आप कुछ क्यों बनना चाहते हैं? सब कुछ क्यों नहीं? छोटी कामना क्यों करें? माँगना ही है तो कुछ ऐसा माँगो कि दोबारा माँगना न पड़े। यह माँग सिर्फ़ प्रभु से होनी चाहिए कि प्रभु, मैं आपका हो जाऊँ; आप मेरे प्रिय बनें। आपके सिवा मेरा कोई नहीं है। हे प्रभु, संसार में आप मुझसे जैसा करवाना चाहते हैं वैसा करवाते रहें, जो पद या प्रतिष्ठा देना है, दीजिए पर इस सब में मेरा कोई महत्त्व नहीं है। इसलिए हम केवल प्रभु की तरफ़ प्रयत्न करें और वे हमें हमारे अनुसार सही स्थान पर पहुँचा देंगे। अगर प्रभु आपको कोई पद देना चाहें तो वह आपको उसके अनुसार विवेक और सामर्थ्य दे देंगे। किन्तु आपका लक्ष्य प्रभु होने चाहिए, आपकी विश्राम स्थली प्रभु हों, कोई पद या प्रतिष्ठा नहीं।
हरिदास से बढ़कर कोई पद है?
उसे ब्रह्मा का भी पद बहुत बुरा लगने लगता है जिसको हरिदास पद का परिचय प्राप्त हो जाता है। हमें शास्त्रों से सही सिद्धांत का ज्ञान होता है। शास्त्रों के अनुसार भगवान का अनुरागी भक्त, न तो ब्रह्मा के पद की आकांक्षा करता है, न देवराज इंद्र के पद की, न सिद्धियों की और न मोक्ष की। जो प्रभु के चरणों के दासत्व भाव से युक्त हो गया है, वही सबसे बड़े पद पर है।
संसार द्वंद्व युक्त है
जब आपकी बुद्धि थोड़ी पवित्र होगी, तब आप देखेंगे कि संसार में कितना दुःख है। किसी के पास बहुत अच्छी भोजन की सामग्री है, लेकिन उसे भूख नहीं है। किसी के पास आराम से सोने की व्यवस्था है, लेकिन नींद नहीं है। कोई बाहर से सुखी दिखाई देते हुए अंदर से अनेक कारणों से दुःखी है। कोई चैन से सोने के लिए दवा ले रहा है। कोई रिलैक्स होने के लिए गंदी फ़िल्मों, गंदी बातों और गलत आदतों आदि का सहारा ले रहा है। बहुत सुंदर भोग सामग्रियाँ हैं, इंद्रियाँ बहुत पुष्ट हैं, लेकिन फिर भी आज सबका मन अशांत है, क्लेशित है, और कई लोग डिप्रेशन में भी हैं।
अंदर से प्रभु के चरणों का संबंध रखकर, बाहर से जो भी कार्य करें उसे प्रभु की सेवा मानकर करें। यह संसार बदलता रहता है। अगर आप यह लक्ष्य रखेंगे कि संसार का जीवन सुखमय व्यतीत हो, सम्मान में व्यतीत हो, तो ये कभी नहीं हो सकता। अगर हम संसार को लक्ष्य बनाते हैं तो हमें सुख-दुःख, लाभ-हानि, उन्नति-अवनति आदि भोगना पड़ेगा। और जो इन द्वंदों में फँस जाता है, उसे शांति नहीं प्राप्त होती।
प्रभु को लक्ष्य बनाने वाला ही शांति प्राप्त कर सकता है
सबको सुख पहुँचाने की चाह करें और उसका फल माँगें कि प्रभु आपसे प्रसन्न हो जाएँ। हमारा व्यापार, हमारी नौकरी और जो भी कार्य है, वह सब ठाकुर जी का ही है। पूरी सृष्टि ठाकुर जी की है, तो हमें जो भी सेवा मिली है, वह भी प्रभु के द्वारा ही दी गई है। हमें ईमानदारी से उस सेवा को पूरा करना है। श्री सदन कसाई जी मांस बेचते थे, फिर भी शास्त्रों में उनका वर्णन एक महान भक्त के रूप में हुआ है। वह जो भी करते थे वह प्रभु के बनके करते थे। वह अपनी कुल परंपरा का व्यापार कर रहे थे, किंतु उनका लक्ष्य प्रभु थे। वे बड़े-बड़े ज्ञानियों को भी उपदेश देने में समर्थ थे। दुर्भाग्य है कि हमारा लक्ष्य संसार है। कुछ लोग ठाकुर जी की सेवा भी संसार की वस्तुएँ प्राप्त करने के लिए ही करते हैं, स्वयं प्रभु को नहीं।
सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए आपको सुख की आशा छोड़नी पड़ेगी। यह सूत्र समझना काफी कठिन है। आशा अगर प्रभु की है तो आपका जीवन सुखमय हो जाएगा। संसार में अधिकतर लोग सुखमय जीवन व्यतीत करने के लिए विषयों को अपना लक्ष्य बनाते हैं। “आशा हि परमं दुःखं, नैराश्यं परमं सुखम्।” – इसी वजह से सुख कहीं खोजने पर भी नहीं मिल रहा।
अगर आप यह निश्चय करेंगे कि कुछ भी हो मुझे प्रभु चाहिए, तो निश्चित ही आपका जीवन सुखमय, शांतिमय और आनंदमय हो जाएगा। परिस्थिति कुछ भी हो, आपके जीवन में आनंद की कमी नहीं होगी। क्योंकि लक्ष्मी जिनकी दासी हैं, उन प्रभु को आपने अपना स्वामी मान लिया है। अब सब सिद्धियाँ और सब ग्रह आपके पक्ष में हो जाएँगे। वह आपका अमंगल नहीं करेंगे। आपका हर काम मंगलमय होगा। भक्त के आसपास भगवद् कृपा का घेरा होता है।
तब लगि कुसल न जीव कहुँ, सपनेहुँ मन बिश्राम।
गोस्वामी श्री तुलसीदास जी, दोहावली
जब लगि भजत न राम कहुँ, सोक धाम तजि काम॥
अर्थ: जब तक यह जीव शोक के घर काम वासना को त्यागकर श्री राम को नहीं भजता,
तब तक उसके लिए न तो कुशल है और न स्वप्न में भी उसके मन को शांति मिलती है।
चाहे जितनी परिस्थिति बिगड़ी हो, लेकिन यदि मंद-मंद मुस्कुराते हुए ठाकुर जी के चरणों का आश्रय है तो हृदय उत्साह और आनंद से भर जाता है। प्यार में एक अलबेली मस्ती होती है। उसमें फिर शिकवा-शिकायत सब बह जाते हैं। फिर वह व्यक्ति हर समय आनंद-मग्न रहता है।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद जी महाराज