क्या सत्संग सुनने के बाद आपको भी वैरागी जीवन जीने का मन करता है? लेकिन क्या आप इसके बाद अपने परिवार की ज़िम्मेदारियों के बारे में सोचने लगते हैं? पहले यह समझना ज़रूरी है कि आप किससे वैराग्य लेने की सोच रहे हैं—अपने परिवार और कर्तव्यों से, या अपने मन और इच्छाओं से?
आप जहाँ हैं, वहीं रहकर, अपने सभी कर्तव्यों को निभाते हुए और दूसरों को सुख देने की भावना से भगवान का भजन करते हुए जीवन व्यतीत करें। अपनी आसक्ति किसी से न रखें। दूसरों से भगवद्-भाव से प्रेम करें और यह सोचें कि मेरे भगवान इस रूप में मेरे सामने आए हैं। इनको सुख पहुंचे, ऐसा प्रयास करें।
कहाँ भागकर जाओगे वैराग्य लेकर?
कौन सी गुफा है जहाँ आप भागकर जाना चाहते हैं? यह बहुत बड़ी कृपा है कि मन संसार की पद-प्रतिष्ठा और भोग-सामग्री से हट जाए। अधिकांश लोग तो इन्हीं में मन लगाने की कोशिश करते हैं। लेकिन वैराग्य लेकर जाओगे कहाँ? किस बात का वैराग्य? भागकर कहाँ जाओगे? रहना तो इसी संसार में है। ऐसा सोचना चाहिए कि मेरा कुछ भी नहीं है, यह सब प्रभु का ही है। भगवान ने ही मुझे यह सेवा दी है। हमारा संसार में कोई नहीं है, और हर कोई हमारा है, क्योंकि सबमें हमारे भगवान ही हैं।
अगर इस भाव से घर में रहोगे, तो तुम एक सच्चे सन्यासी हो। लेकिन अगर कमंडल और लंगोटी में आसक्ति है, तो एक संत भी गृहस्थ ही है। वहीं, अगर पूरे परिवार में रहते हुए भी किसी से आसक्ति नहीं है, तो तुम सन्यासी हो। अंततः, सुधार हमें अपने अंदर से करना है।
भजन करने के लिए संसार से भागने की आवश्यकता नहीं
भगवान को प्राप्त करने के लिए कहीं भागने की आवश्यकता नहीं है। केवल अपने मन का उद्देश्य और आचरण बदलने की जरूरत है। जब आपका उद्देश्य बदल गया, तो सब कुछ अपने-आप ठीक हो जाएगा। यदि आप गृहस्थ होते हुए भी कहीं और मन नहीं लगाते, और आपका मन केवल भगवान की ओर लगा रहता है, तो आपका उद्देश्य उत्तम बन गया। ऐसे में आप गृहस्थी में रहते हुए भी एक संत हैं। घर से भागकर जहां भी जाएंगे, वहां भी माया ही माया है। इसलिए, कहीं भागने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस अपने आप को बदलने की जरूरत है।
भजन करने के लिए परिवार छोड़ना समाधान नहीं है
परिवार से अलग हो जाना सही समाधान नहीं है, क्योंकि फिर उन कर्तव्यों का पालन कौन करेगा? यदि माता-पिता की सेवा करनी हो या अन्य कोई ज़िम्मेदारी हो—जैसे शादी कर ली हो, पत्नी और बच्चे हों—तो ऐसे में घर छोड़कर भागना उचित नहीं है। जहाँ आप हैं, वहीं रहकर भजन करते हुए भगवान की प्राप्ति करें। गृहस्थ धर्म के माध्यम से भी भगवत प्राप्ति संभव है। अपने परिवार का पालन-पोषण करना आपका कर्तव्य है। भागने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि अपने उद्देश्य को बदलने की जरूरत है। यह तो बहुत बड़ी कृपा है यदि किसी को संसार के लोभ-लालच और भोगों के प्रति आसक्ति न रहे। यह जरूरी नहीं है कि भेष बदलने से, यानी साधु का रूप धारण करने से, भगवान मिल जाएँ। अगर साधु के भेष में भी चूक हो गई, तो नरक भोगना पड़ सकता है।
भजन करने के लिए गृहस्थी एक सुरक्षित मार्ग है
अगर आप गृहस्थ जीवन में हैं, कोई आपको प्रणाम या नमस्कार नहीं करता, कोई आपको महात्मा मानकर आदर नहीं देता, फिर भी यदि आपके मन में कोई लालसा नहीं है, कोई इच्छा नहीं है, और आप भगवान का भजन करते हैं, तो आपका पूरा भजन सुरक्षित रहता है।
संतों का भजन तो कई जगह बँट जाता है। लोगों का प्रणाम स्वीकार करने में, उनसे भोजन ग्रहण करने में, उनसे कपड़े लेने में, और दूसरों के मंगल के लिए उनका भजन लग जाता है। संतों के पास तो केवल भगवान ही शेष रह जाते हैं, क्योंकि उनका भजन और साधना संसार के कल्याण के लिए समर्पित होती है। लेकिन यदि आप गृहस्थी में रहते हुए भजन करते हैं और आपका भजन कहीं नहीं बँटता, तो आपका पूरा का पूरा भजन सुरक्षित रहता है।
मन का विचित्र खेल
मन का खेल वास्तव में बहुत विचित्र है। अगर आप गृहस्थ जीवन में हैं और आपका मन भगवान की ओर जा रहा है, तो यह श्रेष्ठ स्थिति है। लेकिन अगर आप सन्यास ले लें और फिर आपका मन संसार की ओर भागने लगे, तो यह ठीक नहीं है। यह माया का बड़ा अजीब खेल है।
माया को भूत के लड्डू जैसा कहा गया है—खाओ तो भी परेशानी, न खाओ तो भी परेशानी। घर में रहेंगे तो लगेगा कि आप गृहस्थी और प्रपंच में फँसे हुए हैं, और साधुओं का जीवन अधिक श्रेष्ठ लगने लगेगा जो सुबह से शाम तक भजन में लीन रहते हैं। लेकिन जब आप सन्यास मार्ग अपनाएँगे, तो गृहस्थ जीवन के सुखों की याद सताने लगेगी। लेकिन यह याद खतरनाक है। घर में रहकर संतों की याद आना बढ़िया है, परंतु संत बनकर गृहस्थी की याद आना ठीक नहीं।
भजन का सार
भजन का सार याद और स्मृति में है। अगर संसार में रहकर भगवान की स्मृति आ रही है, तो यह बहुत ऊँची स्थिति है। लेकिन अगर भगवान के पास रहकर संसार की स्मृति आने लगे, तो यह बहुत घटिया जीवन माना जाएगा। आप निराश मत होइए। भगवान का नाम जप कीजिए और अपने कर्तव्यों का पालन कीजिए। अपने कर्तव्य का पालन करना भगवान की पूजा के समान है।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज