करमैती बाई जी, शेखावत राजा के पुरोहित श्री परशुराम जी की पुत्री थीं। उनका निवास स्थान खंडेला, राजस्थान था। परशुराम जी अधिकतर भगवद् चर्चा और नाम कीर्तन में लीन रहते थे। भगवद् चर्चा और नाम कीर्तन का प्रभाव अत्यंत गहरा होता है। करमैती बाई बचपन से ही भगवद् चर्चा सुनती रहीं। महाभागवत के घर में जन्म लेने और नियमित भगवद् चर्चा सुनने से उनके हृदय में प्रभु श्याम सुंदर के प्रति गहन अनुराग उत्पन्न हुआ। बाल्यावस्था से ही उनके मन में यह बात बैठ गई थी कि श्याम सुंदर ही उनके जीवन साथी हैं और सब कुछ माया-मात्र है।
करमैती बाई जी का विवाह
पुराने समय में बच्चों की पवित्रता बनाए रखने के लिए यौवन अवस्था आने के पहले ही विवाह कर दिया जाता था और पुत्री यौवन अवस्था आने तक अपने माता-पिता के पास ही रहती थी। फिर गौना होने के बाद पति-पत्नी एक साथ रहते थे। ऐसा ही करमैती बाई के साथ भी हुआ। उनका विवाह हो गया था और किशोरावस्था की ओर कदम बढ़ते ही उनका गौना तय हुआ। उनके ससुराल के लोग उत्साह से उन्हें अपने साथ ले जाने के लिए आए। परशुराम जी ने बेटी के गौने के लिए सुंदर वस्त्र और आभूषण तैयार करवाए। लेकिन जब करमैती बाई को यह पता चला कि उन्हें ससुराल जाना है, तो उनके मन में भारी चिंता उत्पन्न हो गई। उन्होंने सोचा कि ससुराल में भगवद् चर्चा और भक्ति नहीं होगी। वहाँ शायद राम, कृष्ण, हरि का नाम भी नहीं लिया जाता होगा।
![करमैती बाई के मन में भारी चिंता उत्पन्न हो गई](https://bhajanmarg.com/wp-content/uploads/2025/01/karmaiti-bai-is-worried-1024x576.jpg)
उनके मन में गहरी पीड़ा थी कि बचपन से लेकर अब तक जो भगवद् चर्चा उनकी जीवनरेखा थी, वह ससुराल में संभव नहीं होगी। उन्होंने निर्णय लिया कि यदि भक्ति और भजन नहीं हो सकते, तो ऐसा जीवन व्यर्थ है। उनके मन में यह विचार गहराई तक समा गया कि संसार का कोई सुख स्थायी नहीं है। पति का रूप, यौवन और धन सभी समय के साथ समाप्त हो जाएंगे।
करमैती बाई का महत्वपूर्ण निर्णय
करमैती बाई ने निश्चय किया कि उनका जीवन केवल श्री कृष्ण को समर्पित होगा। उन्होंने यह भी महसूस किया कि जन्म-मरण, सुख-दुख, संपत्ति-विपत्ति सब माया का प्रपंच है। इस सत्य को जानकर, उन्होंने मन और बुद्धि को प्रभु में समर्पित कर दिया। करमैती बाई ने निश्चय किया कि यह हड्डी और चमड़े से बना शरीर केवल तब तक सार्थक है जब तक यह प्रभु के चिंतन और सेवा में लगा रहे। बचपन से प्रभु की चर्चा सुनने के कारण उनका जीवन एक उच्च स्थिति में पहुंच गया था। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचीं कि उनका वास्तविक जीवन श्री कृष्ण और उनकी राजधानी वृंदावन ही है।
करमैती बाई जी की घर छोड़ने की साहसिक यात्रा
![करमैती बाई जी की घर छोड़ने की साहसिक यात्रा](https://bhajanmarg.com/wp-content/uploads/2025/01/Karmaiti-Bai-Leaves-Home-For-Vrindavan-1024x576.jpg)
करमैती जी ने एक रात देखा कि सभी सो गए हैं। उन्होंने आधी रात के समय माता-पिता को मन से प्रणाम किया, श्रीकृष्ण का स्मरण किया, और आंसू बहाते हुए घर से निकल पड़ीं। यह है सच्ची बहादुरी। वह संसार के सुखों को छोड़कर निश्चयपूर्वक प्रभु के शरण में चल पड़ीं। पति के साथ मिलन का समय था। नवविवाहिता होने के कारण संसारिक सुखों की भरमार थी। लेकिन उन्होंने दृढ़ निश्चय किया, “अब से प्रभु के सिवा मेरा कोई नहीं।” वह प्रभु के स्मरण और प्रेम में डूबकर वृंदावन की ओर चल पड़ीं। उन्हें वृंदावन का पता तक नहीं था। फिर भी, नंदनंदन के प्रति विश्वास ने उनके कदम आगे बढ़ा दिए।
करमैती बाई जी पर भगवान की कृपा
![करमैती बाई जी पर भगवान की कृपा](https://bhajanmarg.com/wp-content/uploads/2025/01/Lord-Krishnas-Grace-on-Karmaiti-Bai-1024x576.jpg)
जब कोई भगवद् शरण लेकर संसार के सभी संबंधों को तिलांजलि देता है, तो भगवान उसे गोद में ले लेते हैं। यह स्थिति किसी साधना से नहीं आती; यह केवल भगवान के भरोसे से आती है। जैसे ही उन्होंने यह कदम उठाया, तो श्याम सुंदर उनके मानस पटल पर छा गए। ऐसा नहीं हो सकता कि कोई उनके लिए कदम बढ़ाए और प्रभु उसका साथ न दें। जैसे ही उनके कदम आगे बढ़े, वृंदावन बिहारी ने अपनी रूप माधुरी से उनके मन को आकर्षित कर लिया। प्रभु की शोभा अनोखी है – मोर मुकुट से सजी हुई अद्भुत छवि, घुंघराली अलकों की झलक, चंदन तिलक से सुशोभित ललाट, और कमल की तरह सुंदर नेत्र। ऐसा लगता है जैसे वे यही कह रहे हैं, “तुम्हारे लिए मैं प्रतीक्षा कर रहा था। आओ, मेरे पास कदम बढ़ाओ। मैं तुम्हारे स्वागत के लिए तैयार हूँ।” उनके मन में अलग-अलग तरंगें उठ रही थीं। वो सोच रही थीं कि, “वृंदावन जाऊँगी, मुझे प्रभु मिलेंगे। जब प्रभु मिलेंगे तो दौड़ के उन्हें गले से लगा लूंगी। जब प्रभु मुझे गले लगाएँगे तो मैं उनके चरणों में लोट जाऊँगी।”
करमैती बाई जी की खोज
![करमैती बाई जी की खोज](https://bhajanmarg.com/wp-content/uploads/2025/01/Search-For-Karmaiti-Bai-Begins-1024x576.jpg)
प्रातःकाल करमैती जी का नियम था कि जैसे ही उठतीं, तो प्रभु के मधुर नामों का उच्चारण करतीं। लेकिन आज का दिन कुछ अलग था। उनके कमरे से उनके परिवार के जनों को कोई आवाज़ नहीं आई। जैसे कुछ लोगों की अलार्म की घंटी से नेत्र खुलते हैं, वैसे ही उनकी माँ के नेत्र करमती बाई के नाम कीर्तन से खुलते थे। आज नाम कीर्तन नहीं हुआ। माँ ने सोचा कि रिश्तेदार आए हैं, शायद करमैती जी देर से सोई होंगी। वह कमरे में गईं, लेकिन वहाँ करमैती जी नहीं थीं। अब तो हलचल मच गई। पूरे घर में खोज शुरू हुई, लेकिन करमैती बाई कहीं नहीं मिलीं। माता-पिता को बड़ा दुख हुआ। सबसे बड़ा दुख यह था कि ससुराल वालों को क्या जवाब देंगे। लोग कहेंगे कि लड़की भाग गई। यह समाज में सबसे बड़ा अपमान माना जाता है। उन्होंने जहाँ-तहाँ खोज शुरू की। नगर में दूत दौड़ाए गए। राज पुरोहित होने के कारण सूचना राजा तक पहुँची, और राज सैनिकों को खोज में लगा दिया गया।
करमैती बाई जी छुपीं एक ऊँट के कंकाल में
![करमैती बाई जी छुपीं एक ऊँट के कंकाल में](https://bhajanmarg.com/wp-content/uploads/2025/01/Karmaiti-Bai-Hides-in-the-Skeleton-of-a-Camel-1024x576.jpg)
करमैती बाई ने देखा कि राज सैनिक घोड़ों पर सवार होकर उनकी ओर आ रहे हैं। उन्हें समझ आ गया कि पिताजी ने खोज शुरू कर दी है। अब वह क्या करें? भागने का अवसर नहीं था। तभी उनकी नजर ऊँट के एक कंकाल पर पड़ी। वह कंकाल गिद्धों और सियारों द्वारा खाया हुआ था, पूरी तरह सड़ चुका था, और उससे भारी दुर्गंध आ रही थी। करमैती बाई उसी कंकाल के भीतर छुप गईं। उनके मन में केवल एक ही भाव था—श्रीकृष्ण मिलन की चाह। वह दुर्गंध भी उन्हें प्रिय लगी, क्योंकि उनके हृदय में केवल प्रभु के चिंतन का भाव था। भक्त के लिए ऐसी स्थिति में भी दुःख नहीं होता; उसके लिए नरक भी आनंदमय हो जाता है।
राज सैनिक चारों ओर खोज करते रहे, लेकिन किसी के मन में यह विचार भी नहीं आया कि वह इस कंकाल में हो सकती हैं। तीन दिन और तीन रात तक वह उसी दुर्गंध भरे कंकाल में छुपी रहीं। न कोई दुख, न कोई घृणा, न कोई शंका, और न ही प्रभु से कोई शिकायत। यह प्रेम का नियम है कि प्रेमी कभी अपने प्रीतम पर उंगली नहीं उठाता। वह सोचता है, “हम तो आपके नाम पर निकले हैं। मुझे यहाँ रुकना पड़ा, इसमें भी आपकी लीला है।” चौथे दिन वे ऊंट के कंकाल से निकलीं। उसी समय वहां से तीर्थ यात्रियों का एक दल निकला, जो नाम-कीर्तन कर रहा था। वह उनके पीछे-पीछे चल पड़ीं। वे सब गंगा स्नान के लिए जा रहे थे। गंगा जी की शोभा देखकर करमैती जी भी उनके साथ स्नान करने गईं।
करमैती बाई जी की तपस्या और वैराग्य
![करमैती बाई जी की तपस्या और वैराग्य](https://bhajanmarg.com/wp-content/uploads/2025/01/Karmaiti-Bais-Penance-and-Renunciation-1024x576.jpg)
स्नान के बाद उन्होंने विचार किया, “सोने का हार, अंगूठी, कंगन—ये सब भगवद् मार्ग के पथिक को शोभा नहीं देते।” उन्होंने अपने कीमती आभूषण ब्राह्मणों और पुरोहितों को दान कर दिए। अब वे वृंदावन जाने का विचार करने लगीं। गंगा स्नान के बाद वे पूछते-पूछते वृंदावन धाम की यात्रा पर निकल पड़ीं। वहाँ उन्होंने अपने कपड़े भी त्याग दिए। वृंदावन में उन्होंने वटवृक्ष के पत्तों से अपना शरीर ढक लिया और पूरे शरीर पर गीली मिट्टी का लेप कर लिया। यह गजब का वैराग्य था। वे दिन-रात भजन में लीन हो गईं। उस समय वृंदावन का वास अत्यंत कठिन था। जंगलों में सिंह, भेड़िये, चीते, सांप-बिच्छू जैसे जीव घूमते थे। कोई आधुनिक सुविधाएं नहीं थीं, और केवल सच्चे भगवद्-प्रेमी ही वृंदावन में रह सकते थे।
करमैती बाई जी के पिता निकले उन्हें ढूँढने
![करमैती बाई जी के पिता निकले उन्हें ढूँढने](https://bhajanmarg.com/wp-content/uploads/2025/01/Karmaiti-Bais-Father-Sets-Out-to-Find-Her-1024x576.jpg)
करमैती बाई के पिता परशुराम जी ने सोचा कि श्रीकृष्ण की रूप माधुरी की चर्चा सुनकर शायद करमैती जी का हृदय विकल हो उठा होगा और शायद वो वृंदावन चली गई हों। उन्होंने तय किया कि वे उन्हें ढूँढने वृंदावन जाएँगे। वृंदावन पहुंचकर उन्हें पता चला कि एक नवयुवती, जो अत्यंत वैराग्यपूर्ण जीवन जी रही थी, वहाँ तपस्या में लीन थी। उन्हें लगा कि वह उनकी ही बेटी हो सकती है। वे एक वटवृक्ष पर चढ़ गए और उन्होंने वहाँ से देखा कि ब्रह्मकुंड पर कोई गहन ध्यान में बैठा है। उनकी आंखें बंद थीं, और उनसे अश्रु धारा प्रवाहित हो रही थी। भूमि भी उन आंसुओं से गीली हो चुकी थी। यह देख परशुराम जी का हृदय भर आया। उनसे रहा नहीं गया, और वे चिल्लाकर रो पड़े। वे वृक्ष से नीचे उतरकर आए और थोड़ी देर बैठे रहे, यह सोचकर कि शायद उनकी आंखें खुल जाएं। उन्होंने जब देखा कि करमैती बाई की आंखें नहीं खुल रहीं, तो वे उनके चरणों में लिपट गए।
करमैती बाई जी के पिता का मोह
![करमैती बाई जी के पिता का मोह](https://bhajanmarg.com/wp-content/uploads/2025/01/Karmaiti-Bais-Fathers-Attachment-1024x576.jpg)
करमैती बाई के पिता न केवल बड़े विद्वान थे, बल्कि भक्त भी थे। इतने बड़े विद्वान होने के बावजूद पिता के मन में लोकलाज का इतना प्रभाव था कि उन्होंने करमैती जी के चरणों में गिरकर कहा, “तुमने हमारी नाक कटवा दी। हम राजपुरोहित हैं, जो लोग हमारे सामने दंडवत करते थे, अब वही हमारी निंदा कर रहे हैं। तुम मेरे साथ वापस चलो ताकि हमारा लोक उपहास मिटे। अगर तुम्हारा ससुराल जाने का मन नहीं है तो मत जाओ। घर पर रहो, ठाकुर जी की सेवा करो। यह जंगल है, यहां सिंह और व्याघ्र तुम्हारे शरीर को नष्ट कर सकते हैं। मुझे तुम्हारी सुरक्षा की चिंता है।
करमैती बाई जी का अपने पिता को उपदेश
![करमैती बाई जी का अपने पिता को उपदेश](https://bhajanmarg.com/wp-content/uploads/2025/01/Karmaiti-Bais-Advice-to-Her-Father-1024x575.webp)
करमैती जी ने उत्तर दिया, “पिताजी, आपकी बात सत्य है। जिसका प्रभु से अपनापन नहीं है, उसकी तो नाक पहले ही कट चुकी है। वह जीवित होकर भी मृतक के समान है। हरि भक्ति से रहित व्यक्ति का जीवन व्यर्थ है। मैं अब संसार के लोकाचार से ऊपर उठ चुकी हूँ। जिस पर श्याम सुंदर का रंग चढ़ गया, उस पर कोई और रंग नहीं चढ़ सकता। आप भी प्रभु का यशगान करें, उनका नाम कीर्तन करें। इस लोकलाज को छोड़ दें।”
करमैती जी ने आगे कहा, “आप विचार कीजिए, आपको पचास वर्ष हो गए भोगों को भोगते हुए। क्या आपको अब तक इनसे अरुचि हुई? क्या आपको उस घर से, उस सम्मान और प्रतिष्ठा से वैराग्य नहीं हुआ? बार-बार भोगे हुए विषयों को भोगने की इच्छा और उनका उपभोग करना क्या किसी ज्ञानी का लक्षण है? मैंने तो सब भोगों को देखा है। भोगा नहीं। अब तो देखने की भी इच्छा नहीं रही। मैंने केवल श्याम सुंदर के दर्शन का संकल्प किया है। आप सभी कर्मों को छोड़कर प्रभु के आश्रित हो जाइए। तन, मन, और धन को ठाकुर जी की सेवा में समर्पित कर दीजिए।”
करमैती बाई जी के पिता का परिवर्तन
![करमैती बाई जी के पिता का परिवर्तन](https://bhajanmarg.com/wp-content/uploads/2025/01/Transformation-of-Karmaiti-Bais-Father-1024x576.jpg)
करमैती बाई के वचन सुनकर उनके पिता के मोह जनित अज्ञान का नाश हुआ। उनका भ्रम समाप्त हो गया। एक दिन यमुना स्नान के दौरान, करमैती बाई को श्री कृष्ण की एक मूर्ति मिली थी, जिसे उन्होंने छिपा दिया था। वह मूर्ति उन्होंने अपने पिता को दी और उसे वापस ले जाकर घर में विराजमान करने को कहा। उन्होंने कहा, “यह साक्षात श्रीकृष्ण हैं। इनकी सेवा में तन्मय हो जाओ। निर्विकार बनो और अपने तन-मन को प्रभु के चरणारविंद में लगाकर केवल उनके चिंतन में समय व्यतीत करो।”
करमैती बाई के दर्शन और कृपा से उनके पिता का चित्त संसार से हटकर प्रभु के चरणों में लग गया। उन्होंने राजदरबार जाना और संसारिक चर्चाएँ करना छोड़ दिया। जब राजा ने उन्हें बुलाने का प्रयास किया, तो उन्होंने स्पष्ट उत्तर दिया, “अब हमें एक ऐसा दरबार मिल गया है, जहाँ से सब कुछ संचालित होता है। हमें किसी अन्य दरबार में जाने की आवश्यकता नहीं है।” राजा स्वयं चलकर उनके पास आया और जब उन्हें प्रभु की सेवा में मग्न देखा, तो साष्टांग प्रणाम किया। राजा ने कहा, “आपको कभी दरबार आने की आवश्यकता नहीं है। आपको धन और जरूरत की सब चीज़ें समय पर यहाँ पहुँचा दी जाएँगी।”
करमैती बाई ने प्रभु श्रीकृष्ण के चिंतन में तन्मय होकर वृंदावन में अपने शरीर का त्याग किया और उनकी नित्य सेवा में पहुँच गईं। ऐसा भक्त सभी योगियों, ज्ञानियों, तपस्वियों और कर्मकांडियों में श्रेष्ठ होता है, जो केवल प्रभु से प्रेम करता है, केवल प्रभु के लिए जीता है, और केवल प्रभु का भरोसा करता है। यहाँ अनन्यता शब्द का महत्व है। भरोसा केवल प्रभु का होना चाहिए, किसी और का नहीं।
करमैती बाई के जीवन से हमारे लिए सीख
हमने बहुत से जन्म अपनी मनमानी में व्यतीत कर दिए। अब जितना समय बचा है, उसे प्रभु को ईमानदारी से दे दो। हमने आज तक सुखी होने के लिए अलग-अलग खेल खेले: कभी परिवार में आसक्त होकर हमने पूरा जीवन बर्बाद कर दिया, कभी धन में, कभी किसी नशे में और कभी गंदे आचरणों में। हमारे कई जन्म ऐसे ही चले गए। एक जन्म यह खेल भी खेल के देख लो। जितना जीवन बचा हो, उसे केवल प्रभु के अनन्य और आश्रित होकर, उन्हें समर्पित कर दो। निहाल हो जाओगे।
लेकिन आपको भगवद् आश्रित तभी माना जाएगा जब केवल प्रभु का चिंतन, प्रभु का नाम जप, प्रभु के रूप का ध्यान, प्रभु की लीला गायन और प्रभु का धाम आपके जीवन का आधार बन जाए। यही जीवन की परम सार्थकता है।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज