तुंगभद्रा नदी के तट पर एक नगर था, जहाँ आत्मदेव नामक एक ब्राह्मण रहते थे। वे समस्त वेदों के ज्ञाता थे और उनका तेज सूर्य के समान था। उनके द्वार से कभी कोई भिक्षुक खाली हाथ नहीं लौटा। उनकी पत्नी का नाम धुंधुली था, जो सुंदर तो थी, लेकिन स्वभाव से झगड़ालू थी। धुंधुली अक्सर झगड़े के लिए बातें करती, पर आत्मदेव शांत रहते थे। जब भी आत्मदेव घर लौटते, घर में केवल कलह और अशांति होती, जिससे उन्हें घर एक बड़े नरक जैसा लगने लगा। समय के साथ आत्मदेव वृद्ध हो गए, लेकिन उन्हें कोई संतान नहीं हुई। उन्होंने बड़े-बड़े पुण्य कर्म किए और खूब दान-पुण्य किया, फिर भी उन्हें संतान सुख नहीं मिला। आत्मदेव इस चिंता में डूब गए कि अगर उनकी संतान नहीं हुई, तो उनका पिंडदान कौन करेगा। उन्होंने हर संभव प्रयास कर लिया, लेकिन सब व्यर्थ रहा।
आत्मदेव जी की संत से मुलाकात
एक दिन आत्मदेव जी ने सोचा कि वे जंगल में जाकर अपने प्राण त्याग देंगे, क्योंकि घर में कलह थी और संतान भी नहीं थी। उन्हें जीवन व्यर्थ लगने लगा और वे जंगल की ओर चल पड़े। उसी समय एक महान संत प्यास बुझाने के लिए एक सरोवर की ओर जा रहे थे। आत्मदेव जी संत के पास पहुंचे, उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़े हो गए। संत ने पूछा, “तुम्हारी चिंता क्या है? तुम ब्राह्मण लगते हो, क्योंकि तुम्हारे चेहरे पर तेज है, लेकिन तुम बहुत दुखी दिखाई देते हो।” आत्मदेव जी ने उत्तर दिया, “महाराज, मैं अपने जीवन से निराश हो चुका हूँ। मेरे पास संतान नहीं है, अब मेरे पितरों का पिंडदान कौन करेगा? यहाँ तक कि मेरी गाय भी बछड़ा नहीं देती। अब मैं अपने प्राण त्यागने के लिए जंगल आया हूँ।”
यह सुनकर संत ने अपनी दिव्य दृष्टि से आत्मदेव जी का भाग्य देखा और बोले, “आत्मदेव, पुत्र का मोह छोड़ दो। मैं देख रहा हूँ कि तुम्हारे भाग्य में एक नहीं, सात जन्मों तक संतान का योग नहीं है। भजन करो और संतान की इच्छा त्याग दो।” आत्मदेव जी ने कहा, “मुझे उपदेश मत दीजिए, मुझे केवल पुत्र चाहिए। अगर मुझे पुत्र नहीं मिला, तो मैं आपके सामने ही अपने प्राण त्याग दूँगा।”
संतान प्राप्ति के लिए फल और धुंधुली की कुटिलता
आत्मदेव जी का आग्रह देखकर संत ने कहा, “विधाता के लेख को कोई मिटा नहीं सकता, लेकिन तुम्हारी प्रार्थना को देखकर मैं कुछ कर सकता हूँ।” संत ने योग बल से एक फल प्रकट किया और कहा, “यह फल अपनी पत्नी को खिला देना, इससे एक ज्ञानी पुत्र का जन्म होगा।” यह सुनकर आत्मदेव जी अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने वह फल अपनी पत्नी धुंधुली को दिया। धुंधुली ने कहा, “फल तुरंत थोड़ी खाया जाता है, नहा-धोकर खाया जाता है। यह फल मुझे दे दो और आप निश्चिंत हो जाओ।”
धुंधुली का स्वभाव क्रूर और कुटिल था। उसने अपनी बहन को बुलाया और रोते हुए कहने लगी, “बहन, मुझे बड़ी चिंता हो रही है। आत्मदेव जी यह फल लाए हैं, जिससे गर्भ ठहरेगा। सुना है, गर्भधारण और बच्चे के जन्म के समय बहुत कष्ट होता है। यह सब मैं सहन नहीं कर पाऊँगी।” उसकी बहन ने कहा, “मैं भी गर्भवती हूँ। तुम ऐसा करो, मेरे पति को धन दे दो और गर्भवती होने का नाटक करो। जब मेरा बच्चा होगा, तो मैं उसे तुम्हारे घर पहुंचा दूँगी। फिर मैं कह दूँगी कि मेरा बच्चा मर गया।” धुंधुली इसके लिए सहमत हो गई। उसकी बहन ने यह भी कहा, “जो फल लाए हो, उसे पहले गाय को खिला दो, ताकि उसकी परीक्षा हो सके।”
गोकर्ण जी और धुंधकारी का जन्म
जैसा उसकी बहन ने कहा, धुंधुली ने ठीक वैसा ही किया। उसने वह फल गाय को खिला दिया और गर्भवती होने का नाटक शुरू कर दिया। जैसे ही उसकी बहन के यहाँ बच्चा हुआ, धुंधुली ने घोषणा कर दी कि उसे पुत्र की प्राप्ति हुई है। आत्मदेव जी अत्यंत प्रसन्न हो गए। उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि घर में क्या षड्यंत्र रचा जा रहा है। वे तो बस यह मानकर सुखी थे कि संत द्वारा दिए गए फल से उनका पुत्र जन्मा है।
तीन महीने बीत गए, और इस बीच गाय ने भी एक संतान को जन्म दिया। वह संतान मनुष्य के शरीर के आकार की थी, लेकिन उसके कान गाय जैसे थे। वह सुंदर, दिव्य और स्वर्ण जैसी कांति से दमकता हुआ था, जो योगबल का परिणाम था। आत्मदेव जी की खुशी का ठिकाना न रहा। घर में एक नहीं, दो बालकों का जन्म हुआ—एक उनका पुत्र और दूसरा गाय की संतान। चूंकि गाय की संतान के कान गाय जैसे थे, आत्मदेव जी ने उसका नाम ‘गोकर्ण’ रखा। दूसरी ओर, धुंधुली ने अपनी क्रूर मानसिकता के अनुरूप बिना किसी शास्त्रीय विधि के अपने पुत्र का नाम ‘धुंधकारी’ रख दिया।
धुंधकारी का दुष्ट आचरण
कुछ समय व्यतीत हुआ, और गोकर्ण और धुंधकारी दोनों युवा हो गए। गोकर्ण ने वेदों का ज्ञान प्राप्त किया और धर्म के मार्ग पर चलने वाला महान ज्ञानी और महात्मा बना। इसके विपरीत, धुंधकारी ने अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों को और बढ़ावा दिया। उसके अंदर पवित्रता का कोई नामोनिशान नहीं था। उसका आचरण अत्यंत बुरा था—वह पशुओं की तरह खानपान करता, क्रोध में आगबबूला हो जाता, गंदी वस्तुओं और आदतों से प्रेम करता, और हिंसा में लिप्त रहता। धुंधकारी का स्वभाव बचपन से ही आक्रामक और हिंसक था। चोरी करना, द्वेष रखना, और दूसरों की संपत्ति को नुकसान पहुंचाना उसका रोजमर्रा का काम बन गया था। धीरे-धीरे उसने मांस खाना भी शुरू कर दिया। उसकी संगति और भी खराब होती गई, और वह व्यभिचार में लिप्त हो गया। वेश्याओं के संपर्क में आकर उसने घर की सारी संपत्ति उन पर लुटा दी।
एक दिन आत्मदेव जी ने धुंधकारी से कहा, “तुम्हारे आचरण इतने दुष्ट हो गए हैं कि ऐसा लगता है तुम हमारे सर्वनाश के लिए जन्मे हो। यह सब क्यों कर रहे हो?” इसपर धुंधकारी क्रोधित हो गया और उसने अपने पिता आत्मदेव जी की बेरहमी से पिटाई कर दी। उसी क्षण आत्मदेव जी को संत की वह बात याद आ गई, जिसमें उन्होंने कहा था कि तुम्हारे भाग्य में पुत्र सुख नहीं है। आत्मदेव जी को पिटते देख, धुंधुली ने कुछ दया दिखाने की सोची और अपने पति को बचाने के लिए आगे आई। लेकिन धुंधकारी ने उसकी भी बुरी तरह पिटाई कर दी।
धुंधकारी ने घर की सारी संपत्ति, जेवर, और यहां तक कि बर्तन तक बेच दिए और वेश्याओं पर लुटा दिए। जब सब कुछ खत्म हो गया, तो खाने को भी कुछ नहीं बचा। धुंधुली रो-रोकर कहने लगी, “इससे तो अच्छा होता कि मैं बांझ ही रह जाती। अब मैं कहां जाऊं? कौन मेरी मदद करेगा? इतनी बड़ी विपत्ति आ गई है कि न खाने को कुछ है और न पीने को। धुंधकारी हर रोज हमें पीटता है।”
आत्मदेव जी का पश्चाताप और गोकर्ण जी की शिक्षा
आत्मदेव जी भी बैठे-बैठे यह सोचकर रोने लगे, “काश! मैं संत की बात मान जाता।” तभी गोकर्ण जी आए और बोले, “पिताजी, आपके जैसे विद्वान पुरुष के लिए इस प्रकार का शोक करना उचित नहीं है। आप शास्त्रों के ज्ञाता हैं, फिर इस रूप-मोह में फंसकर एक अज्ञानी की तरह क्यों रो रहे हैं? संसार के बंधनों को छोड़िए और वन में जाकर भगवान का चिंतन करते हुए अपना जीवन व्यतीत कीजिए।” गोकर्ण जी के वचन सुनकर आत्मदेव जी वन में जाने के लिए सहमत हो गए। उन्होंने कहा, “मुझे समझ नहीं आता कि भगवान की प्राप्ति कैसे करूं।”
गोकर्ण जी ने उत्तर दिया, “संतों का संग और सेवा करो। संतों के संग और उनकी कृपा से ही आप महात्मा बनेंगे। भगवान की कथा और लीला सुनो। यही मार्ग आपको नित्य भगवद् धाम की प्राप्ति कराएगा।” आत्मदेव जी ने घर छोड़कर वन की यात्रा की और दिन-रात भगवान का चिंतन करते हुए निरंतर नाम जप किया। उनके इस तप और भक्ति के प्रभाव से उन्हें श्रीकृष्ण की प्राप्ति हुई, जैसा कि गोकर्ण जी ने उन्हें उपदेश दिया था।
धुंधकारी को मिली अधिक स्वतंत्रता
जब आत्मदेव जी वन में चले गए, तब धुंधकारी को और अधिक स्वतंत्रता मिल गई। उसने अपनी क्रूरता बढ़ा दी और एक दिन धुंधुली को बेरहमी से लाठी और डंडे से मारते हुए कहा, “बता, धन कहां छिपा है?” धुंधकारी ने घर में जितना भी धन बचा था, सब लूट लिया। एक दिन उसने जलती हुई लकड़ी से धुंधुली को मारते हुए फिर से धन का पता पूछा। धुंधुली, जो रोज़-रोज़ की मारपीट से तंग आ चुकी थी, किसी तरह भागी और कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस प्रकार, धुंधुली दुर्गति को प्राप्त हुई, जबकि उनके पति आत्मदेव जी को भगवान श्रीकृष्ण की प्राप्ति हुई।
गोकर्ण जी ने जब देखा कि धुंधकारी का आतंक बढ़ता जा रहा है, तो उन्होंने उसे छोड़कर उदासीन भाव से तीर्थ यात्रा पर जाने का निश्चय किया। धुंधकारी अब पाँच वेश्याओं के साथ रहने लगा। वह उनके लिए चोरी-छिपे पशुओं का मांस और अन्य वस्तुएं लाकर उनकी इच्छाएं पूरी करता था। एक दिन उन वेश्याओं ने कहा, “तुमने हमें आज तक हार नहीं पहनाया।” धुंधकारी ने उन्हें हार लाने का वादा किया और इसके लिए उसने चोरी करके धन जुटाने का प्रयास शुरू कर दिया।
धुंधकारी का पतन और वेश्याओं की साजिश
जब वेश्याओं ने देखा कि धुंधकारी रोज़ चोरी करता है और अब हार लाने के लिए बड़ा धन इकट्ठा कर रहा है, तो उन्हें भय हुआ कि वह जल्द ही पकड़ा जाएगा। उन्होंने सोचा, “यदि वह पकड़ा गया, तो राजा उसे फांसी देगा, और उसके साथ हमें भी फांसी हो जाएगी। मरना तो तय है, क्यों न हम ही इसे मार डालें, ताकि हम बच सकें।” इस प्रकार उन्होंने गुप्त रूप से यह संकल्प लिया कि वे धुंधकारी को मार देंगी।
एक रात, जब धुंधकारी गहरी नींद में था, पांचों वेश्याएं उसकी चारपाई के पास आईं और उसे रस्सियों से बांध दिया। जब उसकी आंख खुली, तो उसने देखा कि वेश्याएं उसे मारने की कोशिश कर रही हैं। उन्होंने रस्सी से उसका गला घोंटने का प्रयास किया। इसके बाद, वे रसोई से जलते हुए कोयले लाईं और धुंधकारी के मुंह में भर दिए। अंत में, उन्होंने उसके गले को कसकर दबा दिया, जिससे धुंधकारी तड़प-तड़प कर मर गया। इसके बाद, वेश्याओं ने उसके शरीर को घर में एक गड्ढे में दबा दिया और सारा धन लेकर भाग गईं।
धुंधकारी बना प्रेत
धुंधकारी की आत्मा को प्रेत योनि प्राप्त हुई। अब वह भयंकर बवंडर के रूप में दसों दिशाओं में भटकने लगा। जब गोकर्ण जी तीर्थ यात्रा से लौटे, तो उन्हें पता चला कि धुंधकारी की हत्या कर दी गई है। उन्होंने धुंधकारी की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान किया और तीर्थों में मंत्र अनुष्ठान किए। जब गोकर्ण जी अपने पिता आत्मदेव के घर लौटे, तो उन्होंने महसूस किया कि धुंधकारी की आत्मा, जो अब प्रेत बन चुकी थी, वहीं मंडरा रही है। धुंधकारी ने गोकर्ण जी को देखते ही प्रकट होकर मदद की आशा से इशारा किया। वह पहले भेड़ के रूप में आया, फिर भैंसे और अंत में इंद्र के रूप धारण किए। गोकर्ण जी, जो ज्ञानी महात्मा थे, तुरंत समझ गए कि यह प्रेत आत्मा है, क्योंकि यह विचित्र रूप धारण कर रहा था।
उन्होंने बिना डरे पूछा, “तू कौन है? ये नाटक क्यों कर रहा है? तुझे इस दुर्गति को क्यों प्राप्त होना पड़ा?” प्रेत रूप में धुंधकारी चिल्ला-चिल्लाकर रो रहा था, लेकिन एक शब्द भी नहीं बोल पा रहा था। गोकर्ण जी ने समझ लिया कि भारी पापों के कारण वह बोलने में असमर्थ है। उन्होंने जल लिया और मंत्रों का जाप कर धुंधकारी के ऊपर फेंका। जैसे ही जल गिरा, धुंधकारी बोलने योग्य हो गया और उसने कहा, “भैया, मैं आपका भाई धुंधकारी हूँ। मेरी बहुत दुर्गति हो गई है, मुझे भारी कष्ट हो रहा है। मैंने अपने जीवन में बहुत पाप किए हैं, अब मैं पश्चाताप कर रहा हूँ। उन वेश्याओं ने मुझे तड़पा-तड़पाकर मार डाला। अब मैं प्रेत योनि में भटक रहा हूँ—भूखा-प्यासा, पर खा-पी नहीं सकता। आप कृपा करके मेरा उद्धार करें।”
गोकर्ण जी ने कहा, “मैंने तो तुम्हारे लिए श्राद्ध किया था, तीर्थों में अनुष्ठान भी किया, फिर तुम्हारा प्रेत योनि से उद्धार क्यों नहीं हुआ?” धुंधकारी ने उत्तर दिया, “भैया, सैकड़ों बार श्राद्ध करने से भी मेरा उद्धार नहीं हो सकता। मैं बहुत बड़ा पापी हूं, मैंने बड़े-बड़े पाप किए हैं।” गोकर्ण जी ने कहा, “अगर सैकड़ों बार श्राद्ध करने से भी तुम्हारी मुक्ति नहीं हो सकती, तो तुम्हारी मुक्ति असंभव है।” धुंधकारी ने विनती की, “भैया, मैं आपके चरणों में पड़ा हूँ। कृपा करके मेरा उद्धार करें।” गोकर्ण जी ने उसे घर से बाहर निकलने के लिए कहा, “तुम अभी इस घर से जाओ और जब मैं बुलाऊं, तब आ जाना।” धुंधकारी गोकर्ण जी की आज्ञा पाकर घर से बाहर चला गया और इधर-उधर भटकने लगा। गोकर्ण जी ने रात भर विचार किया कि धुंधकारी का उद्धार कैसे हो सकता है। जब सुबह हुई, गोकर्ण जी ने विद्वानों से सलाह ली। कई लोगों ने शास्त्रों का हवाला देकर उपाय सुझाए, लेकिन कोई ठोस हल नहीं मिला।
गोकर्ण जी का सूर्यदेव से प्रश्न
गोकर्ण जी तपस्वी थे। उन्होंने सोचा, “औरों से पूछने की बजाय सीधे भगवान सूर्य से पूछना चाहिए।” अपनी भक्ति और श्रद्धा के साथ, उन्होंने मंत्रों का उच्चारण करते हुए सूर्य की गति को रोक दिया और उनसे पूछा, “धुंधकारी का उद्धार कैसे हो सकता है?” सूर्यदेव ने गोकर्ण जी की प्रार्थना सुनी और कहा, “श्रीमद्भागवत का नियमपूर्वक एक सप्ताह तक पाठ कराओ। सात दिन में उसकी मुक्ति हो जाएगी।”
श्रीमद् भागवत कथा का आयोजन
सूर्य भगवान की आज्ञा मानते हुए गोकर्ण जी ने निर्णय लिया कि वे स्वयं भागवत कथा सुनाएंगे और धुंधकारी का उद्धार करेंगे। कथा का समय तय किया गया, और जब लोगों ने सुना कि भगवान की कथा से सभी पापों का नाश हो जाता है, तो पापी और पुण्यात्मा, सभी कथा सुनने के लिए आए। गोकर्ण जी ने धुंधकारी को भी बुलाया और कहा, “तू इस सात गांठ वाले बांस पर बैठ जा और कथा सुन।” धुंधकारी वायु रूप धारण कर बांस के छिद्र में जाकर बैठ गया।
धुंधकारी की मुक्ति
गोकर्ण जी ने एक वैष्णव को मुख्य श्रोता बनाकर स्पष्ट स्वर में भागवत कथा सुनानी प्रारंभ की। प्रतिदिन शाम को कथा का विश्राम किया जाता था, और पहले दिन के अंत में बांस की एक गांठ टूट गई। इसी प्रकार, हर दिन एक गांठ टूटती गई। सातवें दिन, जब सातवीं गांठ भी फट गई, तब धुंधकारी दिव्य स्वरूप में प्रकट हुआ। उसका श्याम वर्ण था, उसने पीतांबर धारण किया था, तुलसी की माला पहनी थी, और उसके सिर पर मनोहर मुकुट और कानों में कुंडल थे। वह गोकर्ण जी के सामने आया और प्रणाम करते हुए बोला, “भैया, अब मैं प्रेत योनि से मुक्त होकर भगवद् पार्षद बन गया हूँ।”
सभी ने यह दृश्य देखा और जयघोष किया। तभी, एक दिव्य विमान आया और भगवान श्री कृष्ण के पार्षदों ने कहा, “धुंधकारी, आओ।” धुंधकारी दिव्य विमान पर बैठ गया। जब वह विमान पर बैठकर जाने लगा, तो गोकर्ण जी ने उसे रोकते हुए कहा, “रुको, यह क्या? कथा तो हजारों लोगों ने सुनी है, तो हजार विमान आने चाहिए और सबको ले जाना चाहिए, क्योंकि मैंने सभी के लिए समान रूप से कथा सुनाई थी और सबने ध्यान से सुनी थी।”
भगवद् पार्षदों ने उत्तर दिया, “गोकर्ण जी, आपके सुनाने में कोई भेद नहीं था, परंतु सुनने में भेद हो गया। धुंधकारी ने उपवास करते हुए बिना खाए-पिए कथा का श्रवण और मनन किया। उसने रात-दिन कथा का चिंतन किया, इसीलिए वह परम पद का अधिकारी बना। बाकी लोग केवल कथा सुनकर चले गए, उन्होंने मनन नहीं किया, इसलिए उनका उद्धार नहीं हो सका।”
यह कहकर विमान चला गया, लेकिन गोकर्ण जी ने सभी श्रोताओं से कहा, “जब तक मैं सबको विमान में बैठाकर परम धाम नहीं भेज दूँगा, मुझे चैन नहीं मिलेगा। सावन के महीने में हम फिर से अनुष्ठान करेंगे। सब लोग आओ, कथा सुनो और नियमों का पालन करते हुए मनन करो।” गोकर्ण जी की इस बात पर सबने सहमति दी और सावन के महीने में पुनः श्रीमद्भागवत कथा का आयोजन किया गया।
पुनः श्रीमद् भागवत कथा का आयोजन
सभी श्रोताओं ने उपवास रखकर, अल्पाहार करके, कथा को नियमपूर्वक सुना। जब सात दिनों में कथा समाप्त हुई, तब भगवान के अनेक पार्षद विमान लेकर आए और जितने भी कथा सुनने वाले थे, सभी को परमधाम ले गए। भगवान श्रीकृष्ण ने गोकर्ण जी को स्वयं अपने हृदय से लगाया। जैसे ही गोकर्ण जी को भगवान ने हृदय से लगाया, वे भी भगवद् स्वरूप हो गए। उनका रूप श्याम वर्ण में बदल गया, उन्होंने पीतांबर धारण किया, और कानों में मनोहर कुंडल झलकने लगे।
यहां तक कहा जाता है कि गोकर्ण जी की अपार कृपा से जो भी जीव-जंतु उस कथा में उपस्थित थे, उनका भी उद्धार हुआ। वे सभी विमान पर बैठकर भगवद् धाम को चले गए। जहां बड़े-बड़े सिद्धों को भगवान की प्राप्ति नहीं होती, वहीं गोकर्ण जी के प्रभाव से, भागवत कथा सुनने मात्र से धुंधकारी सहित सभी श्रोता भगवद् धाम को प्राप्त हो गए।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज