गुरु बदलना या गुरु न बदलना, ये दोनों अज्ञान की बातें हैं। यदि आप आगे बढ़ना चाहते हैं और आपको लगे कि आगे का मार्ग किसी और रूप में है, तो समझना चाहिए कि अंदर से गुरु ही प्रेरणा कर रहे हैं और बाहर से गुरु आपको स्वीकार कर रहे हैं। गुरु नहीं बदले, गुरु ने अपना रूप बदल लिया। शिष्य को बस पहचानना है कि हमारे गुरु कौन हैं।
क्या गुरु बदलने से अपराध लगता है?
गुरु बदलने के संबंध में मिथ्या बातों से अज्ञानी जीवों को फंसाकर उनका भावनात्मक, शारीरिक या व्यवहारिक शोषण किया जाता है। हमें इन सब बातों को स्वीकार नहीं करना चाहिए और भगवद् प्राप्ति के लिए कदम आगे बढ़ाते रहना चाहिए। यदि हमें गुरु मार्ग से बढ़ोतरी नहीं मिल रही तो हम उस सद्गुरु को स्वीकार करेंगे जिससे हमारा मन उत्साह से भगवद् मार्ग पर चले। आपको कोई अपराध नहीं लगेगा क्योंकि हम भगवद् प्राप्ति के लिए आगे बढ़ रहे हैं। ऐसा नहीं है कि आप फँस गए और अब गुरु बदलने से आपको अपराध लगेगा। अपराध तब होगा जब आप वहाँ फँसे रहें। आपको वहाँ से मुक्त होकर भजन में लगना चाहिए।
गुरु किसे बनाएँ?
सबसे पहली बात, किसी को गुरु ना बनाएँ। हमें किसी से प्रभावित होकर उसे गुरु नहीं बनाना चाहिए। हमें किसी के गुण देखकर, रूप देखकर, विद्वत्ता देखकर या प्रवचन सुनकर उन्हें गुरु नहीं बनाना चाहिए। ये सब बाहरी बातें हैं, आज नहीं तो कल ये सब नष्ट हो जाएँगे। सबसे पहले भगवान को गुरु रूप में स्वीकार करें। भगवान से प्रार्थना करें कि हे कृष्ण, मैं आपको अपने गुरुदेव के रूप में स्वीकार करता हूँ। यदि मुझे गुरु की ज़रूरत है तो आप ही मुझे मेरे गुरु के रूप में मिलें। मुझे नहीं पता कि कौन साधु है और कौन असाधु है। आप मेरे सामने आइए और मेरे हृदय में शीतलता दीजिए कि आप ही मेरे गुरुदेव के रूप में आए हैं। इससे प्रभु आपको ऐसी जगह मिला देंगे जहाँ आपको कभी संशय नहीं होगा। जिनके संग से, जिनके वचनों से और जिनकी कृपा कटाक्ष से हमारा परमार्थ मार्ग पुष्ट हो जाए, वही हमारे गुरुदेव हैं। गुरुदेव के रूप परिवर्तन से हमारे गुरुदेव परिवर्तित नहीं होते। गुरुदेव का रूप परिवर्तित हो सकता है, क्योंकि हमारे गुरुदेव बहुत रूपों में विराजमान हैं, वह कभी भी हमें कहीं से भी पकड़कर खींच सकते हैं, लेकिन वे हैं हमारे गुरुदेव ही।
यदि आप अपने गुरु का चुनाव कर रहे हैं तो यह पोस्ट आपके लिए लाभदायक होगा।
गुरु अपराध से बचें
अगर धन के लोभ के लिए या सांसारिक मान-प्रतिष्ठा के लिए कोई गुरु की आज्ञा की अवहेलना करता है तो उसका पतन हो जाएगा और उसे गुरु द्रोह लगेगा। गुरु आपको भगवद् मार्ग में आगे बढ़ा रहे हैं और अगर आप उनकी आज्ञा का उल्लंघन करते हैं तो आपको गुरु अपराध लगेगा। लेकिन अगर आपको समझ आ गया है कि जहां आपने दीक्षा ली है, वहाँ आपका काम नहीं बन रहा, परमार्थ की बात नहीं हो रही, केवल संसार की बातें हो रही हैं, तो आप उन गुरु को प्रणाम करके आगे बढ़ सकते हैं। आपको ऐसा सोचना चाहिए कि उनकी इस कक्षा तक की ही स्थिति थी, अब आगे की कक्षा में गुरुदेव कोई और रूप रखकर आएँगे। आप प्रभु के मार्ग में कदम बढ़ा रहे हैं, प्रभु ही गुरु हैं, जब तक प्रभु ना मिलें, तब तक आगे बढ़ते रहिए। गुरु-शिष्य का संबंध केवल भगवद् प्राप्ति का होता है।
लौकिक व्यवहार में एक सीमित शरीर को गुरु मान लेना घोर अज्ञान है। क्या गुरु केवल एक मनुष्य हैं? गुरु के स्वरूप को समझिए, वह समस्त प्राणियों के साक्षी हैं, वह कहीं से भी बोल सकते हैं। वह कोई भी रूप लेकर बोल सकते हैं। यदि गुरु द्वारा आपके अंतःकरण को सही भगवद् मार्ग दिया गया है तो आपको किसी दूसरे गुरु की ज़रूरत नहीं है। यदि वह आपको मार्ग नहीं दिखा पा रहे, तो आप आगे बढ़िए।
क्या है गुरु का स्वरूप?
गुरु वही बन सकता है जो खुद सुलझा हो अन्यथा वह शिष्य को कैसे सुलझा सकता है। अगर खुद भगवद् प्राप्ति नहीं हुई है तो किसी और को भगवद् प्राप्ति नहीं कराई जा सकती। हज़ारों में कोई एक ऐसा होता है जिसका लक्ष्य होता है भगवद् प्राप्ति नहीं तो लोग सत्संग आदि सीख लेते हैं और उससे धन-संपत्ति और मान-सम्मान की प्राप्ति करते हैं।
लेकिन जो भगवद् प्राप्त महापुरुष होते हैं, उनको यह सब पसंद नहीं आता, वह तो यह सब साधन काल में ही छोड़ देते हैं। ऐसे महापुरुषों के हृदय का अनुभव, आपके हृदय में जाकर सत्य समझा देता है कि भजन ही सत्य बात है। आपको समझने के लिए ज्यादा परिश्रम करने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि वह महापुरुष अपने हृदय की बात बोलते हैं, इसलिए उनके वचनों में इतना प्रभाव होता है कि उनकी बात आपके हृदय में धंस जाएगी और वैसा ही कराएगी जैसा वो चाह रहे हैं। यही है गुरु प्रताप, यही है गुरु का स्वरूप।
भगवद् मार्ग के संकेतों को समझें
अगर आपको लग रहा है कि आपका काम नहीं बन रहा, तो उन गुरुदेव को मानसिक प्रणाम करके दूरी बना लेनी चाहिए और परमार्थ में आगे बढ़ना चाहिए। परंतु ऐसा प्रभु का आदेश लेकर करना चाहिए। प्रभु का आदेश होगा तो कदम बढ़ाते ही आपका हृदय शीतल हो जाएगा और आनंद आ जाएगा। जिस समय आप प्रभु की तरफ बढ़ेंगे तो आपको संकेत मिलने लगेंगे। जहाँ आँख बंद करके दौड़ने का मन करे और भागवतिक चिंतन बने तो वहाँ डरने की जरूरत नहीं है। जहाँ गलत मार्ग होता है वहाँ भी संकेत मिलने लगते हैं। ग़लत मार्ग पर आपका हृदय जलने लगता है, भय लगता है और संशय होने लगता है।
सब जगह एक ही तत्व है
किसी अन्य विषय के लिए गुरु की अवहेलना करना भारी अपराध है। लेकिन अगर भगवद् प्राप्ति की पूर्ति नहीं हो रही है, तो जहाँ से उसकी पूर्ति हो, वहाँ दौड़कर उसकी पूर्ति करें, वही गुरु उस रूप में भी विराजमान हैं। एक ही तत्व है, आप चाहे उसे गुरु तत्व कहें या इष्ट तत्व कहें। चाहे कृष्ण कहें, चाहे राम कहें, चाहे शिव कहें, जो भी कहें, वह एक ही है, दूसरा नहीं। वही एक सर्वोपरि तत्व सब रूपों में है, आप जिस रूप को मान लें, वह उसी रूप में है। हमें जहाँ उस परम तत्व का बोध हो रहा है, वही हमारे गुरुदेव हैं।
मेरे गुरुदेव इस दुनिया में नहीं रहे, क्या मैं दोबारा गुरु बनाऊँ?
गुरु की बात मान लेना ही कल्याण का हेतु है। आपके गुरु ने आपको जो भी नाम या मंत्र दिया हो, उसी नाम का जाप करें। जो भी आपको प्रश्न-उत्तर करने हों वो सत्संग से ले लें। आपके गुरु ही सबमें बैठे हुए हैं। अखंड मंडलाकारं व्याप्तम येन चराचरम । एक बार गुरुदेव को जीवन समर्पित कर दिया तो कर दिया। आपके गुरु आपको सब जगह संभाल रहे हैं, अगर आप पकड़ पाए तो सही है, ना पकड़ें तो साक्षात गुरु बोलें फिर भी समझ नहीं आएगा।
निष्कर्ष
जहाँ आपकी अश्रद्धा हो रही है, अगर आप वहाँ बैठे रहेंगे तो आपका पतन हो जाएगा। आपका भजन तो बनेगा नहीं, उल्टा उनमें दोष दर्शन होगा। आप परमार्थ से भ्रष्ट हो जाएँगे। जहाँ अश्रद्धा हो रही है, उसे छोड़ दीजिए, दूसरे मार्ग में कदम बढ़ाइए। यह निर्बलों का मार्ग नहीं है कि आप निर्बल होकर बैठ जाएँ, आगे बढ़ते रहिए। जहाँ लगे कि यहाँ बैठ गए तो अब खड़े होने की जरूरत नहीं, बस बैठ जाइए, आपको विश्राम मिल जाएगा।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद जी महाराज