अष्टयाम सेवा पद्धति – विधि एवं नियम (ऑडियो सहित)

by Shri Hit Premanand Ji Maharaj
अष्टयाम सेवा पद्धति

3. अष्टयाम सेवा – श्रृंगार

3.1 स्नान

अब भावना करें कि प्रिया-प्रियतम यमुना के तट पर जल केलि करके वापस आए हैं, उनके वस्त्र यमुना जल से भीगे हुए हैं और अब आप उन्हें स्नान करवा रहें हैं। आप अपने ठाकुर जी को स्नान करवाते हुए यह पद गाएँ। स्नान के लिए ऋतु के अनुसार जल लें। यदि आपके पास श्री जी की नाम सेवा या विग्रह है तो ऐप पूर्ण स्नान करवा सकते हैं और यदि आपके पास छवि सेवा या चित्र पट सेवा है तो उन्हें केवल हल्के गीले कपड़े से पोछें। सिर्फ क्रियाओं तक सीमित न रहें, बल्कि भाव में गहराई से डूबने की कोशिश करें। हमारे प्रभु तो भाव के भूखे हैं।

स्नान कुंज में दोऊ आये । रतन जटित जहँ हौज सुहाये ॥
जल सुगन्ध तिनमें अति सोहैं।खिले कमल जिनमें मन मोहैं ॥
तिन पर भ्रमर करत गुंजार । फूली फूल रहीं द्रुम डार ।।
दोउ कुंज सुख-पुंज हैं, तिनको एक ही घाट।
स्नान करत जहाँ जुगलवर, तहाँ अलिनु के ठाट॥

अधर अरुन तेरे कैसैं कैं दुराऊँ।
रवि-शशि-शंक भजन किय अपु बस, अद्भुत रंगनि कुसुम बनाऊँ।
शुभ कौसेय कसिव कौस्तुभ मणि, पंकज-सुतनि लै अँगनि लुपाऊँ।
हरषित इंदु तजत जैसे जलधर, सो भ्रम दूँढि कहाँ हौं पाऊँ।।
अंबुनि-दंभ कछु नहिं व्यापत, हिमकर तपै ताहि कैसें कैं बुझाऊँ।
जै श्रीहित हरिवंश रसिक नव रंग पिय, भृकुटी भौंह तेरे खंजन लराऊँ।

3.2 श्रृंगार

स्नान करवाने के बाद अब आप अपने प्रिया-प्रियतम का श्रृंगार करें, उन्हें वस्त्र पहनाएँ, ताज़ी बनी हुई मालाओं और आभूषणों से उन्हें सजाएँ। आप अपनी व्यवस्था अनुसार श्रृंगार की यह सेवा कर सकते हैं। श्रृंगार करते समय इन पदों का गायन करें:

मज्जन करि बैठी चौकी पर, हित कर निज सिंगार बनावत।
कारी सारी हरी कंचुकी, अतरौटा पियरौ पहिरावत ॥
लाल लाल चीरा उपरैना, पटुका- झँगा जु सूथन भावत।
बहु भूषन पहिराय तिलक दै, हित ब्रजलाल सु भोग लगावत ॥

करि सिंगार राजत रँग भीने, रीझि लाड़िली-लाल जिमावत।
कौर-कौर प्रति छबि अवलोकत, बलि-बलि जूठन आपुन पावत।।
ललितादिक लीने कर चौरनि, निरखि-निरखि नैननि जु सिरावत।
जै श्रीहित हरिलाल निकट अलि रूपहि, पानदान लै पान खवावत ।।

3.3 शृंगार भोग

अपने प्रिया-प्रियतम का श्रृंगार करने के बाद, उन्हें दर्पण दिखाएँ और यह भावना करें कि दर्पण में एक-दूसरे की सुंदरता को देख वे दोनों पूर्ण रूप से खो चुके हैं। अब आप अपने प्रिया-प्रियतम से कहें कि अब श्रृंगार भोग पाने का समय हो गया है और उनके सामने श्रृंगार समय का भोग रखें और यह भावना करें कि वे दोनों भोग पा रहे हैं। भोग पाने के बाद राधा-मोहन जू के हाथ और मुँह धुलवायें और फिर एक कपड़े से उन्हें पोछें। भोग लगाते समय इन पदों का गायन करें।

