हरिपाल नाम के एक महान भागवत हुए हैं। उन्होंने अपने गुरुजनों से पूछा— “भगवत प्राप्ति का सरल उपाय क्या है?” उनके गुरुदेव ने उत्तर दिया— “संत सेवा! संत सेवा ही निश्चित रूप से भगवत प्राप्ति का उपाय है।” जहाँ संतों की मंडली होती है, वहाँ ईश्वर की कृपा अवश्य होती है। जहाँ संतों की मंडली होती है, वहाँ भगवान का वास होता है। हरिपाल जी संतों की सेवा करने लगे। संत जन उनकी सेवा से प्रसन्न होकर एक दूसरे को उनकी सेवा के बारे में बताने लगे। धीरे-धीरे उनकी सेवा की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। अब केवल एक या दो संत नहीं, बल्कि पूरी संत मंडली उनके यहाँ एकत्रित होने लगी। अन्य तीर्थों से आने वाले श्रद्धालु भी हरिपाल जी के स्थान पर रुकते, क्योंकि वहाँ संत सेवा और भगवत भजन का अद्भुत वातावरण था।

हरिपाल जी ने संत सेवा के लिए अपनी सारी सम्पत्ति समर्पित कर दी
हरिपाल जी संत सेवा में इतने तल्लीन हो गए कि जो भी उनके पास अन्न, धन या संपत्ति थी, वह सब धीरे-धीरे समाप्त हो गई। संतों की भीड़ रोज बढ़ती गई। उन्होंने अपनी जमीन बेच दी, कीमती गहने बेच दिए, और जो भी संचित संपत्ति थी, उसे संतों की सेवा में लगा दिया।
अब स्थिति यह हो गई कि सेवा के लिए कुछ भी शेष नहीं बचा। जब संतों को भोजन कराने के लिए धन नहीं रहा, तो उन्होंने बाजार से उधार लेना शुरू कर दिया। हजारों रुपए का कर्ज हो गया। उस समय हजार रुपए की बहुत बड़ी महिमा थी— एक रुपए में ही ढेर सारी सामग्री आ जाती थी। हरिपाल जी ने अपनी सारी संपत्ति साधु सेवा में लगा दी और जब बाजार से उधार लेना भी संभव नहीं रहा, तो दुकानदारों ने कर्ज देने से इनकार कर दिया। अब वह दुकान पर गए तो दुकानदारों ने कहा— “हरिपाल जी, पहले का उधार चुका दीजिए, अब बाजार में आपको कोई कर्ज नहीं देगा। आपकी सारी संपत्ति समाप्त हो चुकी है।”

अब हरिपाल जी के घर में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं बची थी, जिसे बेचकर संतों को भोजन कराया जा सके। लेकिन संत मंडली दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। कोई “जय द्वारिकाधीश!” का जयघोष कर रहा था, तो कोई “जय सियाराम!” और कोई “हर हर महादेव!” संतों की अलग-अलग मंडलियाँ लगातार आती रहीं।
हरिपाल जी सोचने लगे, “अब क्या करें? हमने अपनी पूरी संपत्ति संत सेवा में समर्पित कर दी, बाजार से कर्ज भी ले लिया, लेकिन अब कोई उधार भी नहीं दे रहा। संतों को भूखा कैसे जाने दें? चाहे हमें कुछ भी करना पड़े, हम उनकी सेवा अवश्य करेंगे!”
हरिपाल जी का कठिन निर्णय – संत सेवा के लिए दूसरों को लूटना
तब उन्होंने एक कठिन निर्णय लिया। हरिपाल जी ने एक भाला लिया और जंगल के मार्ग पर बैठ गए। वे बलिष्ठ शरीर के थे, उनका तेजस्वी रूप देखकर ही लोग भयभीत हो जाते थे। वे किसी को मारते नहीं थे, लोग स्वयं उन्हें देखकर उन्हें धन दे देते थे। और अगर कोई वैष्णव चिह्न धारण किए होता तो वे उसे कुछ ना कहते! हालाँकि, उन्होंने यह उपाय तब अपनाया जब अपनी सारी संपत्ति समाप्त हो गई और कर्ज भी चुका पाना असंभव हो गया। पहले उन्होंने पूरी श्रद्धा से अपना घर, धन, गहने सब संत सेवा में समर्पित किए, फिर बाजार से उधार लिया, और जब कोई साधन शेष नहीं बचा, तब इस उपाय को अपनाया।

