एक चंपापुरी नाम का राज्य था जिसके राजा हंसध्वज जी थे। वो परम धार्मिक थे और धर्म पूर्वक तरीक़े से शासन करते थे। प्रभु की भक्ति और योद्धाओं की श्रेष्ठता में उनकी बहुत रति थी और वो पूरी प्रजा का अपने पुत्र की तरह पालन करते थे। उनके अपने पुत्र का नाम सुधन्वा था।
यह उस समय की बात है जब महाराज युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे। गुप्तचरों ने हंसध्वज जी को समाचार दिया कि महाराज युधिष्ठिर का घोड़ा आपके राज्य की सीमा में प्रवेश कर चुका है। राजा हंसध्वज ने पूछा कि क्या भगवान श्री कृष्ण भी साथ हैं? गुप्तचरों ने उन्हें बताया कि वो तो नहीं हैं परंतु उनकी द्वारिका की सेना साथ चल रही है। हंसध्वज के मन में आया कि यदि भगवान कृष्ण साथ होते तो घोड़े का पूजन करके उनके दर्शन प्राप्त करते। लेकिन अब पाण्डवों को थोड़ा कष्ट देने के बहाने भगवान के दर्शन करने का उपाय करना होगा। वो जानते थे कि पाण्डवों की सहायता के लिए भगवान श्री कृष्ण व्याकुल होकर उपस्थित हो जाएँगे। इसलिए उन्होंने महाराज युधिष्ठिर के अश्व को पकड़ लेने का आदेश दे दिया।
राजा हंसध्वज की ओर से पाण्डवों को युद्ध का आह्वान
अश्व के साथ चल रहे बड़े-बड़े महारथी जैसे अर्जुन, प्रद्युम्न आदि युद्ध के लिए तत्पर थे। अश्व को पकड़ते ही हंसध्वज ने हर्ष पूर्वक युद्ध का जय घोष किया और तत्काल अपनी सेना को उपस्थित होने का आदेश दिया। उन्होंने साथ ही यह भी आदेश किया कि यदि किसी ने थोड़ी भी देर की तो उसे खौलते हुए तेल की एक बड़ी कढ़ाई में डाल दिया जाएगा। नगाड़े की ध्वनि पूरी होते-होते पूरी सेना नगर के बाहर आ जानी चाहिए।
स्वयं गजराज पर चढ़कर हंसध्वज भगवान श्री कृष्ण को मानसिक प्रणाम करके अर्जुन जी से युद्ध करने के लिए आगे बढ़े। राजा की आज्ञा सुन सब सैनिक ठीक समय पर उपस्थित हो गये। आदेश अनुसार वहीं एक बड़ी कढ़ाई में खौलता तेल डाल कर रखा जाने लगा कि यदि कोई विलंब करेगा तो उसे कढ़ाई में डाल दिया जाएगा। जितने भी वीर योद्धा थे वो सब उपस्थित हो गये पर उनके अपने पुत्र सुधन्वा जी समय पर नहीं आए।
सुधन्वा जी भगवान के बहुत बड़े भक्त थे और हर समय नाम जप करते रहते थे। ज्यों ही युद्ध की घोषणा हुई, वो अस्त्र शस्त्रों से सुसज्जित होकर अपनी माता के पास गये और प्रणाम करते हुए कहने लगे, “माँ, आज मेरे जीवन का परम लाभ उपस्थित हुआ है क्योंकि आज मुझे अर्जुन से युद्ध करना है। आज युद्ध कौशल के द्वारा उनको मैं ऐसा तृप्त और व्याकुल करूँगा कि उनके सारथी भगवान श्री कृष्ण की हमारे ऊपर कृपा दृष्टि पड़े। पर हो सकता है कि मैं वापस ना आऊँ इसलिए आप से आशीर्वाद माँगता हूँ कि भगवान के साक्षात्कार की अपनी कामना पूर्ण कर सकूँ।”
उनकी माता ने उन्हें कामना पूर्ति का आशीर्वाद देते हुए विदा किया। इसके बाद उनकी बहन ने आकर उन्हें तिलक लगाया, आरती की और उनको युद्ध में विजय की शुभकामना दी। आगे बढ़े तो सुधन्वा जी की पत्नी प्रभावती, जिनसे उनका अभी-अभी ब्याह हुआ था, मुस्कुराती हुई सामने आईं। सुधन्वा जी को युद्ध के लिए तैयार देख कहने लगी “स्वामी! मैं जानती हूँ आज आप महाबली महारथी अर्जुन जी से युद्ध करने जा रहे हैं और ये भी जानती हूँ कि वहाँ से वापिस आ पाना असंभव है। पर इतनी कृपा तो कर दो कि आप के बाद आपको जलांजलि देने वाला तो कोई हो।”
सुधन्वा जी ने कहा, तुम धैर्य रखो, मैं श्री कृष्ण के बल से अर्जुन को परास्त कर के वापिस लौटूँगा। प्रभावती जी ने उत्तर दिया “नाथ! आज तक मैंने ऐसा नहीं सुना कि जो श्री कृष्ण से मिलने के लिए गये हों वो वापिस लौटे। बाहर कढ़ाई में तेल खौल रहा था और राजकुमार सुधन्वा जी को समय पर आया ना देखकर महाराज हंसध्वज को बहुत कष्ट हुआ कि सुधन्वा ही मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है। सुधन्वा जी अपनी पत्नी के पुत्र कामना के भाव को पूर्ण करने के लिए रुके थे पर महाराज को ये पता नहीं था।
अपने ही पुत्र को खौलते तेल में डाल देने का आदेश
हंसध्वज जी ने तुरंत जल्लादों को आज्ञा देते हुए कहा कि सुधन्वा को पकड़ कर लाया जाये और खौलते तेल में डाल दिया जाये। ज्यों ही आज्ञा हुई तो सैनिक तुरंत गये और उधर सुधन्वा जी स्नान आदि कर पवित्र हो कर बाहर निकल रहे थे। सुधन्वा जी से सैनिकों ने कहा कि महाराज का आदेश है आपको बंदी बना कर ले जाया जाये और खौलते तेल में डाल दिया जाये, क्योंकि आप ने विलंब किया है। उन्होंने उत्तर दिया कि पहले हमें महाराज के सामने पहुँचने दिया जाये। पिता के सामने जा कर सुधन्वा जी ने प्रणाम किया पर महाराज ने अपनी बात दोहराते हुए कहा कि हमारी आज्ञा के उल्लंघन का जो निर्णय है, वही बर्ताव इनके साथ किया जाये।
महाराज हंसध्वज के शंख और लिखित नाम के दो आचार्य थे, जो सुधन्वा जी के नाम जप और भक्ति से बहुत जलते थे। अब उनको अवसर मिला तो राजा के पूछने पर उन्होंने सुधन्वा जी को आज्ञा अनुसार खौलते तेल में डाल कर मृत्यु दंड देने को कहा और साथ ही चेतावनी दी कि यदि पुत्र मोह में आकर उन्होंने उनकी बात नहीं मानी तो वो उनका त्याग कर देंगे। मंत्रियों ने राजा को समझाने की चेष्टा की पर राज पुरोहित के विरुद्ध हँसध्वज नहीं जा सकते थे।
सुधन्वा जी अर्जुन को व्याकुल कर कृष्ण दर्शन की अपनी कामना अपूर्ण होती देख व्याकुल होने लगे। ज्यों ही उन्हें कढ़ाई में डाला जाने लगा तो वो भगवान को पुकार कर कहने लगे “हे गोविंद! मुझे मरने का दुख नहीं क्योंकि आज मरने के लिए ही निकला था। पर मरने से पहले मैं आपके दर्शन पाना चाहता था और अर्जुन के पक्ष से आप मेरी ओर कैसे देखते हैं, ये देखना चाहता था। यदि अर्जुन के बाणों से भेदा जाता और आप सामने होते तो मुझे आनंद मिलता, पर ये कायरों की तरह कढ़ाई में मृत्यु को प्राप्त होऊँगा। हे प्रभु! मुझ पर कृपा करें और मेरी कामना की पूर्ति करें। युद्धस्थल में अर्जुन को व्याकुल करते हुए अपने बाणों से आपकी पूजा करते हुए मरने में मुझे संतोष होगा।”
सुधन्वा जी के निरंतर कृष्ण नाम जप का चमत्कार
सुधन्वा जी “श्री कृष्ण! श्री कृष्ण!” जपने लगे और उन्हें कढ़ाई में डाल दिया गया। काफ़ी देर खौलते तेल में रहने के बाद भी सुधन्वा जी का एक रोम भी नहीं जला। सबको बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि सबके सामने तेल खौल रहा था पर नाम का ऐसा चमत्कार था कि सुधन्वा जी प्रसन्न मुद्रा में “श्री कृष्ण” जपते बैठे रहे।
राज पुरोहित विचार करने लगे कि आग तो जल रही है पर सुधन्वा जी को कुछ नहीं हो रहा। उन्होंने एक नारियल को कढ़ाई में डलवाया तो खौलते तेल से फट कर वो नारियल शंख और लिखित के सर में लगा। तेल की गिरी बूँदों से उनके मुख पे फफोले पड़ गये। इससे निश्चित हुआ कि सुधन्वा जी श्री कृष्ण नाम के बल से जीवित हैं इसलिए आग उन्हें नहीं जला सकती।
दोनों पुरोहित शंख और लिखित सोचने लगे कि हम अपने शास्त्र ज्ञान के गर्व में भगवान की भक्ति का तिरस्कार करते थे, आज सुधन्वा जी के नाम जप का प्रभाव देख ही लिया। इतने में सुधन्वा जी को बाहर निकाल लिया गया। तभी दोनों पुरोहित एक भक्त का विरोध करने के लिए स्वयं को धिक्कारते हुए उसी कढ़ाई में कूद गये।
सुधन्वा जी “श्री कृष्ण” नाम जपते रहे और तुरंत कढ़ाई में सब शीतल हो गया। दोनों आचार्य सुधन्वा जी के चरणों में गिर पड़े और उन्हें छाती से लगाकर कहने लगे “प्रिय राजकुमार! आज तुम्हारे स्पर्श से हम पावन हो गये। तुम्हारी कृपा से आज ये समझ आया कि भगवान के नाम में जो शक्ति है वो किसी भी दूसरे साधन में नहीं। तुम ही हमारा उद्धार करोगे। जाओ युद्ध करो और अपनी कामना की पूर्ति करो।”
सुधन्वा जी की अर्जुन को चुनौती
राजा ने घोषणा की कि आज उनके स्थान पर सुधन्वा सेनापति का पद सम्भालेंगे। सुधन्वा जी कब प्रत्यंचा चढ़ाते और कब बाण छोड़ते, बड़े-बड़े सैनिक यह देख ही नहीं पा रहे थे। जब अर्जुन ने सुधन्वा जी को बड़े-बड़े महारथियों को मूर्छित करते देखा तो उन्होंने स्वयं अपने गाण्डीव धनुष की प्रत्यंचा खींची और सामने आ कर खड़े हो गये। अर्जुन ने सुधन्वा जी को युद्ध के लिए ललकारा तो सुधन्वा जी ने निर्भयता पूर्वक हँसकर कहा “हे पार्थ! आपने बहुत सी लड़ाइयाँ लड़ी हैं और विजय को प्राप्त हुए हैं। पर तब आपके सारथी श्री कृष्ण थे। यद्यपि आप महावीर हैं, पर इस समय आप मेरे सामने टिक नहीं सकते क्योंकि आपका सारथी यहाँ नहीं है। अगर मुझ पर विजय प्राप्त करना चाहते हो तो अपने सारथी को याद करो, नहीं तो आपके गांडीव की सामर्थ्य नहीं है कि मुझे परास्त कर सके।”
एक बालक के मुख से ऐसी चुनौती सुन अर्जुन ने क्रोधित होकर उन पर बाणों की वर्षा कर दी। सुधन्वा जी ने उनके हर बाण को काट दिया और अर्जुन की ध्वजा, प्रत्यंचा और गाण्डीव तक पर प्रहार किया। साथ ही उन्होंने अर्जुन के सारथी को भी घायल कर दिया।
अब बिना ध्वज का रथ और बिना प्रत्यंचा का धनुष देख अर्जुन आश्चर्य में पड़ गये और भगवान कृष्ण को याद करने लगे। सुधन्वा जी ने उपहास करते हुए कहा “आप मुझे बालक कह रहे थे पर मैं चाहूँ तो आपको बाणों से घायल करके ऐसी दशा में पहुँचा दूँ जो आप जैसे वीर पुरुष को शोभा नहीं देती। अब भी अवसर है, आप अपने सारथी को याद कीजिए और यहाँ बुला लीजिए।”
भगवान श्री कृष्ण का आगमन
ज्यों ही अर्जुन ने स्मरण किया तो भगवान श्री कृष्ण वहाँ पहुँच गये और उन्होंने मूर्छित सारथी को हटाकर अर्जुन के रथ को सम्भाल लिया। सुधन्वा जी की आशा पूरी हुई। उन्होंने अपने रथ से उतरकर भगवान के सामने प्रणाम मुद्रा में होकर अपने आराध्य देव का दर्शन किया। फिर वह दोबारा रोष में आकर अर्जुन को पुकारते हुए कहने लगे “हे पार्थ। अब संकोच मत करना, अब तुम्हारी विजय होगी। मुझे हराने के लिए तुम्हें पुरुषार्थ दिखाना होगा।”
अर्जुन ने कहा “वीर! आज मैं तुम्हारे मस्तक को तीन बाणों से गिराऊँगा। यदि मैं भगवान कृष्ण के सामने तुम्हारे सिर को ना गिरा सकूँ तो मेरे जितने पूर्वज हैं सब पुण्यहीन होकर नर्क में गिर जायें”। सुधन्वा जी ने कहा “पार्थ! मैं श्री कृष्ण के सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपके तीनों बाणों को बीच में ही काटकर गिरा दूँगा। यदि ऐसा ना हो तो मुझे घोर दुर्गति प्राप्त हो।”
इसके बाद सुधन्वा जी ने दस बाणों से अर्जुन और सौ बाणों से भगवान श्री कृष्ण की पूजा की। साथ ही उन्होंने एक बाण से रथ को सौ कदम दूर गिरा दिया। श्री कृष्ण बोले “धन्य है। अर्जुन देखो सुधन्वा कितना महाबली है। समस्त ब्रह्मांड का भार लिए मैं बैठा हूँ फिर भी तुम्हारे सहित मुझे सौ हाथ दूर फेंक दिया। ये बल सुधन्वा को निरंतर नाम जप और एक सुदृढ़ पत्नीव्रत होने से प्राप्त हुआ है।”
सुधन्वा जी ने कृष्ण नाम से स्वयं श्री कृष्ण को परास्त किया
अब अर्जुन ने दिव्यास्त्र का संधान किया और बाण पे काल को विराजमान किया। श्री कृष्ण ने कहा “मैंने गोवर्धन पर्वत उठाकर जो गोप गोपियों की रक्षा की थी, उससे प्राप्त पुण्य मैं इस अस्त्र पे विराजमान करता हूँ।” अर्जुन ने सुधन्वा जी से कहा, “बचो ये काल का बाण है”। सुधन्वा जी ने उत्तर दिया “मेरे पास कृष्ण नाम का बाण है, जो काल का भी महाकाल है”। एक तरफ़ भगवान और दूसरी तरफ़ भगवान का नाम। सुधन्वा जी ने ज़ोर से उच्चारण किया “जय श्री कृष्ण” और उस बाण के टुकड़े टुकड़े कर दिये। भगवान ने अर्जुन से तुरंत दूसरा बाण निकालने को कहा और उस पर अपनी बहुत सी शक्तियों का संधान किया। भगवान दिखाना चाह रहे थे कि उनके नाम के आगे उनकी अपनी शक्तियाँ, सुकृत और पुण्य भी काम नहीं करते। इसीलिए भगवान अपने नाम के अधीन हो जाते हैं।
सुमिर पवनसुत पावन नामू,
रामचरितमानस
अपने बसि कर राखे रामू।
सुधन्वा जी ने अर्जुन से कहा “यदि मैं इस बाण के टुकड़े ना कर दूँ तो अरुंधती सहित महर्षि वशिष्ठ की ब्रह्म हत्या का पाप मुझे तुरंत लगे”। ये कहते हुए सुधन्वा जी ने “गोविंद! कृष्ण!” नाम लेते हुए बाण मारा तो अर्जुन द्वारा चलाये भगवान की शक्तियों से संपन्न बाण के पाँच टुकड़े हो गये। अर्जुन को निरुत्साहित होते देख भगवान श्री कृष्ण ने पाँचजन्य शंख बजाते हुए नाद किया और अर्जुन से कहा अब बाण संधान करो। भगवान ने कहा, मेरे राम अवतार में एक पत्नीव्रत होने के सब सुकृत इस बाण पर विराजमान करता हूँ। फिर उन्होंने ब्रह्मा जी को बाण के पिछले भाग और काल को अगले भाग पर विराजमान होने का आदेश किया और अर्जुन से बाण चलाने को कहा।
सुधन्वा जी ने अर्जुन से कहा “अब भी संशय है तुम्हें! देखो तुम्हारी विजय के लिए भगवान क्या कर रहे हैं। अब कोई प्रतिज्ञा करो इस बाण को बचाने के लिए”। अर्जुन ने कहा “वीरवर! यदि इस बाण से मैं तुम्हारा मुकुट सहित मस्तक ना गिरा दूँ, तो भगवान श्री हरि और भगवान शंकर में भेद करने से जो पाप लगता है वो मुझे अभी लगे”। सुधन्वा जी ने कहा “मैं यदि इस बाण को काट ना दूँ, तो काशी में मणिकर्णिका घाट पर शिव विग्रह को पैर मारने से जो पाप लगता है, वो मुझे तुरंत लगे”। दोनों भगवद् भक्तों ने बड़ी-बड़ी प्रतिज्ञाएँ कर ली और अपने-अपने बाण चलाए। सुधन्वा जी ने “जय श्री कृष्ण, जय श्री कृष्ण” नाम जप करते हुए उस बाण को काट दिया।
हाहाकार मच गया। इतनी महिमा से युक्त बाण को कोई काट ही नहीं सकता था। बाण तो कट गया पर उसके अग्रभाग ने आगे बढ़कर सुधन्वा जी के मस्तक को काट दिया। आश्चर्य की बात यह थी कि सुधन्वा जी के कटे हुए सिर से भी निकल रहा था “श्री कृष्ण! जय श्री कृष्ण”। भगवान श्री कृष्ण नीचे उतरे और उन्होंने सुधन्वा जी के कटे हुए सिर को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। इतने में सुधन्वा जी के शरीर से निकली ज्योति, भगवान की परिक्रमा करके भगवान में लीन हो गई। भगवान ने राजा हंसध्वज से कहा “ऐसा भक्त शायद ना आज तक हुआ है और ना ही आगे होगा। वो मेरे दिव्य धाम में गया, इसलिए आप शोक या विलाप मत करना।”
सार बात
भक्तों को अभय वर देने वाले, प्रभु श्री हरि के नाम की अपार महिमा है। इसलिए अनन्य होकर निरंतर भगवान का नाम जपने से सब प्राप्त हो जाता है। जैसे भी बने, भाव से, कुभाव से, श्रद्धा हो या ना हो, तो भी जो भगवान का नाम आपको प्रिय लगे, आपको उसका जप और कीर्तन करना चाहिए।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज