पहले ऐसा होता था कि यदि कोई व्यक्ति सबकी गायें चराता, तो गांव के लोग उसके घर अन्न भिजवा देते थे और अपनी गायें उसे चराने के लिए दे देते थे। ऐसे व्यक्ति को ग्वाला या चरवाहा कहा जाता था। वह सैकड़ों लोगों की गायें चराता था, और उसके घर अन्न व अन्य आवश्यक सामग्री भिजवा दी जाती थी। गोपाल चरवाहा न तो एक अक्षर पढ़ा-लिखा था और न ही उसने कभी भगवान का नाम लिया या कोई धार्मिक चर्चा सुनी थी। उसका परमार्थ से कोई संबंध नहीं था। वह बस गायें चराता, जंगल में रहता, उसकी पत्नी उसे भोजन पहुंचा देती, और गांव वाले परिवार चलाने के लिए उसे सामग्री दे देते थे, क्योंकि वह सबकी गायें चराता था। न तो उसे किसी धर्म का ज्ञान था, न ही किसी साधना का।
गोपाल चरवाहे को मिली नाम जप की प्रेरणा

एक दिन उसने देखा कि जंगल से संतों की एक मंडली जा रही है, जो ‘श्री राम जय राम जय जय राम’ का कीर्तन कर रही थी। उनके कीर्तन को सुनकर उसे बड़ा आनंद आया। उसे लगा कि संतजन कितने भावविभोर होकर झूम-झूमकर गा रहे हैं। उसने किसी से कोई बात नहीं की, बस उनके कीर्तन की धुन और नाम पकड़ लिया। वह पूरा कीर्तन तो नहीं सुन पाया, लेकिन ‘राम नाम’ उसे याद रह गया। यदि आप बिना गुरु मंत्र के भी नाम जप करेंगे, तो यह नाम-जप आपको स्वयं गुरु तक पहुंचा देगा।
उसकी आयु लगभग पचास वर्ष की थी। उसने कभी कोई तीर्थ यात्रा नहीं की, कोई धार्मिक कार्य नहीं किया, कोई शास्त्र नहीं पढ़ा और न ही कभी सत्संग सुना — कुछ भी नहीं। लेकिन अब उसे अलौकिक रूप से नाम में मिठास महसूस होने लगी थी। कभी-कभी वह जोर-जोर से गाने लगता, कभी-कभी नाचने भी लग जाता। जब वह इस तरह नाचता-गाता, तो आसपास के लोग उसका उपहास करते।

लोग कहते, “ऐसे करने से क्या मिलेगा? नाम जप से क्या हो जाएगा?” उसने कहा, “मैंने तो कभी सोचा ही नहीं कि इससे कुछ मिलेगा। मैं तो बस ऐसे ही गा रहा हूँ। लेकिन आप लोग मेरा उपहास कर रहे हैं… क्या इस तरह गाना गलत है? मुझे तो अच्छा लगा, जैसे संतजन गा रहे थे, तो मैंने भी गाना शुरू कर दिया। क्या वाकई में आप लोग समझते हैं कि यह गलत है?” उन्होंने कहा, “तू मूर्ख है! तुझे क्या समझ आएगा?” और ऐसा कहकर वे उसका मजाक उड़ाते।
गोपाल चरवाहे की गुरु की खोज
उसके मन में एक बात आई — “कोई तो मुझे प्रमाण दे कि जो नाम मैंने संतों के मुख से सुना, क्या वह परम सत्य है? क्या वह परम सुखकारी है? क्या सचमुच इससे वैकुंठ की प्राप्ति हो सकती है? कोई तो ऐसा मिले जो यह सब मुझे बताए।” जब किसी के हृदय में ऐसी सच्ची आकांक्षा उत्पन्न होती है, तो प्रभु स्वयं मार्ग प्रशस्त कर देते हैं। ऐसे भाव से जब कोई पुकारता है, तो भगवान मिल ही जाते हैं।

एक दिन, जब लोग उसका उपहास कर रहे थे, उसी समय उसने देखा कि एक परमहंस संत लंगोटी पहने, हाथ में कमंडल और दंड धारण किए हुए वहां से गुजर रहे हैं। वह दौड़कर उनके चरणों में गिर पड़ा और विनती करते हुए बोला, “महाराज जी, एक बात बता दीजिए। जो राम-राम मैं जप रहा हूँ, उसी को लेकर लोग मेरा मजाक उड़ाते हैं। क्या इससे मेरा कल्याण होगा? क्या मुझे वैकुंठ की प्राप्ति हो सकती है?” इस पर उन संत भगवान ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, यह भगवान का अत्यंत मंगलमय नाम है। लेकिन मुझे लगता है कि अब तुम्हें एक सद्गुरु की आवश्यकता है। यदि तुम गुरु-कृपा पात्र बन जाओगे, तो उपहास करने वालों की बातें तुम्हारे मन को छू भी नहीं सकेंगी। और निश्चित रूप से तुम्हें भगवत्साक्षात्कार होगा।”
यह सुनकर वह भावविभोर हो गया, उनके चरण पकड़ लिए और कहने लगा, “महाराज, आप ही मेरे गुरु बन जाइए। आप ही मुझे गुरुमंत्र दे दीजिए।” संत बोले, “बेटा, मैं इस समय तीर्थयात्रा पर हूँ। अभी यह सम्भव नहीं है। लेकिन यदि तुम भगवान से सच्चे मन से प्रार्थना करोगे, तो तुम्हारे कल्याण के लिए निश्चित ही तुम्हें तुम्हारे सद्गुरुदेव प्राप्त होंगे। बेटा, तेरे ऊपर भगवान की विशेष कृपा है, क्योंकि तू संतों में श्रद्धा रखता है। मेरी बात पर विश्वास करना — तू एकांत में बैठकर रो, पुकार कर प्रभु को बुला, तुझे सद्गुरु अवश्य मिलेंगे।” इतना कहकर वे संत तीर्थयात्रा के लिए आगे बढ़ गए।
गोपाल चरवाहे को मिले उसके गुरुदेव
अब वह ग्वाला एकांत में जाकर साधना करने लगा। कभी वह पेड़ों पर चढ़कर दूर तक देखने की कोशिश करता कि कोई संत आ रहे हैं क्या। उसके लिए भोजन पहुंचा दिया जाता, वह खा लेता, गायें चराता और मन ही मन एक ही खोज में लगा रहता — “मुझे मेरे सद्गुरु मिल जाएं…” बहुत समय बीत गया, पर उसका विश्वास कभी नहीं डगमगाया। उसे पूरा भरोसा था कि जैसा उस परमहंस संत ने कहा था— “यदि तुम सच्ची भावना करोगे, तो सदगुरु अवश्य मिलेंगे” — वह बात सत्य होकर रहेगी। और फिर एक दिन, वही हुआ।

एक तेजस्वी महात्मा तीव्र गति से उसकी ओर आते दिखाई दिए। उन्हें देखते ही उसके मन में यह बात उठी कि — “ये वही हैं… यही मेरे सदगुरु हैं!” वह दौड़कर उनके चरणों में गिर पड़ा। जैसे ही उसने उनके चरणों का स्पर्श किया, एक बिजली-सी उसके शरीर में दौड़ गई और उसी क्षण उस ग्वाले के हृदय में यह दृढ़ भाव जागा — “अब बात बन गई… गुरु मिल गए!” उसकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। उसे सहज ही अनुभव हो गया कि वही संतों की भविष्यवाणी के अनुसार प्रकट हुए सदगुरु हैं। उसने उन संत से विनम्रता से कहा, “प्रभु, कृपा करके मुझे वह गुरु-मंत्र दे दीजिए, जो मुझे इस भवसागर से पार करा दे।”
संत ने उत्तर दिया, “बेटा, ऐसे ही कोई दीक्षा नहीं दी जाती। पहले जाकर स्नान कर आओ, फिर हम एकांत स्थान में बैठेंगे और तुम्हें उपदेश देंगे।” वह बोला, “महाराज, मैं एक जंगली आदमी हूं। गायें चराता हूं। हमारा किसी घर-बार से न कोई लेना-देना है, न किसी संसारिक व्यवहार से। भोजन तो ऐसे ही आ जाता है।” संत बोले, “अच्छा, तो पहले स्नान करके आओ।” स्नान करके वह लौटा और दोनों एक वृक्ष के नीचे बैठ गए। संत बोले, “मैं तुम्हें कुछ नियम दूँगा, जिनका पालन तुम्हें करना होगा।”
गोपाल चरवाहे को उनके गुरु से मिला एक नियम

वह बड़ी सरलता से बोला, “महाराज, मैं एक सीधा-सादा गँवार आदमी हूं। न तो मैं आपके सारे नियमों का पालन कर पाऊँगा, न किसी व्रत का, और न ही मैं कोई कठिन साधना कर सकता हूँ। आप देख ही रहे हैं मेरी हालत—पचास साल का हूं, बिल्कुल अनपढ़ हूं, कोई धर्म-कर्म नहीं जानता, बस गाय चराता हूं। मुझसे बहुत सारे नियमों का पालन नहीं हो सकेगा… लेकिन कृपा करके कोई एक नियम दे दीजिए — और मैं वचन देता हूँ कि चाहे प्राण चले जाएं, पर उस एक नियम का पालन मैं ज़रूर करूंगा।”
गोपाल की सरलता और दृढ़ निष्ठा को देखकर वे संत-भगवान अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने स्नेहपूर्वक कहा, “तुझे एक नियम देता हूँ — हमारे आराध्य श्रीकृष्ण हैं, और आज से तेरे भी आराध्य गोविंद होंगे। तेरे लिए यही नियम है: जब तक तुम गोविंद को भोग न लगा लो, तब तक कुछ भी मत खाना। चाहे सूखी रोटी मिले, दूध मिले, छाछ मिले — जो कुछ भी मिले — पहले गोविंद को अर्पित करना, फिर भोजन करना।” गोपाल ने तुरंत हाथ जोड़कर कहा, “गुरुदेव, मेरे प्राण भले ही चले जाएँ, लेकिन आज के बाद बिना गोविंद को भोग लगाए, मेरी जिह्वा पर कुछ भी नहीं जाएगा।” वह तो सीधा-सच्चा ह्रदय वाला था। अब तो गोपाल आनंद से झूम उठा — उसे गुरुदेव मिल गए, गुरु-मंत्र मिल गया, और इष्टदेव गोविंद भी मिल गए!
गोपाल चरवाहे ने किया नियम का पालन — गोविंद के बिना अन्न नहीं

इसके बाद गोपाल के घर से भोजन आया। भोजन में केवल चटनी और रोटी थी। वह एकांत में एक वृक्ष के नीचे बैठ गया और प्रेमपूर्वक बोला — “आओ गोविंद, भोग पाओ।” अब गोपाल चरवाहा मन ही मन विचार करने लगा — “श्रीकृष्ण तो आ ही नहीं रहे हैं… गुरुदेव ने कहा है कि बिना भोग लगाए कुछ खाना नहीं है।” वह पूरे दिन भगवान की प्रतीक्षा करता रहा। वह सोचता रहा — “गुरु जी ने तो कहा था कि भगवान घट-घट में विराजमान हैं, तो वे कहीं से भी प्रकट हो सकते हैं।” वह भीतर-ही-भीतर जप करता रहा, बार-बार कहता रहा — “आओ भगवान, ये भोग पाओ।” लेकिन प्रभु प्रकट नहीं हुए। रात्रि हो गई। जब देखा कि प्रभु नहीं आए, तो उसने वह भोजन उठा लिया और गाय को खिला दिया। स्वयं भूखा ही रह गया।
प्रभु की प्रतीक्षा में गोपाल चरवाहे का उपवास

दूसरे दिन फिर उसके घर से भोजन आया। उसने पेड़ से एक पत्ता तोड़ा, उसे जल से शुद्ध किया और उस पत्ते पर भोजन सजाया। फिर वह भावभरे स्वर में भगवान को पुकारने लगा — “आओ प्रभु, गुरुदेव ने आज्ञा दी है कि बिना आपको भोग लगाए मैं कुछ भी ग्रहण नहीं कर सकता।” लेकिन आज भी भगवान प्रकट नहीं हुए। शाम हो गई। उसने फिर वह भोजन उठाया और अपनी गायों को खिला दिया। स्वयं फिर से उपवास कर लिया।
गोपाल चरवाहे की आयु पचास वर्ष थी। वह दिन-रात गायों के पीछे दौड़ता था, और भूखा भी था। धीरे-धीरे उसके शरीर में सामर्थ्य कम होने लगी। काफ़ी दिन बीत गए — तीसरा दिन, चौथा दिन, पाँचवाँ दिन, छठा दिन, सातवाँ दिन। वह बस यही सोचता रहा — “हे प्रभु, चाहे प्राण निकल जाए, हम गुरु की आज्ञा नहीं तोड़ सकते। अगर आप नहीं आएंगे तो मैं भूखा मर जाऊँगा, लेकिन गुरु की आज्ञा की अवहेलना नहीं करूँगा।”
शरीर की दुर्बलता, लेकिन गोपाल चरवाहे की निष्ठा में कोई कमी नहीं

वह केवल एक साधारण चरवाहा था, उसकी कोई पूर्व साधना नहीं थी। लेकिन गौ सेवा के पुण्य और नाम जप की कृपा से उसे संतों में विशेष स्नेह हुआ और गुरु कृपा से उस में भगवान के दर्शन की इच्छा जागृत हुई। उनके शरीर की हड्डियाँ दिखने लगीं। उनकी पत्नी ने पूछा, “भोजन तो मैं रोज लाती हूँ, आप रोज मुझसे भोजन लेते भी हैं, क्या आप भोजन नहीं खा रहे?” उन्होंने उत्तर दिया, “यह आपकी चिंता का विषय नहीं है।” यहां से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपने गुरु द्वारा दिए गए साधनों को किसी से साझा नहीं करना चाहिए।
वह केवल अंदर ही अंदर यह सोच रहे थे कि — “गुरुदेव ने कहा था कि भगवान आएँगे, और जब तक वे नहीं खाएँगे, तब तक मुझे भी कुछ नहीं खाना।” हालाँकि, उनके गुरु का उद्देश्य कुछ और था। गुरुदेव का कहना था कि, “आप भगवान को भोग लगाकर खाइए, और भजन कीजिए, तो गुरु मंत्र के प्रभाव से आपके मानस पटल पर भगवान के दर्शन होंगे।” लेकिन गोपाल सीधा साधा आदमी था, इसलिए उसने यह समझा कि जब तक भगवान खुद नहीं खाएँगे, तब तक मुझे भी कुछ नहीं खाना चाहिए।
गोपाल चरवाहे की पत्नी की चिंता और विनती

अट्ठारह दिन बीत गए, गोपाल ने कुछ नहीं खाया, कुछ नहीं पिया। गोविंद भी अपने भक्तों को निहारते रहते हैं। उन्नीसवें दिन उनकी पत्नी भोजन लेकर आई और पूछा, “क्या आपको कोई रोग हो रहा है? आप भोजन क्यों नहीं खा रहे? क्या मैं रुक जाऊँ आपकी सेवा के लिए? या आप घर चलिए?” गोपाल ने कोई उत्तर नहीं दिया, बस कहा, “आप घर जाइए, मैं ठीक हूँ।” फिर उसने पेड़ से एक पत्ता लिया, उस पर जल छिड़का, और भगवान से कहा, “भगवान आओ, भोग पाओ!” शाम हो गई, और फिर वह भोजन गाय को दे दिया। वह विचार करने लगा कि अब तो मुझे मरना ही है। “मेरे जैसे अधम के पास भगवान तो नहीं आएंगे, वे तो भगवान हैं। लेकिन मैं अपने गुरु के वचन नहीं तोड़ सकता। मर जाऊँ, लेकिन गुरुदेव के वचन का पालन जरूर करूंगा।”
सत्ताईस दिन बीत गए, उसने कुछ भी नहीं खाया। ना चलने की शक्ति थी, ना पत्ता लाने की, ना जल छिड़कने की। जिस पात्र में उसकी पत्नी ने भोजन लाया था, वह लेटे-लेटे ही उसे खोला और कहा, “प्रभु, मुझे पता है कि आप इस शरीर से नहीं मिलेंगे, आप जान लें, मैं अपने गुरु की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करूंगा।” उनकी दशा देखकर, पत्नी ने कहा, “अब तो आप कहेंगे भी, तो भी मैं वापस नहीं जाऊंगी। आपकी स्थिति मुझसे देखी नहीं जा रही।” गोपाल ने इशारे से कहा, “बस, आज तुम चली जाओ। आज भर के लिए जाओ, फिर कल से जैसी तुम्हारी इच्छा।” उसने महसूस किया कि आज शायद प्राण निकल जाएंगे, “आज तुम जाओ, फिर कल से जैसा तुम्हारा मन हो।”
गोपाल चरवाहे की पुकार सुन मिलने आए श्री कृष्ण

गोपाल के आँसू लगातार बह रहे थे, वह लेटे-लेटे रो रहा था। धीरे से उसने भोजन का पात्र खोला, भोग को प्रभु को अर्पित करते हुए भीतर ही भीतर कहा: “प्रभु, अब या तो स्वयं आकर इस भोग को ग्रहण कर लो, या मुझे अपने धाम बुला लो — वहाँ मुझे अपने हाथों से खिला देना। यह मेरा अंतिम भोग है।” तभी उसे एक स्वर सुनाई दिया — “गोपाल!”
उसने चौंककर आँखें खोलीं। और जैसे ही दृष्टि उठी — वही पीतांबर, वही मोर मुकुट, वही मुरली, वही करधनी, वही नूपुरों की झंकार, वही ललित त्रिभंगी रूप, जैसा गुरुदेव ने बताया था — वैसा ही अनुपम सौंदर्य लेकर प्रभु श्री कृष्ण गोपाल के समक्ष खड़े थे। ना कोई गाय उन्हें देख पा रही थी, ना कोई और चरवाहा। केवल गोपाल ही प्रभु के उस दिव्य रूप को देख पा रहा था। क्योंकि भगवान जब किसी से मिलते हैं, तो पहले उसे दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं।
उसने सामने देखा — श्रीकृष्ण खड़े हैं — वही ललित त्रिभंगी रूप, वही अनुपम सौंदर्य, वह दिव्य आभा — जिसका कोई वर्णन संभव नहीं। तेज इतना कि गोपाल की आँखें टिक न सकीं। वो आँखें बंद कर गया — और तब देखा… मानस पटल पर भी वही भगवान विराजमान हैं। फिर आँखें खोलीं — तो वही प्रभु सामने साक्षात खड़े थे।
गोपाल चरवाहे की प्रभु से विनती

गोपाल ने काँपते हुए संकेत किया — “प्रभु… मुझसे नहीं होगा… मैं तो लाचार हूँ… आप ही कृपा करके निकट आ जाइए…” प्रभु ने वह इशारा पढ़ लिया — और उसी क्षण स्वयं गोपाल के समीप आ गए। गोपाल ने अपने अश्रुपूरित नेत्रों से प्रभु को देखा, और फिर झुककर अपने मस्तक को प्रभु के चरणों में रख दिया।
आँखों से बहते अश्रु, अब प्रभु के चरण धो रहे थे। प्रभु ने उसे उठाया, और अपने हृदय से लगा लिया। उसी क्षण — गोपाल का कृशकाय शरीर पुष्ट हो गया, उसके अंदर-बाहर का सारा दुःख, संताप और क्लेश समाप्त हो गया। भगवान बोले, “प्यारे गोपाल, अब तू रो मत। देख, मैं तेरे प्रेम में पगी हुई जो सूखी रोटियाँ हैं, अभी पाता हूँ।” भगवान बैठ गए और उसके घर की जो रोटी थी, उसे पाने लगे। प्रभु बोले, “गोपाल, मुझे त्रिभुवन का कोई भी भोग प्रसन्न नहीं कर सकता। मैं ऐसे ही प्यार भरे अन्न की चाह रखता हूँ। जो सच्चे हृदय से मुझे पुकारता है, मैं अवश्य उसको मिलता हूँ। जो प्रेमपूर्वक मुझे खिलाता है, मैं अवश्य उसका भोग पाता हूँ। मैं किसी भी वस्तु का कभी भूखा नहीं हूँ।
अब तेरे जीवन में कभी दुख का लेश नहीं रहेगा। तू अब घर जा, अब किसी की गाय चराने की जरूरत नहीं है। कुल परंपरागत तेरे कुल में लक्ष्मी बढ़ती रहेगी। तुझे कुछ करने की जरूरत नहीं।” गोपाल समझ ही नहीं पाया और भगवान हँसते-हँसते अंतर्ध्यान हो गए। अभी गोपाल मन भर के प्रभु को देख भी नहीं पाया था और कुछ कह भी नहीं पाया था, और भगवान अंतर्ध्यान हो गए। अब तो वह चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा और विवश होकर आँख बंद की, तो देखा कि भगवान उसके मानस पटल पर छाए हुए थे। वह राज़ी हो गया कि अब तो मेरे प्रभु ऐसी जगह विराजमान हो गए हैं, जहाँ कोई देख भी नहीं पाएगा, और हम रोज़ उनसे बात करेंगे और रोज़ उनका दर्शन करेंगे।
गोपाल चरवाहे के जीवन से हमारे लिए सीख
गोपाल एक गांव का गाय चराने वाला था। उसे न तो किसी धर्म-कर्म का ज्ञान था, न भक्ति का, और न ही शास्त्रों का, फिर भी भगवान उससे मिलने आए और उसे हृदय से लगा लिया। भगवान को दैन्यता बहुत प्रिय है। जो सद्गुरुदेव की आज्ञा का पालन करते हैं, उनमें दैन्यता निश्चित रूप से आ जाती है और अहंकार गलित हो जाता है। “भाईजी” हनुमानप्रसाद पोद्दार जी कहते हैं कि, “प्रभु, मुझे बुद्धिहीन बना दो। यह जो बहुत अधिक बुद्धि चलती है न, इसकी कोई आवश्यकता नहीं।” प्रभु हमारे हैं, हम प्रभु के हैं। नाम जप करें, प्रभु का आश्रय लें और भगवत प्राप्ति निश्चित है।
भगवान ने गोपाल से कहा कि मुझे त्रिभुवन का कोई भी भोग प्रसन्न नहीं कर सकता। जिन्हें यह भ्रम है कि हम अधर्म से कमा कर छप्पन भोग लगाकर प्रभु को प्रसन्न कर लेंगे, वे प्रभु की इस बात को अच्छे से समझ लें। कभी एकांत में प्रेम से रोकर उन्हें खिला कर देखो। चाहे आप एक छोटी कटोरी में सब्जी और दो रोटियां ही लो, लेकिन यदि दैन्य भाव से कहो—”हे नाथ, कहां आप और कहां मैं, मैं आपको कुछ कैसे खिला सकता हूँ”—बस यही कहते जाओ और बीच-बीच में जल पिलाओ। जैसा भाव आप रखोगे, वैसा ही व्यवहार प्रभु आपके साथ करेंगे। मानो गोपाल के बहाने से प्रभु हमसे कह रहे हों कि उन्हें वास्तव में क्या चाहिए।
हम तात्कालिक वर्तमान दुख को तो मिटा सकते हैं, लेकिन संपूर्ण दुखों का नाश केवल नाम जप से ही संभव है। देखो, गोपाल ने जब संतों की वाणी सुनी और राम-राम का जप शुरू किया, तो उसे गुरु मिल गए। और जब उसने गुरु की आज्ञा का पालन किया, तो उसे भगवान की प्राप्ति हुई। धैर्य धारण करो—चाहे कितना भी कष्ट आए, अब पीछे मत हटो, फिसलो मत। माया अपने पार्षदों को भेजेगी, पर जिस व्यक्ति, वस्तु या स्थान से प्रभु का चिंतन छूटे, उसे कभी भी स्वीकार मत करना।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज