श्री घाटम जी को जन्म से ही चोरी करने के संस्कार दिये गये थे। चोरी करना, डाका डालना और लूटपाट करना, घाटम जी का पारिवारिक पेशा था। एक बार घाटम जी किसी वन में किसी को लूटने की तलाश में घूम रहे थे। उन्होंने देखा कि किसी वृक्ष के नीचे अश्रु प्रवाहित करते हुए कोई संत बैठे हुए हैं। वह संत भगवान के ध्यान में मग्न थे। संतों के दर्शन से तत्काल पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थों का लाभ तो बहुत समय बाद मिलता है, लेकिन संतों के दर्शन का लाभ उसी क्षण मिल जाता है। घाटम जी उनके पास गए तो उनके ह्रदय में बहुत आनंद उमड़ा। उनका मन हुआ कि वह उन्हें झुककर प्रणाम करें और उन्होंने सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया। उन्होंने अपने जीवन में पहली बार किसी को प्रणाम किया। उन संत ने देखा कि कोई उन्हें प्रणाम कर रहा है। संत को बड़ा आनंद हुआ कि इस जीव पर प्रभु की कृपा हुई है। घाटम जी ने सोचा कि ऐसा कौनसा सुख है जिससे बिना किसी भोग सामग्री और व्यवस्था के भी इनके अश्रु प्रवाहित हो रहे हैं। उन्हें लगा कि ज़रूर उनके पास कोई महान सुख है।
महात्मा जी ने कहा बैठ जाओ, जल्दी तो नहीं है? घाटम जी उनके समीप बैठ गए। महात्मा जी ने कहा, देखो बेटा, जीवन बहुत कीमती है। इस जीवन को सदैव भगवद् चरणों में लगाना चाहिए और कोई ग़लत कार्य नहीं करना चाहिए। संत ने घाटम जी से उनके काम काज के बारे में पूछा। घाटम जी ने बताया कि, मैं चोरी करता हूँ, डाका डालता हूँ और लूटपाट करता हूँ। महात्मा जी ने कहा यह तो बहुत निंदनीय कार्य है। दूसरों का धन चुराने से और उन्हें पीड़ा देने से, इस लोक और परलोक में सब नष्ट हो जाता है। तुम्हारे ऊपर भगवान की कृपा हुई है। नियम लो कि तुम आज के बाद कभी चोरी नहीं करोगे।
घाटम जी ने हाथ जोड़कर कहा यह कदापि नहीं हो सकता। यही मेरी जीविका है और बचपन से हमें हमारे पुरखों ने चोरी करना सिखाया है। मेरे पूज्यजनों ने मुझे नियम दिया है कि मैं कभी यह चोरी का धंधा ना छोड़ूँ। आप में मुझे विशेष श्रद्धा हो रही है, मेरे हृदय का खिंचाव आप की तरफ़ हो रहा है। आप इसके सिवा और जो चाहे उपदेश दे दीजिए। यदि मैं आपको वचन दे दूँगा, तो आजीवन वही करूँगा जो आप कहेंगे।
घाटम जी को मिले चार नियम
उन संत ने कहा कि अगर तुम चोरी करना नहीं छोड़ सकते तो मेरी यह चार बातें मान लो। पहली बात, सदैव सत्य बोलना। दूसरी बात, साधु सेवा में रुचि रखना। जब भी कोई संत दिखाई दे, तो उन्हें प्रणाम करना और उनसे आदर और नम्रता से बात करना। कभी तुम्हारे घर संत आ जाएँ तो उन्हें भूखा मत जाने देना। उनको जल पिलाना, भोजन खिलाना, और उनकी सेवा करना। तीसरी बात, आज के बाद बिना प्रभु को अर्पण किए हुए ना जल पीना और ना ही अन्न खाना। और चौथी बात, कहीं भी अगर भगवान की आरती हो रही हो तो बिना दर्शन किए वहाँ से मत जाना। घाटम जी ने संत जी को प्रणाम किया और जीवन भर उन चार बातों को पालन करने का वचन दिया।
संत सेवा का चमत्कार
घाटम जी लूटपाट आदि करके धन लाते, उस धन से साधु सेवा करते और फिर जो बचता उससे अपने परिवार को खिलाते। एक दिन संतों की एक मंडली उनके घर पर आई तो उन्होंने तत्काल उठकर संतों को दंडवत प्रणाम किया, और सभी को बैठने के लिए सुंदर आसन दिए। उन्होंने देखा कि घर में कुछ खाने के लिए नहीं है तो उन्होंने बाजार जाकर दुकानदारों से उधार मांगने की चेष्टा की। लेकिन दुकानदारों ने उन्हें मना कर दिया। उस समय गेहूँ की फसल की कटाई चल रही थी। उन्होंने देखा कि किसान लोग सो रहे हैं। वे एक बड़ी सी चद्दर लेकर गए और जल्दी से गेहूँ भरकर ले आये और उन्होंने संतों के भोजन की व्यवस्था की। घाटम जी बड़े तंदुरुस्त थे तो खेत में उनके पैरों के चिन्ह बन गए।
साधु जनों को खिलाते समय वे सोच रहे थे कि अब तो वो पक्का फँसेंगे ही क्योंकि जब किसान जागेंगे और पैरों के चिन्ह देखेंगे तो उन्हें समझ में आ जाएगा कि ये घाटम जी के पैर के निशान हैं। जैसे-जैसे संतजन वो प्रसाद खा रहे थे, वैसे ही बड़ी धूल भरी आंधी चली और वर्षा हो गई। उनके पैरों के चिन्ह मिट गए। यह बात देखकर घाटम जी को और विश्वास हुआ कि साधु सेवा कभी उन्हें फँसने नहीं देगी। उनके हृदय में बड़ा आनंद हुआ और संत सेवा के प्रति उनकी श्रद्धा बढ़ गई।
भक्त के लिए प्रभु ने बदला घोड़े का रंग
एक बार कोई उत्सव था तो घाटम जी ने सोचा कि गुरुदेव के पास क्या ले जाएँ। उनको लगा कि उत्सव है तो गुरुदेव के पास कुछ सेवा पहुँचनी चाहिए, पर उनके पास एक पैसा भी नहीं था। उन्होंने निश्चय किया कि रात्रि में चोरी करते हैं और जो भी मिला उसे सुबह गुरुदेव की सेवा में दे देंगे। घाटम जी ने एक फौजी सिपाही का वेश बनाया और एक राजा के अस्तबल में घुस गए। रात में पहरेदार ने आवाज दी कि कौन है। गुरु की सत्य बोलने की आज्ञा मानते हुए घाटम जी ने बोला कि मैं चोर हूँ। पहरेदार ने सोचा कि अगर चोर होगा तो ये थोड़ी बोलेगा कि चोर हूँ । पहरेदार को लगा कि यह कोई राजा का ख़ास आदमी है तभी यह विनोद में निर्भय होकर कह रहा है कि चोर है। सिपाही के वेश में घाटम जी ने राजा के घोड़ों में से एक बढ़िया घोड़ा लिया और उसपर सवार होकर निकले।
उनकी वेशभूषा देखकर पहरेदारों ने फिर पुनः उनको नहीं रोका। वहाँ से निकलकर उन्होंने सोचा कि घोड़े को कहीं बेच देंगे। रास्ते में प्रातः काल ठाकुर जी की मंगला आरती हो रही थी। उन्होंने सोचा कि गुरुजी की आज्ञा है कि आरती हो रही हो तो ज़रूर दर्शन करना चाहिए। उन्होंने घोड़े को बांध दिया और आरती के दर्शन करने के लिए चले गए। जब पहरेदारों ने सोचा कि राजा का कोई आदमी होता तो सबको सूचना होती, तब उन्हें समझ आया कि वास्तव में वह चोर ही था। राज सैनिकों ने पीछा किया और वहाँ आए जहाँ पेड़ से घोड़ा बांधकर घाटम जी आरती का दर्शन करने गए थे। सिपाहियों ने देखा तो घोड़ा वही था पर उसका रंग बदल गया था।
काले रंग का घोड़ा अब सफ़ेद रंग का हो गया था। सिपाही वहाँ खड़े हो गए कि घोड़ा तो यही है, पर यह तो काला था, ये सफेद कैसे हो गया। इतने में आरती के दर्शन करके घाटम जी मंदिर से बाहर आए। सिपाहियों ने पूछा कि ये घोडा वही है ना जो तुम रात्रि में चुरा कर लाए थे। सत्य बोलना था, घाटम जी बोले, हाँ, मैं वही चोर हूँ जो घोड़ा चुरा कर ले गया था। सिपाहियों ने पूछा कि वो घोड़ा तो काला था, ये सफेद कैसे हो गया ? घाटम जी बोले कि यह तो ठाकुर जी जानें। मेरे गुरूजी ने कहा था कि आरती हो रही हो तो प्रभु के दर्शन करना, तो मैं दर्शन करने गया था। इतने में घोडा सफेद हो गया। ये मेरे गुरुजी का ही कोई चमत्कार होगा। यह बात सुनकर सभी सिपाही आश्चर्यचकित हो गए।
गुरु कृपा: चोरी करने पर भी मिला सम्मान और संपत्ति
सिपाहियों ने घाटम जी और घोड़े को साथ लिया और राजा के पास जाकर सारी बात बताई। घाटम जी की सत्यता और गुरु वचनों पर दृढ़ निष्ठा देखकर राजा बहुत प्रभावित हुआ। राजा ने कहा कि तुम चोर हो पर सत्य बोलते हो और संत आज्ञा का पालन करते हो इसलिए घोड़े का रंग बदल गया। राजा ने कहा कि जो प्रभु अपने जन के लिए ऐसा कर सकते हैं, उनकी निश्चित ही हमारे ऊपर कृपा होनी चाहिए और कृपा तभी होगी जब हम आपका सम्मान करेंगे। राजा ने बहुत सारी संपत्ति घाटम जी के नाम कर दी। संपत्ति लेकर घाटम जी गुरु चरणों के दर्शन करने के लिए गए। घाटम जी की अपने गुरु पर श्रद्धा और बढ़ गई कि मुझ जैसे चोरी करने वाले को जहाँ राजा से दंड मिलना चाहिए था, वहाँ सम्मान मिला। वे गए और गुरु जी को भेंट समर्पित की, उत्सव में सम्मिलित हुए।
उन्होंने निश्चय करके गुरुदेव से कहा कि गुरुजी आपने जो पहली बार मुझे चोरी करने से मना किया था, आज से मैं नियम लेता हूँ कि अब जीवन में कभी चोरी नहीं करूंगा। आपकी कृपा से मुझे बोध हो गया हैं कि मैं बहुत गलत कार्य कर रहा हूँ। उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब कभी चोरी नहीं करेंगे।
घाटम जी को हुआ भगवद् साक्षात्कार
घाटम जी को अब सत्संग सुनते हुए और साधु सेवा करते हुए काफी दिन हो गए थे । अब उनके मन में आया कि ठाकुर जी कैसे दिखते हैं, कभी उनसे मिलना चाहिए। बहुत दिन तक उन्हें ठाकुर जी नहीं मिले, तो उन्हें गुस्सा आ गया। उन्होंने ठाकुर जी से नाराज होकर कहा कि पहले तो मैं बिना नहाए खाता था अब आपके लिए मैं नहाकर खाता हूँ और आपको अर्पित करके खाता हूँ। और पहले मैं कभी कंठी माला और तिलक आदि नहीं लगाता था, पर अब मैं आपके लिए गले में कंठी धारण करता हूँ, माथे पर तिलक लगाता हूँ, केवल आपके लिए। प्रभु आपके लिए मैं इतना कर रहा हूँ, आप मेरे लिए क्या कर रहे हैं? क्या आप मुझे दर्शन देंगे? प्रभु उनकी यह बात सुनते ही तत्काल प्रकट हो गए।
निष्कर्ष
प्रभु संतों के वचनों को सत्य करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। सत्संग के प्रभाव से घाटम जी का जीवन पूरा पलट गया। पहले वो सोचते थे कि कहाँ जाकर चोरी करनी है और अब वे ये सोचते कि कौन से साधु कब पधारें और कैसे उनकी सेवा हो। जब वे चोरी करते थे तब सिपाही हथकड़ी लिए उनको बंदी बनाने के लिये घूमते थे और जब संत समागम हुआ तो लोग उनकी चरण रज को अपने माथे पर लगाने लगे। घाटम जी ने एक संत की शरण ली और उनके वचनों का पालन किया तो वो प्रभु के दर्शन पाकर परम भागवत बन गए। कैसा भी दुष्ट हो, यदि उसपर संत कृपा हो जाये तो उसके लिए भगवद् दर्शन और भगवद् भक्ति दुर्लभ नहीं रहती। इसलिए सत्संग सर्वोपरि है, संत संग से घोर दुष्ट भी महात्मा बन जाता है।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज