एक महात्मा थे, उन्हें मोहरें और अशर्फ़ियाँ भेंट में मिलती थीं। सिद्धांत के अनुसार वैरागी के लिए धन और संपत्ति का संग्रह करना उचित नहीं है। जब चार-पाँच मोहरें इकट्ठा हो गईं तो उन्होंने विचार किया कि जब बहुत मोहरें इकट्ठा हो जायेंगी तो वो प्रयागराज के कुंभ में संतों के लिए भंडारा आयोजित करेंगे। मोहरें इकट्ठी करने के लिए महात्मा ने एक बड़ा सा डंडा बनवाया जो ऊपर से चूड़ीदार था लेकिन भीतर से ख़ाली था। वो उसके अंदर मोहरें डाल कर रखने लगे। अब वो जब भी श्रद्धालु जनों के पास जाते तो अंदर इच्छा रखते कि दक्षिणा में एक मोहर तो मिल ही जाएगी। कामना कोई भी हो, बांधने वाली होती है। इसलिए कोई चाह नहीं रखनी चाहिए। अपनी चाह प्रभु की चाह में मिला देनी चाहिए।
धीरे-धीरे वो छड़ी मोहरों से भर गई। महात्मा अब प्रयागराज के कुंभ का इंतज़ार करने लगे। वह भ्रमण करते हुए एक गाँव में पहुँचे तो लोगों के कहने पर एक संत सेवी परिवार के घर चल दिये। उन पति-पत्नी ने महात्मा की खूब सेवा की, हलवा पूड़ी आदि खिलाया और उनके चरण दबाने लगे। सेवा करते-करते उनकी नज़र महात्मा के डंडे पर पड़ी जिस के ऊपर चूड़ी लगी हुई थी। महात्मा जी जब सो गये तो पति-पत्नी ने महात्मा जी का डंडा उठा लिया। ज्यों ही चूड़ी खोल कर पलटाया तो उस में से सैंकड़ों मोहरें निकल आईं। मोहरें देखकर उन दोनों के हृदय में लालच आ गई। पति ने पत्नी से कहा कि मोहरों के वज़न के बराबर नाप के कंकड़ ले आओ। रात में महात्मा जी जब सो रहे थे तो दोनों ने मिलकर डंडे के अंदर कंकड़ भर दिये और सारी मोहरें अपने पास रख लीं।
उन पति-पत्नी की कोई संतान नहीं थी पर उन्हें धन से बड़ा लगाव था। छल कपट से किसी संत का धन लेने से आपका विनाश हो जायेगा। यह कर्म बहुत भयंकर होता है। यह बात शायद उन्हें ज्ञात नहीं थी या लोभ वश धन चुराने के लिए उन्होंने ये कुकर्म कर दिया।
प्रयाग में भंडारे का आयोजन और महात्मा का श्राप
महात्मा जी अगले दिन उठे और उस डंडे का वज़न सही जान कर ऐसे ही साथ ले गये। प्रयागराज पहुँचकर महात्मा एक अखाड़े में रुके और वहाँ के महंत को प्रार्थना की कि कल के भोग का निमंत्रण संपूर्ण अखाड़ों को भेजा जाये और सब को दक्षिणा भी दी जाये। महंत ने हैरान होते हुए कहा कि “महाराज जी! इस में बहुत खर्चा होगा क्योंकि प्रयागराज में हज़ारों की संख्या में संत जन पधारें हैं। हो सके तो कुछ धन पहले दे दीजिए ताकि हम तैयारी कर सकें।” महात्मा ने अपने डंडे की सुरक्षा करने के लिए कहा कि मेरे पास धन की पूरी व्यवस्था है और मैं भंडारे के अंत में सब आपको दे दूँगा।
महंत अपने पास से धन लगाकर सब सामग्री आदि लाये और उन्होंने सब संत जनों को निमंत्रित कर दिया। जब भंडारा बनने लगा तो वो महात्मा के पास आये और बोले कि अब आप आगे की व्यवस्था के लिए कुछ धन दे दीजिए। भंडारा बन रहा है और संत जन भी निमंत्रित हैं, पर आगे के लिए हमारी इतनी सामर्थ्य नहीं है कि हम सब खर्च उठा सकें।
महात्मा अपना डंडा उठाकर लाये और कहने लगे आपको विश्वास नहीं है तो ये देखिए। कहते-कहते जैसे ही उन्होंने चूड़ी खोलकर डंडे को पलटाया तो अंदर से कंकड़ निकल कर गिरने लगे। महात्मा जी को मोहरों की जगह कंकड़ देख कर सदमा सा लग गया। महंत भी अचंभित होकर कहने लगे “महाराज! आपने तो हमारा नाश ही कर दिया। रसोई बन गई, इतने संत निमंत्रित हैं और आप ये कंकड़ दिखा रहे हैं। हम बर्बाद हो गये। संत होकर इतना छल कपट।”
महात्मा बोलते भी तो क्या!
अंदर से उन महात्मा का चिंतन उन्हीं पति-पत्नी की तरफ़ गया और मुँह से निकला कि “ऐसा धोखा मेरे साथ किया, भोगोगे तुम”। किसी भी जीव को आप कष्ट दें और उसके हृदय से आह निकले तो वो अकाट्य होता है और भोगना ही पड़ता है। महात्मा बहुत आहत हुए और सोचने लगे कि अब सब संत जनों के सामने कल कैसे मुँह दिखायेंगे। यही सोचते हुए वो प्रयाग में स्थित संगम के पास गये और उस में छलांग लगा कर उन्होंने अपने प्राण त्याग दिये।
पति-पत्नी को मिला कर्मों का दंड
इधर उस पति-पत्नी के पास मोहरों से धन संपत्ति थी ही तो उनका व्यापार और बढ़ा। साथ ही कुछ समय बाद उनके यहाँ एक पुत्र ने भी जन्म ले लिया। उनको लगा कि संत सेवा फलीभूत हो गई जो पुत्र भी मिला और इतना धन ऐश्वर्य भी आने लगा। यही सोच दोनों आनंदित होने लगे और पुत्र को बढ़ा करने में लग गये। कुछ समय बाद उस पुत्र को एक बीमारी हुई और उनका बहुत सारा धन उसके इलाज में जाने लगा। दोनों पति-पत्नी पुत्र मोह में इतने आसक्त थे कि उसके लिए कुछ भी कर सकते थे। धीरे-धीरे उनका व्यापार भी ठप्प होने लगा, सारी संपत्ति बिकने लगी पर पुत्र की बीमारी और बिगड़ती गई। उन्होंने हताश होते हुए पूछा कि “बेटा अब हम तुम्हारे लिए क्या कर सकते हैं? अब तो ज़्यादा संपत्ति भी नहीं रह गई”। उसने उत्तर दिया कि “ मेरी अंतिम इच्छा है प्रयाग चलो और वहाँ जितने भी संत जन हैं उनके लिए भंडारा करवाओ। मुझे लगता है मैं अब बचूँगा नहीं। संपत्ति नहीं है तो घर बेच दो, मेरे लिए ही तो है। पर मेरी अंतिम इच्छा पूरी करो।”
पति पत्नी ने घर बेच दिया और पुत्र को लेकर प्रयाग चल दिये। वहाँ जाकर उन्होंने संत सेवा की और सब के लिए भंडारा करवाया। सब होने के बाद पुत्र ने कहा अब मुझे संगम तक ले चलो। जब वहाँ ले गये तो पुत्र के रूप में महात्मा ने अपनी पहचान कराते हुए याद दिलाया कि “समझे? तुमने जो मुझसे धन चुराया था अब मैंने वो वापिस छीन लिया है। मैं वही महात्मा हूँ जिसकी तुमने मोहरें चुराई थीं। तुम्हारे पास कुछ नहीं रह गया, अब केवल ममता और आसक्ति में जलकर मरो और नर्क प्राप्त करो”। ये कहते ही उस पुत्र रूपी महात्मा ने शरीर छोड़ दिया।
सार बात
महात्मा को दोबारा जन्म लेना पड़ा और पति पत्नी को दुर्गति भोगनी पड़ी। ऐसा नहीं है कि आप जो कर रहे हैं उसे कोई देख नहीं रहा या उसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। इसलिए बहुत सावधान रहना चाहिए। “अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ” – किया हुआ शुभ और अशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पड़ेगा। अनेक जन्मों में अनेक लोगों से जो कुछ लिया-दिया है, इस लेन-देन को मिटाने के बाद ही इंसान मुक्त हो सकता है। इसलिए इससे बचने का एक ही उपाय है – भगवान को समर्पित हो जाएँ और आपने जो भी इस संसार में अपना माना है वो सब उनको समर्पित कर दें। इसके बारे में प्रभु भगवद् गीता में कहते हैं – “अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:” – मेरी शरण ग्रहण करो, मैं तुम्हें समस्त पाप कर्मों की प्रतिक्रियाओं से मुक्त कर दूंगा, डरो मत। इसके बाद मनुष्य सब तरह के ऋणों से मुक्त हो जाता है।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज