बच्चों के लव मैरिज करने पर माता-पिता कैसे मार्गदर्शन करें?

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
लव मैरिज में बच्चों का मार्गदर्शन

प्रेम विवाह के संदर्भ में माता-पिता को बच्चों का साथ देना चाहिए। पर यह निर्णय आपको करना होगा कि क्या वो बचपने में गलती तो नहीं कर रहे हैं। अगर वह गलत हैं तो उनको समझाने की चेष्टा करें। आजकल के बच्चे बुद्धिमान तो बहुत हैं, लेकिन उनमें विवेक (सही ग़लत का निर्णय करने की क्षमता) की बिल्कुल कमी है। आपको देखना होगा कि कहीं केवल वासना पूर्ति के लिए वो किसी छल-कपट में तो नहीं फँस रहें। अगर ऐसा है तो देखा जाता है कि बच्चे कुछ समय बाद संबंध-विच्छेद (डाइवोर्स) कर लेते हैं, या रिश्तों में बड़ी कड़वाहट आने लगती है, या फिर कई तरह की विध्वंसक-हिंसात्मक वृत्तियाँ सामने आती हैं।

माता-पिता को चाहिए कि दोनों पक्षों की जाँच करें। दोनों बच्चों में यदि वास्तविक एक-दूसरे में सही लगन है, अगर बच्चों के आचरण खराब नहीं हुए हैं, और वो दोनों एक-दूसरे को जीवन समर्पित करना चाहते हैं, तो हमें उनका सहयोग कर देना चाहिए। यह निर्णय शास्त्र अनुसार, माता-पिता की आज्ञा से, और किसी ब्राह्मण के द्वारा कुंडली, गुण आदि विचार करके और धर्म के अनुसार होना चाहिए। पर अब यह सब धीरे-धीरे ख़त्म होता चला जा रहा है। कलियुग के प्रभाव से अब गर्लफ्रेंड, बॉयफ्रेंड और लिव-इन-रिलेशनशिप का चलन चल पड़ा है। अब इनमें धर्म का पक्ष नहीं रहा, यह केवल पशुता है। यह केवल काम भोग की वासना का खेल है। अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों लोग हर कुछ महीनों बाद ब्रेकअप कर लेते हैं। अब जिनका ऐसा अभ्यास हो गया है क्या वो पूरा जीवन किसी एक जीवनसाथी के साथ संयम से उस रिश्ते का निर्वाह कर पायेंगे? बहुत धोखे में बच्चों के जीवन बर्बाद हो रहे हैं। माता-पिता को बच्चों को समझाना चाहिए कि केवल भोग विलासिता ही वैवाहिक जीवन का एक अकेला विषय नहीं है। पूरा जीवन काटने के लिए धर्म की भी ज़रूरत है। अगर धर्म नहीं है, तो व्यभिचारी मनुष्य कभी वैवाहिक जीवन का निर्वाह नहीं कर सकते।

क्या हमें बच्चों की क़िस्मत पर सब छोड़कर यह निर्णय ले लेना चाहिए?

क्या जीवन साथी का चुनाव भाग्य पर छोड़ देना चाहिए

हमें सब कुछ किस्मत पर नहीं छोड़ देना चाहिए। सीता जी के विवाह के लिये महाराज जनक जी ने भी एक शर्त रखी थी कि जो भी शिव धनुष का खंडन करेगा वही सीता जी का वर होगा। यह माता-पिता का कर्तव्य है, इसे केवल क़िस्मत पर नहीं छोड़ा जा सकता। आपको परीक्षण करना होगा कि बच्चा-बच्ची एक दूसरे के योग्य हैं कि नहीं। बच्चे तो केवल अपनी मनोवृत्ति की तृप्ति के लिए प्रेम करते हैं। उनको प्रेम का मतलब नहीं पता। वो काम को ही प्रेम कहते हैं क्योंकि उन्हें ज्ञान नहीं है। इसलिए कुछ देख-रेख रखनी चाहिए, और भाग्य पर सब नहीं छोड़ देना चाहिए।

जनक जी महाराज परम ज्ञानी महात्मा थे, फिर भी उन्होंने शर्त रखी। आपके पास जो दृष्टि है वो बच्चों के पास नहीं है। बच्चों की केवल शरीर संबंधी दृष्टि है और आपकी दृष्टि आजीवन निर्वाह करने वाली है। आप देखिए कि बच्चे या बच्ची का आचरण कैसा है, उसका व्यवहार कैसा है, और स्वभाव कैसा है। बच्चे तो बहुत भोले स्वभाव के होते हैं, और कम उम्र में यह सब केवल शरीर आकर्षण ही लगता है। वह तो केवल उसके हिसाब से ही निर्णय ले लेंगे।

बच्चे माँ-बाप को डर के कारण यह सब बता नहीं पाते!

बच्चे अपने माता-पिता से डरते हैं और उन्हें अपने रिश्ते के बारे में नहीं बताते

माता-पिता को अपने बच्चों से दोस्त की तरह व्यवहार करना चाहिए। बच्चों को आप पर इतना विश्वास तो होना ही चाहिए कि अगर वो आपसे अपने हृदय की बात कहें तो आप उनका सहयोग करेंगे ना कि आप उनको दंड देंगे। जीवन बड़ा संकट पूर्ण है, अपवित्र विचारों वाला और व्यभिचारी जीवन कभी मंगलमय नहीं हो सकता। जिसका चरित्र दूषित है, वह एक जीवनसाथी का व्रत नहीं ले सकता। किसी से दोस्ती करना गलत नहीं है, लेकिन आप दोनों तब तक पवित्र रहें जब तक आपका विवाह ना हो जाये। यदि ऐसा किया तो आप जीवन भर उस संबंध का निर्वाह कर लेंगे अन्यथा विवाह होने पर भी डाइवोर्स ही होगा और बात नहीं बनेगी।

इसीलिए बच्चों को शास्त्र श्रवण करना चाहिए, सत्संग सुनना चाहिए, नाम-जप करना चाहिए तो उनकी बुद्धि शुद्ध होगी। माता-पिता बच्चों को उनकी बात कहने का अवसर दें। और उसके बाद परिस्तिथि से अलग होकर सोचें। केवल अपना अधिकार जताकर ग़ुस्सा ना करें। आप सोचें कि बच्चों को कैसे सुख प्रदान किया जा सकता है।

समाज के भय से कैसे निपटें !

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यह समय समाज की चिंता करने का नहीं है बल्कि बच्चों को बचाने का है। जब अपने ऊपर बीतती है तो लोगों की दादागिरी नीचे आ जाती है। दूसरों के बच्चों पर उँगली उठाना तो आसान है, पर जब अपने बच्चे के साथ ऐसा होता है तब समझ आता है। आप विवेक के द्वारा संभल कर उनके जीवन को सजाइये ताकि वो धर्म पूर्वक भगवद् मार्ग में चलें और सुखी रहें। ज्यादा इधर-उधर के पक्ष में मत जाइए। अगर दोनों का भाव मिल रहा है और दोनों धर्म से जीवन व्यतीत करना चाहते हैं तो आपको उनका सहयोग कर देना चाहिए। और इतना देख लेना चाहिए कि बच्चे किसी भी तरह के छल-कपट में न फँस जाएँ। यही माता-पिता का कर्तव्य है।

मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज

पूज्य श्री हित प्रेमानंद जी महाराज द्वारा इस विषय पर मार्गदर्शन का वीडियो

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