुण आपके ऊपर प्रभाव डालेंगे। यदि वह व्यक्ति अशांत, क्रोधित या विषयों में रत है, तो उसका वही स्वभाव आपके चित्त में प्रवेश कर जाएगा, और आप 24 घंटे उसी के गुणों से ग्रसित रहेंगे। आपका चित्त बार-बार वहीं जाएगा, और यह भजन में भारी बाधा बन जाएगा। यदि भोजन करते समय आप किसी स्त्री का गलत भाव से चिंतन करेंगे तो आपका नाम या मंत्र जप सिद्ध नहीं होगा।
परंतु यदि आप भोजन करते समय भगवान या किसी संत, महापुरुष, या गुरुदेव का स्मरण करते हैं, तो उनकी भगवदीय ऊर्जा आपके भीतर प्रवेश करेगी। 24 घंटे तक उनका प्रभाव बना रहेगा, और आपका भजन बढ़ेगा, मन स्थिर होगा, चित्त निर्मल रहेगा। इसलिए उपासक को चाहिए कि भोजन करते समय अपने चिंतन को अत्यंत सावधानीपूर्वक प्रभु में या किसी सिद्ध महापुरुष में स्थिर करे। इसका सबसे आसान उपाय है कि अंदर ही अंदर नाम जप करते हुए भोजन करें।
प्रभु को भोग लगाकर ही खाएँ / आचमन के नियम
कभी भी झूठे मुँह नहीं रहना चाहिए। कुछ भी खाने के बाद तीन बार कुल्ला करें और हाथ धोयें। यह करते समय तीन बार “राधा वल्लभ श्री हरिवंश” जपें। अपने इष्टदेव की पूजा करके ही अन्न को प्रसाद रूप में ग्रहण करना चाहिए। पहले भगवान को भोग लगाएँ, फिर प्रसाद पाएँ।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज