जड़ भरत जी की कहानी — मृग में आसक्ति के कारण राजा को लेने पड़े दो पुनर्जन्म

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
जड़ भरत की कहानी
इस ब्लॉग को ऑडियो रूप में सुनें

चक्रवर्ती सम्राट महाराज भरत जी भगवान ऋषभदेव जी के ज्येष्ठ पुत्र थे। भगवान ऋषभदेव ने संकल्प मात्र से भरत जी को पृथ्वी की रक्षा करने की सामर्थ्य प्रदान कर राजा के पद पर आसीन किया था। भरत जी का विवाह विश्वरूप की कन्या पंचजनी से हुआ। पंचजनी और भरत जी के पाँच पुत्र हुए, जो सभी भरत जी के समान ही थे। जिस भूभाग का नाम पहले ‘अजनाभवर्ष’ था, वह भरत जी के नाम पर ‘भारतवर्ष’ कहलाया। भरत जी जब राजा बने, तब उनके नाम से ही इस देश का नाम भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ।

महाराज भरत स्वभाव से ही भगवत-भजन परायण, नीति-ज्ञान संपन्न और अपने पितामहों की भाँति राज्य संचालन में निपुण थे। उन्होंने बड़े वात्सल्य भाव से प्रजा का पालन किया और अनेक यज्ञों का अनुष्ठान भी किया। जब वे भगवान के लिए यज्ञ करते थे, तो भाव में इस प्रकार तन्मय हो जाते कि उनके ध्यान में भगवान हर समय उपस्थित रहते। ऐसा प्रतीत होता जैसे भगवान उनके सामने ही विराजमान हैं। उनकी भक्ति दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी।

जड़ भरत ने अपना साम्राज्य छोड़ा

एक करोड़ वर्ष तक स्वस्थ रहकर उन्होंने राज्य किया। फिर उनके मन में राज्य के प्रति वैराग्य उत्पन्न हुआ और वे केवल भगवान का भजन करना चाहते थे। उन्होंने अपने सभी पुत्रों को यथायोग्य राज्य और संपत्ति देकर राजमहल से निकलकर पुलहाश्रम में भजन करने का दृढ़ निश्चय किया।

वैराग्य की ओर अग्रसर

जड़ भरत की तपस्या

वहाँ गंडकी नदी बहती है, जिसमें शालिग्राम भगवान प्रकट होते हैं। वह एक अत्यंत पवित्र नदी है। वहाँ पुलहाश्रम में अनेक ऋषियों के आश्रम हैं। भरत जी वहीं एकांत में रहने लगे और जंगली पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल, कंद और मूल फल आदि से भगवान की आराधना करने लगे। अब तो भजन में उन्हें इतना आनंद प्राप्त होने लगा कि उन्हें यह भी स्मरण नहीं रहा कि वे कभी राजा थे। उनके हृदय में एकमात्र भगवान की सेवा की लगन रह गई थी। वे रोमांचित हो जाते, आंखों से अश्रु बहते और हृदय प्रेम से द्रवित हो उठता। उनका शरीर पुलकित हो उठता, गला रुंध जाता, आंखों में आंसू भर आते। भगवान के चरणारविंद का ध्यान करते हुए वे आनंद में लीन हो जाते। वे त्रिकाल स्नान करते — प्रातः, दोपहर और संध्या तीनों समय। गंडकी नदी में स्नान करते समय वे शरीर पर कृष्णमृग चर्म धारण करते। वे तीन मुहूर्त तक जल में खड़े होकर जप करते, जिससे साधना में विशेष प्रभाव उत्पन्न होता।

भरत जी की भक्ति में बाधक बना हिरण शावक

एक दिन वे नदी में स्नान कर रहे थे और तीन मुहूर्त तक जल में खड़े होकर जप कर रहे थे। उसी समय एक गर्भवती हरिणी प्यास से व्याकुल होकर जल पीने आई। तभी एक भीषण सिंह की गर्जना सुनाई दी। डर के मारे वह हरिणी उछलकर छलांग लगाने लगी, जिससे उसका गर्भ नदी की धारा में गिर गया और वह स्वयं भी मर गई। भरत जी ने यह सब देखा और तुरंत अपने मंत्र-जप को छोड़कर उस मृग-शावक को अपनी गोद में उठा लिया और अपनी कुटिया में ले आए। शावक छोटा और कोमल था, उसे देखकर उन्हें अत्यंत वात्सल्य और स्नेह अनुभव हुआ।

जड़ भारत की हिरण से आसक्ति

अब धीरे-धीरे उनका मन उसी मृग-शावक में रमने लगा। वे उसे गोदी में रखकर, सीने से लगाकर, चूमते और दुलार करते। हरिण के शावक के लिए हरी घास लाते, उसे भोजन कराते और हर समय उसके आसपास रहते। भगवान का चिंतन और नियम-निष्ठा धीरे-धीरे छूटने लगी। भरत जी सोचने लगे, “यह मुझ पर पूरी तरह निर्भर है। मैं ही इसका माता, पिता, बंधु, संगी हूं। यह मुझसे अत्यधिक स्नेह करता है।” अब वे हरिण के बच्चे को अपने कंधे पर बिठाकर घूमते, घास खिलाते और प्रेम से उसका पालन करते। यहां तक कि स्नान करते समय भी वे उसे गोदी में लेकर डुबकी लगाते।

मोह के कारण भरत जी की साधना का पतन

जब कभी वह मृग शावक उनसे दूर चला जाता, तो भरत जी अत्यंत व्याकुल हो जाते। वे रोने लगते, ईश्वर से प्रार्थना करते कि “हे प्रभु! मेरे उस शावक की रक्षा करना। कहीं भेड़िया या अन्य हिंसक पशु उसे न खा जाए।” उनका चित्त भगवान की बजाय अब उस शावक में पूरी तरह रम गया। यह अत्यंत आश्चर्य की बात थी कि जिसके लिए उन्होंने राज्य, परिवार, पुत्रों और भोगों का त्याग किया, उसी भगवद्भजन से अब उनका चित्त हट गया। उनका चित्त व्याकुल हो गया। मृग शावक के प्रति इतना प्रेम हो गया कि प्रारब्ध में ही मृग शावक आ गया। हिरण शावक के कारण उनकी भगवत आराधना, योग-अनुष्ठान—सब कुछ व्यर्थ हो गया। उसी का चिंतन, उसी की स्मृति। एक हिरण के शिशु ने महान योगनिष्ठा को गिरा दिया।

जड़ भरत जी की भक्ति में बाधक बना हिरण शावक

जिन्होंने भगवान की प्राप्ति के लिए पुत्र, पत्नी आदि के मोह का त्याग किया, वे भरत जी एक मृग में आसक्त हो गए। राजर्षि भरत हिरण रूपी विघ्न के वशीभूत होकर भगवतयोग से भ्रष्ट हो गए। जब मृत्यु समीप आई—तब उनके सामने वह मृग शावक था। भरत जी की दृष्टि उसी पर लगी थी, चित्त उसी में लगा था। वे सोच रहे थे—”मेरे बाद इसका पालन कौन करेगा? इसे दुलार कौन देगा?” और इसी चिंतन में उन्होंने शरीर त्याग दिया। मरण के समय जैसी भावना, वैसा ही अगला जन्म—भरत जी की मृत्यु एक सामान्य पुरुष जैसी हो गई। और उसी भाव के कारण, उन्होंने मृग शरीर को प्राप्त किया।

जड़ भारत की मृत्यु और हिरण के रूप में जन्म

भरत जी को मृग देह में भी भगवत्स्मरण रहा

जड़ भारत का हिरण के शरीर में पुनर्जन्म

भगवत भजन कभी व्यर्थ नहीं जाता। इसलिए मृग शरीर में भी उन्हें अपने पूर्वजन्म की स्मृति रही। उन्होंने बहुत पश्चाताप किया— “मैं महाराज भरत, जो भगवत आराधना में लीन था, वह एक मृग शिशु की आसक्ति के कारण मृग बन गया!” उस पश्चाताप में उन्होंने संकल्प किया—अब किसी भी वस्तु में आसक्ति नहीं होगी। मृग शरीर में रहते हुए भी वे गंडकी नदी के किनारे भजन करते, सूखी घास खाते, ताकि दुबारा आसक्ति न हो जाए। और फिर एक दिन उस मृग शरीर का परित्याग हुआ। उसी पुण्य के प्रभाव से भरत जी को अगले जन्म में “जड़ भरत” रूप में मनुष्य शरीर प्राप्त हुआ।

भरत जी का जड़ भरत के रूप में पुनर्जन्म

भरत जी का जन्म एक अत्यंत तपस्वी ब्रह्मर्षि के घर हुआ। उनका नाम ‘जड़ भरत’ पड़ा। वे समस्त ब्राह्मण गुणों से सम्पन्न एक महान कुल में उत्पन्न हुए। महाराज भरत, जो पूर्वजन्म में मृग देह में थे, इस जन्म में एक ब्रह्मबोध-संपन्न महापुरुष के रूप में जन्मे। उन्हें इस जन्म में कोई विशेष अध्ययन की आवश्यकता नहीं पड़ी, क्योंकि मृग देह में ही उनका भजन पूर्ण हो गया था। यद्यपि सामान्यतः पशु देह में भजन नहीं होता, किन्तु भरत जी ने राजर्षि रूप में जो भजन और परहित के लिए जीवन अर्पण किया था, उसी पुण्य प्रभाव से मृग देह में भी भजन और पूर्वस्मृति बनी रही। परिणामस्वरूप, इस जन्म में भी उन्हें पूर्ण स्मरण था कि “मैं राजर्षि भरत था, मुझसे एक चूक हुई और मैं मृग बना, अब ब्रह्मर्षि के कुल में जन्मा हूँ।”

वैराग्य की रक्षा हेतु जड़ भरत का पागल जैसा आचरण

जड़ भरत का तिरस्कार

पूर्वजन्म की स्मृति होने के कारण वे किसी भी विघ्न से बचने हेतु पागल जैसी वृत्ति अपनाते। बाल्यकाल से ही उनका संपूर्ण जीवन भगवद्भक्ति में लीन था। होंठ बंद, पागलों जैसी चेष्टाएँ, बस श्रीभगवान के चरणों का स्मरण – सब कुछ ऐसे करते कि कोई उन पर स्नेह न करे, कोई अपनापन ना दिखाए। उनके पिता उन्हें अत्यंत प्रेम करते थे, क्योंकि वे जान गए थे कि यह कोई साधारण बालक नहीं, ब्रह्मबोध संपन्न महापुरुष है। किन्तु अन्य लोग उन्हें पागल मानते। उनके पिता ने उन्हें बार-बार समझाया और व्रत-नियम आदि सिखाने का प्रयास किया, पर भरत जी हर उपदेश के विपरीत आचरण करते। क्यों? ताकि न पिता को मुझसे आसक्ति हो और न मुझे उनसे।

गायत्री मंत्र सिखाने का भी प्रयास किया गया, पर चार महीने तक उन्हें एक भी छंद याद नहीं हुआ। बसंत, ग्रीष्म, वर्षा—हर ऋतु में प्रयास किया गया, किन्तु भरत जी पागलों जैसी चेष्टाओं में लगे रहते। पिता को गहरा दुःख हुआ कि मेरा पुत्र पागल है, फिर भी उन्हें यह भी आभास था कि यह बालक कुल को पवित्र कर देगा। पिता के स्वर्गवास के बाद भरत जी पूर्णतः स्वतंत्र हो गए। उनके अलावा कोई उन्हें प्रेम नहीं करता था—पिता ही थे जो प्यार करते थे। अब उनकी मां की भी मृत्यु हो गईं। उनके भाई उन्हें मूर्ख और पागल समझते थे, जबकि वे सिद्ध महापुरुष थे। इस अज्ञानता के कारण भाई उन्हें अपमानित करते, बासी खाना देते, पशुओं की भांति व्यवहार करते।

जड़ भरत का तिरस्कार और सेवा कार्य

कोई उन्हें काम पर लगा देता, कोई अपमान करता, कोई मारता, कोई थूक देता—किन्तु भरत जी को मान-अपमान का कोई भाव नहीं रहता, क्योंकि उनका देहाभिमान पूर्णतः नष्ट हो चुका था। वे आत्मबोध की परा स्थिति में स्थित थे। भरत जी जानबूझकर वही चेष्टाएँ करते जिससे लोग उन्हें मूर्ख, पागल समझें। कोई उन्हें मजदूरी में लगाता, चारा कटवाता, गोबर फिंकवाता, और अंत में जला-भुना बासी अन्न उन्हें खाने के लिए दे देता। वे कभी न स्नान करते, न वस्त्र बदलते, न हाथ-मुंह धोते—सभी ऋतुओं में खुले शरीर विचरण करते। उनका शरीर अत्यंत पुष्ट, हष्ट-पुष्ट था, किंतु किसी प्रकार की आसक्ति नहीं थी—न स्वाद की, न सम्मान की। ब्रह्मज्ञान की पराकाष्ठा पर स्थित, वे केवल दो वस्त्रों में रहते—एक मैला यज्ञोपवीत और एक वस्त्र कमर पर। बाहर से जो लोग देखते, वे यही समझते कि यह पागल है। कोई काम कराता, कोई गाली देता, लेकिन भरत जी शांति से सब स्वीकार करते।

वैराग्य की रक्षा हेतु जड़ भरत का पागल जैसा आचरण

जब उनके भाइयों ने देखा कि लोग इन्हें मजदूरी कराकर भोजन दे देते हैं, तो उन्होंने बुलाया और कहा, “चलो, खेत में काम करो।” उन्होंने इन्हें खुदाई करने को कहा—”पूरा खेत समतल करना है।” परंतु भरत जी खुदाई कुछ इस तरह करने लगे कि जहां जमीन समतल होनी थी, वहां कुएं जैसा गड्ढा बना दिया, और जहां खुदाई जरूरी नहीं थी, वहां खोदते चले गए। क्योंकि उन्हें पता नहीं चलना चाहिए था कि यह व्यक्ति बुद्धिमान है। सबको यही लगे कि वह पागल ही है। क्यारियों को ठीक करने की बजाय उन्होंने सभी क्यारियों में कुएं जैसी खुदाई कर दी। भाई उन्हें डांटते, धक्का मारते। भोजन में भी उन्हें कुछ नहीं देते—सिर्फ सूखी भूसी, घुने हुए उड़द और चावल की कनकी। ऐसा भोजन जैसे जानवरों को दिया जाता है। या फिर पके हुए अन्न की जली हुई खुरचन—यह तक दे देते। वे उसे भी अमृत के समान स्वीकार करके, प्रारब्ध मानकर खा लेते थे।

उनके भाईयों ने उनके आचरण देख उन्हें भगा दिया। धक्का देकर खेत के काम से निकाल दिया। तभी दूसरे भाई ने पकड़ लिया और कहा, “खेत की रखवाली करो।” अब वह खेत की रखवाली क्या करें? खेत एक ओर था और वह दूसरी ओर आसन लगाकर पड़े रहते। उन्हें खेत से कोई मतलब ही नहीं था। वे जो भी कार्य करते, उसका उल्टा ही परिणाम होता। जिससे सबको पक्का यक़ीन हो गया कि यह व्यक्ति पागल है।

जड़ भरत डाकुओं द्वारा बलि के लिए पकड़े गए

जड़ भरत डाकुओं द्वारा बलि के लिए पकड़े गए

उधर एक डाकुओं के सरदार ने देवी भद्रकाली से मन्नत मांगी थी— “अगर पुत्र उत्पन्न होगा, तो नरबली चढ़ाऊंगा।” संयोग से उसे पुत्र प्राप्त हुआ। तो उसने प्रतिज्ञा पूरी करने हेतु एक पुरुष को पकड़वाने का आदेश दिया। एक पुरुष को पकड़ लिया गया। उसे खुला छोड़ दिया गया, यह सोचकर कि वह बाज़ार में पेट भर खा-पी ले। उसे मालूम नहीं था कि वह बलि के लिए छोड़ा गया है। वह तो मजे से जलेबी, गुलाबजामुन, जो-जो अच्छा लगा, सब खा रहा था। एक दुकानदार ने धीरे से कहा, “खूब खा रहे हो… अब तो तुम्हारी गर्दन कटेगी!” वह चौंका—“क्यों?” तो दुकानदार बोला, तुम बलि के पशु हो—तुम्हारी गर्दन कटेगी!” यह सुनते ही वह आदमी दोना-पत्तल वहीं फेंककर भाग गया। जब रक्षकों ने देखा कि वह भाग गया, तो वे डर गए कि अगर राजा को पता चला, तो उनकी ही बलि चढ़ा देगा। इसलिए उन्होंने सोचा—कोई और नर-जीव तुरंत पकड़ना होगा। रक्षकों ने इधर-उधर दौड़ लगाई कि कोई मनुष्य मिल जाए, वरना राजा हम सबकी बलि चढ़ा देगा। तभी रात के समय, उन्होंने देखा कि एक पुरुष खेत में पड़ा है—बिल्कुल पागलों जैसा दिखता है। वह कोई और नहीं, जड़ भरत जी थे।

डाकुओं ने देखा, “अरे! यह तो बड़ा तगड़ा है, गठीला शरीर, बलवान दिखता है।” सोचा देवी भी प्रसन्न होंगी, राजा भी। इसलिए बिना किसी विरोध के उसे पकड़ लिया। उन्हें भद्रकाली के मंदिर में ले जाया गया। बलि की पूरी विधि से तैयारी हुई। बढ़िया स्नान कराया गया। फूलों से अलंकृत किया गया। नए वस्त्र पहनाए गए। चंदन लगाया गया। माला पहनाई गई। फिर स्वादिष्ट भोजन—खीर, पूआ, पकवान—सब परोसा गया। भरत जी ने शांत भाव से, बिना कोई आग्रह, सब खा लिया। फिर ढोल-मृदंग बजने लगे। आरती हुई। पूजन की तलवार निकाली गई। उन्हें बलि के लिए ले जाया गया। कहा गया, “सर नीचा करके बैठो।” भरत जी ने बिना कोई प्रतिरोध किए, शांत भाव से सिर झुका दिया। जैसे ही राजा ने तलवार उठाकर प्रहार करना चाहा— भद्रकाली के विग्रह (मूर्ति) में कंपन होने लगी। देवी के शरीर में ब्रह्म-तेज की आग उत्पन्न हो गई। मूर्ति चीरती हुई स्वयं देवी प्रकट हो गईं। चीख पड़ीं—गर्जना करते हुए। वह तलवार छीन ली और— अपने ही पूजा करने वालों के सिर काट डाले। भरत जी मस्ती में, शांति से उठकर चल दिए।

जड़ भरत और भद्रकाली

जड़ भरत की रहूगण से मुलाक़ात

भरत जी तिलक लगे, नए वस्त्र पहने, मस्ती में जा रहे थे। एक राजा पालकी में बैठकर कपिल भगवान से सत्संग करने जा रहा था। वह सिंधु-सवीर देश का राजा था और उसका नाम रहूगण था। यह वही हिरण था जिसे भरत जी ने अपने कर-कमलों से पोषित किया था। अब वही रहूगण राजा बना हुआ है। जब वह हिरण था, तब भरत जी ने कहा था – “बेटा, तेरा सर्वत्र मंगल हो।” अर्थात्, मैं तेरा सर्वत्र मंगल करूंगा। जब राजा रहूगण एक नदी के किनारे पहुँचा, तो पालकी ढोने वाले कहारों में से एक को बुखार आ गया। वह डगमगाने लगा और पालकी अस्थिर हो गई। तब जमादार ने कहा, “भाई, कोई नया आदमी खोज लो।” राजा था, इसलिए आज्ञा दी गई।

जड़ भरत की रहूगण से मुलाक़ात

इसी बीच उन्होंने देखा – एक तेजस्वी युवक, नए वस्त्र पहने हुए, तिलक लगाए आ रहा था। सोचा – “बहुत हृष्ट-पुष्ट है, जवान है, बैल जैसी ताकत है, ये तो बढ़िया कहार बनेगा।” उसे पालकी ढोने में लगा दिया गया। आज तक भरत जी ने किसी को उपदेश नहीं दिया था। उन्हें चुपचाप कहारों के साथ जोड़ दिया गया।

जड़ भरत का विचित्र आचरण और राजा का क्रोध

लेकिन भरत जी इस कार्य के योग्य नहीं थे। वे चुपचाप केवल ज़मीन की ओर देख रहे थे, यह ध्यान रखते हुए कि कोई जीव उनके पैर तले दब न जाए। बाकी कहार पालकी के अभ्यास में शिक्षित थे। भरत जी इतने बलवान थे कि जब वे कदम रोकते, तो बाकी तीन कहारों के कदम भी रुक जाते।

जड़ भरत जी की कहानी — मृग में आसक्ति के कारण राजा को लेने पड़े दो पुनर्जन्म

राजा रहूगण ने कहा – “यह क्या प्रमाद है? पालकी डोल रही है, हिल रही है!” कहारों ने डरते हुए कहा – “महाराज की जय हो। आप चाहें तो दंड दें, लेकिन हम निर्दोष हैं। जो नया कहार आया है, सारा दोष उसी का है। वह हम तीनों की तरह तालमेल से नहीं चल रहा।” राजा रहूगण को लगा कि यह तो हमारी पूरी पालकी सेवा में विघ्न डाल रहा है। क्रोधित होकर उसने व्यंग्य से कहा: “अरे भैया, तुम्हें देखकर लगता है तुम बहुत दुबले-पतले हो। क्या तुम थक गए हो? लगता है तुम्हारे साथियों ने सहारा नहीं दिया? लगता है तुम अकेले ही पालकी उठाए हुए हो?” इस प्रकार बार-बार ताना मारते रहे, लेकिन जड़ भरत जी चुप थे। उन्होंने कुछ भी न कहा। भरत जी की दृष्टि में शरीर और पालकी एक समान थे – दोनों पंचभूतों से बने हुए, दोनों अविद्या के कार्य। बोलने वाला भी अविद्या में लिप्त, इसलिए कुछ बोले नहीं।

लेकिन पालकी अब भी सीधी नहीं चल रही थी। कई चींटियाँ एक साथ एक पंक्ति में चल रही थीं, भरत जी ने एक छलांग मारी – क्योंकि वे किसी जीव को नहीं कुचलना चाहते थे – और बाकी कहार उन्हें पकड़ नहीं पाए। राजा रहूगण को बहुत क्रोध आया। उसने कहा – “तू क्या जीवित है भी या नहीं? तू मेरा अपमान कर रहा है! तुझे यमराज का दंड दूँगा!” तब जड़ भरत जी ने पहली बार देखा और मुस्कराते हुए कहा – “इलाज तो तुम्हारा हो ही गया, राजन। पहले भी तुम्हें काँधे पर उठाया था, अब भी काँधे पर उठा लिया। हमें तीन जन्म लगे, पर अब तुम्हारा इलाज पूरा हो जाएगा।”

जड़ भरत का आत्मा और शरीर पर अद्वैत ज्ञान का उपदेश

रहूगण को अपने पांडित्य पर बड़ा अभिमान था। पर जड़ भरत जी को देख कर समझ गया कि यह कोई साधारण पुरुष नहीं, ब्रह्मबोध संपन्न महापुरुष हैं। आज तक मौन रहने वाले जड़ भरत जी बोले – “भार नामक कोई वस्तु है, तो ढोने वाला भी होगा। मार्ग है, तो चलने वाला भी होगा। शरीर मोटा या पतला – यह सब शरीर के लिए है, आत्मा के लिए नहीं। ज्ञानीजन ऐसी बात नहीं करते, जैसी तुम कर रहे हो। भूख, प्यास, भय, रोग, क्रोध, मोह, काम, नींद – ये सब देहाभिमानी को होते हैं, आत्मस्वरूप को नहीं। तुम जो कहते हो कि ‘मैं तुझे दंड दूँगा’ – वह शरीर के लिए है, आत्मा के लिए नहीं।

राजा और प्रजा का संबंध व्यवहार के लिए होता है, परमार्थ के लिए नहीं। आत्मा में न कोई राजा है, न कोई प्रजा। यदि तुम स्वामी हो और मैं सेवक, तो कहो – मैं तुम्हारी क्या सेवा करूँ? लेकिन यह केवल देह का भ्रम है।” यह सुनकर रहूगण के भीतर स्थित अहंकार चूर-चूर हो गया। वह पालकी से कूद पड़ा, साष्टांग दंडवत् हुआ और चरणों में सिर रखकर हाथ जोड़कर बोला – “महापुरुष, मुझे क्षमा करें। मैंने आपको नहीं पहचाना।” मुझे न तो इंद्र के वज्र से, न भगवान महादेव के त्रिशूल से, न यमराज के दंड से, और न ही अग्नि, सूर्य, चंद्रमा या कुबेर के अस्त्रों से भय लगता है। परंतु मैं ब्रह्मऋषियों के अपमान से अत्यंत डरता हूँ आपकी वाणी और दृष्टि में जो गंभीरता है, उसे पहले मैं समझ नहीं पाया। मैं तो भगवान श्री हरि के अवतार, भगवान कपिलदेव जी के सत्संग हेतु जा रहा था। क्या वे ही इस वेश में मुझे उपदेश देने पधारे हैं? आप कौन हैं, जो अपना रूप छिपाकर साधु-वेष में विचरण कर रहे हैं?

जड़ भरत से राजा रहूगण के प्रश्न

राजा रहूगण के प्रश्न

हे प्रभु, आपके कुछ वचनों से मुझे संशय हुआ है, इसलिए मैं प्रश्न करता हूँ — आपने कहा कि शरीर को मान मिले या अपमान, अथवा कष्ट, इसका आत्मा पर कोई प्रभाव नहीं होता। किन्तु हे प्रभु, जब मैं युद्ध में भाग लेता हूँ, तो शरीर थकता है और मैं कहता हूँ — “मैं थक गया।” जब बोझ उठाया जाता है, तब भी अनुभव होता है — “मैं थक गया।” तो क्या यह नहीं सिद्ध करता कि शरीर की पीड़ा आत्मा पर अनुभव होती है? आपने जो कहा कि ‘घड़ा, जल और जल लाने की क्रिया — तीनों मिथ्या हैं’, यह मेरी समझ में नहीं आया। क्या जल मिथ्या है? या घड़ा? या क्रिया? जड़ भरत जी ने कहा कि शरीर, पालकी और उसकी गति — ये सब मिथ्या हैं। परंतु जब चूल्हे पर बर्तन रखा होता है, उसमें पानी और चावल होता है, और अग्नि जलती है — तो अग्नि से बर्तन गर्म होता है, पानी उबलता है और चावल पकते हैं। इसी प्रकार जब शरीर को पीड़ा होती है, तो अंतःकरण पीड़ित होता है, और उससे आत्मा तक पीड़ा का अनुभव पहुँचता है।

रहूगण ने कहा, यदि मैंने आपके साथ अवज्ञा या अपराध किया हो, तो मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। कृपा करें कि मेरे जीवन में कभी किसी साधु का अपराध न हो जाए। हे प्रभु, मैं साधु-अपराध से अत्यंत भयभीत हूँ। यदि कोई ब्रह्म प्राप्त महापुरुष का अपराध कर दे, तो चाहे वह कितना भी महान क्यों न हो, नष्ट हो सकता है। तब जड़ भरत जी बोले: “हे राजन! तुम अज्ञानी होकर पंडितों जैसी बातें करते हो। तुम्हें आत्मा का ज्ञान नहीं है, केवल तर्क-वितर्क कर रहे हो। पंडितों जैसी भाषा बोलने से कोई ब्रह्मज्ञानी नहीं हो जाता। हे राजन! तुम्हारा मन ही तुम्हारा सबसे बड़ा शत्रु है। यह मन आत्मज्ञान के प्रकाश को ढँक रहा है। इसलिए गुरुदेव के चरणों की सेवा कर, ज्ञान रूपी अस्त्र से इस मन को नष्ट कर दो।”

संसार का मोहक और भयावह स्वरूप

“हे राजन! यह संसार एक ऐसा जंगल है, जिसमें यदि एक बार जीव प्रवेश कर गया, तो इससे बाहर निकलना अत्यंत कठिन हो जाता है। यह जंगल एक ओर अत्यंत मोहक है, तो दूसरी ओर अत्यंत भयावह भी। यही कारण है कि इससे मुक्ति पाना सहज नहीं होता। जब तक सदगुरु की कृपा न हो, जीव इस भवंसागर में फँसा ही रहता है। यह जीव कभी धन की खोज में अपने भविष्य को नष्ट करके पापाचरण से धन अर्जित करता है। हे रहूगण! इस संसार मार्ग में चलते हुए जीव अनेक क्लेशों, विघ्न-बाधाओं और कष्टों से ग्रस्त होता है, किंतु फिर भी उसे भगवान की याद नहीं आती। उसका ध्यान केवल भोग, परिवार का पोषण और धनार्जन में लगा रहता है। परिवार में यदि कोई मृत्यु भी हो जाए, तो संस्कार कर देने के बाद वह शीघ्र ही नवीन जनों में आसक्ति जोड़ लेता है। कभी शोक करता है, कभी हर्ष में झूमता है। जीवन इसी प्रकार शोक, हर्ष, भोग और परिवार में उलझा हुआ बीतता है।

यदि दुर्लभ सौभाग्य से उसे साधु-संगति मिल भी जाए, तो वह वहाँ भी दोषदृष्टि करता है, साधुओं की बात नहीं मानता। यह जीव निरंतर संसार की ओर ही अग्रसर होता रहता है। हे राजन! जहाँ से इसकी यात्रा प्रारंभ हुई थी, वहाँ आज तक यह नहीं पहुँचा। इसकी यात्रा परमात्मा से भोग की ओर हुई है, किंतु परमात्मा की ओर अभी तक लौट नहीं पाया। परमात्मा तक वे ही लौट पाते हैं, जिन्होंने समस्त वासनाओं का त्याग कर दिया है। चाहे कोई कितने भी बड़े यज्ञों का आयोजन कर ले, या युद्धभूमि में प्राण त्याग दे, तो भी परमात्मा को प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिए, जो संसार से पार होना चाहते हैं, उन्हें अपने पाप और पुण्य दोनों कर्मों को भस्म कर देना चाहिए, और निरंतर भगवान के भजन में लीन रहना चाहिए। संसार मार्ग में भटकते प्राणी को यदि साधु-संगति मिल जाए और वह भजन में लग जाए, तो वह वहीं लौट जाता है, जहाँ से आया था—परमधाम। वहीं हमारा सच्चा घर है।

राजा रहूगण की मुक्ति

महाराज जड़ भरत जी के उपदेश से राजा रहूगण के अज्ञान की गांठ कट गई और वे परम पद को प्राप्त हुए। ज्ञानी जन कहते हैं कि जैसे कोई मक्खी गरुड़ की तुलना नहीं कर सकती, वैसे ही कोई भी राजा जड़ भरत जी की महानता की तुलना नहीं कर सकता। उन्होंने युवावस्था में ही पत्नी, पुत्र आदि का त्याग कर भगवान की साधना की, और अपने तीसरे जन्म में भगवत्प्राप्त महापुरुष बने।

जो भी महाराज भरत जी अथवा जड़ भरत जी के पावन चरित्र को श्रद्धा से सुनेगा, उसकी अकाल मृत्यु नष्ट हो जाएगी। वह काल की पकड़ से बच जाएगा, उसका यश फैलेगा, और यदि वह भजन करता हुआ भगवान का आश्रय ले, तो मोक्ष अथवा प्रेम की प्राप्ति भी कर सकता है। जो भी इस चरित्र को श्रद्धा से पढ़ेगा, सुनेगा या सुनाएगा, उसकी अन्य सभी कामनाएं भी पूर्ण होंगी।

मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज

श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज जड़ भरत की कहानी सुनाते हुए

Related Posts

Copyright @2024 | All Right Reserved – Shri Hit Radha Keli Kunj Trust | Privacy Policy

error: Copyrighted Content, Do Not Copy !!