4. अष्टयाम सेवा – राजभोग
अब अपने प्रिय-प्रीतम को राजभोग लगाने का समय है, उनके हाथों में जो भी आभूषण जैसे कि मुद्रिका आदि उन्हें उतारें और उनके हाथ धुलवाकर पोछें। फिर अपने ठाकुरों के आगे एक जो भी आपने राजभोग में बनाया हो, उसे परोसें। ऐसी भावना करें कि प्रभु आपका भोग पा रहे हैं। इन पदों का गान करें:
आये भोजन कुंज किशोर री।
कर वर ध्वाय धरे मणि पट्टा, बैठे एकै जोर री ॥
कटि पटुका मुद्रिका उतारी, करि-करि अधिक निहोर री।
वृन्दावन हित रूप परोसति, विंजन रचे न थोर री॥
मिलि जेंवत लाड़िली-लाल दोऊ, षट विंजन चारु सबै सरसैं।
मन में रस की रुचि जो उपजै, सखी माधुरी कुंज सबै हरसैं॥
हटकैं मनमोहन हारि रह्यो भटू हाथ जिमावन कौं तरसैं।
बीचहिं कर कंपित छूटि पर्यौ , कबहूँ मुख ग्रास लियें परसैं॥
दृग सौं दृग जोरि दोऊ मुसिकाय, भरे अनुराग सुधा बरसैं।
मनुहार विहार आहार करें, तन में मन प्रान परे करसैं ॥
सखी सौंज लियें चहुँ ओर खरीं, हरषै निरखें परसैं दरसैं।
सुख-सिन्धु अपार कह्यौ न परै, अवशेष सखी हरिवंश लसैं ॥
अब अपने ठाकुरों के हाथ और मुँह धुलवायें और पोछें। ऐसी भावना करें कि उनका पेट भर गया है और आप उन्हें एक सिंहासन पर बैठाते हैं। अब अपने प्रिया-प्रियतम की आरती करें। यह पद गाएँ और फिर नीचे दी गई आरती गाएँ।
सजनी समुझि दुहुँनि के मन की, जमुनोदक अचवावै हो।
खरिका दैकैं करन ध्वाय कैं, पुनि वीरी रचि लावै हो॥
पद-पाँवरी जटित मणि आगैं, राखि पौछि पहिरावै हो।
वृन्दावन हित रूप रतन सिंहासन तहाँ बैठावै हो।
4.1 राजभोग आरती
आरती मदन गोपाल की कीजियै ।
देव-ऋषि-व्यास-शुकदास सब कहत निज,
क्यौं न बिन कष्ट रस-सिन्धु की पीजियै ॥
अगर करि धूप कुमकुम मलय रंजित,
नव वर्तिका घृत सों पूरि राखौ ॥
कुसुम कृत माल नंदलाल के भाल पर,
तिलक करि प्रगट यश क्यौं न भाखौ ॥
भोग प्रभु योग भरि थार धरि कृष्ण पै,
मुदित भुज दण्डवर चँवर ढारौ ॥
आचमन पान हित, मिलत कर्पूर-जल,
सुभग मुख वास, कुल-ताप जारौ ॥
शंख दुन्दुभि पणव घंट कल वेणु रव,
झल्लरी सहित स्वर सप्त नाचौं ॥
मनुज-तन पाय यह दाय ब्रजराज भज,
सुखद हरिवंश प्रभु क्यौं न याँचौ ॥
हौं बलिजाँऊ नागरी श्याम ।
ऐसे ही रंग करौ निशि वासर, वृन्दाविपिन कुटी अभिराम ॥
हास विलास सुरत रस सींचन, पशुपति-दग्ध जिवावत काम ।
(जै श्री) हित हरिवंश लोल लोचन अलि, करहु न सफल सकल सुखधाम ॥
4.2 मध्याह्न शयन
अब अपने राज भोग लगाने के बाद अपने प्रिया-प्रियतम से प्रार्थना करें कि वो कुछ देर के लिए विश्राम कर लें। उन्हें शयन कुंज (जहाँ भी आप अपने ठाकुरों को सुलाते हों) में ले जायें और यह पद गाते हुए सुलाएँ:
कियौ गवन सैंन भवन प्रान प्यारी प्रान रवन,
रचत चोंज रस मनोज पौढ़े सचु पाई।
मणिनु कौ प्रकाश जहाँ सौरभ उद्गार तहाँ,
पान-डबा झारी जल धरी तहाँ जाई॥
नेह-भरी गुननि-भरी दंपति-सुख लार ढरी,
मृदुल करन चाँपि चरन बाहरि सखि आई।
बलि-बलि वृन्दावन हित रूप जुगल रसिक भूप,
तिनकी रस-केलि हियें संपति सचि लाई॥
नवलनागरि नवलनागर किसोर मिलि,
कुञ्ज कोमल कमल दलन सिज्या रची ।
गौर स्यामल अंग रुचिर तापर मिले,
सरस मनि नील मनों मृदुल कंचन खची ॥
सुरत नीबी निबंध हेत पिय मानिनी,
प्रिया की भुजनि में कलह मोहन मची ।
सुभग श्रीफल उरज पानि परसत रोष,
हुँकार गर्व दृग-भंगि भामिनि लची ॥
कोक कोटिक रभस रहसि हरिवंश हित,
विविध कल माधुरी किमपि नाँहिन बची ।
प्रणयमय रसिक ललितादि लोचन चषक,
पिवत मकरंद सुख-रासि अंतर सची ॥
दोऊ पौढ़े हैं अरसाइ कैं।
अति सुकुमारि श्रमित कछु सजनी अंग अनंग लड़ाइकै ॥
चाह सनेह सुरति हित सहचरि सेवा अवसर पाइकैं ।
कोऊ बिजन टहल में प्रफुलित कोऊ पद चाँपत आइकें ॥
कोऊ झमकि झरोखनि लागी भरि अति प्रेम सुभाइकैं ।
वृंदावन हितरूप जाउँ बलि रह्यौ रति रस सुख छाइकैं ॥
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