सजनी कौ राख्यौ रुख ग्रास लैंन लागे मुख,
जो जो मन रुच्यो पाक बहुरि सो मँगायौ ॥
कीनी मनुहारि धनी लाल रसिक चूड़ामनि,
प्यारी मन भाँवती सहेली जो चितायौ ।
अदलि बदलि ग्रास लेत सखियनि आनन्द देत,
चंद्रकला घेवर ने स्वाद अति बढ़ायौ ॥

बतरस परे स्याम गौर कहत जात लाउ और,
तुष्टि पुष्टि होत कियौ भोजन मन भायौ ।
सिता मिल्यौ गाढ़ौ दही पीयौ पुनि ललक रही,
मेवा फल पाइ स्वाद अधिक सो जनायौ ॥
शीतल अति मिष्ट जानि जमुनोदक कियौ पानि,
वदन कर अँगौछि सखी पान रचि खवायौ ।
बलि बलि वृन्दावन हित रूप साजि आरती कौ,
पंच नाद होत सीस चँवर लै ढुरायौ ॥

3.4 श्रृंगार आरती

प्रिया-प्रियतम को श्रृंगार भोग लगाने के बाद अब उनकी धूप आरती का समय हो गया है। आरती का थाल तैयार करें और आरती करते हुए इन पदों को गाएँ:

आजु नीकी बनी श्रीराधिका नागरी।
ब्रजजुवति-जूथ में रूप अरु चतुरई,
शील-सिंगार-गुन सबनि तें आगरी ॥
कमल दच्छिन भुजा, वाम भुज अंश सखि,
गावती सरस मिलि मधुर सुर राग री।
सकल विद्या विदित, रहसि हरिवंश हित,
मिलत नव कुंज वर श्याम बड़ भाग री।।

आजु नागरी-किशोर, भाँवती विचित्र जोर,
कहा कहौं अंग-अंग परम माधुरी।
करत केलि कंठ मेलि, बाहु दंड गंड-गंड,
परस सरस रास-लास मंडली जुरी ॥
श्याम सुंदरी-बिहार, बाँसुरी मृदंग तार,
मधुर घोष नूपुरादि किंकिनी चुरी।
जै श्री देखत हरिवंश आलि निर्त्तनी सुधंग चालि,
वारि फेर देत प्रान देह सौं दुरी ॥

बनी श्रीराधा-मोहनजू की जोरी।
इंद्र नीलमणि श्याम मनोहर, सातकुंभ तन गोरी ॥
भाल विशाल तिलक हरि कामिनि, चिकुर चंद्र बिच रोरी।
गज-नाइक प्रभु चाल गयंदनि, गति वृषभानुकिशोरी ॥
नील निचोल जुवति मोहन पट, पीत अरुण सिर खोरी।
जै श्री हित हरिवंश रसिक राधापति, सुरत रंग में बोरी ॥

बेसर कौन की अति नीकी।
होड़ परी लालन अरु ललना, चौंप बढ़ी अति जी की ॥
न्याव पर्यौ ललिताजू के आगें, कौन ललित कौन फीकी।
जै श्रीदामोदर हित विलग न मानौ, झुकनि झुकी प्यारीजू की॥

दिव्य दम्पति की आरती उतारो हे अली
राजै नंद जू कौ लाल वृषभानु की लली
राधामोहन जू की आरती उतारो हे अली

पद नख मणिचन्द्रिका की उज्जवल प्रभा
नील पीत पट कटि रहे मन को लुभा
कटि कोधनी की शोभा अति लगत भली
दिव्य दंपति की आरती उतारो हे अली

दिव्य कांति गौर श्याम मुखचंद्र की छटा
घुंघराली अलकावली सुजलज घटा
द्युति कुंडल दसन सो चपल बिजली
दिव्य दंपति की आरती उतारो हे अली

शीश चन्द्रिका मुकुट त्रिभुवन धनी के
अंग अंग दिव्य भूषण कनक मणि के
सोहे श्यामा कर कंज श्याम कर मुरली
दिव्य दंपति की आरती उतारो हे अली

चितवनि मुसकनि प्रेम रस बरसे
हिय हरषि नरायण चरन परसे
जय जय जय कहि बरसें देवता सुमन अंजलि
दिव्य दम्पति की आरती उतारो हे अली

3.5 श्रीयुगल ध्यान

श्रृंगार आरती के बाद श्री युगल ध्यान का गायन करें। यह श्री प्रियालाल की शृंगार शोभा का वर्णन है।

(श्री) प्रिया वदन-छबि चंद मनौं, प्रीतम-नैंन चकोर ।
प्रेम-सुधा रस-माधुरी, पान करत निसि-भोर ।।1।।
अंगनि की छबि कहा कहौं, मन में रहत विचार ।
भूषन भये भूषननि कौ, अति सरूप सुकुमार ।।2।।
सुरंग माँग मोतिनु सहित, सीस-फूल सुख-मूल ।
मोर-चंद्रिका मोहनी, देखत भूली भूल ।।3।।
श्याम-लाल बैंदी बनी, सोभा बढ़ी अपार ।
प्रगट विराजत ससिन पर, मनौं अनुराग सिंगार ।।4।।
कुंडल कल ताटंक चल, रहे अधिक झलकाइ ।
मनौ छबि के ससि-भानु जुग, छबि कमलनि मिले आइ ।।5।।
नासा बेसरि-नथ बनी, सोहत चंचल नैंन ।
देखत भाँति सुहावनी, मोहे कोटिक मैंन ।।6।।
सुन्दर चिबुक कपोल मृदु, अधर सुरंग सुदेस ।
मुसिकनि बरषत फूल सुख, कहि न सकत छबि-लेस ।।7।।
अंगन भूषन झलकि रहे, अरु अंजन रंग पान ।
नव-सत सरवर तें मनौ, निकसे करि स्नान ।।8।।
कहि न सकत अंगनि-प्रभा, कुंज-भवन रह्यौ छाइ ।
मानौं बागे रूप के, पहिरे दुहुँनि बनाइ ।।9।।
रतनांगद पहुँची बनी, वलया-वलय सुढार ।
अँगुरिनु मुंदरीं फब रहीं, अरु मेंहदी रंग-सार ।।10।।
चंद्रहार मुक्तावली, राजत दुलरी-पोति ।
पानि पदिक उर जगमगै, प्रतिबिंबित अंग-जोति ।।11।।
मनिमय किंकिनि-जाल छबि, कहौं जोइ सोइ थोर ।
मनौ रूप दीपावली, झलमलात चहुँ ओर ।।12।।
जेहरि सुमिलि अनूप बनी, नूपुर अनवट चारि ।
और छाँड़ि कै या छबिहि, हिय के नैंन निहारि ।।13।।
बिछुवनि की छबि कहा कहौं, उपजत रव रुचि-दैन ।
मनौ सावक कल हंस के, बोलत अति मृदु बैंन ।।14।।
नख-पल्लव सुठि सोहने, सोभा बढ़ी सुभाइ ।
मानौं छबि चंद्रावली, कंज-दलन लगी आइ ।।15।।
गौर वरन सांवल चरन, रचि मेंहदी के रंग ।
तिन तरुवनि तर लुठत रहैं, रति-जुत कोटि अनंग ।।16।।
अति सुकुमारी लाड़िली, पिय किसोर सुकुमार ।
इक छत प्रेम छके रहैं, अद्भुत प्रेम बिहार ।।17।।
अनुपम स्यामल-गौर छबि, सदा बसौ मम चित्त ।
जैसे घन अरु दामिनी, एक संग रहै नित्त ।।18।।
बरने दोहा अष्ट-दस, जुगल-ध्यान रसखान ।
जो चाहत विश्राम ‘ध्रुव’, यह छबि उर में आन ।।19।।
पलकनि के जैसे अधिक, पुतरिन सौं अति प्यार ।
ऐसैहि लाड़िली-लाल के, छिन छिन चरन सँभार ।।20।।
।।श्रीयुगलध्यान की जै जै श्रीहरिवंश।।

3.6 भक्त नामावली

श्री युगल ध्यान के बाद श्री भक्त नामावली का गायन करें। श्री हरि के नाम का उच्चारण एक लाख बार करने से जो लाभ मिलता है, वही लाभ किसी भक्त के नाम का एक बार उच्चारण करने से मिलता है। जो भक्तों की नामावली का प्रतिदिन गान करेगा, उसकी भक्ति निश्चित बढ़ती जाएगी और हरि निरंतर उसकी सहायता करेंगे।

हमसौं इन साधुन सौं पंगति ।
जिनको नाम लेत दुख छूटत, सुख लूटत तिन संगति ॥
मुख्य महन्त काम रति गणपति, अज महेस नारायण ।
सुर नर असुर मुनी पक्षी पशु, जे हरि भक्ति परायण ॥1॥
वाल्मीकि नारद अगस्त्य शुक, व्यास सूत कुल हीना ।
शबरी स्वपच वशिष्ठ विदुर, विदुरानी प्रेम प्रवीना ॥2॥
गोपी गोप द्रौपदी कुन्ती, आदि पाण्डवा ऊधौ ।
विष्णु स्वामि निम्बारक माधो, रामानुज मग सूधौ ॥3॥
लालाचारज धनुर्दास, कूरेश भाव रस भीजे ।
ज्ञानदेव गुरु शिष्य त्रिलोचन, पटतर को कहि दीजे ॥4॥
पद्मावती चरण कौ चारण, कवि जयदेव जसीलौ ।
चिन्तामणि चिद्रूप लखायो, विल्वमंगलहिं रसीलौ ॥5॥
केशवभट्ट श्रीभट्ट नारायण, भट्ट गदाधर भट्टा ।
विट्ठलनाथ वल्लभाचारज, व्रज के गूजर – जट्टा ॥6॥
नित्यानन्द अद्वैत महाप्रभु, शची सुवन चैतन्या ।
भट्ट गोपाल रघुनाथ जीव अरु, मधु गुसांईं धन्या ॥7॥
रूप सनातन भजि वृन्दावन, तजि दारा सुत सम्पति ।
व्यासदास हरिवंश गुसांई, दिन दुलराई दम्पति ॥8॥
श्रीस्वामी हरिदास हमारे, विपुल बिहारिनि दासी ।
नागरि नवल माधुरी बल्लभ, नित्य विहार उपासी ॥9॥
तानसेन अकबर करमैती, मीरा करमा बाई ।
रत्नावती मीर माधौ, रसखान रीति रस गाई ॥10॥
अग्रदास नाभादि सखी ये, सबै राम सीता की।
सूर मदनमोहन नरसी अलि, तस्कर नवनीता की ॥11॥
माधौदास गुसांईं तुलसी, कृष्णदास परमानन्द ।
विष्णुपुरी श्रीधर मधुसूदन, पीपा गुरु रामानन्द ॥12॥
अलि भगवान मुरारि रसिक, श्यामानन्द रंका वंका।
रामदास चीधर निष्किञ्चन, सम्हन भक्त निसंका ॥13॥
लाखा अंगद भक्त महाजन, गोविन्द नन्द प्रबोधा ।
दास मुरारि प्रेमनिधि विट्ठल, दास मथुरिया योधा ॥14॥
लालमती सीता प्रभुता, झाली गोपाली बाई ।
सुत विष दियौ पूजि सिलपिल्ले, भक्ति रसीली पाई ॥15॥
पृथ्वीराज खेमाल चतुर्भुज, राम रसिक रस रासा ।
आशकरण मधुकर जयमल नृप, हरिदास जन दासा ॥16॥
सेना धना कबीरा नामा, कूबा सदन कसाई ।
बारमुखी रैदास सभा में, सही न श्याम हँसाई ॥17॥
चित्रकेतु प्रह्लाद विभीषण, बलि गृह बाजै बावन ।
जामवन्त हनुमन्त गीध गुह, किये राम जे पावन ॥18॥
प्रीति प्रतीति प्रसाद साधु सौं, इन्हें इष्ट गुरु जानों ।
तजि ऐश्वर्य मरजाद वेद की, इनके हाथ बिकानों ॥19॥
भूत भविष्य लोक चौदह में, भये होयँ हरि प्यारे ।
तिन तिन सौं व्यवहार हमारौ, अभिमानिन ते न्यारे ॥20॥
‘भगवतरसिक’ रसिक परिकर करि, सादर भोजन पावै ।
ऊँचो कुल आचार अनादर, देखि ध्यान नहिं आवै ॥21॥

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