भक्त चन्द्रहास जी की कहानी – कैसे एक अनाथ बालक बना सम्राट !

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
भक्त चन्द्रहास की कहानी

केरल प्रदेश में सुधार्मिक नाम के राजा थे। धर्मपूर्वक चलना, प्रजा का पालन करना और भगवान के नाम का जप करना ही उनका स्वभाव था। उनके यहाँ चंद्रहास जी ने जन्म लिया और जन्म लेते ही वो कृष्ण नाम उच्चारण करने लगे। चंद्रहास जी के जन्म की ख़ुशी में राज्य में आनंद उत्सव मनाया जाने लगा। शत्रु पक्ष के राजाओं ने मिलकर निश्चय किया कि यह आक्रमण करने के लिए सही अवसर है। सुधार्मिक जी पुत्र के जन्म के आनंद में मग्न थे। शत्रु पक्ष के राजाओं ने उनपर आक्रमण करके राज्य को घेर लिया। सुधार्मिक जी की सेना ने उन्हें रोकने का प्रयास किया पर असफल रहे। राजा सुधार्मिक जी और बहुत से सैनिक मारे गए। इसके बाद राजमहल को भी घेर लिया गया ताकि कोई भी बच के ना जा सके।

दाई माँ ने बचाई बालक चन्द्रहास की जान

राजमाता ने दाई माँ को चंद्रहास जी की जान बचाने को कहा। दाई माँ ने विचार किया कि अगर वह उन्हें राजकुमार की तरह ले जाती हैं तो उन्हें मार दिया जाएगा। दाई माँ ने झाड़ू पोछा लगाने वाली सेविका का रूप लिया और कुछ दोने-पत्तलों के नीचे चंद्रहास जी को छुपाकर बाहर निकलीं। सैनिकों ने ऊपर से देखा तो वह बोलीं कि यह राज घराने के कुछ झूठे पत्तल आदि हैं, तो सैनिकों ने उन्हें जाने दिया। वो चंद्रहास जी को लेकर भाग गईं और कुंतलपुर पहुँचीं।

दाई माँ ने बचाई बालक चन्द्रहास की जान

उन्होंने वहाँ के मंत्री, धृष्टबुद्धि, से प्रार्थना की कि मैं सेवा कला में बड़ी प्रवीण हूँ, और कृपा करके मुझे कुछ समय के लिए महल सेवा में रख लिया जाए। उन्होंने चन्द्रहास जी को अपना पुत्र बताया। उनकी परीक्षा ली गई। राज घराने की सेविका होने के कारण वो परम प्रवीण थीं। उन्हें सेवा में रख लिया गया। उन्होंने अपना असली परिचय किसी को नहीं बताया। जब चन्द्रहास जी तीन वर्ष के हुए, तब दाई माँ की मृत्यु हो गई। अब उनकी देख-रेख करने वाला कोई ना था। उनके मुख पर हर समय “कृष्ण! कृष्ण!” नाम चलता रहता था। अब वह गलियों में भटकने लगे। उनको महल से निकाल दिया गया क्योंकि दाई माँ की सेवा के कारण ही उन्हें महल में रखा गया था।

नारद जी और बालक चन्द्रहास का मिलन

नारद जी और चन्द्रहास का मिलन

तीन वर्ष के बालक चन्द्रहास जी को गलियों में घूमता देख कोई उन्हें स्नान करा देता, कोई वस्त्र पहना देता और कोई भोजन करा देता। चंद्रहास जी हर समय कृष्ण कृष्ण नाम जपते रहते। श्री देव ऋषि नारद जी ने देखा कि यह बालक “कृष्ण कृष्ण” बोलता रहता है और इसका हरि के अलावा कोई नहीं है। नारद जी ने उन्हें बुलाया और दुलार करते हुए बोले “सुनो! मैं तुम्हें एक अमोघ वस्तु देता हूँ।” नारद जी उनके लिए एक छोटी सी शालिग्राम शिला लाये थे। नारद जी बोले “धो के पी लेना और दिखा के खा लेना। यही तुम्हारी सेवा पद्धति है। इनको स्नान करा देना और जो तुम्हें मिले इनको अर्पित कर के खा लेना।” चंद्रहास जी ने सोचा कि शालिग्राम शिला को धोने, स्नान कराने और भोग लगाने के लिए तो कोई पात्र (बर्तन) चाहिए होगा। उन्होंने पान की तरह शालिग्राम को अपने मुँह में ही रख लिया।उन्होंने सोचा कि यहीं धुल गये तो चरणामृत पी लिया जाएगा और कुछ खाएँगे तो अर्पित भी हो जाएगा। नारद जी ने साथ ही उन्हें भगवान के मंत्र का भी उपदेश किया।

ज्योतिषाचार्य की चंद्रहास जी के लिए भविष्यवाणी

मंत्री धृष्टबुद्धि जिसने चंद्रहास जी की दाई माँ को आश्रय दिलाया था उनके एक पुत्र थे, मदन जी, जो बहुत ही भगवद् भाव वाले थे। उनकी एक पुत्री भी थी, जिसका नाम विषया था। मदन जी का भक्तों को भोजन खिलाने का स्वभाव था। उन्होंने कई भक्तों और ब्राह्मण जनों को भोजन के लिए बुलाया। तब चन्द्रहास जी भी खेलते-खेलते वहीं चले गए और वहां प्रसाद खाने लगे। उन बड़े-बड़े ब्राह्मणों में एक ज्योतिषाचार्य भी थे। धृष्टबुद्धि जी ने अपनी पुत्री विषया को सामने ले जाकर उनसे कहा, “आप इसका हाथ देखकर बताइए कि इसका वर कैसा होगा? उसका कैसा ऐश्वर्य होगा?” ब्राह्मण ने आसपास दृष्टि डाली और चंद्रहास जी की ओर इशारा कर के बोले “वो है इसका वर।”

ज्योतिषाचार्य की चंद्रहास जी के लिए भविष्यवाणी

धृष्टबुद्धि ने कहा “आपने शायद सही से रेखा नहीं देखी, ये तो दासी का लड़का है। ये हमारी पुत्री का वर कैसे बनेगा!” ब्राह्मण बोले कि मैंने तो सही-सही ही भाग्य देखा है और दक्षिणा लेकर चले गये। धृष्टबुद्धि ने विचार किया कि ये दरिद्र लड़का मेरी पुत्री का वर नहीं बनना चाहिए। मैं इतने बड़े राज्य का महामंत्री हूँ और मेरी पुत्री का ऐसा दुर्भाग्य नहीं होना चाहिए। उन्होंने निश्चय किया कि इसे आज ही मरवा डालते हैं। उन्होंने तुरंत जल्लादों को बुलाया और कहा “इस बालक को ले जाओ और जंगल में इसे मार के, इसका कोई अंग मुझे काट के दिखाओ।” चन्द्रहास जी इतने सुंदर, सुशील और प्यारे लगते थे कि कोई भी उनको मारने के लिए तैयार न होता, इसीलिए उसने शर्त रखी कि इनका कोई अंग काट कर मुझे प्रमाण में दिखाया जाए। जल्लादों ने चंद्रहास जी का हाथ पकड़ा तो उनका स्पर्श करते ही उनको ऐसा दुलार आने लगा जैसे माँ को अपने बच्चे से दुलार होता है। वो आपस में कहने लगे “भाई! जीवन हो गया लोगों को मारते हुए, कभी कोई पुण्य का काम नहीं किया। यह इतना सुंदर बालक जो हमारे चित्त को चुरा रहा है, इस धृष्टबुद्धि मंत्री ने इसे मारने का आदेश क्यों दिया है। इस जन्म में न जाने कितनों को हमने काटा है, पर पता नहीं क्या हो रहा है, मेरे हृदय में ऐसी हिम्मत नहीं हो रही कि इस बालक को मैं मार सकूँ।” दूसरे ने कहा “अगर तुम उसको नहीं मारोगे तो तुम मारे जाओगे। कुछ तो करना पड़ेगा।”

जल्लादों ने चंद्रहास जी को दिया जीवन दान

जल्लाद चन्द्रहास जी को एकांत जंगल में ले गए और कहा कि क्या तुम जानते हो कि हम तुम्हें यहाँ किस लिए लाए हैं? चंद्रहास जी की पाँच वर्ष की आयु थी। वो बोले, “मुझे पता नहीं कि आप मुझे यहाँ क्यों लाये हैं।” उन्होंने उत्तर दिया, “हम जल्लाद हैं। धृष्टबुद्धि ने तुम्हें मारने का हुक्म दिया है। इसलिए हमें तुम्हें मारना तो पड़ेगा ही। तुम्हें कुछ भी पसंद हो तो तुम कहो, हम तुम्हारे लिए ला देंगे। जो तुम्हें चाहिए बोलो, पर हमारी इच्छा ना होते हुए भी हमें तुम्हें मारना पड़ेगा।”

चंद्रहास जी बोले, “मुझे तो कुछ नहीं चाहिए, बस थोड़ा समय चाहिए। मुझे मृत्यु का भय नहीं है। यदि आप मारना ही चाहते हो तो मेरी नित्य की एक पूजा है, मैं वो कर लूँ, उसके बाद आप मुझे मार देना।” उन्होंने कहा, “हाँ, हम तुम्हें समय देते हैं। तुम किसी को पुकार भी सकते हो। जो तुम करना चाहो, कर सकते हो।” चन्द्रहास जी ने कहा, “मैं तो अनाथ हूँ। श्रीकृष्ण के अलावा मेरा कोई नहीं, मैं किसको पुकारूँ? मेरा आश्रय तो एकमात्र वही प्रभु हैं।” ये कहते हुए चंद्रहास जी ने अश्रु बहाते हुए शालिग्राम जी को अपने मुख से निकाला और बोले “प्रभु! मुझे तो कोई ज्ञान नहीं कि आपकी सेवा कैसे की जाती है। मैं तो अपने मुख में आपको रखता हूँ। अब मेरे जीवन का अंत होने जा रहा है। बस मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि मैं आपके ही समीप पहुँचकर, आपका ही स्मरण करूँ। आप से कभी विलग ना हो पाऊँ।” इतना कह कर चन्द्रहास जी ने जल्लादों की तरफ़ देखा और इशारा किया की अब मुझे मार दो।

एक जल्लाद उनका भाव देखकर बैठ गया और दूसरे से बोला “भाई! भले तुम या धृष्टबुद्धि मुझे मार दो, लेकिन मैं इस बालक को नहीं मार पाऊंगा, मेरी हिम्मत नहीं है। दूसरे जल्लाद ने भी सहमति देते हुए कहा, “इस बालक में कुछ विशेषता तो है। इसके पैरों में देखो, बायें पैर में एक छठी उँगली है। हम इसे काट के ले जाते हैं, और इससे प्रमाण भी सत्य हो जाएगा कि हमने इसे मार दिया। उसके बाद कौन ही इस बालक को ढूंढेगा? यूँ ही जंगल में इसे छोड़ देते हैं।” जल्लादों ने ऐसा ही किया और जाकर धृष्टबुद्धि को उँगली दिखा दी कि बालक का वध कर के आये हैं। जंगल में, चंद्रहास जी की जो उँगली काटी गई थी, उससे रक्त प्रवाह हो रहा था। “हे कृष्ण! हे जगन्नाथ! हे वासुदेव! हे जनार्दन!”, ऐसे नाम उच्चारण करते हुए चन्द्रहास जी मूर्छित होने लगे। मृग, शावक और सब पंछी आदि ने आकर चन्द्रहास जी को घेर लिया और वो बीच में “कृष्ण गोविंद दामोदर माधव” ऐसे उच्चारण करते रहे।

जंगल में बेहोश पड़ा है चंद्रहास

चन्द्रहास जी बने चंदनपुर राज्य के राजकुमार

कुंतलपुर के ही अधीन एक चंदनपुर नाम की राज नगरी थी। वहाँ के राजा को पुत्र प्राप्त नहीं हो रहा था। चंदनपुर के राजा कुंतलपुर को कर दिया करते थे। वह कर देने कुंतलपुर जा रहे थे। उन्होंने जब जंगल में बहुत से मृग और पंछियों को एक जगह को घेरे हुए देखा तो वे रुक गये। उन्होंने जाकर देखा तो एक दिव्य तेजोमय बालक मूर्छित अवस्था में पड़ा था और उसकी उँगली से रक्त प्रवाह हो रहा था। उन्होंने चन्द्रहास जी को गोद में उठाया और आनंदित हो गए कि मेरा दान पुण्य सफल हुआ जो मुझे ऐसा सुंदर बालक मिला। राजा चंद्रहास जी को लेकर घर आए और हृदय में भगवान का बार-बार कृपा प्रसाद मनाते रहे कि भगवान ने मुझे पुत्र दिया। उन्होंने चंद्रहास जी से जब पूछा कि तुम्हारे माता-पिता कौन हैं, तो चंद्रहास जी ने उत्तर दिया कि, “श्री कृष्ण! उनके अलावा मेरा कोई नहीं।” राजा समझ गये कि भगवान ने ही कृपा करके मुझे ऐसा महाभागवत् पुत्र दिया है।

राज्य में बड़ा उत्सव मनाया गया। राज सिंहासन का अग्रिम अधिकारी युवराज पद चंद्रहास जी को दे दिया गया। पूरे राज्य में आनंद की वर्षा होने लगी। राजा ने विचार किया कि ऐसा प्रतापी भक्त हमारे यहाँ आया है, तो अब हमें किसी को कर देने की ज़रूरत नहीं है। लगातार तीन बार जब कर नहीं पहुँचा तो सम्राट ने मंत्री को इस समस्या को सुलझाने का आदेश दिया।

चन्द्रहास चंदनपुर का राजकुमार बना

मंत्री धृष्टबुद्धि ने चन्द्रहास जी के लिए दोबारा रचा षड्यंत्र

मंत्री चंदनपुर राज्य में पहुँच गया। वहाँ चंद्रहास जी का ऐसा प्रभाव था कि सब कृष्ण भजन करते और आनंद में मग्न रहते। धृष्टबुद्धि ने उन्हें पहचाना और सोचा कि यह तो वही बालक है और विचार किया कि ये तो बहुत अनिष्ट हो गया। हमने तो इसे मारना निश्चित किया था और जल्लादों ने इसको छोड़ दिया और अब तो ये राजा का राजकुमार बन गया है। उन्होंने राजा से कहा, “पहली बात, इस बालक को युवराज पद पर बिठाने से पहले तुम्हें सम्राट को सूचना देनी चाहिए थी। और दूसरी बात अभी तक तुमने कर नहीं दिया है। सम्राट चाहें तो एक क्षण में तुम्हारे राज्य को नष्ट कर दिया जाएगा।” चंदनपुर के राजा ने हाथ जोड़कर कहा “महाराज! अब आप ही हमारी रक्षा कर सकते हैं।” मंत्री के मन में था कि किसी भी तरह चन्द्रहास जी को मरवाना पड़ेगा क्योंकि ब्राह्मण ने बताया था कि वे ही उनकी पुत्री के वर होंगे। मंत्री ने कहा, “यदि आप चंद्रहास जी को सम्राट के पास भेज देते हैं, तो वो निश्चित ही प्रसन्न हो जाएँगे और आपके इस अपराध को क्षमा कर देंगे।” राजा ने यह बात स्वीकार कर ली। मंत्री धृष्टबुद्धि ने एक चिट्ठी लिखी और चंद्रहास जी को देते हुए कहा “इसे खोल के मत पढ़ना। वहाँ पहुँचते ही यह चिट्ठी मेरे पुत्र मदन को देना। वो सम्राट से मिलने, माफ़ी माँगने आदि सब में तुम्हारी सहायता कर देगा। पर यह चिट्ठी तुम रास्ते में खोलकर मत देखना।”

मंत्री धृष्टबुद्धि ने चन्द्रहास जी के लिए दोबारा रचा षड्यंत्र

चन्द्रहास जी और मंत्री की पुत्री का विवाह

चंद्रहास जी ने पत्र को अपनी पगड़ी में बांध लिया और कुंतलपुर के लिए चल पड़े। अब उनका किशोर अवस्था में प्रवेश हो चुका था। कुंतलपुर के बाहर ही एक बगीचा था। चंद्रहास जी ने अपना घोड़ा वृक्ष पे बाँध दिया और भगवद् स्मरण करते हुए वहीं लेट गये। थोड़ी देर में उन्हें नींद आ गई। कुछ समय पश्चात् धृष्टबुद्धि की वही पुत्री, जिसका ज्योतिषाचार्य के अनुसार चन्द्रहास से विवाह होना था, अपनी सहेलियों के साथ वहाँ आई। घोड़ा बंधा देखकर उन्हें ज्ञात हुआ कि कोई यात्री भूल से राज वाटिका में आ गया है। उनकी नज़र सो रहे चन्द्रहास जी पर पड़ी। देखते ही, पूर्व विधान के अनुसार, उसका चित्त लुट गया कि यह कौन इतना सुंदर नवकिशोर अवस्था का युवक है।

मंत्री की बेटी द्वारा चंद्रहास को देखा जाना

उसे चंद्रहास जी की पगड़ी में चिट्ठी दिखाई दी तो उसने झुककर, चुपचाप, वह चिट्ठी उठा ली और चिट्ठी खोल कर पढ़ने लगी। उस में संस्कृत में मंत्री के पुत्र मदन के लिए संदेश लिखा था कि “हे मदन! उचित-अनुचित का विचार छोड़कर, आते ही, इस युवक को विष प्रदान कर दो। यह मेरा प्रिय कार्य होगा।” मंत्री की पुत्री को बड़ा दुख हुआ कि पहली ही दृष्टि में इन्हें सोता हुए देखकर मेरे प्राण समर्पित हो गए। लेकिन पिताजी तो इतने सुंदर नवकिशोर को विष देने की बात लिख रहे हैं। उन्होंने काजल लिया और विष को विषया कर दिया। अब उस पत्र का अर्थ बदल गया कि “हे मदन! उचित-अनुचित का विचार छोड़कर, आते ही, इसे विषया प्रदान कर दो। यह मेरा प्रिय कार्य होगा।”

उसने पत्र वहीं उनकी पगड़ी में वापस रख दिया और अपने घर जाकर उनकी प्रतीक्षा करने लगी। चंद्रहास जी उठे और मंत्री के घर पहुँचकर मदन से मिले। मदन को जब पता लगा कि चंदनपुर से पिताजी ने इनको भेजा है और ये वहाँ के राजकुमार हैं, तो चंद्रहास जी को हृदय से लगा लिया। चंद्रहास जी ने कहा, “आपके पिता ने यह पत्र दिया है।” मदन ने पत्र पढ़ा, “अभी ही इस युवक को विषया प्रदान कर दो!” तुरंत बिना विचार किए मदन ने पंडित बुलाकर दोनों का विवाह कर दिया। अब मंत्री अपने घर आये तो सब साज-सजावट और विवाह का माहौल देखकर हैरान हो गये। किसी ने उन्हें बताया कि आप ने ही तो इस विवाह का आदेश दिया था, मदन के पास चिट्ठी रखी है।

चन्द्रहास की शादी हो गई

चन्द्रहास जी बने सम्राट और मंत्री ने खोया अपना पुत्र

मंत्री अपने घर गए और मदन से कहने लगे, “तुम्हारी बुद्धि मारी गई है क्या? हमने पत्र में विवाह करने का कहाँ लिखा था?” मदन ने कहा “पिता श्री, आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं हुआ है। आपने मेरा नाम लिखकर, मुझे बिना विचार किए, इस युवक को विषया देने के लिए कहा था। इसमें मेरी कोई त्रुटि नहीं।” मंत्री ने जब चन्द्रहास जी को दूल्हे के रूप में देखा तो और क्रोध से भर गया। उसने विचार किया कि चाहे मेरी बेटी विधवा हो जाए, पर मैं इसे ज़िंदा नहीं रहने दूँगा।

वह चंद्रहास जी के नज़दीक गया और उन्हें कहा, “बहुत कृपा हुई कि आप हमारे दामाद बने। हमारे यहाँ की एक रीति है। हमारे नगर के बाहर जो देवी का मंदिर है, उसमें लड़की का वर अकेले पूजा करने जाता है। आपको हमारी कुल की रीति का निर्वाह करना होगा।” चन्द्रहास जी मान गये और पूजन की थाल तैयार करने लगे। दूसरी ओर मंत्री ने कई बलवान सैनिकों को भेजा और आदेश किया कि “देवी पूजन के लिए जो आ रहा है, तत्काल उसे काट देना। किसी भी तरह वह बचना नहीं चाहिए, अन्यथा तुम सब मारे जाओगे।” सब राज सैनिक आदेश पाकर पहले ही वहाँ पहुँच गए।

उसी समय वहाँ के चक्रवर्ती सम्राट कुछ बड़े-बड़े विद्वानों और ऋषियों से बातचीत कर रहे थे। ऋषियों ने कहा, “महाराज, अब आपका राज सिंहासन पर बैठना राज्य के लिए मंगलमय नहीं होगा। आपका समय बदल रहा है। इस समय यदि चंद्रहास जी को सम्राट पद पर बैठा दिया जाए तो आगे अकाल नहीं पड़ेगा और प्रजा का बड़ा मंगल होगा। यह मुहूर्त आप के राज सिंहासन से हटने का है।” सम्राट ने कहा, “प्रजा और देश का मंगल हो इसलिए मैं बिल्कुल इसका पालन करूँगा।” मदन वहीं बैठे हुए थे। सब ने कहा, तुरंत जाओ और तुम्हारे बहनोई, चंद्रहास जी, को लाओ। मदन तुरंत निकले तो सैनिकों ने उन्हें बताया कि चन्द्रहास जी तो देवी पूजन के लिए नगर के बाहर जा रहे हैं। मदन उसी दिशा में गये और चंद्रहास जी को मिलते ही उन्होंने कहा, “सुनो! देवी की पूजा मैं कर लूँगा। इसी समय मुहूर्त है, जाओ, सम्राट पद का अभिषेक कराने के लिए आपको बुलाया गया है।”

चन्द्रहास कुन्तलपुर का राजा बना

इतना कहकर मदन जी देवी पूजा के लिए और चन्द्रहास जी सम्राट पद के लिए अलग-अलग दिशा में चले गये। इधर चन्द्रहास जी का राज्य अभिषेक होने लगा। वहाँ देवी मंदिर में धृष्टबुद्धि के पुत्र, मदन, पूजा करने के लिए पहुँचे तो पहले से तैयार सैनिकों ने उन्हें काटकर फेंक दिया। मंत्री का सारा खेल उल्टा हो गया। पुत्र की हत्या हो गई और चन्द्रहास जी का सम्राट पद पर अभिषेक हो गया। सैनिकों ने आकर मंत्री को सूचना दी कि देवी मंदिर में आपके आदेश अनुसार जो मारा गया वो आपका पुत्र मदन था।

धृष्टबुद्धि ने कहा “यह कैसे संभव है? वो तो चन्द्रहास था।” सैनिक बोले, “उनका तो सम्राट पद पर अभिषेक हो गया।” अब धृष्टबुद्धि छाती पीट-पीट कर खूब रोने लगा। बार-बार चिल्लाने लगा “हाय! मैं कितना अभागी हूँ जो मैंने अपने पुत्र को ही मरवा दिया।” चंद्रहास जी ने जब इसके बारे में सुना तो सोचा कि मृत्यु तो मेरी निश्चित थी, फिर मदन को मेरी मृत्यु कैसे प्राप्त हुई? वो तुरंत गये और मदन के शव को सामने रख, उन्होंने भगवान का ध्यान-स्मरण करते हुए मदन के शव पर हाथ फेरा तो वो जीवित हो गए। यह घटना धृष्टबुद्धि को पता नहीं थी। तब तक उन्होंने अपनी खोपड़ी फोड़-फोड़ कर अपनी हत्या कर ली। चंद्रहास जी ने उन्हें भी उनका जीवन वापस दिलाया और कहा “पिताजी अब तो कृष्ण कृष्ण जपो।” अब उनकी बुद्धि शुद्ध हुई और भगवान का आश्रय लेकर उन्होंने भी अपने जीवन को भगवद् भक्ति में लगाया।

मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज

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