नाम जप में निरंतरता बनाए रखने में हमारे चित्त को सबसे अधिक बाधा पहुँचा सकता है काम। काम से प्रेरित होकर जब हमारी दृष्टि कामिनी की ओर जाती है तो उसमें भोग-वासनाओं की वृत्ति जुड़ जाती है। यदि जीवन में एक बार कामिनी का संग हो गया, तो उसकी तृष्णा तुम्हें जीवनभर परेशान कर सकती है। जब हमारा मन काम से प्रेरित होकर कहीं भी उसकी पूर्ति की स्थिति खोजता है, तो उस समय गहन चिंतन होता है और वही चिंतन हमें नष्ट कर देता है।
जैसे कि भगवद् गीता में भगवान कहते हैं:
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोह से स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होने पर बुद्धि का नाश हो जाता है। बुद्धि का नाश होने पर मनुष्य का पतन हो जाता है।
भगवद् गीता 2.62
क्रिया उतनी खतरनाक नहीं होती, जितना कि चिंतन खतरनाक होता है। क्रिया हुई, तो वह समाप्त हो गई, लेकिन चिंतन निरंतर चलता रहता है और भीतर से हमें खोखला कर देता है। हमारे या स्त्री शरीर में क्या सुख है? यह केवल भगवान की माया का आकर्षण है। यह मात्र बुद्धि का भ्रम है, और यह भ्रम इतना गहरा बैठ जाता है कि उस स्त्री या पुरुष के बिना जीवन कठिन लगने लगता है। प्राण त्यागना आसान हो सकता है, लेकिन उसे छोड़ना सहज नहीं होगा। तब केवल एक ही मार्ग बचता है—यदि भगवान कृपा करें, तो बचा सकते हैं; अन्यथा, मृत्यु ही एकमात्र निष्कर्ष नज़र आता है।
बिल्वमंगल ठाकुर और चिंतामणि वैश्या की कहानी
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चिंतामणि एक अत्यंत सुंदर वैश्या थी, और बिल्वमंगल जी उस पर पूरी तरह न्योछावर थे। चिंतामणि भी उनसे प्रेम करती थी। परंतु, एक वैश्या के लिए धन आवश्यक होता है, जबकि गृहस्थ जीवन में धन की एक सीमा होती है। बिल्वमंगल जी के माता-पिता ने उनके सारे वैभव को क्रमशः उनके लिए खर्च कर दिया। अंततः, जब माता-पिता ने देखा कि उनका पुत्र वैश्या गमन में लिप्त हो गया है, तो उन्होंने उसका विवाह एक सुंदर, सुशील और पतिव्रता कन्या से करा दिया। परंतु, चित्त जहाँ रम जाता है, वहाँ से हटाना कठिन होता है। मन यदि किसी मोह में पड़ जाए, तो अन्य किसी वस्तु की ओर आकर्षित नहीं होता—जिस प्रकार विष का कीड़ा केवल विष ही खाता है।
बिल्वमंगल ठाकुर जी की पतिव्रता पत्नी का समर्पण
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बिल्वमंगल जी ने कभी अपनी पत्नी की ओर दृष्टि तक नहीं डाली। फिर, जब धन की आवश्यकता हुई, तो वे अपने घर आए। उस समय पहली बार उन्होंने अपनी पत्नी को देखा और बोले, “यदि तुम मुझे जीवित रखना चाहती हो, तो यदि तुम्हारे पास कुछ स्वर्ण या धन हो, तो मुझे दे दो।” उनकी पत्नी, जो आज तक मौन थी, ने उत्तर दिया, “प्रणेश्वर, यह जीवन आपका ही है।” वह पतिव्रता नारी, जो अब तक उनसे संवाद तक नहीं कर पाई थी, अपने समस्त आभूषण और सौभाग्य के चिन्ह उतारकर उन्हें समर्पित कर दिए।
चिंतामणि का क्रोध और बिल्वमंगल ठाकुर जी को ठुकराना
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जब वे चिंतामणि के पास पहुँचे, तो उसने पूछा, “यह आभूषण कहाँ से लाए हो?” बिल्वमंगल जी ने उत्तर दिया, “मेरी पत्नी, जिसे आज तक मैंने देखा तक नहीं था, आज पहली बार उसे देखा। परंतु, मैं तुम्हारे बिना जी नहीं सकता। जब मैंने उससे प्रार्थना की, तो उसने अपने आभूषण मुझे दे दिए।” चिंतामणि वैश्या ने क्रोधित होकर कहा, “धिक्कार है तुझ पर! अब इसके बाद क्या लाएगा तू? निकल यहाँ से!” जहाँ अत्यधिक आसक्ति होती है, वहाँ वियोग प्राणघातक बन जाता है। उसके कुछ सेवकों ने बिल्वमंगल जी को धक्का देकर बाहर निकाल दिया।
बिल्वमंगल ठाकुर जी को मिला एक संत का मार्गदर्शन
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शायद भगवान की कृपा को यही मंजूर था। अब उनका हृदय घायल था—”हाय चिंतामणि! हाय चिंतामणि!” वे व्याकुल होकर पुकारते रहे। उन्हें इस अवस्था में देखकर एक संत ने पूछा, “चिंतामणि! यह किसका नाम है? पूरी बात बताओ।” बिल्वमंगल जी ने सारा वृत्तांत सुनाया और कहा, “मैं उसके बिना जी नहीं सकता।” संत ने उत्तर दिया, “इससे भी अधिक सुंदर और महान सुख प्रदान करने वाले भगवान श्रीकृष्ण हैं। यदि तुम अपना चित्त उनमें लगाओ, तो तुम्हारा मन आनंदित हो सकता है। अन्यथा, काम की चोट से घायल चित्त यदि स्त्री में ही आसक्त रहेगा, तो उसका केवल नाश ही परिणाम होगा—कोई दूसरा मार्ग नहीं।”
संत ने उन्हें एक वर्ष तक अपने पास रखा। वैष्णव परंपरा के अनुसार उन्हें दीक्षा दी गई और उपदेश दिया गया। उन्होंने कहा, “मैं भ्रमण करना चाहता हूँ।” चंचल, भोगी और अशांत मन एक स्थान पर टिक नहीं सकता। ऐसा मन सदैव नया-नया अनुभव चाहता है। इस प्रकार वे आगे बढ़ गए।
बिल्वमंगल ठाकुर जी की कामासक्ति की पुनरावृत्ति
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मार्ग में एक देवालय के समीप एक सरोवर था, जहाँ भगवान का विग्रह प्रतिष्ठित था। गाँव की नव कुमारियाँ और विवाहिता स्त्रियाँ वहाँ पूजन करने आती थीं। इन्हीं में से एक स्त्री पूजन करने आई, जिसका रूप चिंतामणि के समान प्रतीत हो रहा था। एक क्षण को तो बिल्वमंगल जी को लगा कि वही चिंतामणि है। उनकी आँखों में अभी भी चिंतामणि की छवि बसी हुई थी, इसलिए जहाँ भी देखते, वही प्रतिबिंबित होती। संयोगवश, उस स्त्री का स्वरूप भी चिंतामणि से कुछ मिलता-जुलता था। अब फिर वही आसक्ति जाग उठी—”हाय चिंतामणि! हाय चिंतामणि!”
वह स्त्री पूजन करके अपने घर के लिए निकली, और बिल्वमंगल जी उसके पीछे-पीछे चल पड़े। जब उसने मुड़कर देखा, तो उसे यह विचित्र लगा कि एक वैष्णव उसके पीछे क्यों आ रहा है। उसकी दृष्टि भी निर्मल नहीं थी। आसक्त मन की वासना भरी दृष्टि अलग ही दिखती है।
बिल्वमंगल ठाकुर जी ने किया स्त्री का घर तक पीछा
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जब वह तेज़ी से घर की ओर बढ़ी, तो बिल्वमंगल जी ने भी अपने कदम तेज़ कर लिए और उसके पीछे-पीछे उसके घर तक पहुँच गए। घर आने के बाद उसने अपने पति से कहा, “एक व्यक्ति मेरा पीछा करते-करते यहाँ तक आ गया है। उसका भेष तो वैष्णव का है, लेकिन मुझे लगता है कि यह कोई कामी पुरुष है, कोई पाखंडी है।” उसके पति ने उत्तर दिया, “वह हमारे दरवाजे तक आ पहुँचा है, और अतिथि भगवान का स्वरूप होता है। हम देख लेंगे, तुम निश्चिंत रहो।” प्रेमी हृदय और आसक्त मन के साथ उन्होंने पूछा, “यह जो अभी नव वधु आई थी, कौन है?” उत्तर मिला, “यह मेरी पत्नी है।” उन्होंने विनती की, “एक बार इसे भर नेत्र देखना चाहता हूँ।”
कोई साधारण व्यक्ति होता तो शायद क्रोधित होकर इसका तिरस्कार करता, परंतु वह धर्मात्मा पुरुष था। उसके मन में विचार आया—”या तो भगवान मेरे धर्म की परीक्षा ले रहे हैं, या यह कोई पापी पुरुष है। यदि यह पापी है और मैं इसका तिरस्कार करूँ, तो संभवतः यह अपने पाप यहीं हमारे ऊपर छोड़ कर चला जाएगा। यदि यह भगवान की ही कोई लीला है, तो इसका परिणाम भी मंगलमय होगा। मुझे भयभीत नहीं होना चाहिए।”
अतः उसने अपनी पत्नी से कहा, “तू पतिव्रता है, मेरा आदेश है कि तू संपूर्ण श्रृंगार के साथ इसे दर्शन दे। जा, और एकांत में बैठ जा। मैं यहीं हूँ, मेरे आदेश का पालन कर।” पति की आज्ञा सुनकर पत्नी संकोच में पड़ गई, परंतु उसने अपने पति की बात मानी। जब वह वहाँ पहुँची, तो कांपते हुए बोली, “क्या आज्ञा है?”
बिल्वमंगल ठाकुर जी ने किया अपने नेत्रों का बलिदान
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बिल्वमंगल जी ने नेत्र उठाए। हृदय विकल हो उठा। जन्म-जन्मांतर से इन्हीं भोगों में मन रमा रहा था, परंतु गुरु कृपा से उसे श्रीकृष्ण चरणारविंद की ओर मोड़ दिया गया था। फिर भी, वही काम की आग, वही चिंतामणि की जलन उसे सताने लगी। उन्होंने स्त्री से कहा, “देवी, क्या मुझे दो सुइयाँ मिल सकती हैं?” स्त्री ने विनम्रता से उत्तर दिया, “अवश्य।” बस, इतनी ही उनकी माँग थी—दो सुइयाँ। वह भीतर गई और दो सुई लेकर आ गई।
बिल्वमंगल जी ने दोनों सुइयाँ हाथ में लीं और बोले, “हे श्रीकृष्ण! इन नेत्रों ने जन्म-जन्मांतर से मुझे भटकाया है। अब नहीं! अब मैं इन्हें वही रूप देखकर फिर से जलने नहीं दूँगा। जय श्रीकृष्ण!” यह कहकर उन्होंने अपने दोनों नेत्र फोड़ लिए। स्त्री चिल्ला उठी, और उसकी आवाज़ सुनकर उसका पति भी वहाँ आ गया। दोनों ने व्याकुल होकर पूछा, “आपने ऐसा क्यों किया?” बिल्वमंगल जी शांत भाव से बोले, “यदि सहायता कर सकते हो, तो मुझे एक लाठी दे दो। जन्म से जो अंधे होते हैं, उन्हें अंधकार में चलने का अभ्यास होता है, परंतु मेरा अभ्यास नहीं।” पति ने तुरंत एक लाठी दी। उन्होंने कहा, “मुझे वृंदावन जाने के मार्ग पर खड़ा कर दो। मैं वहीं से आगे बढ़ जाऊँगा।”
बिल्वमंगल ठाकुर जी के सामने प्रकट हुए भगवान श्रीकृष्ण
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वह अब अंधे थे, परंतु मन में श्रीकृष्ण का स्मरण था। लाठी के सहारे चलते हुए आगे बढ़े। किंतु अभ्यास न होने के कारण मार्ग में आगे बढ़ते-बढ़ते एक गहरे कुएँ के समीप पहुँच गए, जो घास से ढका हुआ था। उन्हें कुछ पता नहीं चला, और वे सीधे कुएँ में गिर गए। गिरते ही वे आर्त भाव से पुकार उठे, “हा कृष्ण! हा कृष्ण! हा कृष्ण!” जब कोई पूर्ण हृदय से भगवान को पुकारता है, तो भगवान को आने में एक क्षण भी नहीं लगता। उसी क्षण भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए और बोले, “बाबा, लाठी ऊपर करो!” उन्होंने लाठी ऊपर उठाई, और एक पल में वे कुएँ से बाहर आ गए। बिल्वमंगल जी ने सोचा, “इतना गहरा कुआँ, इतनी छोटी लाठी, और मुझे एक क्षण में बाहर निकाल दिया?”
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अब वे लाठी पकड़कर धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे और उन्होंने धीरे से बाहर निकालने वाले का हाथ थाम लिया। परंतु उसने झट से अपना हाथ छुड़ा लिया। तब वे बोले, “मैं जान गया! मैं जान गया कि तुम कौन हो! संसार में मुझे इतना प्रेम करने वाला कोई नहीं हो सकता। हे श्रीकृष्ण! यह आप ही हैं!” भगवान स्वयं बिल्वमंगल जी को वृंदावन ले आए। वहाँ पहुँचकर वे श्रीकृष्ण प्रेम में उन्मत्त हो गए और बिल्वमंगलाचार्य के रूप में विख्यात हुए। उन्होंने भाव-विभोर होकर मधुर श्लोकों में भगवान की महिमा का गान किया, जिनमें श्रीकृष्ण के दिव्य प्रेम का रस प्रवाहित हुआ। परंतु सबसे पहले उन्होंने वंदना की चिंतामणि की। उन्होंने कहा, “हे गुरु स्वरूपा चिंतामणि! यदि तुमने मेरा तिरस्कार न किया होता, तो मैं आज श्रीकृष्ण प्रेम की इस परम अवस्था को प्राप्त न कर पाता।”
विषय-भोग और आसक्ति का अंतर
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विषय-भोग और आसक्ति दो अलग चीजें हैं। किसी विषय का भोग करना एक अलग बात है, और किसी के प्रति आसक्त हो जाना, प्रेम या अपनापन महसूस करना बिल्कुल अलग। भोगी पुरुष केवल नित्य नए भोगों की लालसा रखता है, जबकि आसक्त पुरुष यदि किसी एक पर आसक्त हो जाए, तो चाहे त्रिभुवन की समस्त सुंदरियां आ जाएं, वह उनकी ओर दृष्टि तक नहीं उठाएगा। आसक्ति संपूर्ण चिंतन पर अधिकार कर लेती है, जिससे कोई दूसरा विचार टिक नहीं पाता।
नाम जप में सबसे बड़ी बाधा
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जब स्त्री या पुरुष के शरीर में आसक्ति हो जाती है, तो चित्त लुभायमान होकर उसी का चिंतन करने लगता है। निरंतर नाम-जप में सबसे बड़ी बाधा यही है। चिंतन प्रभु के लिए करना है, पर यदि वही चिंतन विषय-वासना ने छीन लिया, तो फिर भजन कैसे होगा? भोग की चिंतन-वृत्ति अत्यंत खतरनाक है। नेत्रों को संभालो, ये बार-बार भ्रम में डालते हैं। पलकों का पर्दा गिराकर इन पर नियंत्रण रखो। किसी माता या बहन के रूप को काम भावना से मत देखो। शास्त्र आज्ञा देते हैं:
जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥
जो मनुष्य अपना कल्याण, यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह परस्त्री के मुख को चौथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे (अर्थात् जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे)।
श्री रामचरितमानस
पराई माताओं और बहनों के मुख को काम भाव से देखने पर निश्चय ही तुम्हारा पतन हो जाएगा।
मार्गदर्शक: पूज्य श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज