वैस किसोर भये मन-मोहन ।
अंग-अंग सुंदर अति सोहन ।।10।।
छवि-तरंग कछु कहे न जाहीं ।
मदन कोटि लुटै चरननि माहीं ।।11।।
यह दोनों अभी कुमार अवस्था में हैं, किंतु उनमें किशोर अवस्था का पूर्ण आवेश समा चुका है। इतने सुंदर हैं हमारे श्रीलालजू कि एक दिन ललिता सखी जी ने उन्हें देखा — और उनके मन में विचार आया: ‘यह सुंदरता के समुद्र श्रीलालजू — यदि इन्हें हमारी श्री प्रियाजी एक बार देख लें, और श्री प्रियाजी, जो स्वयं सौंदर्य की सीमा हैं, वे यदि इन श्रीलालजू को एक बार देख लें — तो यह मिलन स्वयं में रस की पूर्णता होगा।’ सखियों का जो हेत है — वह है श्री प्रिया-प्रीतम को मिलाना। ऐसी अद्भुत सुंदरता है हमारे श्रीलालजू की कि करोड़ों कामदेव भी इनके चरणों में मूर्छित होकर गिर पड़ें। ये तो सुंदरता के साक्षात समुद्र हैं। इतने अनुपम, इतने मनोहर हैं — कि मणि-स्तंभ में जब अपना प्रतिबिंब देखते हैं, तो स्वयं अपने रूप-माधुर्य पर लट्टू हो जाते हैं! और फिर बाल-भाव में कहने लगते हैं, ‘मैं तुम्हें माखन खिलाऊँगा, तुम मेरे दोस्त बन जाओ!’ माँ यशोदा यह देखकर बार-बार निहाल हो जाती हैं। स्वयं श्रीमनमोहन — स्व-मन को मोहित कर लेते हैं। इतने सुंदर हैं कि वे स्व-मन-मोहन, मुनि-मन-मोहन, विश्व-मन-मोहन, मदन-मन-मोहन हैं। जब सखी ने यह अनुपम सौंदर्य देखा — तो उनके मन में गहरी भावना उठी: ‘काश, एक बार हमारी श्री प्रियाजी भी इस सौंदर्य-सागर को निहार लें। और एक बार श्रीलालजू भी श्रीलाडलीजू के रूप को देख लें।’ अब आगे — हमारी लाडलीजू के रूप का वर्णन।
श्री प्रिया जी का अनुपम सौंदर्य
इहि दिसि श्री वृषभाँन दुलारी ।
वैस किशोर भई सुकुँवारी ।।12।।
अद्भुत रूप कुँवरि कौ माई ।
सखी एक पिय पै कह्यौ जाई ।।13।।
अति सुकुँवारि नवीन किशोरी ।
जुवतिन के मन लेत है चोरी ।।14।।
अंग-अंग वानिक कही न जाई ।
जित चितवत वरषत छवि माई ।।15।।
रति कमला देवांगना नारी ।
पद-नख की दुति ऊपर वारी ।।16।।
याकौ रूप जु देखै आई ।
सोऊ रूपवंत ह्वै जाई ।।17।।
श्री प्रियाजी का ऐसा अनुपम रूप है — कि रोम-रोम से सौंदर्य टपक रहा है। यह जो हमारी प्यारी जू हैं, उनके रूप को देखकर ललिता सखी जी के मन में यह विचार उठा — कि एक बार श्रीलालजू उन्हें देख लें… और एक बार प्रियाजी, श्रीलालजू के रूप को देख लें — तो क्या ही मधुर मिलन हो जाए! इस सृष्टि में, तीनों लोकों में, कोई भी ऐसी स्त्री नहीं है — जो श्री प्रियाजी के दर्शन से मोहित न हो जाए, जिसका मान न गल जाए। जिधर-जहाँ भी प्रियाजी की दृष्टि जाती है — वहाँ छवि की वर्षा होने लगती है। सौंदर्य की ऐसी बौछार बरसती है कि पूरा वातावरण निखर उठता है। अब यदि हम विश्व-सुंदरियों की बात करें — तो अनंत ब्रह्मांडों में जिनके नाम लिए जाते हैं: कामदेव की पत्नी रति, भगवान नारायण की प्रिया लक्ष्मी, इन्हें कहा जाता है रति, कमला, और साथ ही अप्सराओं में अग्रणी उर्वशी जैसी सुंदरियाँ। किन्तु, जब इन सबको हमारी श्रीप्रियाजी के सामने रखा जाता है — तो ये सभी दिव्य देवांगनाएँ भी स्वामिनीजी के केवल एक नख की कांति के समक्ष तुच्छ प्रतीत होती हैं। उनकी सम्पूर्ण सुंदरता — हमारी प्रियाजी के चरणों के नख की रेखा के प्रकाश के समकक्ष भी नहीं ठहरती। ऐसा है यह रूप! यह रूप ऐसा है — कि जो भी देखे, वह स्वयं रूपवान हो जाए। प्रियाजी का यह दिव्य रूप — जो इसकी आराधना करे, उसकी भी आकृति, उसका भी हृदय, रूपमय हो जाता है। क्योंकि यह कोई साधारण सौंदर्य नहीं है — यह वह सौंदर्य है, जो सबके आकर्षण स्वरूप श्रीकृष्ण को भी आकर्षित करके, उन्हें अपने अधीन कर देने वाली शक्ति है। ऐसी हैं हमारी श्री स्वामिनी — श्री प्रियाजी।
प्रिय रूप का वर्णन सुन नंदनंदन के हृदय में जगी दर्शन की लालसा
वट संकेत अनूप विराजै ।
ताके निकट सरोवर राजै ।।18।।
सुंदर ठौर सघन बन आही ।
फूलि रही वहु जूही जाही ।।19।।
कबहुँ-कबहुँ तहाँ खेलन आवै ।
खेलत-खेल जोई मन भावै ।।20।।
कुँवरि रूप की बात सुनि, परम रसिक-सिरमौर ।
अंग-अंग सब सिथल भये, चित्त रह्यौ नहिं ठौर ।।21।।
सुनत चौंप प्रिय मन भई भारी ।
किहि विधि देखियै नवलकुँवारी ।।22।।
एक अत्यंत रमणीय सरोवर है, जिसका नाम है प्रेम सरोवर। उस सुंदर वनस्थली, रमणी भूमि पर जूही, मालती और विविध प्रकार की लताएं वृक्षों को आलिंगन किए हुए हैं, और पुष्पों की सुगंध से वातावरण खिला हुआ है।
ललिता जी ने विचार किया कि इन दोनों को (श्री लाल जू और किशोरी जी को) मिलाने के लिए यही स्थान परम उत्तम रहेगा। वह श्री लाल जू के समीप जाती हैं। उस समय श्री लाल जू नंद भवन में थे। उन्होंने उन्हें वहाँ से बुलाया।
जब श्री लाल जू समीप आए, तो ललिता सखी ने प्रिया जू के रूप का वर्णन किया। जब श्री लाल जू ने प्रिया जू के सौंदर्य का वर्णन सुना, तो वे केवल सुनकर ही व्याकुल हो उठे — मानो उनके हृदय में जो पूर्व से प्रेमवृत्ति सुलग रही थी, सखी ने उसे जाग्रत कर दिया हो। वे सखी के चरणों में गिर पड़े और बोले, “जो रूप तुमने बताया है, उसका दर्शन कैसे होगा?”
सखी ने कहा, “हमारी प्रिया जू प्रेम सरोवर में हैं। वह हम सब सखियों के साथ कभी-कभी वहाँ खेलने आती हैं। यदि आपको उनके दर्शन करने हैं तो आइए — उनके दर्शन प्रेम सरोवर में ही होंगे।”
ललिता सखी की यह बात सुनकर नंदनंदन के हृदय में अत्यंत प्रेम उमड़ पड़ा। नंदनंदन का हृदय प्रेम से भर गया। वे शिथिल हो गए — अब उनके मन में बस यही लालसा रह गई कि “जिस रूप का मैंने वर्णन सुना है, उसका दर्शन कैसे हो?” प्रीतम के मन में यह उल्लास जागा कि किशोरी का दर्शन किस प्रकार हो। अब वे उस उपाय की खोज में लग गए।
प्रिया जू की एक झलक पाने को व्याकुल नंदनंदन की प्रतीक्षा
ताही तक अब लागे रहही ।
काहू सौं यह बात न कहही ।।23।।
नित उठि बरसाने तन जाँही ।
जित संकेत सघन वन माँहीं ।।24।।
सघन कुंज इक हुती सुहाई ।
बैठे लाल तहाँ अरगाई ।।25।।
उत देख्यौ इक कौतिक भारी ।
सुंदर सर अंबुज छबि न्यारी ।।26।।
तहाँ देखे जुवतिन के वृन्द ।
मानौं कोटि उदित भये चंद ।।27।।
तिनमें नवल किशोरी सोहै ।
मोहन मन लाये छबि जोहै ।।28।।
जिस दिन से प्रिया जू की बात सुनी, उस दिन से उन्हें किसी से बात करना अच्छा नहीं लगता। पहले तो खेलना, हँसना सब अच्छा लगता था — अब कुछ भी मन को नहीं भाता। बस एक ही बात बार-बार मन में उठती है: कुंवर किशोरी जू को कैसे देखूं? अब तो प्रतिदिन एक ही नियम रह गया है — बरसाने की ओर जाना और बस निहारते रहना। वही संकेत-वट के पास, प्रेम सरोवर के किनारे बैठे रहना कि कब प्रिया जू आएंगी। सखी ने कहा था — वह खेलने आती हैं। एक दिन उन्होंने मन में ठान लिया: “जब तक प्रिया जू के दर्शन नहीं होंगे, अब मैं यहाँ से नहीं जाऊँगा।” और सघन कुंज में छिपकर बैठ गए।
उधर, भारी कौतूहल के साथ सहस्रों सखियाँ गान करती हुई आ रही थीं — मध्य में थीं महारानी जू, बड़ी अद्भुत छवि वाली। कोटि-कोटि चंद्रमाओं की कांति को भी तुच्छ कर देने वाला था प्रिया जू का मुखारविंद — गौरवर्ण, गौरांग, और अनंत बिजलियों के समान चमक।
उनके प्रतिबिंब स्वरूप लगती थीं समस्त सखियाँ। श्री लाल जू जो सघन कुंज में छिपे बैठे थे, बरसाने की ओर ही दृष्टि लगाए हुए थे।
तभी गान की मधुर ध्वनि सुनाई दी। वे खड़े हो गए। दृष्टि पड़ी तो देखा — ब्रज की समस्त नवयुवतियों के मध्य में एक हल्की झलक मिली महारानी जू की।
बड़ी विलक्षण छवि थी श्री स्वामिनी जू की। ऐसा लगता था मानो कोटि-कोटि चंद्रमा एक साथ उदय हो गए हों। नवल किशोरियों के मध्य अनुपम रूप और लावण्य से परिपूर्ण थीं हमारी प्रिया जू। नंदनंदन तन्मय हो गए उस दर्शन में। परंतु भर नेत्र देख नहीं पा रहे थे —
कभी कोई सखी आड़ में आ जाती, कभी प्रिया जू आगे बढ़ जातीं। वे अत्यंत व्याकुल हो उठे — “काश! भर नेत्र उन्हें देख सकूँ।”
नीलांबर में सजी महारानी: प्रिया जू के दिव्य सौंदर्य का प्रथम दर्शन
पहिरैं नील बरन तन सारी ।
मोतिन माँग बनाइ सँवारी ।।29।।
अति विशाल लोइन अनियारे ।
उज्वल अरुन सहज कजरारे ।।30।।
फगुवा सुभग सुरंग विराजै ।
तापर मृगमद बैंदी राजै ।।31।।
झलकि रह्यौ बेसरि कौ मोती ।
फीके भये धरैं जे जोती ।।32।।
ईषद हाँस दसन अति झलकैं ।
छुटि रही कहुँ-कहुँ मुख पर अलकै ।।33।।
चंचल चितवनि परम सुहाई ।
मुख-पानिप कछु कही न जाई ।।34।।
सहज नवेली अति अलबेली ।
तैसीय सोभित संग सहेली ।।35।।
प्रिया जू का अद्भुत गौरवर्ण है, और वे नीलांबर — नीले रंग की साड़ी — धारण किए हुए हैं। उज्ज्वल शुभ्र मोतियों से उनके केशपाश सजे हुए हैं। मल्लिका आदि पुष्पों से गुथी हुई उनकी वेणी अत्यंत मनोहर प्रतीत होती है। उनकी आँखें — विशाल, उज्ज्वल, अरुणिमा युक्त, कोमल कजरारे नेत्र — सलज्ज और अत्यंत मनोहर हैं। प्रिया जू ने नीलवर्ण की साड़ी के साथ कसुंभी रंग की कंचुकी धारण की हुई है। उनकी वेणी, केश-सज्जा, और संपूर्ण रूप अलौकिक प्रतीत होता है। वे अभी कुमार और किशोर अवस्था के बीच की अवस्था में हैं — पूर्ण किशोरी अभी नहीं हुईं, किंतु उनके रूप में सौंदर्य की पूर्णता स्पष्ट है। सखियों ने उनकी केशराशि को अत्यंत सुंदर ढंग से सजाया है। श्याम वर्ण की बिंदी, गोरे भाल पर कस्तूरी से रचित, सुंदर पत्रावली के साथ सजी हुई है। प्यारी जू का स्वरूप अत्यंत मोहक है। उनकी नासिका के अग्र भाग पर सुंदर मोती की नथ है। मंद-मंद मुस्कुराते हुए वे सखियों की ओर देखकर कुछ बात कर रही हैं। जब वे मुस्कुराती हैं, तो दंतपंक्ति झलकती है — उनके अधरों पर लालिमा छाई रहती है। मुखमंडल पर अलकावली (लटें) शोभायमान हैं, और मंद-मंद मुस्कुराती हुई महारानी जू धीरे-धीरे पधार रही हैं।
प्रथम दर्शन की लीला: जब दृष्टि मिली और लाल जू बेहोश हो गए
सखियनि खेल रच्यौ सुखकारी ।
एक ते एक रहैं दुरि न्यारी ।।36।।
चली दुरन तिहि ठाँ सुकुँवारी ।
बैठे हे जहाँ कुंज-विहारी ।।37।।
अद्भुत कौतुक अधिक इक, बढ्यौ सहज सुख पुंज ।
चली दुरनि तहाँ लाड़ली, हुते लाल जेहि कुंज ।।38।।
कुँवरि तहाँ अनजानत आई ।
जहाँ लाल ह्वै रहे लुभाई ।।39।।
चारौं नैंन एक भये ऐसे ।
विछुरे खंजन मिलत है जैसे ।।40।।
सकुचि कुँवरि पुनि घूँघट कीनौ ।
नवल लाल तिनके रँग भीनौ ।।41।।
पिय-मन मीन-पर्यो छबि-जाला ।
व्याकुल देह सनेह विशाला ।।42।।
नैंकहि चितवत रूप रसाला ।
मूर्छा आइ गई तेहि काला ।।43।।
तबही लाल गिरे घर माई ।
सो ठाँ मनौं प्रेम की छाई ।।44।।
अब सब सखियाँ संकेत-वट के पास पहुँचीं। आज यह विचार हुआ कि कौन-सा खेल खेला जाए। ललिता जू ने कहा, “आज छुपन-छुपाई का खेल खेला जाए। आज लाडली जू छुपेंगी और हम सब उन्हें ढूँढ़ेंगे। जो उन्हें खोजकर पकड़ लेगा, फिर लाडली जू हमें ढूँढेंगी जब हम छिपेंगे।” इस प्रकार क्रीड़ा आरंभ हुई।
श्री लाडली जू छिपने के लिए उसी कुंज की ओर बढ़ीं, जहाँ लाल जू महाराज पहले से छिपे बैठे थे — वहीं, जहाँ वे श्री जी के दर्शन के लिए एकांत में तन्मय होकर बैठे थे। एक अव्यक्त आकर्षण लाडली जू को उस कुंज की ओर खींच लाया। जब लाडली जू छिपने के लिए उस कुंज में पहुँचीं, अचानक उनकी दृष्टि लाल जू पर पड़ी। कमल-नयन, जिनके रूप को देखकर कोटि-कोटि कामदेव भी मोहित हो जाएँ — ऐसे श्याम सुंदर उनके सामने उपस्थित थे। अचानक नेत्रों से नेत्र मिले। वो जिन्हें पहले से ही दूर से देखकर मन आकृष्ट हो रहा था — मानो जन्मों-जन्मों के बिछड़े आत्मा आज मिल गई हो। यह प्रथम मिलन था। प्रथम दृष्टि — लाडली जू की लाल जू पर, और लाल जू की लाडली जू पर।
नेत्रों के इस परस्पर मिलन ने दोनों पर ऐसा प्रभाव डाला कि लाल जू सहम से गए। लाडली जू ने सकुचाकर नीलांबर का घूँघट कर लिया। परंतु लाल जू की दृष्टि तो रूप का पान कर चुकी थी। उस एक पल के दर्शन में ही लाल जू के हृदय में अपार प्रेम उमड़ पड़ा।
प्रिया जू का रूप मानो कोई प्रेम-जाल हो गया, और लाल जू का मन उस जाल में फँसी हुई मछली — जिसे छूटने का कोई मार्ग नहीं। क्षणमात्र का दर्शन हुआ, और प्रियाजू ने नीलांबर की ओट ले ली। अब लाल जू व्याकुल हो उठे। प्रिया जू को देखते ही उनके हृदय में ऐसा प्रेम-प्रवाह उठा कि वे उसे सँभाल नहीं सके — विकल हो गए, और अंततः मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। यह दृश्य देखकर लाडली जू डर गईं। उन्होंने अत्यंत करुण और प्रेममयी दृष्टि से लाल जू की ओर देखा…
महारानी की चुप्पी: एक क्षण का मिलन और विरह की पीड़ा
रूप-सिंधु में मन पर्यौ, ढरत नैंन दोउ नीर ।
डगमगाइ धरनी परे, रही न सुधि जु सरीर ।।45।।
पिय कौ मन आपुन हरि लीनौ ।
अपनौ चित प्रीतम कौं दीनौ ।।46।।
मन रह्यौ उही कुँवरि फिरि आई ।
और न कछुवै बात सुहाई ।।47।।
नैंननिं छाई पिय की सोभा ।
सुधि तन न रहि फिरै उह लोभा ।।48।।
देखि बात आश्चर्ज की, भूलि रही सुकुवाँरि ।
सहजहि बाढ्यौ प्रेम रस, ह्वै गई नई चिन्हारि ।।49।।
भूल्यौ खेल कुँवरि कौं तबही ।
नवल नेह रस उपज्यौ जबही ।।50।।
यह सहचरि किनहूँ नहिं लेखी ।
कुँवरि-कुँवर की देखा-देखी ।।51।।
चलीं सखी मिलि भवन कौं, लीनी कुँवरि सँभारि ।
येई सबके प्रान हैं, अलबेली सुकँवारि ।।52।।
जब श्री लाडली जू छिपने आईं और उन्होंने श्री लाल जू का रूप देखा, तो वे सहसा खड़े हो गए। लाडली जू के मुखमंडल पर दृष्टि पड़ते ही उनके नेत्र स्थिर हो गए, शरीर कपायमान हो उठा — प्रेम का यह लक्षण प्रकट हुआ कि तन-मन विकल हो गया। क्षणभर में ही लाल जू भूमि पर मूर्छित होकर गिर पड़े। श्री लाडली जू ने यह सब नीलांबर की ओट से देखा। उनकी करुणा समुद्र बन बह उठी — परंतु संकोचवश केवल कुछ क्षण वहीं ठिठकी रहीं, फिर धीरे-धीरे कदम पीछे खींचते हुए सखियों की ओर बढ़ गईं।
सखियों ने आश्चर्य से पूछा, “आप तो छिपने गई थीं, लेकिन छुपी ही नहीं और लौट आईं?” लाडली जू मौन रहीं, कुछ नहीं बोलीं, केवल एक संकेत किया — “चलो, अब मुझे खेल नहीं खेलना।” महारानी जू का आदेश मिलते ही समस्त सखियाँ चुपचाप चल पड़ीं। लाडली जू के नेत्रों से अश्रु धारा बह रही थी, पर किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह अचानक कैसी उदासी छा गई?
उधर लाल जू अब भी उसी कुंज में मूर्छित पड़े थे, और लाडली जू की आँखों में उनका रूप बसा रह गया था — रूप-माधुरी ऐसी छायी कि शरीर की सुध-बुध तक खो गई। सखियों के साथ लौटते हुए, लाडली जू हर थोड़ी दूर पर पीछे मुड़कर उसी दिशा में देख लेतीं, जहाँ लाल जू महाराज थे।
उनके मन में बार-बार यही चिंता उठ रही थी — “वे तो मेरे रूप के दर्शन मात्र से मूर्छित हो गए… अब कौन उन्हें सँभालेगा?” भीतर एक विचित्र पीड़ा उठी, मन व्याकुल हो गया। अब लाडली जू न किसी से बात करती हैं, न किसी खेल में रुचि लेती हैं, न हँसती हैं, न ही भोजन करती हैं। और किसी को यह ज्ञात नहीं कि ऐसा क्या हुआ जो उनकी सारी रुचियाँ जाती रहीं। महारानी जू की दशा अब अत्यंत विलक्षण हो गई है — ऐसी गंभीरता और विरक्ति कि सहचरियाँ भी साहस नहीं कर पातीं उनसे कुछ पूछने का। वे केवल तिरछी दृष्टि से देखती हैं और मन में आशंका करती हैं — “हमारी स्वामिनी को क्या हो गया? वे हमसे कुछ बोलती नहीं, हँसती नहीं, बस एक मौन छाया है।”
अब न पीतांबर रुचे, न वंशी बजे: प्रियतमा के बिना सब व्यर्थ
पिय की गति सुनि अब मो पाहीं ।
नैंननिं नौंक चुभी मन माँहीं ।।53।।
भूली सुधि-बुधि मूर्छा आई ।
छवि अनूप नैंननिं उर छाई ।।54।।
घरी चारि सुख माँहि बितानी ।
पुनि चित चेत सुरति उर आनी ।।55।।
कहाँ देखौ जिनि दई दिखाई ।
हरि लिये प्राँन देह अकुलाई ।।56।।
वह सहचरि मन में अति मानी।
जिनि यह छबि मोपै जु बखानी ।।57।।
जो कछु रूप कह्यौ हुतौ, ताते सतगुन आहि ।
बार-बार तेहि सखी कौं, लालन उठत सराहि ।।58।।
तबतें मोहन रहत उदासा ।
प्रेम-खटक तें भरैं उसाँसा ।।59।।
रूप-छटा करकै हिय माँहिं ।
छिन छिन माँहि विकल ह्वै जाँहीं ।।60।।
तन की गति ऐसी भइ माई ।
ज्यौं जल बिन वारिज कुमिलाई ।।61।।
भोजन-पान कछू न सुहाई ।
हृदै ध्यान नव-प्रिया रहाई ।।62।।
अति ही छीन जु भयौ सरीरा ।
दिनहिं नैंन भरि आवै नीरा ।।63।।
नैंन सरोवर से भरे, नवल नेह के नीर ।
ढरि-ढरि मुक्ता से परत, रहे भीज तन-चीर ।।64।।
सीस चंद्रिका धरी न भावै ।
सौरभ परसत अति दुख पावै ।।65।।
रुचै न उर बैजंती-माला ।
मारुत भई पावक सम ज्वाला ।।66।।
पीत वसन बंसी बिसराई ।
बाढ्यौ प्रेम कह्यौ नहिं जाई ।।67।।
बरसाने तन चितवत रहहीं ।
मौन धरैं कछुवे नहिं कहहीं ।।68।।
उहि दिसि ते जु पवन सखि आवै ।
सो रज अधिक लाल मन भावै ।।69।।
मन अरु नैन कुँवरि के पासा ।
देह रहे मिलिवे की आसा ।।70।।
कल न परत तन व्याकुल भारी ।
जब ते श्यामा, श्याम निहारी ।।71।।
प्रेम की बात निपट अटपटी ।
सोई जानै जेहि लगै चटपटी ।।72।।
प्रीति-रीति अति कठिन है, कहै न समझै कोइ ।
प्रेम-बान जेहि उर लगै, निसि-दिन जानै सोइ ।।73।।
इधर श्री लाल जू महाराज को कुछ देर बाद जब चेतना आई, तो बस इतना ही कहा — “हा लाडली जू… हा प्रियाजू…” फिर वे शिथिल हो गए। चार घड़ी — (एक घड़ी = 24 मिनट) — अर्थात् कुल 96 मिनट (1 घंटा 36 मिनट) तक लाल जू बेहोश पड़े रहे। ऐसी आनंदमयी उमंग, ऐसा अलौकिक सौंदर्य, कि प्रियाजू के रूप ने श्री लाल जू को मूर्छित कर दिया। जब चेतना लौटी तो मन में विचार आया: अब पुनः दर्शन कैसे होंगे? क्योंकि अब तो बिना दर्शन के जीवन असंभव है।
प्रभु मन ही मन प्रार्थना करने लगे — “हे सखी, तुम मुझे फिर से मिल जाओ — तुम ही थीं जिसने उस रूप का वर्णन किया था, और उस स्थान का संकेत दिया था जहाँ प्रियाजू के दर्शन संभव हुए। मेरे प्राणों को हरकर वह नवल किशोरी चली गई… अब उनके दर्शन के बिना मेरा जीवन अर्थहीन है।”
प्रीतम सोचने लगे: “जिस सखी ने मुझे नवल किशोरी प्रियाजू के रूप का वर्णन किया था — यदि वह एक बार फिर मिल जाए तो मुझे जीवित कर देगी। प्रिया जू से मिलन का एकमात्र उपाय है — वही सहचर, वही सखी। उसके वर्णन से जो सौंदर्य मैंने कल्पना किया था, उससे भी सौ गुना अधिक साक्षात् देखा।” रसिक प्रीतम बारंबार उस सखी के चरणों की वंदना करते हैं, याद करते हैं — “सखी यदि दर्शन दे दे, तो वह मुझे प्रियाजू तक पहुँचा सकती है।”
अब विरह की अग्नि इतनी तीव्र हो गई कि लाल जू सखाओं से भी उदास रहने लगे। मैय्या का श्रृंगार करना उन्हें अच्छा नहीं लगता, मैय्या द्वारा दिया गया भोग उन्हें प्रिय नहीं लगता। हृदय में प्रेम के प्रहार बारंबार हो रहे हैं। हर बार गहरी साँस लेकर बस कहते — “हा प्रियाजू…” यह हमारी महारानी जू के रूप का चमत्कार है। हर क्षण वे विकल हो जाते हैं।
अब तो श्री लाल जू महाराज ऐसे मुरझा गए जैसे जलविहीन कमल। भोजन, जलपान, श्रृंगार — सब कुछ अप्रिय हो गया। अब उनके हृदय में केवल एक ही बात है — “नवल किशोरी प्रियाजू के दर्शन हो जाएँ, तो प्राण बचें।” शरीर दिन-ब-दिन कृष होता जा रहा है। बरसाने की ओर देख-देखकर अश्रु बहाते हुए खड़े रहना, पूरा दिन इसी अवस्था में व्यतीत हो जाता है। न खाना, न पीना, न सखाओं के साथ क्रीड़ा। नेत्रों से निरंतर अश्रुधारा बहती रहती है, यहाँ तक कि पीतांबर और वस्त्र भी उस अश्रुधारा से भीग जाते हैं।
अब तो मैय्या जब मोर मुकुट पहनाने आती हैं, तो वह भी अच्छा नहीं लगता। शीतल-सुगंधित वायु भी अब ज्वाला-समान प्रतीत होती है — प्रिया जू के विरह में। अब न पीतांबर धारण करना रुचता है, न पटुका, और बंसी बजाना भी छूट गया। ऐसी प्रेम-विरह की दशा हो गई है, कि बस जब बरसाने की ओर से कोई वायु आती है, तो लगता है — उसमें मेरी प्रियाजू की चरण-रज है, उनका स्पर्श है — वह थोड़ी शीतलता हृदय को देती है।
नेत्र बस प्रियारूप में स्थिर हो गए हैं, और मन तो सदा प्रियाजू के पास रहता है। अब तो एक क्षण भी काटना मुश्किल हो गया है। इधर श्री लाल जू की दशा यह है, तो उधर श्री किशोरी जू की दशा क्या है?
प्रियाजू की व्याकुलता – मौन, नेत्रों की अश्रु धारा और सखियों की प्रार्थना
इतहि अनमनी रहै किशोरी ।
चित्त पर्यो पिय-प्रेम की डोरी ।।74।।
छुटि गई नैंननिं तें चपलाई ।
उपजी अंग-अंग शिथिलाई ।।75।।
चितै रहै अवनी तन ठाढ़ी ।
नेह-बेलि उर-अंतर बाढ़ी ।।76।।
जे सखि साथ की खेलन-हारी ।
तेउन मनतैं सबै बिसारी ।।77।।
भूल्यौ हँसिबौ खेलिबौ, भूल्यौ अंग-सिंगार ।
निसि-दिन रहैं या सोच में, रुचत नाहिं उर-हार ।।78।।
हित की सखी अधिक अकुलानी ।
देखी कुँवरि कछुक कुँभिलानी ।।79।।
गद-गद कंठ नेह-रस सानी ।
बोली तहाँ कछुक मृदु बानी ।।80।।
चलहुँ लाड़िली प्रिया नवेली ।
जाँहिं सरोवर कहैं सहेली ।।81।।
नाक सँकोर स्वाँस अति लेही ।
सहचरि कौ उत्तर को देही ।।82।।
प्रेम-विवस कछुवै न सुहाई ।
मोहन-मूरति हृदै बसाई ।।83।।
बढ़ि गई प्रीति कहत नहिं आवै ।
विसरत नहिं जेतिक बिसरावै ।।84।।
मन पर्यो प्रेम पेच में जाई ।
बल कियैं कैसैं निकसत माई ।।85।।
ठाढ़ी नखनि अवनि कौं खनैं ।
फिरत न कैहूँ फेरत मनैं ।।86।।
नैंना अति ही सजल रहाहीं ।
प्रीतम-प्रेम जानि मन माहीं ।।87।।
अति विशाल लोइन सुरंग, सहज रसीले आहि ।
प्रेम-लाज जल सौं भरे, रही अवनि तन चाहि ।।88।।
और सखी ढिंग ते जब आई ।
आठौ रहीं कुँवरि मन भाई ।।89।।
ललिता कहै श्री राधा प्यारी ।
मोसौं बात कहौ सुकुँवारी ।।90।।
मैं हूँ तौ मन की कछु पाई ।
सो तुम मोहि कहौ समुझाई ।।91।।
अपने सौं दुराव नहिं कीजै ।
दिन-दिन देखत देही छीजै ।।92।।
जैसी स्थिति श्री लाल जू महाराज की थी, ठीक वैसी ही स्थिति अब प्रिया जू की भी हो गई है। प्यारी प्रिया जू के नेत्रों की चंचलता – पता नहीं, उस दिन से कहाँ खो गई। अब बस गंभीर, अर्ध-खुले नेत्र हैं और निरंतर अश्रुधारा। महल से बार-बार वही वट-संकेत की दिशा में देखती रहती हैं। मन में यही विचार बार-बार आता है — “वे मूर्छित होकर गिर गए थे… उन्हें कौन संभाल पाया होगा…?” सखियाँ देख-देखकर विस्मित हैं। सब प्रवीण सखियाँ हैं, समझदार हैं, लेकिन कोई भी प्रिया जू की पीड़ा को समझ नहीं पा रही। उस दिन से तो मानो मुस्कान ही चली गई है प्रिया जू के मुख से। हँसना, बोलना, खेलना — सब कुछ छूट गया है। जब सखियाँ श्रृंगार करना चाहती हैं, तो प्रिया जू मना कर देती हैं — “श्रृंगार अब अच्छा नहीं लगता।”
सखियाँ अकुला उठीं — “ऐसे कैसे होगा? ना खाना, ना पीना, ना हँसना, ना बोलना, ना श्रृंगार, ना क्रीड़ा…” स्वामिनी की ऐसी दशा देखकर सारी सखी-मंडली बहुत उदास, व्याकुल और चिंतित हो गई। एक दिन, प्रधान सखियाँ प्रिया जू से एकांत में मिली। और आग्रहपूर्वक बोली — “प्यारी जू, कुछ अच्छा नहीं लग रहा तो चलो… हम वहीं चलते हैं — वट संकेत पर। वहीं खेलते हैं, जैसे पहले खेला करते थे।” प्रिया जू ने तुरंत मना कर दिया — “नाम मत लो वहाँ का… वट संकेत नहीं… अब वहाँ नहीं जाना है… मुझे वहाँ खेलना नहीं है…” सखियाँ बोलीं — “पर वो तो आपका प्रिय स्थान था… रोज़ आप वहीं चलने के लिए उत्साहित रहती थीं। कहने भर की देर होती थी। अब क्यों मना कर रही हैं?”
प्रीतम के प्रति प्रेम, अवर्णनीय प्रीति प्रिया जू के हृदय में भरी हुई है। जब सखियों ने यह देखा तो उन्हें एकांत में छोड़ दिया। प्रिया जू बार-बार अपने मन को उस प्रेम के समुद्र से निकालना चाहती हैं — लेकिन वह मन बार-बार उसी में डूब जाता है। सखियाँ हर क्षण प्रिया जू पर दृष्टि रख रही हैं। प्रिया जू आँगन में खड़ी-खड़ी, अपने चरणों के नख से धरती को कुरेद रही हैं — जैसे हृदय की पीड़ा को प्रकट कर रही हों। मन में बस वही मूर्छित प्रीतम का रूप, वही माधुरी — नेत्रों से अश्रुधारा बह रही है। अष्ट सखियाँ — जो कि उनके प्राणों के समान प्रिय हैं — कुछ समझ नहीं पा रही हैं।
ललिता सखी बहुत प्रवीण हैं। उन्होंने अन्य सभी सखियों को दूर भेज दिया, सबको अलग-अलग सेवा में लगा दिया। फिर प्रिया जू को बीच में बैठाकर उन्होंने कहा — “प्यारी जू, आज तक हमारे बीच कोई भेद नहीं रहा है। आपने कभी कोई बात मुझसे नहीं छुपाई। कृपया आप मुझे बताइए — अपने मन की बात मुझसे मत छुपाइए। मैंने आपके मन को अपने मन से जोड़कर देख लिया है…बात क्या है — मुझे पूरा भान हो गया है। यदि आप स्वयं कह देंगी तो मन का भार हल्का हो जाएगा। कृपया मुझसे कुछ भी न छुपाएँ। मैं तो आपके हृदय की तरह हूँ — आप मुझसे दूरी रखेंगी, तो मानो अपने आप से ही दूर हो जाएँगी। इसलिए, कृपा कर के अपने मन की बात प्रकट कीजिए।
नवल किशोरी ने बताई अपने मन की बात – ललिता सखी का संकल्प
जानी प्रिया सखी सुखदाई ।
तब मन में की बात चलाई ।।93।।
एक द्यौस खेलत बन माहीं ।
सखियन-संग सरोवर पाहीं ।।94।।
अतिही सघन कुंज है जहाँ ।
नवल कुँवर इक देख्यौ तहाँ ।।95।।
साँवल बरन पीत उपरैना ।
बड्ड़े आहि सलौने नैंना ।।96।।
अरुन अधर मुसिकनि छबि राजै ।
मोर-चंद्रिका सीस बिराजै ।।97।।
नासा बनि रह्यौ जलज सुढारा ।
कंचन दुलरी मोतिनु हारा ।।98।।
मुख पर पानिप झलक सुहाई ।
नेह रूप मनौं प्रगट चुचाई ।।99।।
मो तन चितें गिरे मुरझाई ।
वह खसि परन न बिसरत माई ।।100।।
तेहि छिन तें जु गयौ मन मेरौ ।
को सुधि कहै न कीयौ फेरौ ।।101।।
हौं नहिं बोली लाज की लई ।
तेहि पाछैं धौं कौंन गति भई ।।102।।
वहै करक तब तें मन माँहीं ।
खटकति पल-पल निकसति नाँहीं ।।103।।
इतनौ कहत हियौ भरि लीनौं ।
बहुरि न कछुवै उत्तर दीनौं ।।104।।
प्रेम-सुरति पिय की हियै, तेहि छिन करकी आइ ।
मुख निरसत नहिं बैन कछु, रही कुँवरि सिर नाइ ।।105।।
यह गति देखत सखी भुलानी ।
भरि आये दोऊ लोइन पानी ।।106।।
पुनि धरि धीर विचारनि लागी ।
नवल कुँवरि के हित अनुरागी ।।107।।
करौं जतन नँद-लालहिं लाऊँ ।
पिय-प्यारी में रंग बढ़ाऊँ ।।108।।
मिलहिं दोऊ रस बाढ़ै भारी ।
बिरह-बिथा विचते होइ न्यारी ।।109।।
सहचरि मन आनँद बढ्यौ, सुनत बचन अति सार ।
प्रेम-मगन आनँद भयौ, मिलवन नंद-कुमार ।।110।।
प्रिया जू बोलीं — “सखी, उस दिन तुम मुझे खेलने के लिए ले गई थीं ना — प्रेम सरोवर में, छुपा-छुपी का खेल खेलने। मैं जब सघन कुंजों में छुपने के लिए गई, तो वहाँ पहले से ही कोई बैठे थे — नवल किशोर। श्याम वर्ण, पीतांबर धारण किए हुए, सलोना रूप, विशाल नेत्र, अत्यंत सुंदर। उनके अरुण अधरों पर मंद मुस्कान थी। माथे पर मोर मुकुट सुशोभित था। नाक पर मोती की बेसर थी। मैंने देखा — कंठ प्रदेश में मोतियों का सुंदर हार, मुखमंडल अत्यंत लावण्ययुक्त – ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो प्रेम की ज्योति साक्षात मूर्तिमान हो गई हो। जैसे ही मैं ललित कुंज में प्रविष्ट हुई, उन्होंने मुझे देखा… और उसी क्षण वे मूर्छित होकर गिर पड़े। उनका वह मूर्छित होना, उनका पृथ्वी पर गिर पड़ना, मेरे लिए असहनीय था।
उसी क्षण से मेरा मन बस उन्हीं किशोर का चिंतन कर रहा है। जब तक मुझे उनके दर्शन नहीं होंगे, मेरा चित्त स्थिर नहीं हो सकता। उस समय तो मन में आया कि दौड़कर उन्हें उठाऊँ, पर लज्जा और संकोच के कारण मैंने उनका स्पर्श नहीं किया। पर आज तक यह बात मेरे हृदय में कसक बनकर रही — उनकी क्या दशा हुई होगी? अब कोई मुझे उनकी बात भी नहीं बता रहा — वो कौन थे, उनकी क्या स्थिति हुई, कैसी अवस्था में हैं — कोई कुछ नहीं कह रहा। सखी, उन नवल किशोर का दर्शन ही मेरा जीवन है। यदि उनका मिलन नहीं हुआ, तो मेरी दशा कभी सुधरने वाली नहीं। क्या किसी को उनकी कोई बात पता है? कोई केवल इतना भर बता दे कि उनकी गति क्या हुई?
मेरे मन में अपार पीड़ा है, हर क्षण, मेरे चित्त में एक ही कसक है… इतना कहते-कहते श्री जी रो पड़ीं। वाणी रुक गई, नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होने लगे, और फिर वही उदासीनता की अवस्था उनमें लौट आई। तत्क्षण श्री ललिता जू ने अपने करकमलों से श्री जी को संभाला और कहा — “प्यारी जू, विश्वास करो… आपका सुख ही मेरा सुख है। लाडली जू, निश्चिंत हो जाओ। तो मैं स्वयं नंदनंदन को यहाँ लाऊँगी और आप दोनों का मिलन कराऊँगी। आपके इस विरह-दाह को मैं मिटा दूँगी।” ये सुनकर प्रियाजू के मुख पर मुस्कुराहट लौट आई। सखी बोली — “अब चिंता मत करो। मैं अभी जाती हूँ और हर उपाय करके नंदनंदन को आपके पास लाऊँगी।”
श्री कृष्ण को लेने आईं ललिता सखी – नन्द नंदन की सखी के चरणों में प्रार्थना
नन्दगाम तेही छिन आई ।
मनमोहन कौ सैंन जनाई ।।111।।
सैंन बूझ लालन उठि आये ।
ललिता देखि कछुक मुसिकाये ।।112।।
बूझत सखी चतुर तब बाता ।
काहे मोहन हौ कृस गाता ।।113।।
तब मोहन मन की सब कही ।
जो जो पाछैं ही गति भई ।।114।।
ललिता एक किशोरी देखी ।
मानौं रूप की सीवाँ पेखी ।।115।।
कौन भाँति मुख की छबि कहियै ।
चितवत सखी चित्र ह्वै रहियै ।।116।।
कहा कहौं अंग-अंग निकाई ।
छिनक माँहिं लियौ चित्त चुराई ।।117।।
मनौं मोहनी और ठगोरी ।
तीन लोक की करि इक ठौरी ।।118।।
नव-किशोरता कछुक भुराई ।
लाज भरी अँखियनि मुसिकाई ।।119।।
रूपहि कहत विवस भयौ प्यारौ ।
प्रेम-नीर नैंननि तें ढारौ ।।120।।
नख-सिख तें अति सोहनी, नाँहिन कछु समतूल ।
रूप-लता लागे मनौं, चितवनि-मुसिकनि फूल ।।121।।
अब तो जतन करौ वर नारी ।
मिलै मोहि वृषभानु-दुलारी ।।122।।
तिनकी छबि उर नैंननिं छाई ।
अटपटी भाँति चटपटी लाई ।।123।।
तेहि छवि-पावक-प्रीति जरावै ।
चतुर सोई जो प्रिया मिलावै ।।124।।
मैं तो यह जानी सखी, हितू न तोहि समान ।
यह गुन तेरौ मानि हौं, जब लगि घट में प्रान ।।125।।
जा दिन तें मोहि दई दिखाई ।
चकित चित्त कछुवै न सुहाई ।।126।।
अब लगि तौ दिन बितये ऐसैं ।
अब धौं प्रान रहैंगे कैसैं ।।127।।
गहवर आई सहचरी, सुनत लाल की बात ।
प्रेम दुहुँनि कौ समुझि मन, रीझि-रीझि बलिजात ।।128।।
ललिता कहै सुनौ नँदलाला ।
मिलऊँ आज तुमैं नव बाला ।।129।।
इतनी सुनत सरस है आये ।
विछुरे प्रान फेरि मनौं पाये ।।130।।
सुनत बचन आनँद न समाई ।
पग ललिता के सिर धरयौ जाई ।।131।।
रसिक-सिरोमनि रसिक पिय, जानत रस की रीति ।
प्रभुता राखी दूरि कै, भये दीन बस-प्रीति ।।132।।
ललिता जू नन्दगाँव पहुँचीं। वहाँ लाल जू का एक ही कार्य रह गया था — गाँव से बाहर निकल कर, एकांत कुंज में खड़े होकर बरसाने की ओर निहारना। रास्ते में ललिता जू दिखाई दीं — बरसाने की ओर से आती हुईं। लाल जू ने जैसे ही उन्हें देखा, पहचान लिया — “हाँ, यही वही सखी हैं जिन्होंने प्रियाजू का दर्शन कराया था!” वे दौड़ पड़े… ललिता जू ने देखकर मुस्कराहट से स्वागत किया। ललिता मुस्कुराकर बोलीं — क्या हो गया, लाल जू? आप तो बहुत दुबले हो गए हैं, बहुत उदास दिखाई देते हो… लाल जू ने सब कुछ कह सुनाया — “तुमने कहा था, इसलिए मैं गया… और वहाँ जो रूप देखा… उसके बाद से मैं केवल उन्हीं के दर्शन को व्याकुल हूँ।”
“ललिता, उन नवयुवतियों में एक किशोरी को देखा — मानो रूप की सीमाओं को पार कर देने वाली थी। उसने मेरे चित्त को चुरा लिया है… लाल जू ने ललिता जू के चरणों में हाथ रखकर कहा — “अब तो एक ही उपाय है — मुझे बस उस ब्रजबाला, उस बरसाने वाली दुलारी से मिला दो। मैं तुम्हारे चरणों की वंदना करता हूँ, अगर तुम रिझ गईं, तो मुझे प्रिया जू मिल जाएँगी। मैं जीवन भर तुम्हारा ऋणी रहूँगा। और यह मैं भलीभाँति जानता हूँ कि तुम्हारे सिवा कोई और मुझे नवल किशोरी से नहीं मिला सकता।”
“जिस दिन से मैंने उन्हें देखा है, उस दिन से न भोजन किया, न जल पिया। अब दिन कैसे कटते हैं, मैं कैसे बताऊँ? पर अब यह विरह सहना मेरे बस से बाहर है। कृपा करके मुझे प्रिया जू से मिला दो।” ललिता जू के नेत्रों में आँसू आ गए — “मेरी प्यारी जू को तुम इतना प्रेम करते हो? मैं तुम्हें श्री जी से अवश्य मिलाऊँगी। तुम निश्चिंत हो जाओ।” यह सुनकर लाल जू आनंद में मग्न हो गए और बोले — “सच में? क्या तुम मुझे प्रिया जू के दर्शन कराओगी?” उन्होंने ललिता जू के चरणों में सिर रख दिया। रसिक शिरोमणि, रस के ज्ञाता, समस्त ब्रह्मांड के स्वामी होते हुए भी — प्रभुता को दूर रख, प्रेम में दीन बन गए।”
ललिता जू मिलीं यशोदा मैया से, किया श्री कृष्ण को बरसाने ले जाने का प्रबंध
सखि मोहन सौं जब बदि लई ।
तब भीतर जसुदा पै गई ।।133।।
पकरि चरन बैठी ढिंग जाई ।
घरी इक पाछै बात चलाई ।।134।।
कीरति जू पाइ लागन कहियाँ ।
कुँवरहिं न्यौंतन पठईं मईयाँ ।।135।।
पुनि मन में कछु आहि विचारी ।
देख्यौ चाहत कुँवर विहारी ।।136।।
भूषन बसन बनाइ सबेरैं ।
अबही संग देहु तुम मेरैं ।।137।।
मुदित महरि अति चाव सौं, भूषन वसन सुरंग ।
नवल लाल अति बानि कै, दयौ सहचरी संग ।।138।।
अति आनंद बढ्यौ मन माहीं ।
बैठे जाइ निकुंजनि छाँहीं ।।139।।
सहचरि तब मन करत बिचारा ।
सोच-नदी तहाँ बढ़ी अपारा ।।140।।
अब किहि विधि बरसाने जैयै ।
जो न लखै सोई जु बनैयै ।।141।।
गुरुजन-भीर तहाँ अति भारी ।
सब के प्रान वहै सुकुँवारी ।।142।।
फनि मनि ज्यौं लिये रहैं सँवारी ।
जीवत हैं सब ताहि निहारी ।।143।।
ऐसी कठिन ठौर सुनि प्यारे ।
तेहि ठाँ लागे नैंन तिहारे ।।144।।
सुनत सखी की बानी मानी ।
प्यासौ माँगै पानी-पानी ।।145।।
सब विधि मोहि भरोसौ तेरौ ।
पूरन करौ मनोरथ मेरौ ।।146।।
एक बार कैसैहूँ दिखावौ ।
तौ ललिता मोहि जीव जिवावौ ।।147।।
नासा अग्र प्रान रहे आई ।
बुधिबल करि कछु बेगि उपाई ।।148।।
ऐसैं वचन सुनत गहवरी ।
सहचरि सोच-कूप में परी ।।149।।
धीरज धरहु जाउँ बलिहारी ।
तुमतें मोहि अधिक दुख भारी ।।150।।
बचन करौं तुम सौं दै तारी ।
मिलऊँगी बलि प्रान-पियारी ।।151।।
तजि कैं लोक-वेद की लाज ।
देहौं प्रान तिहारे काज ।।152।।
ललिता जी ने हाथ पकड़ा और नंद भवन के द्वार तक उन्हें साथ ले गईं। फिर संकेत किया — “पीछे आओ।” वे यशोदा मैया के पास गईं, चरणवंदना की और उनके चरण पकड़ लिए। कुछ क्षण बाद थोड़ा बहुत खानपान हुआ। फिर ललिता जी ने कहा, “मैया, मैं बरसाने से आई हूँ। एक विशेष कार्य से आई हूँ। कीर्ति मैया ने आपके चरणों में वंदना भेजी है।” यशोदा मैया बोलीं — “अरे हाँ! वो हमें बहुत प्रेम करती हैं। कुछ रहस्य की बात है क्या?”
ललिता जी ने मुस्कराकर कहा — “उन्होंने कहा है कि नंदनंदन को एक बार देखना चाहती हैं। उन्होंने बुलाया है। हमें लगता है उनके मन में कुछ विशेष है। शायद वे कुँवर जी को एक बार देखना चाहती हैं। इशारे में बताया कि… बात विवाह की है।” यशोदा मैया ने हँसते हुए कहा, “अच्छा! आ लाला, पहले तुझे सँवार दूँ। ऐसा श्रृंगार करूँ कि कीर्ति रानी देखकर कहें — ‘हमारी लाडली जी के लिए यही दूल्हा सबसे सुंदर है।’” नंदनंदन को अत्यंत आनंद हो रहा है क्योंकि उन्हें प्रियाजी के दर्शन और उनसे संभाषण का अवसर मिलेगा। ललिता जी उनका हाथ पकड़ कर नंदगाँव से बाहर एक कुंज की ओर ले गईं। वहाँ पहुँच कर बोलीं — “लाल जी, यह बहुत कठिन स्थान है जहाँ तुम्हारी दृष्टि पड़ी है। वहाँ तो पहले ही दरबार लगा होता है — वृषभानु जी, ब्रज के बुजुर्ग और समस्त ब्रजवासी वहाँ उपस्थित रहते हैं। और वहाँ सैनिक तैनात रहते हैं। महारानी जी के महल में बिना जाँच, बिना अनुमति कोई प्रवेश नहीं कर सकता — वहीं हैं हमारी लाडली जू।”
ललिता जी सोच रही थीं — “इन्हें महल में कैसे ले जाऊँ? कैसे लाडली जी के पास पहुँचाऊँ?” उन्होंने लाल जी से कहा — “आपसे वादा तो कर लिया है, पर जिस स्थान पर लाडली जी हैं — वहाँ ऐसे कोई सहज नहीं पहुँच सकता। जैसे साँप अपनी मणि की रक्षा करता है, वैसे ही सारे ब्रजवासी, बुजुर्गजन लाडली जी के चारों ओर सुरक्षा के लिए सजग रहते हैं।”
सखी की बात सुनकर लाल जी ने उनके चरण पकड़ लिए — “नहीं! अब ‘ना’ मत कहो। आपने वादा किया है कि मुझे प्रियाजी से मिलाओगी। अब कह रही हो कि वहाँ पहुँचना कठिन है?” मैं तुम्हारे ही भरोसे हूँ। तुम्हारे चरण पकड़कर कहता हूँ — मेरे इस मनोरथ को पूर्ण करो। एक बार प्रियाजी के दर्शन करा दो, मेरा जीवन सफल हो जाएगा।”
ललिता जी गंभीर थीं। लाल जी फिर बोले — “बस ‘हाँ’ कह दो… ‘ना’ मत कहना। अगर ‘ना’ कहा, तो मेरे प्राण इसी क्षण छूट जाएँगे।” ऐसे वचन सुनकर ललिता जी मन ही मन सोचने लगीं — “कैसे ले जाऊँ? ऐसा न हो कोई गुरुजन रोक दें।” फिर उन्होंने ठाना — “यदि मेरे प्राण भी चले जाएँ, तो भी मैं तुम्हें प्रियाजू से मिलाऊँगी। लालन, ले तो चलूँगी, लेकिन ‘नंदनंदन’ के रूप में नहीं।”
त्रिभुवन-मोहन की मोहिनी लीला – मोहन बने साँवली सखी

नैंन भरैं धीरज धरैं, मन में थापि विचारि ।
पलटि वेष लै जाइयै, जहाँ कुँवरि सुकुँवारि ।।153।।
तब ललिता इक मतौ विचारयौ ।
पिय कौं तिय कौ वेष सिंगारयौ।।।।154।।
भये चाव सौं सखी विहारी ।
देखन हित श्री राधा-प्यारी ।।155।।
पहिरी लाल कसूँभी सारी ।
गुहि वेनी कल माँग सँवारी ।।156।।
लाल-भाल पर बैंदी फबी ।
त्रिभुवन की सोभा सब दबी ।।157।।
नासा बेसरि अतिहि सोहनी ।
प्रान हरन कौं मनौं मोहनी ।।158।।
नैंननि अंजन दियौ बनाई ।
चिबुक बिंदु अतिही सुखदाई ।।159।।
कंचन-मोतिन की गर दुलरी ।
तेहि छबि की कोउ नाहिंन तुलरी ।।160।।
कंचुकि उरज बनाइ सँवारे ।
मानौं श्रीफल नौतन धारे ।।161।।
जेहि विधि के भूषन शुभ गाये ।
सुमिलि सुदेस सोइ पहिराये ।।162।।
साजि लिये जब सब सिंगारा ।
निरखि रूप सुख भयौ अपारा ।।163।।
नवल सखी नव अधिक विराजै ।
जुवतिनि-वृंद देखि सब लाजै ।।164।।
स्याम अंग पर अति बनी, सारि कसुँभी सुरंग ।
नख-सिख भूषन तियनि के, भूषित मोतिनु-मंग ।।165।।
तब ललिता बरसाने आई ।
सखी संग लै परम सुहाई ।।166।।
जब प्रवेस रावल में कीनौं ।
सकुच सहित मुख अंचल दीनौ ।।167।।
बूझतिं सकल जुवति जन हेरैं ।
यह को आई सखि सँग-तेरैं ।।168।।
ललिता परम चतुर अति स्यानी ।
उत्तर दियौ बेगि मृदु बानी ।।169।।
यह उपनंद गोप की बेटी ।
मोकौं खोरि साँकरी भेटी ।।170।।
जान अवार संग लै आई ।
कहिकै वचन ताहि समुझाई ।।171।।
गई लिवाइ तहाँ कर जोरैं ।
राजति जहाँ कुँवरि तन गोरैं ।।172।।
ललिता देखि कुँवरि मुसिकानी ।
सखी चतुरई मन में जानी ।।173।।
“महारानी जी के महल में पुरुषों का प्रवेश वर्जित है।” ललिता जी ने कहा — “आप भी पुरुष रूप में वहाँ नहीं जा सकते। मैं आपको सहचरी का रूप धारण कराऊँगी, क्योंकि केवल सखियों को ही प्रियाजी तक पहुँचने का अधिकार है।” अब लालन को ले जाकर ललिता जी ने उन्हें सहचरी रूप धारण कराया। कसूम्बी रंग की साड़ी, सुंदर माँग, घुँघराले बाल, उनके मध्य में सिंदूर की लकीर, मोती की लड़ी, सांवले भाल पर लाल बिंदी — ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो त्रिभुवन-मोहन स्वयं मोहिनी रूप में सज रहे हों। नाक में बेसर, गले में कंचन के तारों में पिरोई मोतियों की माला, वक्ष पर कंचुकी, नेत्रों में अंजन, पूर्ण श्रृंगार। जब ललिता जी ने उन्हें सिर से पाँव तक सजा दिया और पीछे हटकर देखा, तो स्वयं चकित रह गईं। “बलिहारी जाऊँ! अब कोई इन्हें वृषभानु भवन पहुँचने से रोक नहीं सकता।” नव-यौवन से युक्त, सौंदर्य की मूर्ति बनीं श्याम-सुंदरी सखी चल पड़ीं। ऐसी सुकुमारी, जिनका रूप देखकर युवतियों का समूह भी लज्जित हो जाए।
अब ललिता जी ने कहा — “चलो, अब बरसाने की ओर।” जब वे महल के निकट पहुँचे, तो ललिता जी ने कहा — “घूँघट खींचो, और मेरा हाथ ऐसे पकड़ो — और बिलकुल मेरी चाल से चाल मिलाकर चलना। यहाँ सब बड़े चतुर और अनुभवशील गोप तैनात हैं, तुरंत पहचान लेंगे।” महल में प्रवेश करते समय लाल जू के मस्तक पर घूँघट था। सुरक्षा में तैनात सखियाँ चौकन्नी थीं। एक ने पूछा — “हे ललिता जी, यह कौन सखी हैं? हमने इन्हें महल में पहले कभी नहीं देखा।” श्री ललिता जी, अत्यंत मधुरता से उत्तर देती हैं — “ये हमारी परम सखी हैं, गोपराज उपनंद जी की पुत्री। लाडली जी से मिलने की अभिलाषा रखती हैं, और पहले भी कई बार मिल चुकी हैं। ये मुझे साकरी खोर में मिलीं। संध्या समीप थी, तो हमने कहा — चलो, साथ ही चलें।” सखियाँ सन्तुष्ट हो गईं — “अच्छा, ले जाओ।”
सुरक्षा-कवच पार करते हुए, हाथ पकड़े हुए वे महल के भीतर पहुँचीं। महारानी जी, लाडली स्वरूपा, सिंहासन पर विराजमान थीं, प्रतीक्षा में। उन्होंने जैसे ही देखा कि ललिता एक नई सखी को ले आ रही हैं — मुस्करा उठीं। “अरे! मेरी चतुर सखी ललिता — कैसी कुशलता से प्रीतम को ले आई।”
प्रिया-प्रीतम का गूढ़ मिलन और संकेत-वट की नित्य लीला

निरखि परस्पर आनँद भारी ।
विरह विथा बिचतें भई न्यारी ।।174।।
सखी दोइ आईं सँग लागी ।
अटक्यौ चित्त रूप अनुरागी ।।175।।
कछुक ब्याज ललिता तब कीनौ ।
नवल प्रिया-प्रीतम सुख दीनौ ।।176।।
उठी बेगि जानै नहिं कोई ।
लीनी संग सहचरी दोई ।।177।।
कहति है तिन सौं बचन बनाये ।
करहु न टहल आज मन भाये ।।178।।
माला सुमन सुरंग बनावौ ।
चित्र विचित्र गूंथि लै आवौ ।।179।।
ऐसी चतुर चतुराई कीनी ।
टहल ब्याज सबही कौं दीनी ।।180।।
मिले मोहन श्री राधा-प्यारी ।
‘हित ध्रुव’ निरखि जाइ बलिहारी ।।181।।
नवल लाल नव लाड़िली, नवल केलि सुख-रासि ।
नवल प्रीति नव-नव बढ़ी, करत मंद मृदु हासि ।।182।।
वचन-रचन सुख कह्यौ न जाई ।
बाढ़यौ प्रेम-सिंधु अधिकाई ।।183।।
मैन-रंग कीने पिय-प्यारी ।
मन-मन सुख बाढ्यौ अति भारी ।।184।।
प्रेम-पगी ललितादिक आईं ।
अति आनंद न अंग समाई ।।185।।
सोभित सिथिल दुहुँनि के अंगा ।
निरखतिं सहचरि प्रेम-अभंगा ।।186।।
श्रमित जानि तब पवन डुलावै ।
अति आसक्त नैंन भरि आवै ।।187।।
कुँवरि कुँवर दोऊ रसिक वर, सब सखियनि के प्रान ।
दंपति सुख सुख जिनहु के, नाहिंन गति कछु आन ।।188।।
सखियनि जुत तब मतौ कराहीं ।
नित्य मिलैं हम वा बन माँहीं ।।189।।
यह मत जब मन में धरि लीनौ ।
निज सखियनि कौं अति सुख दीनौं ।।190।।
तब तें खेलैं वा वन माहीं ।
सुंदर सुभग सरोवर पाहीं ।।191।।
प्रिया-प्रियतम निकट आए, और जब घूंघट हटा तो वही नेत्र — जो संकेत वट में देखे थे — वैसे ही दोनों के नेत्र। प्रिया और प्रीतम के नेत्र परस्पर मिले, लाली जी का हृदय शीतल हुआ, लाल जू का हृदय भी शीतल हो गया। कुछ सखियाँ, जो नित्य सेवा में नहीं थीं, श्यामसुंदर के रूप-आकर्षण से अभिभूत होकर पीछे ही लगी थीं। वे सभी किशोरी जी के सखी-रूप में सजाए गए श्रीलालजू को देखती ही रह गईं। उनका चित्त लालजू पर आसक्त हो गया। वो सखियाँ महल के भीतर तक आ गईं।
ललिता जी ने उनसे कहा — “जब आ ही गई हो तो थोड़ी सेवा करवा लो। कुछ फूल हैं, उन्हें चुनो और सुंदर माला बनवाओ। फिर प्रियाजी और यह सखी — दोनों को धारण कराएँगे। तुम्हारी सेवा बन जाएगी।” इसके बाद निज परिकर की जो सखियाँ आईं, उन्हें अलग-अलग सेवाएँ दी गईं — “तुम श्रृंगार की सामग्री सजाओ, तुम भोग तैयार करो, तुम पुष्प-विन्यास करो।” प्रिया और प्रीतम को बात करने का अवसर मिल सके — इसलिए बहाने से सभी सखियों को सेवा में व्यस्त किया गया। श्री ललिता जी ने, जैसे ही जिसे जिस सेवा का आदेश दिया, सखी तत्क्षण उसमें तत्पर हो गई।
ललिता जी ने कहा — “बड़ा सुंदर अवसर है, सुखमय दिवस है। हमारी किशोरी जी की प्रिय सखी अतिथि बनकर आई हैं। सब मिलकर भावपूर्वक श्रृंगार बनाओ, भोग तैयार करो, और सुंदर-सुंदर पुष्पों से रंग-बिरंगी, सुहावनी मालाएँ बनाओ।” उन्होंने सबको सेवा में लगा दिया, और केवल प्रिया और श्यामसुंदर को सहचरी-स्वरूप में एकांत भेंट का अवसर प्रदान किया।
जैसे जल को पाकर मछली किलोलें करने लगती है, वैसे ही दोनों एक-दूसरे के दर्शन से आनंदित हुए। एकांत में प्रिया और श्याम सहेली — गले मिले, हृदय से जुड़े, नेत्रों से जुड़े। मंद मुस्कुराहट के साथ, सखियाँ यह दृश्य देखकर अपार आनंद में भर गईं और उन्हें आशीर्वाद देने लगीं। प्रिया-प्रीतम — राधा-मोहन जी का मिलन — सखियों के लिए परमानंद का क्षण था। उनके बीच परस्पर प्रेम-वार्ता हुई। युगल प्रिया-प्रीतम, विविध प्रकार से रसमयी चर्चा करने लगे। दोनों के हृदयों में अत्यंत प्रेमानंद की वृद्धि होती गई। फिर श्रीलालजू महाराज ने सहचर-रूप उतार कर अपने वास्तविक स्वरूप में दर्शन दिए। प्रिया-प्रीतम और समस्त सखियाँ अतिशय आनंद में मग्न हो गईं। प्रिया-प्रीतम सुखी रहें, हँसे, खेलें, मिलें — यही सखियों की गति और मति है। फिर सखियों ने विचार किया, और निश्चय किया: “आप नित्य नंदगाँव से संकेत वट में पधारें, हम रोज प्रिया जी को लेकर आएँगी। और रोज यही युगल मिलन होगा।” रोज़ वही खेल होंगे, रोज़ प्रेम-सरोवर में रसमयी क्रीड़ा होगी। ऐसा निश्चय करके युगल किशोर ने सखियों को अत्यंत सुख प्रदान किया। तभी से आज भी, प्रिया-प्रीतम नित्य संकेत-वट में प्रेम-सरोवर में मिलते हैं। वहीं श्री युगल सरकार की नित्य लीला होती है।
यह लीला (ब्रजलीला – बयालीस लीला) पढ़ने, सुनने और गाने का फल
श्री ध्रुव दास जी कहते हैं — “जो भी भक्त इस लीला का प्रेमपूर्वक गायन करेगा, पढ़ेगा या श्रवण करेगा, उसे अनायास ही सहचरी पद की प्राप्ति होगी। वह सहज ही प्रिया-प्रीतम के प्रेम-रस में विभोर हो जाएगा।” यह आज जो प्रथम मिलन की लीला गाई गई, जो कोई भी इसे प्रेम से गाएगा या श्रवण करेगा, उसके हृदय में प्रिया-प्रीतम का प्रेम निश्चित रूप से प्रकाशित होगा। और वह भक्त, प्रिया-प्रीतम की सेवा रूप सहचरी पद को प्राप्त होगा।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज