भगवान का नाम जपना कठिन है, नाम जप को बचाना कठिन है और नाम जप को पचाना कठिन है। इसका अर्थ यह है कि हमें नाम जपने का उपदेश तो मिल गया, लेकिन हम जप करने के लिए मन को एकाग्र नहीं कर पा रहे हैं। हमें भगवान के नाम जप की महिमा के बारे में पता चला, लेकिन नाम जपना कठिन है।
भगवान का नाम जपना कठिन है!
आप तीर्थ यात्रा पर जा सकते हैं, शास्त्रों का अध्ययन कर सकते हैं, दान कर सकते हैं, दूसरों की सेवा कर सकते हैं, लेकिन भगवान का नाम चार घंटे भी लगातार जपना बहुत कठिन है। हमारा लक्ष्य पूरे दिन लगातार जप करना होना चाहिए, लेकिन अगर आप चार घंटे भी लगातार भगवान का नाम जपने की कोशिश करते हैं, तो आपका मन आपको बहुत परेशान करेगा। अगर आप थोड़ी देर राधा नाम जपें और थोड़ी देर कुछ और करें, तो ऐसा लगेगा कि आपका मन आपके साथ सहयोग कर रहा है। लेकिन लगातार चार घंटे, तीन घंटे, दो घंटे या एक घंटे तक भी जप करना मुश्किल है। इसलिए कहा जाता है कि भगवान का नाम जपना कठिन है।
नाम जप को बचाना!
मान लीजिए कि आप जप करने में सक्षम हैं, फिर अहंकार आता है, कि मैं हर दिन गुरु मंत्र (या नाम) की इक्कीस माला करता हूँ और मैं हर दिन एक घंटे कीर्तन करता हूँ। अगर हम दूसरों में दोष दर्शन करना शुरू कर दें तो हमें घमंडी माना जाएगा। अगर हम यह सोचने लगें कि दूसरे नारकीय जीवन जी रहे हैं, तो यह ग़लत होगा। अगर आप यह सब सोचने या बोलने लग जाते हैं तो आप अपने जप या भजन को नहीं बचा पाएँगे। जब हम विनम्र हो जाते हैं और देखते हैं कि अगर मुझमें खुद जप करने की सामर्थ्य होती, तो मैं इसे पहले ही कर लेता। यह सब तो गुरु कृपा से और श्री राधा की कृपा से हो रहा है, अगर आप ऐसा सोचते हैं तो आपका जप या साधना बच जाती है। इसलिए कहा जाता है कि प्रभु के नाम के जप को बचाना कठिन है।
नाम जप को पचाना
अब नाम जप को पचाने को समझते हैं। मान लीजिए किसी ने आपके लिए बहुत प्रतिकूल परिस्थिति पैदा कर दी। जैसे की उसने आपका अपमान किया, आपकी निंदा की, और आपको बहुत परेशानी दी। यदि आप उन्हें दंडित करने के बारे में सोचने लगे या यदि आप उनके संकट में पड़ने की कामना करने लगे, दुखी और परेशान हो गए, तो आपका जप या साधना नष्ट हो जायेगा। इस प्रकार, आपकी साधना पच नहीं पाई। नाम अभी भी आपके साथ रहेगा, वह नष्ट नहीं होगा, लेकिन उसका प्रभाव ढक जाएगा। यह बाद में फिर से प्रकट होगा, शायद इस जीवन में या अगले जन्म में। इसीलिए नाम का जाप करना कठिन है, इसे बचाना कठिन है, और इसे बचाकर पचाना कठिन है। यदि कोई आपको गाली दे रहा है, अपमान कर रहा है और आप सहन कर लेते हैं, आप प्रतिक्रिया न देने का निर्णय लेते हैं, यही नाम के जप का पाचन है।
आपकी साधना में उन्हें दंड देने की शक्ति है। हम उन्हें शरीर से, अनादर से, बुद्धि से, कानून से, तप से, अपनी आध्यात्मिक शक्ति से भी दंडित कर सकते हैं। लेकिन यदि आप अपमान को सहन करते हैं, और आगे बढ़ते हैं, तो आपमें ईश्वर को पाने की क्षमता आ जाएगी। यह रास्ता दुनिया के चलने के तरीके से थोड़ा अलग है। भक्त सोचता है कि भगवान आज मेरी परीक्षा लेने के लिए इस रूप में आए हैं। वह प्रार्थना करता है, हे प्रभु, मुझे शक्ति दीजिए कि मैं आपको श्राप न दूँ, मैं आप पर क्रोधित न होऊँ, मैं अपना जप-तप और साधना बचाकर शांति से इस से बाहर निकल सकूँ।
नाम को पचाने पर संत एकनाथ जी की कथा
संत एकनाथ जी ने गंगा में स्नान किया और बाहर आए। जहाँ वे खड़े थे, उसके ठीक ऊपर किसी अधर्मी व्यक्ति का घर था। उस व्यक्ति ने ऊपर से उन पर थूका। एकनाथ जी को अपने ठाकुर जी की सेवा करनी थी, इसलिए वे फिर से स्नान करने चले गए। जब वे वापस आए, तो उस व्यक्ति ने फिर से थूका। उसने इस तरह सौ बार उनपर थूका और एकनाथ जी सौ बार स्नान करने चले गए। जब वे फिर से वापस आए, तो वह व्यक्ति हार गया। वह आया और उनके चरणों में गिर गया। उसने कहा कि आपने एक बार भी मेरी तरफ ऊपर नहीं देखा। आपने मुझे गाली नहीं दी, आपने गुस्सा भी नहीं किया। एकनाथ जी ने उत्तर दिया कि भाई, आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है। मैं क्रोध क्यों करूँ? मुझे गंगा जी में सौ बार स्नान करने में सौ दिन लगते, परंतु आपकी कृपा से मैंने एक दिन में सौ बार गंगा स्नान का लिया। संत ऐसे ही सोचते हैं। साधना या जप ऐसे ही पचता है।
यदि हम में से कोई होता, तो हम तो थोड़ी-सी बात पर ही क्रोधित हो जाते, यही हमारी अपरिपक्वता है। उस व्यक्ति ने संतों को कष्ट देना हमेशा के लिए बंद कर दिया। वह रोने लगा और बोला, मुझे नहीं पता था कि संत इतने दयालु होते हैं, अब से मैं कभी किसी संत का अपमान नहीं करूंगा। यदि एकनाथ जी प्रतिक्रिया करते, तो उसकी संतों को कष्ट देने की प्रवृत्ति बढ़ जाती, दुष्ट तो वो था ही। परंतु उन्होंने इसे सहन करने का निर्णय लिया और इस सहनशीलता ने उसे बदल दिया।
निष्कर्ष
नाम जप करना कठिन है, जप को बचाना कठिन है और जप को पचाना कठिन है। ये तीनों ही बातें सत्संग के माध्यम से प्राप्त की जा सकती हैं। संतों की संगति में हमें जप और अध्यात्म की प्रेरणा मिलती है, इसे कैसे बचाना है और इसे कैसे पचाना है, इसकी भी प्रेरणा मिलती है। भगवान के भक्तों की संगति हमें अध्यात्म का अभ्यास करना, अपनी साधना को बचाना और इसे पचाना भी सिखाती है।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज