लोगों का भ्रम होता है कि भगवान का भजन तो केवल भिक्षुक बनकर ही किया जा सकता है, लेकिन ऐसा नहीं है। बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट भी काफ़ी महान संत हुए हैं। यह नहीं सोचना चाहिए कि हम गृहस्थ हैं तो हम भगवान को कैसे प्राप्त कर सकते हैं। आप केवल प्रभु के हो जाइए और अपने मन, वचन और कर्म से उनको अपना स्वामी मान लीजिए। उनके जैसा प्यार करने वाला और कोई नहीं है।
आसकरण जी का जीवन परिचय
आसकरण जी पृथ्वीराज जी के पौत्र और भीम सिंह जी के पुत्र थे। उनके ठाकुर का नाम श्री राधामोहन जी था। ये आठों पहर अपने ठाकुर जी की सेवा में रहते थे।
न कामकर्मबीजानां यस्य चेतसि सम्भव: ।
वासुदेवैकनिलय: स वै भागवतोत्तम: ॥
जो व्यक्ति भगवान वासुदेव की अनन्य शरण ले लेता है, वह भौतिक वासना पर आधारित सकाम कर्मों से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार वह भगवत्तोत्तम माना जाता है, अर्थात् सर्वोच्च स्तर पर भगवान का शुद्ध भक्त।
श्रीमद् भागवतम् 11.2.50
श्री राधामोहन जी आसकरण जी के आराध्य देव थे और हमेशा उनकी सेवा में मग्न रहते थे। आसकरण जी ने एक चौकीदार को पूजागृह के बाहर सेवा में लगाया था। और उसे आदेश दिया था कि कोई उनकी सेवा में विक्षेप ना डाल पाए। उनका रोज़ाना दस घड़ी (चार घंटे) की सेवा करने का नियम था।
दिल्ली के बादशाह का आगमन और विवाद
दिल्ली का बादशाह किसी कारण से आसकरण जी के राज्य में आया और कहा कि मुझे उनसे तुरंत मिलवाया जाए। उस से प्रार्थना की गई कि महाराज ये असंभव है। इस समय आसकरण जी अपने ठाकुर जी की सेवा में हैं और उनका आदेश है कि चार घंटे तक कोई उनकी सेवा में बाधा ना डाले। बादशाह ने आसकरण जी को सूचना देने के लिए बार-बार आदेश किया, पर किसी भी सेवक ने बादशाह की आज्ञा नहीं मानी। बादशाह को इस बात से बहुत कष्ट हुआ। उसने तुरंत अपने सेनापति को आदेश किया कि उन सबको दंड दिया जाए और आसकरण जी को बंदी बनाकर बादशाह के सामने लाया जाए। उन्हें बताया गया कि आसकरण जी को चार घंटे तक कोई सूचना नहीं पहुंचाएगा। पूरे नगर में बड़ी घबराहट फैल गई।
आसकरण जी ना तो शिकार खेलते थे ना ही किसी को दंड देते थे। वह केवल भगवद् सेवा, नाम जप और नाम कीर्तन करते थे। पूरे नगर को सारी सुविधाएँ मिलती थीं, सबके घर पर ठाकुर सेवा विराजमान थी और सबके घर पर नाम कीर्तन किया जाता था। जिसको जिस चीज़ की ज़रूरत होती, वह उसे राज दरबार से ले जा सकता था। अब बादशाह के आदेश से हड़कंप मच गया।
बादशाह ने कहा, “मेरा आखिरी हुक्म है कि आसकरण जी को हाजिर किया जाए, नहीं तो हम पूरी सेना से विध्वंस मचा देंगे और नरवरगढ़ को नष्ट कर देंगे।” जो प्रधान सेनानायक था, उसने हाथ जोड़कर बादशाह से कहा, “आप समझिए, हम आपके सेवक हैं, आपसे लड़ कैसे सकते हैं! आप बादशाह हैं, पर मेरी प्रार्थना है कि आप अकेले जाकर देख लीजिए कि आसकरण जी सेवा में लगे हुए हैं। हम उन्हें सूचना नहीं दे सकते, पर आपको रोक भी नहीं सकते। आप जाकर बात कर लीजिए।”
आसकरण जी की भक्ति की परीक्षा
बादशाह को लगा कि बात सही है, क्योंकि ये हमारे ही अनुकूल राज्य है, कोई वैरी तो है नहीं। बादशाह ने स्वयं अंदर जाकर देखा तो आसकरण जी की सारी सेवा हो चुकी थी। आसकरण जी भगवद् सेवा करके नियमपूर्वक ठाकुर जी की साष्टांग दंडवत कर रहे थे।
उन्हें यह पता चल गया कि कोई आया है, पर उन्होंने न तो नजर उठाई, न बात की, और न ही रुके। वे निरंतर साष्टांग दंडवत करते रहे। बादशाह खड़ा देखता रहा कि ये न तो मेरी तरफ देख रहे हैं, न बोल रहे हैं। बहुत देर हो गई। पद का बहुत अभिमान होता है। बादशाह ने म्यान से तलवार निकाली और उनके पैर पर मारकर उनकी एड़ी काट दी। लेकिन आसकरण जी ने न दंडवत रोकी, न बादशाह को मुड़कर देखा। उनके पैर से खून की धार बहने लगी। उन्होंने एक आह भी नहीं भरी और न ही रुके। वैसे ही खड़े हुए और फिर साष्टांग दंडवत करने लगे। आसकरण जी खून से लथपथ हो रहे थे, परंतु कोई कष्ट का अनुभव नहीं दिखा रहे थे। अब तो बादशाह का धैर्य टूट गया और वह सोचने लगा, “ये तो अपराध बन गया। ये कोई नाटक नहीं कर रहे, ये तो सच में महान भागवत हैं।” जो पद का अभिमानी होता है, वह नहीं जानता कि भक्ति क्या होती है, भक्ति का स्वरूप क्या होता है और भक्तों की निष्ठा क्या होती है।
आसकरण जी की धैर्यशीलता और बादशाह का पश्चाताप
आसकरण जी ने पूरी दंडवत की और ठाकुर जी की प्रार्थना कर, उन्हें मध्यान्ह विश्राम करा दिया। तब तक उनके पैर से खून बह रहा था। उन्होंने पीछे मुड़कर बादशाह को देखा, पर उन्हें बिल्कुल भी गुस्सा नहीं आया। राजा ने देखा कि मेरे अपराध का इनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। आसकरण जी की धैर्यशीलता और अपने इष्ट के प्रति निष्ठा देखकर बादशाह रीझ गया, बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कहा, “आज मेरे नेत्र सफल हो गए कि मैंने ऐसा निष्ठावान भक्त देखा। न तो तुम्हारी भृकुटी पर कोई रोष है, न तुम्हें पीड़ा हो रही है, और न कोई थकावट दिख रही है। मैं आपसे वार्ता करना चाहता हूँ। ये सामर्थ्य आप में कहाँ से आई कि आपने एड़ी कटने और खून निकलने के बाद भी अपनी निष्ठा नहीं छोड़ी”
बादशाह ने जब बैठकर आसकरण जी के संग भक्ति के विषय में बात की तो उसके आँसू निकल आए। संत की संगति का यही प्रभाव होता है। बादशाह ने अपनी कीमती रुमाल निकाली और घुटने टेककर तत्काल अपने हाथ से आसकरण जी के चरणों में पट्टी बाँधी और कहा, “आपकी भक्ति देखकर आज मैं निहाल हो गया। प्रभु की मुझ पर बड़ी कृपा है, जो मुझे आप जैसे भक्त की निष्ठा के दर्शन हुए।”
बादशाह ने अत्यंत प्रसन्न होकर आसकरण जी से पूछा, “आपको कैसे सुख प्रदान करें?” उन्होंने उत्तर दिया, “मेरी सेवा ही मेरी निष्ठा है। आप जब चाहते हैं, तब आदेश दे देते हैं, तो कृपया मुझे अपने आदेश से मुक्त कर दीजिए।” बादशाह ने कहा, “आज के बाद आपके ऊपर हमारा कोई शासन लागू नहीं रहेगा। आप जब चाहें, स्वेच्छा से आ सकते हैं। न आएँ, तो भी आपके राज्य पर हमारा कोई अधिकार नहीं रहेगा।”
भगवान के चरणामृत का चमत्कार
श्री आसकरण जी को एक बार बहुत तेज़ बुखार आ गया। इतने कष्ट में ठाकुर जी की सेवा करना संभव नहीं था। उनकी सेवा प्रातःकाल से ही प्रारंभ होती थी। उन्हें बस एक चिंता सताने लगी कि अब कल सेवा कैसे होगी। उसी शिथिलता में भगवान ने उनके एक सेवक को आदेश दिया कि “आसकरण जी को चरणामृत पिला दो, वो ठीक हो जाएँगे।” वह सेवक रात्रि में ही आसकरण जी के पास गया और बोला, “महाराज, ठाकुर जी ने कहा है कि आप चरणामृत पी लीजिए।” जैसे ही उन्होंने चरणामृत पीया, उनके शरीर का रोग नष्ट हो गया, और वे स्वस्थ होकर सुबह सेवा में गए।
विपक्षी राजा का आक्रमण और भगवान की कृपा
एक बार एक विपक्षी राजा ने आसकरण जी के राज्य पर आक्रमण कर दिया। जब आसकरण जी को यह बात पता चली, तो उन्होंने कहा, “प्रभु, हम से मार-काट नहीं होगी। सब में आप ही विराजमान हैं, अब हम से युद्ध नहीं होगा। इसलिए या तो मुझे राज पद से हटाओ या मुझे कहीं एकांत में ले चलो, जहाँ मैं आपके लिए रो सकूं और तड़प सकूं। लेकिन यह तलवार उठाना अब मुझसे नहीं होगा।”
फिर उन्होंने भीतर से महसूस किया कि “तुम राजा हो, प्रजा की रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है।” उन्होंने पूरी सेना को सजाया और सभी से कहा, “मंजीरा लो और नाम कीर्तन करो।” वे स्वयं भी कीर्तन करने लगे। नाम कीर्तन करते हुए सभी सैनिक युद्ध के लिए चलने लगे। तभी अचानक आकाश में मेघ भर आए और शत्रु पक्ष में बड़े-बड़े ओले गिरने लगे। उधर, आसकरण जी के पक्ष में, जहाँ नाम कीर्तन चल रहा था, वहाँ बस हल्की वर्षा होती रही। इतने बड़े-बड़े ओले पड़ने से शत्रु भाग गए, और शस्त्रों की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
जब शत्रु पक्ष भाग गया, तो विपक्षी राजा आसकरण जी के चरणों में गिरकर बोला, “मुझे माफ कर दीजिए। मुझे नहीं पता था कि आप इस कोटि के महा भागवत हैं।” यह है अनन्य भक्ति का प्रताप। यदि हम अपने प्रभु की सेवा, प्रभु का नाम जप, और प्रभु के गुणों का गायन करते हैं, तो किसी में ताकत नहीं कि हमें परास्त कर सके।
मार्गदर्शक – पूज्य श्री हित प्रेमानंद जी महाराज