धीरे-धीरे यह बात फैल गई कि यदि कोई यात्री रास्ते में “राम-कृष्ण” का नाम ले ले, तो हरिपाल जी उसे रोकते नहीं थे। लोग डर के मारे हाथ जोड़ते और “राम-कृष्ण” का उच्चारण करते हुए निकल जाते। यात्रियों को पता था कि यहाँ डाकू भाला लिए खड़ा है, लेकिन यह भी समझ गए थे कि यदि तिलक लगा हो और मुख से हरि नाम निकले, तो वह कुछ नहीं कहेगा।
धीरे-धीरे यह स्थिति ऐसी हो गई कि जंगल से गुजरने वाला हर व्यक्ति तिलक लगाकर और नाम जपते हुए जाने लगा। भले ही वे अपने जीवन में पहले कभी हरिनाम का स्मरण न करते हों, लेकिन इस मार्ग से निकलने के लिए वे अवश्य ही नाम-स्मरण करने लगे। इस प्रकार, हरिपाल जी के प्रताप से पूरे क्षेत्र में नाम-संकीर्तन की धारा बहने लगी। लेकिन इस वजह से अब उनके लिए किसी को भी लूटना मुश्किल हो गया और फिर एक बार संत सेवा के लिए धन की कमी होने लगी।
हरिपाल जी के लिए संकट का समय

एक दिन बड़ी संख्या में संत मंडली हरिपाल जी के घर आ पहुँची। हरिपाल जी बड़े हर्षित हुए और अपनी पत्नी से बोले, “आज तो हमारे बड़े भाग्य हैं कि इतने संत हमारे घर पधारे हैं!” लेकिन अगले ही क्षण चिंता ने उन्हें घेर लिया—“भोजन की कोई व्यवस्था नहीं है। बाजार से उधार लेना अब संभव नहीं, और हमारे पास कुछ भी नहीं बचा है।” पत्नी ने कहा, “घर में अन्न का एक भी दाना नहीं है। संतों को भूखा कैसे जाने दें? यह तो बहुत बड़ा अनर्थ हो जाएगा।” हरिपाल जी ने कहा, “क्यों न पड़ोस से कुछ मांग लें?”
उनकी पत्नी आस-पड़ोस में मदद मांगने गईं। लेकिन जैसे ही वे किसी के द्वार पर पहुँचतीं और कहतीं, “संत आए हैं…”, लोग दरवाजा बंद कर लेते। पहले ही बहुत बार संत सेवा के नाम पर हरिपाल जी ने बहुत कुछ मांग लिया था, अब कोई भी देने को तैयार न था। थकी-हारी वे वापस लौटीं और दुखी होकर बोलीं, “अब कोई भी कुछ देने को तैयार नहीं है। आपके संत-सेवा के व्यवहार का ऐसा प्रभाव हुआ है कि लोग देखते ही दरवाजा बंद कर लेते हैं।”
हरिपाल जी मुस्कुराए और बोले, “कोई बात नहीं। जब सब रास्ते बंद हो जाते हैं, तब केवल भगवान का सहारा होता है।” हरिपाल जी अपने मन में विचार कर रहे थे—“गुरुदेव ने कहा था कि संत सेवा से भगवान की प्राप्ति होती है। प्रभु! आप मिलें या न मिलें, लेकिन आज संत हमारे घर से भूखे न जाएँ। कोई उपाय नहीं सूझ रहा, प्रभु कृपा करो!”
हरिपाल जी के जीवन में भगवान की लीला प्रारंभ
उधर, भगवान श्रीकृष्ण द्वारका में रुक्मिणी जी के साथ विराजमान थे। अचानक उन्होंने सोचा, “हरिपाल जी ने पुकार लगाई है। संत सेवा के लिए वे संकट में हैं।” भगवान तुरंत अपनी लीला रचने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने रत्नों से जटित मुकुट, कुंडल, करधनी, बाजूबंद, और दिव्य आभूषण धारण कर लिए।

रुक्मिणी जी ने आश्चर्य से पूछा, “प्रभु! आप इतने दिव्य आभूषण क्यों पहन रहे हैं? यह नया श्रृंगार क्यों?” भगवान मुस्कुराए और बोले, “हमारे एक भक्त संकट में हैं। आज हम उनके दर्शन करने जा रहे हैं।” रुक्मिणी जी बोलीं, “यदि आप इतने महान भक्त के दर्शन करने जा रहे हैं, तो मैं भी चलूँगी।” भगवान बोले, “तो ठीक है, लेकिन ध्यान रहे—कोई भी भगवद् चिह्न धारण मत करना, कोई भगवद् चर्चा नहीं करनी। केवल सांसारिक आभूषण पहनकर चलना।” रुक्मिणी जी को और भी आश्चर्य हुआ, “प्रभु! ऐसा कौन-सा भक्त है जो भगवद् चर्चा और चिन्हों का विरोध करता है?” भगवान हँसते हुए बोले, “बस, तुम चलो, दर्शन से निहाल हो जाओगी!”
श्री कृष्ण और रुक्मिणी जी हरिपाल जी से मिलने आए

भगवान और रुक्मिणी जी अत्यंत वैभवशाली वेश में हरिपाल जी के गाँव पहुँचे। गाँव के बाहर ही उन्होंने रुककर संदेश भेजा कि “हम धनिक (सेठ-सेठानी) हैं और जंगल में यात्रा कर रहे हैं। हमें मार्ग सुरक्षित पार करवाने के लिए किसी की सहायता चाहिए।” हरिपाल जी को जैसे ही यह समाचार मिला, उनका मन प्रसन्न हो गया। उन्होंने सोचा, “अरे! यह तो स्वयं भगवान की कृपा हुई। इन धनिकों की मदद से संतों की सेवा का प्रबंध हो सकता है।”
हरिपाल जी बाहर आए और देखा—दो अति सुंदर, रत्नजटित आभूषणों से सुसज्जित स्त्री-पुरुष खड़े हैं। भगवान बोले, “हमारे पास स्वर्ण मुद्राएँ हैं। यदि तुम हमें जंगल पार करवा दो, तो हम कुछ धन तुम्हें दे देंगे।” हरिपाल जी ने सोचा, “आज तो मेरे जीवन की सबसे बड़ी सफलता है। इतने धन से महीनों तक संतों की सेवा हो सकती है!” भगवान की लीला देखिए—जो स्वयं भक्तों को भवसागर पार कराते हैं, वे हरिपाल जी से कह रहे हैं, “हमें जंगल पार करवा दो।”
भगवान ने माँगी हरिपाल जी से सहायता

हरिपाल जी को शक ना हो इसलिए भगवान उनसे व्यापारियों की भाँति वार्तालाप करने लगे। भगवान बोले, “हम बड़े व्यापारी हैं। हमारे पास बहुमूल्य आभूषण और स्वर्ण मुद्राएँ हैं। हमें जंगल पार करना है, लेकिन वहाँ लुटेरों का भय है। यदि तुम हमारी सहायता करोगे, तो हम तुम्हें एक स्वर्ण मुद्रा देंगे।” हरिपाल जी भीतर ही भीतर प्रसन्न हुए।
हरिपाल जी ने भगवान से कहा, “आप निश्चिंत रहें, मैं आपको जंगल पार करा दूँगा।” रुक्मिणी जी यह सब देख रही थीं, लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि “जो स्वयं सुदर्शन चक्रधारी हैं, वे किसी मनुष्य की सहायता क्यों ले रहे हैं?” रुक्मिणी जी बोलीं, “प्रभु! आप सुदर्शन चक्र और अपनी अपार शक्ति से संपन्न हैं। फिर भी एक साधारण मनुष्य से सहायता माँग रहे हैं?” भगवान ने मुस्कुराकर उत्तर दिया, “प्रश्न मत करो। बस देखो! मैंने कहा था ना कि यह मेरा महान भक्त है!”
भक्त के हाथों लुटे भगवान

हरिपाल जी ने गौर से प्रभु और रुक्मिणी जी को देखा—“न माला, न तिलक, न कोई भागवतिक चिह्न। पूरे सांसारिक व्यक्ति लगते हैं। जरूर इनके पास अपार धन होगा! इन्हें लूटने में कोई दोष नहीं, क्योंकि हम इस धन से संतों को भोजन कराएँगे।”
हरिपाल जी भाला लेकर चल ही रहे थे। वे आगे आए और उन दोनों से कहा उतारो अपने सारे आभूषण और मुझे दे दो। भगवान ने रुक्मिणी जी से कहा, “उतारो अपने आभूषण और इसे दे दो।” रुक्मिणी जी ने कहा, ” हमने तो इसे अपनी रक्षा के लिए रखा था और ये ही हमें लूट रहा है और आप भी कह रहे हैं कि इसे आभूषण दे दो।” प्रभु बोले, “उतारो आभूषण और इसे दे दो। नहीं तो ये हमें भाले से मार देगा। जीवन बचा रहेगा तो नए आभूषण बनवा लेंगे।” भगवान ने रुक्मिणी जी से कहा, “जिसके दर्शन करने के लिए हम आपको लाए थे, यह वही भक्त है। इसने अपना सर्वस्व लुटा दिया है। कुछ नहीं आज इसके पास खाने को। मैं इसी से लुटने के लिए आज यहाँ आया हूँ।”
हरिपाल जी का पश्चाताप

हरिपाल जी ने जब लौटकर देखा, तो अनंत सौंदर्य और माधुर्य से युक्त भगवान और श्री रुक्मिणी जी उनके सामने विराजमान थे। उन्होंने प्रभु के चरण पकड़ लिए और कहा, “प्रभु! मुझसे गलती हो गई। मेरे कटु वचन, मेरा भाला उठाना — यह सब मेरी भूल थी। प्रभु, आप जानते हैं, हमारे घर में संत मंडली बैठी है। इतना कर्ज हो गया है कि अब कोई हमें उधार भी नहीं देता। पड़ोस से माँगें तो कोई कुछ देने को तैयार नहीं, और जो थोड़ी-बहुत संपत्ति थी, वह भी समाप्त हो गई। लेकिन संत भूखे न जाएँ, प्रभु! इसलिए मैंने यह सब किया।”
हरिपाल जी के प्रति भगवान का प्रेम
भगवान ने हरिपाल जी को छाती से लगा लिया और कहा, ‘तुम सर्वश्रेष्ठ हो, और मेरे प्राणप्रिय भक्त हो!’ हरिपाल जी ने प्रभु से कहा, “प्रभु आपके ये आभूषण मैं नहीं ले सकता।” तब भगवान ने कहा, ‘देखो, हम यह सब संतों की सेवा के लिए ही लाए हैं। इसे ले जाओ। ये महालक्ष्मी के श्री अंग के आभूषण हैं। यह कुल परंपरा के अनुसार बढ़ेंगे, कभी घटेंगे नहीं। इन्हें बेचकर अपना सारा कर्ज़ चुका दो और प्रतिदिन लाखों संतों को भोजन कराओ। अब तुम्हारा ऐश्वर्य कभी घटने वाला नहीं है।’
हरिपाल जी की प्रार्थना
तब हरिपाल जी ने भगवान से प्रार्थना की, ‘प्रभु! इस घटना के बारे में किसी से मत कहना, नहीं तो सभी भक्त यह कहेंगे कि भगवान अपने भक्तों पर इतना स्नेह लुटाते हैं और यह भक्त भाला लेकर उन्हीं भगवान को लूटने निकल पड़ा।” भगवान ने कहा, ‘डरो मत! यदि कोई इस चर्चा को सुनेगा भी, तो वह तुम्हें आदर्श मानकर संत सेवा करेगा और मेरी प्राप्ति का उपाय सोचेगा, न कि तुम्हारे दोष देखेगा।’
संतों का सौभाग्य

भगवान के दर्शन के पश्चात हरिपाल जी ने कहा, ‘प्रभु! जब आ ही गए हो, तो लगे हाथ भंडारा पाकर जाओ।’ भगवान मुस्कुराकर बोले, ‘निश्चित रूप से! जहाँ हमारे संत भोजन करते हैं, वहीं हम प्रकट होते हैं।’ हरिपाल जी की वजह से उस भंडारे में उपस्थित सभी संतों को भगवान का साक्षात्कार हुआ। सभी संतों ने साक्षात द्वारिकाधीश और श्री रुक्मिणी जी के दर्शन किए। भोग बनाया गया, और संतों ने तब ही भोजन ग्रहण किया जब पहले भगवान ने भोग स्वीकार किया। फिर उनका उच्छिष्ट (प्रसाद) संतों ने ग्रहण किया, और संतों और भगवान का उच्छिष्ट हरिपाल जी ने पाया।
इस कहानी से हमारे लिए सीख
जब भी साधु सेवा का संयोग बने, तो नाच उठो कि हमें आज जीवन का परम लाभ मिला है। साधु सेवा निश्चित रूप से भगवत प्राप्ति कराती है।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज