एक बार देवर्षि नारद जी देवराज इंद्र के यहाँ से द्वारका पुरी जा रहे थे। नारद जी देवराज के वहाँ से पारिजात वृक्ष का एक फूल ले आए थे। उन्होंने वह फूल भगवान द्वारकाधीश को अर्पित किया। वो सुन्दर पुष्प ठाकुर जी ने श्री रुक्मणी जी को दे दिया। नारद जी हमेशा वही कार्य करते हैं जो भगवान के मन में होता है। ये वही लीला करते हैं जिससे भगवद् नाम, रूप और महिमा का अद्भुत रूप प्रकाशित हो।
नारद जी ने सत्यभामा जी के हृदय में जलन पैदा कर दी
श्री कृष्ण को पुष्प अर्पण करने के बाद श्री नारद जी सत्यभामा जी के महल में गए। नारद जी ने सत्यभामा जी से पूछा कि क्या स्वर्ग का पारिजात पुष्प उन्हें मिला? सत्यभामा जी को इस विषय में कोई जानकारी नहीं थी। नारद जी ने उन्हें कहा कि मैं तो आपको श्री कृष्ण की सर्वोपरि प्राण प्रिया मानता था, तो मुझे लगा कि प्रभु ने वह पुष्प आपको ही दिया होगा। दासियों से पता करने पर ज्ञात हुआ कि वो पुष्प भगवान ने रुक्मणी जी को दिया था। नारद जी ने कहा इसका मतलब श्री कृष्ण रुक्मिणी जी से ज़्यादा प्रेम करते हैं। यह सुनकर सत्यभामा जी रूठ कर बैठ गईं।
नारद जी द्वारकाधीश के पास पुनः गए और कहा, प्रभु आपके उस पुष्प को रुक्मणी जी को देने की वजह से सत्यभामा जी आप से रूठ गई हैं। ठाकुर जी ने पूछा, यह बात सत्यभामा जी को कैसे पता चली? नारद जी ने बोला, प्रभु मैं ही गया था उनके पास, ऐसे ही बात-चीत में ये बात निकल गई। ठाकुर जी ने नारद जी की तरफ देखा और मुस्कुराए कि नारद जी कोई न कोई ऐसी लीला करते ही रहते हैं।
जब प्रभु सत्यभामा जी के समीप आये तो उन्होंने कहा कि वो पुष्प भले ही नारद जी वापस ले जाते लेकिन उसे रुक्मणी के पास नहीं जाना चाहिए था। ठाकुर जी सत्यभामा जी को मनाते हुए बोले, चिंता मत करो, मैं वास्तव में तुम से ज़्यादा प्यार करता हूँ। रुक्मिणी जी को तो मैंने केवल पुष्प दिया है, तुम्हारे लिए तो मैं वो पारिजात वृक्ष लाकर तुम्हारे आँगन में लगा दूंगा। सत्यभामा जी यह सुनकर प्रसन्न हो गईं।
सत्यभामा जी ने भौमासुर(नरकासुर) को मारने की आज्ञा दी
पृथ्वी के पुत्र, भौमासुर का जब अत्याचार बढ़ा तो देवराज इंद्र ने श्री द्वारकाधीश जी की शरण ली और उनसे सारे देवताओं को बचाने की प्रार्थना की। सत्यभामा जी साक्षात् पृथ्वी देवी का रूप हैं। भौमासुर (नरकासुर) पृथ्वी देवी का पुत्र था। पृथ्वी देवी ने भगवान से वरदान माँगा था कि मेरे पुत्र को मेरे कहे बिना, आप कभी नहीं मारेंगे। इसलिए सत्यभामा जी की आज्ञा के बिना भौमासुर का वध नहीं किया जा सकता था। इसी वरदान की वजह से भौमासुर अत्याचारी बन गया था और कोई देवता उसे मार नहीं पा रहा था। जब श्री कृष्ण भौमासुर से लड़ने के लिए निकले तो उन्होंने सत्यभामा जी को बताया कि भौमासुर का आतंक बहुत बड़ गया है इसलिए आप भी मेरे साथ चलें। भौमासुर ने सत्यभामा जी के सामने प्रभु पर शस्त्रों की वर्षा कर दी। श्री कृष्ण प्रेम में पगी हुई सत्यभामा जी यह भूल गईं कि भौमासुर पृथ्वी के अंश से ही प्रकट हुआ था। उन्होंने श्री कृष्ण से अनुरोध किया, हे नाथ, उसे शीघ्र मार दें। प्रभु सत्यभामा जी का वरदान पूरा करने के लिए ही रुके हुए थे, और उनके कहते ही प्रभु ने भौमासुर को मार गिराया।
प्रभु ने सत्यभामा जी के आँगन में पारिजात वृक्ष लगाया
भौमासुर को मारने पर देवलोक में इंद्र ने देवताओं सहित भगवान की बड़ी स्तुति-पूजा की। प्रभु ने इंद्र को पारिजात वृक्ष देने के लिए कहा क्योंकि सत्यभामा जी उसे अपने आँगन में लगाना चाहती थीं। इस पर इन्द्राणी ने पारिजात वृक्ष देने के लिए मना करते हुए कहा कि यह वृक्ष मृत्युलोक के योग्य नहीं है। देवराज ने इन्द्राणी को याद दिलाया कि वे सर्व समर्थ प्रभु हैं, जिन्होंने अभी भौमासुर को मार गिराया है, जिसपर देवताओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। लेकिन इन्द्राणी हठ कर रही थीं। कुछ देवता भी उनके पक्ष में आकर भगवान का विरोध करने लगे। वह भगवान से युद्ध करने के लिए भी तैयार हो गए और उन्होंने प्रभु को कुछ कठोर शब्द भी कहे। उनका कहना था कि मृत्युलोक में देव लोक का वह वृक्ष नहीं जाएगा।
प्रभु ने कहा कि मेरी द्वारका पूरी मृत्युलोक नज़र आती है? अभी तक तो आप सब भौमासुर के डर से पीड़ित थे। अगर भौमासुर का वध ना होता तो तुम्हारे हाथ में स्वर्ग भी नहीं रहता। और तुम माँगने पर एक वृक्ष भी नहीं दे रहे हो। श्री कृष्ण ने गरुड़ जी को पारिजात वृक्ष को उखाड़ने की आज्ञा दी। गरुड़ जी ने वृक्ष को अपनी चोंच से आसानी से उखाड़ा और अपनी पीठ पर रख लिया। भगवान ने गरुड़ जी को उन अहंकार ग्रस्त देवताओं को थोड़ी लीला दिखाने का इशारा किया। गरुड़ जी ने केवल एक पंख से प्रहार किया, तो सहस्रों देवता मूर्छित होकर गिर गए। इंद्र ने प्रभु को प्रणाम करते हुए कहा, हम लोगों से जो त्रुटि हुई, उसके लिए हमें क्षमा करें। ठाकुर जी, सत्यभामा जी, और पारिजात वृक्ष, सब गरुड़ जी पर विराजमान होकर वापस आए। पारिजात वृक्ष को सत्यभामा जी के महल में लगाया गया। अब सत्यभामा जी बहुत प्रसन्न थीं।
सत्यभामा जी ने श्री कृष्ण को दान में दे दिया
कुछ समय बाद नारद जी सत्यभामा जी के महल में पहुँचे। सत्यभामा जी ने नारद जी से कहा, आपकी कृपा से श्री कृष्ण मुझे बहुत प्यार करते हैं। रुक्मिणी जी को तो प्रभु ने पारिजात वृक्ष का केवल एक फूल दिया था, और देखो ये वृक्ष मेरे आँगन में है। नारद जी ने देखा कि सत्यभामा जी को अपने महल के वैभव का अहंकार हो गया था। सत्यभामा जी के पिता को सूर्य भगवान से स्यमन्तक मणि मिली थी। वह मणि आठ भाग सोना रोज़ पैदा करती थी। अब पारिजात वृक्ष भी उनके पास आ गया था। भगवान को दैन्यता अच्छी लगती है, गर्व नहीं। नारद जी ने सत्यभामा जी से कहा कि श्री कृष्ण तो आपसे बहुत प्यार करते हैं। सत्यभामा जी ने कहा, आपकी कृपा है; नारद जी क्या आप मुझे कोई ऐसा उपाय बता सकते हैं कि श्री कृष्ण सबसे ज़्यादा मुझे ही प्यार करें, और मुझसे एक पल के लिए भी कभी दूर न जाएँ? नारद जी ने कहा कि अगर किसी भी प्रिय वस्तु को दान कर दिया जाये तो वह बहुत काल के लिए प्राप्त हो जाती है।
ठाकुर जी के प्रेम में पगी हुईं उनकी प्रिया सत्यभामा जी श्री कृष्ण को दान करने के लिए राज़ी हो गईं। ब्राह्मणों को बुलाया गया, और सत्यभामा जी से संकल्प कराया गया कि वो श्री कृष्ण का दान नारद जी को करती हैं। जब भगवान श्री कृष्ण आए तो नारद जी ने उन्हें अपने साथ चलने को कहा। प्रभु ने पूछा, क्यों? नारद जी ने उन्हें बताया कि सत्यभामा जी ने आपको मुझे दान में दे दिया है। सत्यभामा जी ने नारद जी के हाथ जोड़े, और कहा आप कह रहे थे कि प्रभु मुझसे कभी एक क्षण के लिए भी दूर नहीं होंगे। मैंने तो इसलिए ही दान किया है, किन्तु आप तो प्रभु को ले जा रहे हैं। नारद जी ने पूरा शास्त्र ज्ञान उन्हें बताया कि आपके अगले जन्म से प्रभु हमेशा के लिए आपके हो जाएँगे।
सत्यभामा जी का वैभव का अहंकार टूटा
सत्यभामा जी बोलीं, आप जो कहेंगे मैं बदले में दे सकती हूँ, लेकिन मैं श्री कृष्ण को एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ सकती। नारद जी ने बताया कि अगर आप दान में दी गई वस्तु को पुनः प्राप्त करना चाहती हैं तो उसके बराबर की कोई वस्तु मुझे दे दें। उन्होंने पूछा, श्री कृष्ण को प्राप्त करने के लिए, श्री कृष्ण के बराबर कोई वस्तु है आपके पास? सत्यभामा जी ने कहा, एक श्री कृष्ण क्या, मैं अनेक तौल दूँगी। नारद जी उनका यही भ्रम मिटाना चाहते थे। नारद जी ने कहा ठीक है; तो श्री कृष्ण के बराबर आपके पास जो सोना, चाँदी, हीरे, रत्न, जवाहरात, आदि हैं, उन्हें तौल के मुझे दे दीजिए। श्री कृष्ण इसपर मुस्कुरा दिए। सत्यभामा राज़ी हो गईं। उन्होंने बड़ा सा एक सुन्दर तराज़ू मंगवाया। उसके एक पलड़े में द्वारकाधीश बैठे। जब तौलना शुरू हुआ तो सत्यभामा जी सारे सुन्दर आभूषण, स्वर्ण, चाँदी, रत्न, हीरे, जवाहरात- सब लाकर रखती जा रही थीं, लेकिन तराज़ू में कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। अब तो सत्यभामा जी व्याकुल हो गईं कि अगर श्री कृष्ण को तौला न जा सका तो नारद जी उन्हें अपने साथ ले जाएँगे। उन्होंने अन्य रानियों के आभूषण, स्वर्ण, रत्न, हीरे, आदि लाकर डाले, फिर भी पलड़ा श्री कृष्णा का ही भारी रहा।
भगवान के नाम की महिमा
सत्यभामा जी व्याकुल होकर रोने लगीं और उन्होंने नारद जी से प्रार्थना की कि मैं श्री कृष्ण के बिना नहीं रह सकती; अब मेरे पास श्री कृष्ण के बराबर देने के लिए कुछ भी नहीं बचा। नारद जी ने कहा कि यहाँ सारी रानियाँ हैं, लेकिन रुक्मणी जी कहीं दिखाई नहीं दे रहीं। आप एक बार रुकमणी जी से पूछें, उनके पास तो कुछ ऐसी वस्तु होगी जो श्री कृष्णा के बराबर हो। सत्यभामा जी भागती हुई रुक्मणी जी के पास गईं और रोते हुए उन्हें सारा वृत्तांत सुनाया। फिर उन्होंने कहा कि आप मेरी बड़ी बहन हैं; अब आप मुझ पर कृपा करें। रुक्मणी जी ने कहा, तुम निश्चिन्त हो जाओ। उन्होंने एक तुलसी का पत्ता लिया और उसमें कृष्ण नाम लिखा। रुक्मणि जी ने सारे आभूषण हटाए, और जैसे ही तुलसी का पत्ता रखा तो तुलसी जी का पलड़ा भारी हो गया, और श्री कृष्ण का पलड़ा ऊपर उठ गया। तुलसी जी पर कृष्ण नाम लिखा था तो कृष्ण नाम का पलड़ा भारी हो गया और श्री कृष्ण हलके हो गए। नारद जी और रुक्मणी जी मुस्कुरा कर सत्यभामा जी से कहते हैं, देखो! प्रीतम को कैसे तौला गया? नाम से। श्री कृष्ण को आप किसी सोने, चाँदी, रत्नों से नहीं तौल सकते। श्री कृष्ण का नाम उनसे भी भारी है।
मार्गदर्शक: श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज