नामदेव जी एक छोटे बालक ही थे जब उनके नाना जी को उन्होंने ठाकुर सेवा करते हुए देखा। जब भी नामदेव जी के नाना अपने ठाकुर जी की सेवा करते तो नामदेव जी उन्हें ध्यान पूर्वक देखते रहते। वह बाहर आकर फिर किसी पत्थर की वैसे ही सेवा करके सुख प्राप्त करते। नामदेव जी अपने नाना से हठ करते कि अपने ठाकुर जी की सेवा मुझे दे दीजिए, मैं वैसे ही सेवा सीख गया हूँ जैसे आप करते हैं। उनके नाना कहते जब आप बड़े हो जाएँगे तो मैं आपको सेवा दे दूँगा। एक बार नाना जी को कुछ दिन के लिए बाहर जाना था तो उन्होंने ठाकुर सेवा नामदेव जी को दे दी। उन्होंने नामदेव जी से कहा पहले ठाकुर जी को दूध पिलाना और भोग लगाना उसके बाद ही ख़ुद खाना। नामदेव जी के हर्ष का ठिकाना ना रहा। नामदेव जी ने ठाकुर जी के लिए मेहनत करके बहुत स्वादिष्ट दूध बनाया और ठाकुर जी के सामने रखा। नामदेव जी का प्रयास देख कर ठाकुर जी मुस्कुरा दिए। यह देख कर नामदेव जी भी खुश हो गये। आज तक नाना जी को भी ये मुस्कुराहट नहीं मिली थी। नामदेव जी सोचते रहे कि शायद मैं सामने खड़ा हूँ इसलिए ठाकुर जी दूध नहीं पी रहे। उन्होंने फिर पर्दा हटा कर देखा तो अभी भी ठाकुर जी ने दूध नहीं पीया था। वो विकल थे कि अगर ठाकुर जी ने दूध नहीं पीया तो नाना जी मेरी सेवा बंद कर देंगे। उन्होंने ठाकुर जी से कहा कि मैं नया पुजारी हूँ, अगर कोई गलती हुई है तो मुझे बता दीजिए, अगर आपको दूध नहीं पसंद और कुछ और भोग लगाना है, तो वो भी बता दीजिए। दूध अभी भी वैसे ही पड़ा था। सुबह से श्याम हो गई। ठाकुर जी ने उस दिन उनका दूध नहीं पीया। अगला दिन हुआ, फिर भोग लगाया, ठाकुर जी ने इस दिन भी दूध नहीं पीया। नामदेव जी ने भी दोनों दिन कुछ नहीं खाया। उन्हें यह डर था कि उनकी सेवा उनसे छीन ली जाएगी। तीसरा दिन हुआ, उन्हें नींद नहीं आयी।
उन्होंने दूध बनाया, और इस बार दृढ़ता के साथ ठाकुर जी पास एक छुरी लेकर गये और बोला, ठाकुर जी, दूध पीयो! नहीं तो मैं अपना गाला काट लूँगा। उन्होंने ख़ुद पर छुरी से प्रहार किया, ठाकुर जी यह सब देख नहीं पाए और उनके सामने आ गये और नामदेव जी का हाथ पकड़ लिया। ठाकुर जी ने कटोरा उठाया और दूध पीने लग गये। नामदेव जी ने कटोरा पकड़ लिया और बोला पूरा नहीं पीना है, मैंने भी तीन से कुछ नहीं खाया, मुझे भी प्रसाद चाहिए। नाना जी वापस आए तो उन्होंने उन्हें बताया कि ठाकुर जी ने पहले दो दिन तो दूध नहीं पीया लेकिन तीसरे दिन उन्होंने अच्छे से दूध पी लिया। नानाजी ने सोचा, दूध पीया? सचमुच दूध पीया? उन्होंने कहा मैं देखना चाहता हूँ। नामदेव जी नाना जी और छुरी दोनों लेकर ठाकुर जी के पास गए और बोले, ठाकुर जी, दूध पियो, मुझे जूठा साबित मत करना। ठाकुर जी आए और उन्होंने दूध पीया। नामदेव जी की कृपा से उनके नाना जी को भी भगवान का साक्षात्कार हो गया। भगवान भक्तों के भोलेपन पर आसानी से रीझ जाते हैं।
मटकी अभी कच्ची है!
नामदेव जी गोरा कुम्हार जी के यहाँ बैठे हुए थे। बड़े-बड़े महापुरुष भी वहाँ थे। मुक्ताबाई जी भी वहाँ थीं। उन्होंने गोरा जी से कहा काका इन मटकियों में से कौन सी मटकी कच्ची है, मैं अभी बताती हूँ। बड़े-बड़े संत वहाँ बैठे थे, सब मुस्कुरा दिये। उन्होंने नामदेव जी के सर पर मारा (जैसे एक कुम्हार मटकी को ठोक कर देखता है कि वो कच्ची है या पक्की), तो उन्होंने कहा हटिए, ये क्या कर रहीं हैं आप? मुक्ताबाई जी ने कहा काका ये मटकी कच्ची है, बोल जो पड़ी। सब संतों ने भी हँस कर कह दिया कि हाँ, सच में कच्ची है। नामदेव जी ने सोचा कि ठाकुर जी का दर्शन और साक्षात्कार ही एक मात्र सत्य है, और ठाकुर जी तो रोज़ मेरे साथ खेलते हैं और खाते हैं, फिर मैं कैसे कच्चा हूँ?
वो सीधा भगवान विट्ठल जी के पास गए और कहा कि सबसे बड़ी सिद्ध अवस्था यही है कि भगवान भक्त से बात करें और आप तो मेरे साथ खेलते हो, फिर उन संतों ने ऐसा क्यों कहा कि मैं कच्चा हूँ, क्या में सच में कच्चा हूँ? ठाकुर जी ने भी बोल दिया कि हाँ आप अभी कच्चे हैं। नामदेव जी ने पूछा फिर पक्का होना क्या होता है? विट्ठल जी ने कहा जंगल में एक शंकर जी का मंदिर है, वहाँ एक विसोबा खेचर नाम के संत हैं, आप उनके चरणों में बैठें और वो जो उपदेश करें, उसका पालन कीजिए, फिर आप पक्के हो जाएँगे।
विसोबा खेचर जी ने रखे शिवलिंग पर पैर!
नामदेव जी भगवान विट्ठल के कहने पर विसोबा खेचर जी के पास गये। विसोबा जी शंकर जी के शिवलिंग पर पैर रख कर आराम से सोए हुए थे। नामदेव जी ने सोचा कि कोई साधारण आस्तिक इंसान भी ऐसा नहीं कर सकता, लेकिन भगवान ने मुझे इनको गुरु बनाना को कहा, बात समझ नहीं आई। नामदेव जी ने विसोबा जी से कहा पैर हटाइए महाराज, आप शंकर जी के ऊपर पैर रख कर क्यों सो रहे हैं? विसोबा जी ने कहा, बेटा जहाँ शंकर जी ना हों, वहाँ मेरे पैर रख दीजिए। नामदेव जी ने उनके पैर पकड़े और जहाँ-जहाँ रखे वहाँ शिवलिंग प्रकट हो गया। नामदेव जी समझ गये कि यह तो कोई सिद्ध पुरुष हैं। नामदेव जी ने विसोबा जी से कहा प्रभु, मैं आपकी महिमा को जान नहीं पाया, आप उपदेश कीजिए। विसोबा जी ने कहा बेटा बस इतनी बात समझनी है कि कोई ऐसा कण नहीं है जहाँ विट्ठल ना हों। सब जगह विट्ठल, सबमें विट्ठल। नामदेव जी ने इस गुरु उपदेश को अपने हृदय में धारण कर लिया।
सब जगह विट्ठल, सबमें विट्ठल – कुत्ते से प्रकट हुए भगवान विट्ठल!
एक दिन नामदेव जी विट्ठल जी के लिए रोटी बना रहे थे। वो रोटी रख कर घी गर्म करने गये। इतने में एक कुत्ता आया और विट्ठल जी के लिए बनाई हुई रोटी को खाने लगा। नामदेव जी ने कुत्ते से कहा, प्रभु ऐसे रूखी रोटी मत खाओ, मुझे इस पर घी लगा लेने दो पहले, और उस कुत्ते के पीछे दौड़ने लगे। उस कुत्ते से भगवान विट्ठल प्रकट हो गये। विट्ठल जी ने कहा देखा, तुमने मुझे पहचान लिया ना। जब तुम्हें कच्ची मटकी कहा गया था तो तुम मंदिर में मुझ से शिकायत करने आये थे, और आज जब गुरु कृपा हो गई और आप पक्के हो गए तो आपने कुत्ते में भी मुझे ढूँढ लिया।
प्रभु अगर चाहें तो हम उन्हें पहचान सकते हैं, हम खुदसे उनको नहीं जान सकते।
एक दिन नामदेव जी ने भगवान विट्ठल जी से कहा कि प्रभु अब आप कितना भी छुपो, मैं आपको पहचान लूँगा। विट्ठल जी ने कहा अच्छा ठीक है, देखते हैं! एकदम से नामदेव जी के मन में आया कि मंदिर में बड़ा कोलाहल हो रहा है, मंदिर के पीछे जाकर बैठते हैं, और शांति से प्रभु का ध्यान करते हैं। पीछे बैठे तो कुछ लड़के वहाँ आकर खेलने लगे। उनके भजन में विक्षेप पड़ा, उन्होंने सोचा नदी किनारे चलते हैं। नदी किनारे जाकर बैठे तो वहाँ बैलगाड़ियाँ आकर रुकने लगी, नामदेव जी ने कहा शोर मत मचाओ, मैं यहाँ भजन कर रहा हूँ। एक बैलगाड़ी से एक पुरुष और स्त्री गड़ासा (तेज धार वाला ब्लेड) लेकर निकले। वो आपस में बात करने लगे कि बड़ी भूख लगी है, आज कोई शिकार तो मिला नहीं, ये आदमी मिला है, इसी को मारकर खा लेते हैं। दोनों नामदेव जी के पीछे भागने लगे। नामदेव जी ने भी अपनी धोती पकड़ी और भागने लगे।
नामदेव जी भागकर विट्ठल जी के मंदिर में पहुँचे और हाँफने लगे। विट्ठल जी ने पूछा कहाँ से भागते हुए आ रहे हो? नामदेव जी ने कहा, बच गया प्रभु, एक स्त्री और पुरुष मुझे काट कर खाने की कोशिश कर रहे थे। विट्ठल जी ने कहा, पहचान नहीं पाए ना, मैं ही तो था!
सिकंदर लोदी ने ली नामदेव जी की परीक्षा
नामदेव जी अपनी कीर्तन मंडली के साथ महाराष्ट्र से ब्रज होते हुए दिल्ली पहुँचे। दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोदी को पता चला कि एक हिंदू कीर्तन मंडली में नामदेव नाम जी के एक चमत्कारी संत हैं। उन्होंने हिंदू संतों की परीक्षा लेने के लिए पूरी मंडली को वहाँ बुलाया। बादशाह ने नामदेव जी से कहा अगर आप साहब (भगवान) से मिल चुके हैं तो हमें कोई चमत्कार दिखाइए। नामदेव जी ने कहा मुझमें तो कोई सिद्धि नहीं है, मैं बस नाम कीर्तन करता हूँ और संतों के साथ रहता हूँ, मुझ में कोई चमत्कार नहीं है।
बादशाह ने उनकी दैन्यता को अपना अपमान समझा। बादशाह ने एक गाय मंगवाई और उनके सामने ही उसकी गर्दन काट दी और बोला अब इस गाय को जीवित करो। नामदेव जी के होश उड़ गए। नामदेव जी ने प्रभु से प्रार्थना की कि अपनी मर्यादा रखने के लिए गाय को ज़िंदा कर दीजिए, मेरे में कोई सामर्थ्य नहीं है, मेरी आयु इस गाय को दे दीजिए, आप सर्व समर्थ हैं, ये आपके भक्तों की परीक्षा लेने के लिए यह सब कर रहे हैं। जैसे ही उन्होंने यह प्रार्थना करके गाय को छुआ, उसकी गर्दन जुड़ गई और गाय उठ कर बैठ गई। बादशाह ने नामदेव जी के चरण पकड़ लिये और बोला आप कुछ भी माँग लीजिए। नामदेव ने मना किया लेकिन बादशाह ने ज़बरदस्ती एक रत्नों से जड़ा पलंग अपने सेवकों के साथ उनके लिये भेज दिया।
क़ीमती पलंग के साथ, उसकी रक्षा करने के लिए सैनिक भी आये, भजन में विक्षेप ना पड़े इसलिए नामदेव जी ने पलंग नदी में फेंक दिया। राजा को जब यह पता चला तो उसने इसे अपना अपमान समझा और पुनः नामदेव जी को मिलने के लिये बुलाया। नामदेव जी ने उन्हें कहा वो पलंग मेरे भजन में बाधा पहुँचता, इसलिए मैंने फेंक दिया। राजा ने कहा मुझे वैसे ही पलंग की आवश्यकता है, अगर आपने पलंग नदी में ना फेंका होता तो मैं उसकी नाप लेकर नया पलंग बनवा सकता था। नामदेव जी समझ गये कि एक और परीक्षा आ गई है। नामदेव जी राजा को नदी के पास लेकर गए और नदी में से उसी पलंग जैसे बीसों पलंग निकाल कर उसके सामने रख दिए। नामदेव जी ने कहा हमारे प्रभु की इस सृष्टि में किसी चीज़ की कमी नहीं है। बादशाह समझ गया कि इन हिंदू भक्तों में कुछ विशेष चमत्कार ज़रूर है।
नामदेव जी के लिए ठाकुर जी ने अपना मंदिर घुमा दिया
नामदेव जी एक दिन ठाकुर जी के दर्शन करने गए। उन्होंने सोचा मंदिर में बहुत भीड़ है, और पादुका बहुत मुश्किल से मिली है (वह दैन्य और ग़रीब थे)। उन्होंने एक कपड़े में पादुका को लपेट कर अपनी कमर पर बांध लिया (निराले होते हैं भगवान के भक्त, उनको बादशाह से कुछ नहीं चाहिए था लेकिन वो अपनी पादुका से आसक्त हो गए, महापुरुषों की लीला ठाकुर जी ही जानें)। वो प्रभु के सामने जाकर नाचने लगे, उनकी कमर पे टंगी पादुका की गाँठ खुल गई और पादुका ज़मीन पर गिर गई। यह देखकर ठाकुर जी के पुजारियों ने उन्हें बाहर जाने के लिए बोला लेकिन वो तो भाव में खोये हुए थे तो उन्होंने सुना ही नहीं। इसपर पुजारियों ने उन्हें पाँच-सात थप्पड़ मारे और मंदिर से बाहर निकाल दिया। उन्होंने ये भी कह दिया कि आज के बाद यहाँ दर्शन करने मत आना। नामदेव जी ने ठाकुर जी से कहा अब मैं तुम्हारे सामने बैठूँगा ही नहीं, मैं मंदिर के पीछे जाकर शांति से कीर्तन करूँगा। मंदिर के पीछे जाकर उन्होंने ठाकुर जी से कहा आपने मुझे पिटवा दिया इसका कोई ग़ुस्सा नहीं है पर ऐसा क्यों किया कि मैं आगे से दर्शन करने ही ना आ पाऊँ? वो अंदर से दुखी थे। उन्होंने फिर कहा, अब मुझे मंदिर के पीछे से भी मत हटवा देना, मैं तुम्हारे सामने नहीं आऊँगा। उसी समय कबीर दास जी वहाँ आए और बोले भगवान के यहाँ हम जैसे ग़रीबों की क़दर नहीं रही अब, ठाकुर जी बदल गए हैं, चलो यहाँ से चलते हैं। भगवान डर गए और उनके सामने प्रकट हो गये, बोला मुझे छोड़कर आप दोनों मत जाओ। यह कहकर भगवान ने मंदिर घुमा दिया, पीछे वाला द्वार आगे की तरफ़ हो गया और आगे वाला द्वार पीछे को चला गया।
नामदेव जी की कुटिया में लगी आग
नामदेव जी एकांत में भजन कर रहे थे। उनके घर में आग लग गई। यह सूचना उन्हें देने कि लिये कुछ लोग वहाँ आए। लोगों ने उनकी सहायता करने के लिए जो सामान बच सकता था उसे बाहर निकाल के रख लिया। जब वह घर पहुँचे तो उन्होंने सोचा कि आग में भी तो मेरे प्रभु ही हैं। उन्होंने पड़ोसियों से कहा हमारे प्रभु पधारे हैं और आप उनका भोग छीन रहे हैं। यह कहकर उन्होंने बाक़ी बचाया गया सामान भी आग में फेंक दिया। लोगों ने सोचा कि अब कोई इनकी मदद नहीं करेगा, इनको ठंड में रात में बाहर ही रहने दें, हमने कितनी मुश्किल से आग में झुलस कर वह समान बचाया था और इन्होंने उसे वापस आग में डाल दिया। उन्हें क्या पता कि प्रभु जिसके प्रीतम हैं उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। वह निश्चिंत होकर उसी राख की ताप में लेट गये।
प्रभु ने नामदेव जी के लिए एक नई कुटिया बना दी। सबसे सुंदर और सुगंधित सामग्री से उनकी कुटिया बनी। स्वयं रुक्मणी जी ने उनकी कुटिया बनाने में सहायता की। उस कुटिया से एक दिव्य सुगंध आ रही थी जिससे पूरे गाँव के लोग वहाँ आने लगे। गाँव वाले नामदेव जी से पूछने लगे कि कितने रुपये लगे ऐसी कुटिया बनाने में, हम सब बनवाना चाहेंगे। नामदेव जी ने कहा बहुत महँगी है, अपने-अपने घर से बाहर निकलकर हर चीज़ को आग लगा दीजिए और अपने जले हुए घर के बाहर बैठ कर कीर्तन कीजिए, फिर हमारा मालिक स्वयं आकर मुफ़्त में आपकी कुटिया बना देगा। जिसने वैराग्य रूपी अग्नि में अपनी ममता को स्वाहा कर दिया है, जिसने अपना सब कुछ प्रभु के चरणों में समर्पित कर दिया है, प्रभु उसकी ज़िम्मेदारी ले लेते हैं। यह सुनकर गाँव वाले पीछे हट गए और सबने नामदेव जी के चरणों में प्रणाम किया।
नामदेव जी ने एक धनी सेठ का अभिमान चूर-चूर कर दिया
पंढरपुर में एक धनी-मानी सेठ अपने कल्याण के लिए तुलादन का उत्सव किया करता था। वो पलड़े में एक तरफ़ ख़ुद बैठ जाता था और दिसरी तरफ़ सोना चाँदी तौल कर संतों में बाँट देता था। एक वैष्णव ने कहा यदि आपने जीवन में नामदेव जी की सेवा नहीं की तो क्या किया। सेठ ने पहले नौकर को भेजा तो नामदेव जी ने कहा हमें आवश्यकता नहीं। फिर सेठ ने अपने मुनीम को भेजा तो नामदेव जी ने कहा कि ये दूसरे ब्राह्मणों में बाँट दें, हम तो संतुष्ट हैं। फिर वो स्वयं गया और चरणों में प्रणाम किया और दान लेने की प्रार्थना की। नामदेव जी ने देखा कि इन्हें धन का बड़ा अभिमान है, तो उन्होंने पूछा कि हम जितना माँगेंगे उतना दे देंगे? सेठ ने कहा, जी बिलकुल! नामदेव जी अपने साथ एक तुलसी का पत्ता लेकर गये। उन्होंने तुलसी के पत्ते पर “राम” का आधा नाम “रा” लिख दिया। लिख के कहा मुझे बस इसके वजन का सोना दे दो, एक पलड़े में तुलसी का पत्ता जिस पर राम का आधा नाम लिखा था और दूसरे में सोना। सेठ ने कहा इसमें कितना सोना ही आएगा, मेरा मज़ाक़ उड़ा रहे हो क्या? नामदेव जी ने कहा बस इतना ही चाहिए। सेठ ने कुछ सोना रखा पर पलड़ा नहीं हिला। उसने पाँच-सात किलो और सोना रखा, पर पलड़ा नहीं हिला। अब उसने अपना सारा सोना चाँदी और अपने रिश्तेदारों और पड़ोसियों से भी सब लेकर रख दिया, पर पलड़ा फिर भी नहीं हिला। नामदेव ने कहा कि चलो इसका धन का अभिमान तो चला गया, लेकिन एक और अभिमान बाक़ी था।
उसे अपने पुण्य और पहले किए कई तुलादानों का बड़ा अभिमान था। नामदेव जी ने कहा तुमने जो भी दान, पुण्य, तीर्थ आदि किए हों, एक संकल्प लेके इस पलड़े में दे दो, शायद उठ जाए। कुछ नहीं हुआ, तुलसी जी का पलड़ा हिला भी नहीं। अब वो सेठ नामदेव जी के चरणों में गिर पड़ा और कहा कि मैं गरीब आपको क्या दे सकता हूँ, आप तो भगवान के नाम के धनी हैं! नामदेव जी यही सुनना चाहते थे, उन्होंने इसी अहंकार को नष्ट करने के लिए यह लीला की थी। नामदेव जी की इस शिक्षा से उसके हृदय का मल दूर हो गया और उसने दैन्य भाव से प्रभु की भक्ति में अपनी बुद्धि को लगा दिया। एक भक्त का कैसे भी संग हो जाए, उससे जीवन परिवर्तन हो जाता है। जैसा नामदेव जी के हृदय में प्रभु के लिये प्रेम था, उस धनी पुरुष के हृदय में भी वैसा ही प्रेम आ गया।
ठाकुर जी ने ली नामदेव जी की एकादशी की निष्ठा की परीक्षा
पंढरपुर में एकादशी का ख़ास महत्व है। एकादशी का दिन था, एक दुर्बल ब्राह्मण के रूप में ठाकुर जी नामदेव जी के गाँव में आये। सबने कहा नामदेव जी बहुत भक्त सेवी हैं, आप उनके वहाँ चले जाएँ। ब्राह्मण उनके वहाँ पहुँचे और बोले बहुत दिन से भूखा हूँ, मुझे कुछ भोजन दे दीजिए। नामदेव जी ने कहा, आज एकादशी है, हम तो केवल आपको जल पिला सकते हैं। ब्राह्मण ने कहा मैं भूख से मर रहा हूँ, मुझे भोजन चाहिए।
नामदेव जी बार-बार मना कर रहे हैं, ब्राह्मण कह रहे है तुम्हें हत्या का पाप लगेगा। सब नामदेव जी को समझाने लगे कि ब्राह्मण को अन्न दे दें। नामदेव जी ने कहा कल तो मैं अन्न दे सकता हूँ लेकिन आज नहीं। भगवान ने, जो कि ब्राह्मण के रूप में थे, पैर फैलाए और मर गए। गाँव के सभी लोग उनकी कठोरता के लिए उन्हें कोसने लगे। नामदेव जी ने सोचा क्योंकि ब्राह्मण की मृत्यु मेरे ही द्वार पर हुई है तो इनका अंतिम संस्कार भी मुझे ही करना पड़ेगा। उन्होंने उनकी चिता बनाई और ख़ुद भी उसमे बैठ गये क्योंकि ब्राह्मण की मृत्यु उनके ही द्वार पे हुई थी। भगवान ने सोचा कि ये ख़ुद भी सच में मर जाएँगे और मुझे भी जला देंगे, ठाकुर जी उठ के बैठ गये। ठाकुर जी ने मुस्कुरा कर नामदेव जी से कहा कि मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, में तो विट्ठल हूँ, मैं तो तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। नामदेव जी उनके चरणों में गिरे, ठाकुर जी मुस्कुराए और अंतर्ध्यान हो गये।
मार्गदर्शक – पूज्य श्री हित प्रेमानंद जी महाराज