एक दुष्ट स्वभाव वाला आदमी था। जंगल में गड़ासा लेकर खड़ा होता था। वहाँ से जो भी निकलता था, वह पहले उनसे रुपया, पैसा और उनका सामान छीन लेता था और फिर उन्हें मार देता था। एक दिन वहाँ से एक महात्मा जा रहे थे। उस डाकू ने गड़ासा उठाया तो संत बोले, क्यों भाई, क्यों मारोगे? डाकू ने बोला कि मारना मेरा स्वभाव है, मैं यात्रियों का सामान छीन लेता हूँ और उन्हें जान से मार देता हूँ। संत बोले कि इससे तुम्हारी बहुत दुर्गति होगी। वो संत तप बल संपन्न थे। संतों के दर्शन मात्र से पाप नष्ट हो जाते हैं। संत दर्शन और संभाषण मात्र से उस डाकू का हृदय कंपायमान हो गया, उसके हृदय में भय पैदा हुआ। वह संत के चरणों में गिर गया और बोला कि महाराज मैंने तो बहुत पाप किये हैं, कोई उपाय बताओ। यदि आप मुझे शिष्य बना लें, तो मैं सारे गलत कार्य छोड़ दूंगा। संत ने कहा कि मैं ऐसे तुम्हें शिष्य नहीं बनाऊँगा। पहले तुम भारत के सारे तीर्थों की यात्रा करो और जब तुम पवित्र हो जाओगे, तब मैं तुम्हें शिष्य बनाऊँगा। डाकू ने कहा कि महाराज मुझे कैसे पता चलेगा कि मैं पवित्र और निष्पाप हो गया हूँ। तो उन्होंने उसे एक सूखी लकड़ी दी और कहा कि जब यह हरी हो जाए तो वहीं से लौट आना, जानना कि तुम निष्पाप हो गए हो। उन महापुरुष की प्रेरणा से उस डाकू ने सुखी लकड़ी ली और वह तीर्थों के लिए चल दिया। यह होता है संत संग का प्रभाव।
तीर्थ यात्रा से पहले डाकू ने मारे चोर
थोड़ी दूर चलने के बाद, डाकू ने सोचा कि रात्रि में विश्राम करके, कल तीर्थ यात्रा पर जाऊँगा। एक जंगल में एक बहुत बड़ा बरगद का वृक्ष था। उसने उसी वृक्ष के नीचे रात्रि व्यतीत करने का निश्चय किया। उसी वृक्ष के ऊपर चार बदमाश बैठे हुए थे और वह समीप वाले गाँव में चारों तरफ से आग लगाने की योजना बना रहे थे। जो भी आग से बाहर निकलेगा, उनको वह मारकर लूटने का सोच रहे थे। उस डाकू ने सोचा कि इतने पाप किए हैं, अब तीर्थ यात्रा तो जा ही रहा हूँ, इन चार को और मार देता हूँ क्योंकि ये चार मरेंगे तो पूरा गाँव बच जाएगा। जहाँ पचासों मारे, वहाँ चार और सही। उसने चोरों की ओर आवाज लगाई और उनसे कहा कि तुम्हारी योजना ठीक नहीं है। उस डाकू ने उनसे कहा कि मैं लोगों को लूटने में तुम्हारा गुरु हूँ। मुझे पता है तुम फँस जाओगे, नीचे उतरो। चोरों ने विचार किया कि क्या सच में फँस जाएँगे और वे एक-एक करके नीचे उतरे। डाकू को लोगों को मारने का अभ्यास तो था ही, उसने बिना अस्त्र-शस्त्र के, अपने हाथों से ही चारों को मार दिया।
उन्हें मारने के बाद उसने सोचा कि अब यहाँ रुकना ठीक नहीं होगा। जैसे ही उसने उन संत द्वारा दी गई लकड़ी उठाई तो वह हरी हो गई। उसने सोचा कि गुरुजी ने कहा था कि लकड़ी हरी हो जाए तो वापस आ जाना। वह यह सोच रहा था कि अभी तो कोई गंगा, जमुना नहीं नहाया, तीर्थ यात्रा नहीं की और लकड़ी हरी हो गई, पर गुरु जी ने कहा था हरी हो जाए तो वापस आ जाना। यह सोचकर वह वापस चला गया।
गुरु ने समझाया कर्म के उद्देश्य का महत्व
जैसे ही वह गुरुजी के पास पहुंचा, संत बोले कि मैंने तो तुम्हें तीर्थ यात्रा के लिए भेजा था, तुम वापस कैसे आ गये। डाकू बोला कि आपने कहा था जहाँ लकड़ी हरी हो जाए, जान लेना पवित्र हो गए। गुरुजी लकड़ी तो हरी हो गई। संत बोले किस तीर्थ में नहाये? डाकू बोला की नहाया नहीं, चार लोगों को और मार दिया। गुरुदेव बोले चार को मार दिया तो और पाप बनना चाहिए था, यह लकड़ी हरी कैसे हो गई? तब उसने बताया कि पूरे गाँव की रक्षा करने के भाव से मैंने चार चोरों को मार दिया। इसपर गुरु बोले, अभी तक तुम अपने स्वार्थ के लिए लोगों को मारते थे। जब तुम्हारा उद्देश्य अपना स्वार्थ था तो वो पाप हुआ। लेकिन पूरे नगर के जीव, जंतु, स्त्री, पुरुष और बच्चों की रक्षा का उद्देश्य रखकर जब तुमने चार चोरों को मार दिया, तो वह महापुण्य हो गया। क्रिया वही है, लेकिन उसका उद्देश्य बदल गया तो उसका फल भी बदल गया।
गृहस्थी में रहकर भगवद् प्राप्ति करने का सरल उपाय
आप गृहस्थी में रहकर जो भी क्रियाएँ कर रहे हैं, बस उन्हें प्रभु की प्रसन्नता के उद्देश्य से करना शुरू कर दीजिए, तो बात बन जाएगी। प्रभु भगवद् गीता में कहते है कि तू चिंता मत कर, मैं तुझे निष्पाप कर दूंगा, बस मेरे चरणों का आश्रय ले ले। हर धर्म की पूर्ति भगवद् प्राप्ति से होती है और प्रभु के चरणों का आश्रय लेना ही परम धर्म है। जो धर्म या कर्म, प्रभु की प्राप्ति में बाधा पहुँचाए, उसे करोड़ दुश्मनों के समान त्याग देना चाहिए। जैसे प्रह्लाद ने अपने पिता हिरण्यकश्यप का, विभीषण ने अपने भाई रावण का और राजा बलि ने अपने गुरु का परित्याग किया था। ऐसे कितने महापुरुष देखे गए हैं जो अपने कुल कर्म को करते हुए भगवद् प्राप्त हो गए क्योंकि वो सब कर्म प्रभु की प्रसन्नता के लिए करते थे। अभी हम जो भी करते हैं, वह अपने सुख के लिए करते हैं लेकिन एक भक्त सारे कर्म प्रभु की प्रसन्नता के लिए करता है। क्रिया वही है, लेकिन अगर उद्देश्य बदल गया, तो उसका फल बदल जाएगा।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज